भारतीय संस्कृति में परम्परा की पैरोकारी रामचन्द्र शुक्ल से लेकर वासुदेवशरण अग्रवाल तक तमाम साहित्य-संस्कृति मर्मज्ञों ने की है। समाज और परम्परा के साझे को समझे बिना भारतीय चित्त तथा मानस को समझना मुश्किल है। आज जब पानी की स्वच्छता के साथ उसके संरक्षण का सवाल इतना बड़ा हो गया है कि इसे अगले विश्वयुद्ध तक की वजह बताया जा रहा है, तो यह देखना काफी दिलचस्प है कि भारतीय परम्परा में इसके समाधान के कई तत्व हैं।
जल संरक्षण को लेकर छठ पर्व एक ऐसे ही सांस्कृतिक समाधान का नाम है। अच्छी बात है भारतीय डायस्पोरा के अखिल विस्तार के साथ यह पर्व देश-दुनिया के तमाम हिस्सों को भारतीय जल चिन्तन के सांस्कृतिक पक्ष से अवगत करा रहा है। करीब दो दशक पहले कई देशों के संस्कृति प्रेमी युवाओं ने बेस्ट फॉर नेक्स्ट नाम से अपने एक अभिनव सांस्कृतिक अभियान के तहत बिहार में गंगा, गंडक, कोसी और पुनपुन नदियों के घाटों पर मनने वाले छठ व्रत पर एक डाक्यूमेंट्री बनाई।
इन लोगों को यह देखकर खासी हैरत हुई कि घाट पर उमड़ी भीड़ कुछ भी ऐसा करने से परहेज कर रही थी, जिससे नदी का जल प्रदूषित हो। लोक विवेक की इससे बड़ी पहचान क्या होगी कि जिन नदियों के नाम तक को हमने इतिहास बना दिया है, उनके नाम आज भी छठ गीतों में सुरक्षित हैं।
कविताई के अन्दाज में कहें तो छठ पर्व आज परम्परा या सांस्कृतिक पर्व से ज्यादा सामयिक सरोकारों से जुड़े जरूरी सबक याद कराने का अवसर है। एक ऐसा अवसर जिसमें पानी के साथ मनमानी पर रोक, प्रकृति के साथ साहचर्य के साथ जीवन जीने का पथ और शपथ दोनों शामिल हैं।
प्रकृति के साथ छेड़छाड़ रोकने और जलवायु को प्रदूषणमुक्त रखने के लिये किसी भी पहल से पहले संयुक्त घोषणा पत्र की मुँहदेखी करने वाली सरकारें अगर अपने यहाँ परम्परा के गोद में खेलते लोकानुष्ठानों के सामर्थ्य को समझ लें तो मानव कल्याण के एक साथ कई अभिक्रम पूरे हो जाएँ। पर सबक की पुरानी लीक छोड़कर बार-बार गलती और फिर नए सिरे से सीखने की दबावी पहल ही आज हमारे शिक्षित और जागरूक होने की शर्त हो गई है।
एक ऐसा शर्तनामा जिसने मानवीय जीवन के हिस्से निखार कम बिगाड़ के रास्ते को ज्यादा चौड़ा किया है। बावजूद इसके गनीमत ही है कि लोक और माटी से जुड़े होने की ललक अब भी ढेर नहीं हुई है। बात करें छठ व्रत की तो दिल्ली, मुम्बई, पुणे, चण्डीगढ़, अहमदाबाद और सूरत के रेलवे स्टेशनों का नजारा वैसे तो दशहरे के साथ ही बदलने लगता है। पर दिवाली के आस-पास तो स्टेशनों पर तिल रखने तक की जगह नहीं होती है। इन दिनों पूरब की तरफ जाने वाली ट्रेनों के लिये उमड़ी भीड़ यह जतलाने के लिये काफी होती हैं कि इस देश में आज भी लोग अपने लोकोत्सवों से किस कदर भावनात्मक तौर पर जुड़े हैं।
छठ की बढ़ी लोकप्रियता ने इसे सियासी एजेंडे का भी हिस्सा बना दिया है। आलम यह है कि महाराष्ट्र जैसे सूबे में जहाँ पुरबियों की बोली और संस्कृति को लेकर दुराव और नफरत के आह्वान कुछ साल पहले तक सियासी मंचों से होते थे, वहाँ आज दही-हांडी और गणेशोत्सव की तरह छठ को भी एक बड़ी सांस्कृतिक स्वीकृति मिल रही है।
यह देश में सामाजिक-सांस्कृतिक साझेपन के एक ऐसे सिलसिले को आगे बढ़ाने वाली स्थिति है, जिसमें एक तरफ सिंदूरी परम्परा है तो वहीं दूसरी तरफ प्रकृति से जुड़ने का तार्किक तकाजा। वैसे भी जब सार्वजनिक जीवन में शुचिता और स्वच्छता जैसे मुद्दे राष्ट्रीय चेतना का हिस्सा बनें और यह ललक दिल्ली के लाल किले से पूरे देश में पहुँचे तो इससे वाकई एक बड़ी उम्मीद बँधती है।
