जल संरक्षण की दिशा में जनमैत्री की अनोखी पहल

लोगों द्वारा संरक्षित पानी
लोगों द्वारा संरक्षित पानी


कुदरत ने पृथ्वी को कई अनमोल नेमतों से नवाजा है। इसमें सबसे बड़ी नेमत पानी को ही माना जाता है। पानी के बिना आप कितने दिन खुद का वजूद बनाये रख सकते हैं? जरा कल्पना करके देखिये। कल्पना मात्र से ही गला सूखने लगता है। लेकिन जल्द ये डरावना ख्वाब हकीकत में बदलने वाला है। एक तिहाई पानी से ढकी इस धरती पर बहुत जल्द पीने के पानी की किल्लत शुरू होने वाली है। दक्षिण अफ्रीका में इसका असर नजर आने लगा है, जहाँ इस समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया था। भारत भी इससे अछूता नहीं है।

हाल ही में शिमला में भी पीने के पानी की किल्लत ने इस गम्भीर खतरे की ओर इशारा किया है। वैसे तो यह समस्या पूरे देश और दुनिया की है, जो वर्तमान में और भी गम्भीर और डरावनी होती जा रही है। हालांकि जल संरक्षण के लिये भारत समेत दुनिया भर में गम्भीरता से प्रयास किये जा रहे हैं। जिसे व्यापक स्तर पर विस्तार करने की आवश्यकता है।

पहाड़ों के प्रदेश उत्तराखण्ड में भी पानी की समस्या धीरे धीरे अपना असर दिखा रही है। हालांकि इस राज्य में कई बड़ी-छोटी नदियाँ निकलती हैं। जिन्हें कई सहायक नदियाँ और हजारों छोटी-छोटी धराएँ जीवन प्रदान करती हैं। लेकिन इसके बावजूद यहाँ जल-संकट अपनी चरम सीमा पर है। कुल 53,483 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस राज्य का 43,035 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर्वतीय क्षेत्र है। जो कुल क्षेत्रफल का लगभग 80 प्रतिशत है।

एक आँकड़े के आधार पर इस राज्य के लगभग 64 प्रतिशत भूभाग पर जंगल है, जिनका क्षेत्रफल लगभग 34,650 वर्ग किलोमीटर है। ऐसे में यहाँ पानी की समस्या पैदा होना चिन्ता का विषय है। पहाड़ी क्षेत्र में लोग स्वयं और अपने मवेशियों हेतु पेयजल प्राप्त करने के लिये नौले-धारे, गधेरों और छोटी नदियों पर निर्भर हैं। जिन्हें भूमिगत जल धाराओं से पानी मिलता है। लेकिन आज इन सभी का अस्तित्व खतरे में है। जिसके कारण पेयजल का गम्भीर संकट पैदा हो गया है।

इस समस्या को गहराई से समझने के लिए हमें कुछ वर्ष पूर्व के समय की स्थिति को समझना होगा। 09 नवम्बर, 2000 को उत्तरांचल नाम से गठित यह राज्य पूर्व में उत्तर प्रदेश का हिस्सा था। अधिकतर क्षेत्र में कृषि कार्य किया जाता था। पहाड़ी राज्य की अवधारणा से जन्में इस राज्य के गठन के बाद यहाँ तेजी से परिवर्तन आये। अनियंत्रित और अनियोजित विकास ने यहाँ के पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित किया।

यहाँ की नदियों को बाँधकर बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण करने के प्रयास तो 80 के दशक से ही प्रारम्भ हो गये थे। अलग राज्य बनने के बाद उनमें और तेजी आ गई। बेतहाशा सड़कों के निर्माण के दौरान गरजती भारी मशीनों और पहाड़ों को तोड़ने के लिये प्रयुक्त डायनामाइट के धमाकों ने भूमिगत जल धाराओं की दिशा और वेग को भारी नुकसान पहुँचाया।


पाटा में खुद से पानी का टैंक बनाते लोगपाटा में खुद से पानी का टैंक बनाते लोग पर्यावरणीय बदलाव के कारण वर्षा चक्र गड़बड़ा गया, जिसके कारण भूमिगत जलस्रोत रिचार्ज नहीं हो पा रहे हैं। आज हालात यह हैं कि ऐसी नदियाँ, गाड-गधेरे जिन्हें भूमिगत प्राकृतिक जल धाराओं से पानी मिलता था, सूखने की कगार पर हैं। इसका दूसरा प्रमुख कारण यहाँ के जलागम क्षेत्रों के आस-पास की कृषि भूमि का स्थानीय निवासियों द्वारा बिल्डरों को बेचना है। जहाँ पर उनके द्वारा बड़ी-बड़ी कंक्रीट की बिल्डिंग और कोठियाँ बनाई जा रही हैं। उनके द्वारा या तो स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों और जलस्रोतों में कब्जा कर लिया गया है या फिर उन्हें नुकसान पहुँचाया गया है। जिससे समस्या और भी गम्भीर हो गई है। आलम यह है की ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल के लिए बिछाई गई सरकारी पाइपलाइन या तो सूखी पड़ी है या उनमें हफ्तों या महीनों में कभी कभार पानी आता है।