इस उम्मीद की ही देन है कि आजादी के बाद यह देश पहली बार ऐसा अनुभव कर रहा है जब नदियों खासतौर पर गंगा की स्वच्छता और सफाई जैसे मुद्दे राष्ट्रीय एजेंडे का हिस्सा बने हैं और वह भी सरकारी समझ-बूझ के कारण। यहाँ यह समझना भी जरूरी है कि सेक्स, सक्सेस और सेंसेक्स के उफानी दौर में विकसित हठ और पारम्परिक छठ की आपसदारी अगर किसी स्तर पर एक साथ टिकी है तो यह किसी गनीमत से कम नहीं। यह ग्लोबल दौर में सब कुछ गोल हो जाने के खतरे से हमें उबारता भी है और अपने जुड़ाव की पुरानी जमीन के अब तक पुख्ता होने के सबूत भी देता है।
दिलचस्प है कि छठ के आगमन से पूर्व के छह दिनों में दीवाली, फिर गोवर्धन पूजा और उसके बाद भैया दूज जैसे तीन बड़े पर्व एक के बाद एक आते हैं। इस सिलसिले को अगर नवरात्रि या दशहरे से शुरू मानें तो कहा जा सकता है कि अक्टूबर और नवम्बर का महीना लोकानुष्ठानों के लिये लिहाज से खास है। एक तरफ साल भर के इन्तजार के बाद एक साथ पर्व मनाने के लिये घर-घर में जुटते कुटुम्ब और उधर मौसम की गरमाहट पर ठंड और कोहरे की चढ़ती हल्की चादर।
भारतीय साहित्य और संस्कृति के मर्मज्ञ वासुदेवशरण अग्रवाल ने इसी मेल को लोकरस और लोकानन्द कहा है। इस रस और आनन्द में डूबा मन आज भी न तो मॉल में मनने वाले फेस्ट से भरता है और न ही किसी बड़े ब्राण्ड या प्रोडक्ट के सेल ऑफर को लेकर किसी आन्तरिक हुल्लास से भरता है। पिछले करीब दो दशकों में एक छतरी के नीचे खड़े होने की होड़ के बीच इस लोकरिंग की एक वैश्विक छटा भी उभर रही है। हॉलैंड, सूरीनाम, मॉरिशस, त्रिनिदाद, नेपाल और दक्षिण अफ्रीका से आगे छठ के अर्घ्य के लिये हाथ अब अमेरिका, कनाडा और ब्रिटेन में भी उठने लगे हैं।
जिस पर्व को ब्रिटिश अधिसूचना पत्रों में पूर्वांचली या बिहारी पर्व कहा गया है, उसे आज बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, ओड़िशा, महाराष्ट्र, गुजरात, आन्ध्र प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और असम जैसे राज्यों में खासे धूमधाम के साथ मनाया जाता है। बिहार और उत्तर प्रदेश के कई जिलों में इस साल भी नदियों ने त्रासद लीला खेली है।
जानमाल को हुए नुकसान के साथ जलस्रोतों और प्रकृति के साथ मनुष्य के सम्बन्धों को लेकर नए सिरे से बहस पिछले कुछ सालों में और मुखर हुई है। कहना नहीं होगा कि लोक विवेक के बूते कल्याणकारी उद्देश्यों तक पहुँचना सबसे आसान है। छठ पूरी दुनिया में मनाया जाने वाला अकेला ऐसा पर्व है जिसमें उगते के साथ डूबते सूर्य की भी आराधना होती है।
चार दिन तक चलने वाले इस अनुष्ठान में न तो कोई पुरोहित कर्म होता है और न ही किसी तरह का पौराणिक कर्मकाण्ड। यही नहीं प्रसाद के लिये मशीन से प्रोसेस किसी भी खाद्य पदार्थ का इस्तेमाल निषिद्ध है। प्रसाद बनाने के लिये व्रती महिलाएँ कोयले या गैस के चूल्हे की बजाय आम की सूखी लकड़ियों को जलावन के रूप में इस्तेमाल करती हैं। कह सकते हैं कि आस्था के नाम पर पोंगापंथ और अन्धविश्वास के खिलाफ यह पर्व भारतीय समाज की तरफ से एक बड़ा हस्तक्षेप भी है, जिसका कारगर होना सबके हित में है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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