नैनीताल जनपद के धारी विकास खण्ड मुख्यालय से महज 3 किलोमीटर दूरी पर रहने वाले युवा गणेश बिष्ट का कहना है, "मेरे घर के सामने ही कुछ दूरी पर कलसा नदी बहती है जिसमें आज से लगभग 10 वर्ष पूर्व तक पर्याप्त पानी रहता था। लेकिन कुछ समय से यह कम होता गया और आज स्थिति यह है कि आस-पास के सैकड़ों गाँव के लोगों की यह लाइफ लाइन सूखने के कगार पर है।" गणेश आगे कहते हैं कि “चाहे कोई कुछ भी माने, आज के युग में पानी सबसे बड़ी चिन्ता का विषय है।” वहीं अल्मोड़ा जनपद के लमगड़ा विकास खण्ड के देवली गाँव के निवासी हेमंत कार्की कहते हैं, "मैं व्यवसाय के चलते हल्द्वानी शहर में रहता हूँ, पिछले दिनों गाँव जाना हुआ तो पानी की हालत देखकर दंग रह गया। जंगल में चारों तरफ लगी हुई थी, गाँव के पानी के स्रोत सूखने की कगार पर हैं। इस गम्भीर समस्या का सबसे अधिक सामना गाँव की महिलाएँ कर रही हैं, जिन्हें पानी लाने के लिये पैदल दूर जाना पड़ रहा है।”

इसी समस्या को देखते हुए नैनीताल जनपद के रामगढ़ और धारी तहसील के कुछ युवाओं ने जल संरक्षण को लेकर एक अनोखी मुहिम छेड़ी है। जो ऐसे गम्भीर समय पर आशा की किरण के समान हैं। इन युवाओं ने जनमैत्री नाम का सामाजिक संगठन बनाकर जल संरक्षण की अलख जगाने का काम किया है, जिसमें सामुदायिक सहभागिता से रामगढ़ के गल्ला और पाटा गाँव में लोगों को जल संरक्षण के प्रति जागरूक किया गया है और इसका सकारात्मक परिणाम भी सामने आया है। इसके लिए जमीन में गड्ढे खोदकर, उनकी लिपाई के बाद पॉलीथिन की सहायता से वर्षाजल और उपलब्ध भूमिगत जल को संरक्षित करने का कार्य किया गया है। इन परिवारों ने लगभग 15,00,000 (पन्द्रह लाख लीटर) पानी को संरक्षित किया, जिसका उपयोग पशुओं के पेयजल, कृषि और बागवानी कार्य में किया जा रहा है। जिससे इन गाँवों में अन्य गाँवों की अपेक्षा जल संकट का प्रभाव कम हुआ है। साथ ही फसल के उत्पाद में 30 से 40 प्रतिशत की बढ़ोतरी भी हुई।


सूखा नालासूखा नाला संगठन के एक सदस्य बची सिंह बिष्ट कहते हैं, "इस उपलब्धि के बाद किसानों में गजब का उत्साह है। उनकी सफलता की गाथा अब दूर-दूर तक सुनाई देने लगी है। कुछ विदेशी अनुसन्धानकर्ता इसका अध्ययन भी करने आये हुए हैं। उन्होंने बताया की हम इस मुहिम को और विस्तार देने की योजना पर काम कर रहे हैं। हम चाहते हैं कि लोग पानी की हर बूँद को थामें और उसका उपयोग करें।" जनमैत्री संगठन से जुड़े प्रगतिशील पर्वतीय कृषक एवं बागवानी प्रशिक्षक महेश गलिया कहते हैं, "जल संरक्षण की मुहिम का परिणाम यह हुआ है कि, क्षेत्र के अन्य गाँवों की अपेक्षा जिन गाँवों में जल संरक्षण किया गया था वहाँ फलदार पौधों में फल भी अच्छी साइज और मात्रा में है। क्योंकि उस संरक्षित जल से किसानों ने अपने बगीचों में फल के पेड़ों के नीचे लगी मटर की फसल में सिंचाई की थी। जिसकी नमी का लाभ फलदार पेड़ो को भी मिला।" अब अगर संगठित होकर जल संरक्षण एक मुहिम बन उठे तो बात ही बन पड़ेगी। क्योंकि यह समस्या हम सभी की है और हम सब को मिलकर ही इसका निदान करने की आवश्यकता है।

सरकारी खजाने से प्रत्येक वर्ष विकास के नाम पर एक बड़ी धनराशि व्यय होती है। किन्तु बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि हमारे समाज की निष्क्रियता, आमजनों में जागरुकता का अभाव, जन प्रतिनिधियों की अनदेखी, और योग्य व्यक्तियों का मौन किसी भी क्षेत्र के विकास की परिकल्पना को धरातल पर मूर्त रूप देने से पहले ही समाप्त कर देता है। परिणामस्वरूप सरकार की योजनाओं का लाभ आम आदमी को नहीं मिल पाता है। यदि सरकार जल संरक्षण की दिशा में वास्तव में कुछ करना ही चाहती है, तो सबसे पहला कदम यह हो कि 'पहाड़ के पानी' को पहाड़ के लिये काम में लाया जाय। इसके लिये आस-पास के नदी-नालों में लघु बाँधों का निर्माण किया जाना चाहिए, जिससे स्थानीय किसानों को सिंचाई के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी उप्लब्ध हो सके।

पानी की इस गंभीर समस्या के प्रति यदि समुदाय और सरकारें समय पर नहीं जागी तो वह दिन दूर नहीं जब इंसान पानी के लिए एक दूसरे के खून का प्यासा हो जाएगा। इस बात को इस छोटे से पहाड़ी राज्य के लोगों ने तो बखूबी समझ लिया है। ज़रूरत है हम सब को भी ऐसे ही सकारात्मक पहल करने की, क्योंकि बूँद-बूँद से ही सागर बनता है।

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