यों भारत में इतनी बारिश होती है कि अगर उसका कारगर ढंग से रखरखाव किया जाए तो पानी के लिए कहीं भटकना नहीं पड़ेगा। लेकिन कुप्रबंधन, उदासीन नौकरशाही और जनप्रतिनिधियों में इच्छाशक्ति की कमी ने पूरे देश में जल संकट पैदा कर दिया है। पेयजल का व्यवसायीकरण होने से भी स्थिति विषम बनी हुई है। पानी की कहानी बयान कर रहे हैं प्रसून लतांत।
पानी के लिए सामने खड़ी समस्याओं के लिए हम और हमारी सरकारें भी पूरी तरह जिम्मेवार हैं। हमने अपने पूर्वजों के अनुभव और उनके तौर-तरीकों को पिछड़ा बता कर बड़े-छोटे बांध और तटबंध बनाने के नाम पर नदियों के प्रवाह से खिलवाड़ किया और उसमें कारखाने का रासायनिक डाल कर उसे प्रदूषित किया। बाकि बचे झील-तालाबों और कुओं में मिट्टी डाल उस पर दुकानें बना लीं। इन सब कारणों से अब धरती के ऊपरी सतह पर उपलब्ध पानी के ज्यादातर स्रोत सूख रहे हैं। देश की ज्यादातर नदियां सूख रही हैं। इसके कारण खेतों की सिंचाई नहीं हो पा रही है। पीने के पानी की किल्लत देश के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार बढ़ रही है। पानी के बढ़ते संकट के कारण सभी के आंखों में पानी उतरने लगा है। पानी का सवाल अकेली दिल्ली या देश के किसी एक राज्य और उसकी राजधानी और उनके जिलों भर का मामला नहीं है, यह देश दुनिया में व्याप गया है। नमक से कहीं ज्यादा जरूरी इस प्राकृतिक साधन पर खतरे मंडरा रहे हैं। इस साधन को सहेजने, संवारने और बरतने वाले आम आदमी का हक इस पर से टूटता जा रहा है और इसे हड़पने वाली कंपनियां दिनोंदिन मालामाल होती जा रही हैं और ऐसे में केवल सरकार है, जिससे उम्मीद की जाती है तो वह भी इसका कारगर हल खोजने के बदले कहीं तमाशबीन तो कहीं शोषकों के खेल में भागीदार बन कर लोगों के संकट को बढ़ा रही है। इन सभी कारणों से आम आदमी का भरोसा टूटा है और उनके आंदोलन शुरू हो गए हैं। इसी के साथ पानी से जुड़े सभी पुराने सरोकार और इस पर आधारित संस्कृति का ताना-बाना भी छिन्न-भिन्न हो गया है, जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकेगी और कभी होगी तो उसमें काफी समय लग जाएगा। मौजूदा स्थिति का यूनेस्को के विश्व जल विकास रिपोर्ट के मुताबिक हिसाब-किताब करें तो अगले बीस सालों में हरेक व्यक्ति को उपलब्ध पानी की औसत मात्रा तीस फीसद कम हो जाएगी और सच्चाई यह भी है कि इस समय दुनिया में चालीस फीसद लोगों के पास न्यूनतम स्वच्छता के लिए पर्याप्त जल उपलब्ध नहीं है।
यह कहा जाना लगा है कि अगर वाकई में कोई विश्व युद्ध कभी हुआ तो बहुत मुमकिन है कि वह पानी को लेकर हो। हैरानी की बात है कि हम पानी को लेकर विश्व युद्घ होने का इंतजार कर रहे हैं लेकिन युद्ध की नौबत लाने के पहले ही इसके समाधान खोजने और उस पर अमल करने की तत्परता की बात क्यों नहीं करते हैं। पानी को लेकर लापरवाही हम बरत रहे हैं। लेकिन उनकी कठिनाइयों को नहीं जान पा रहे हैं जो जरूरत से भी कम पानी हासिल करने के लिए अपने गांव के पास से गुजरने वाले किसी रेल के आने का इंतजार करते हैं। भारत में कुल वर्षा का औसत 1170 मिलीमीटर है। अगर इनका उचित प्रबंधन किया जाए तो हमें हमारी जरूरत से ज्यादा पानी उपलब्ध हो जाएगा। लेकिन हम इसके भंडारण की योजना पर विचार करने के लिए गंभीर नहीं दिखते हैं, जबकि देश में पानी के भंडारण के लिए कई जगह सफल व्यवस्था की गई है, जिनमें हम सीख सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के रिपोर्ट (2006) में भी कहा गया है कि सभी के लिए पर्याप्त पानी है, लेकिन इसकी उपलब्धि कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार से प्रभावित है।
पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र का कहना है कि हमें उस तरफ ध्यान देना चाहिए जहां-जहां लोगों ने पारंपरिक तौर-तरीकों को अपनाकर स्थानीय स्तर पर न केवल पीने के पानी की समस्या का निराकरण किया, बल्कि वहां के वातावरण को हरा-भरा करने के साथ खेती, तालाब, झील और नदियों को सजल कर दिखाया है। उत्तराखंड के दूधातोली क्षेत्र को उदाहरण के रूप में पेश कर मिश्र बताते हैं कि वहां सच्चिदानंद भारती के नाम के एक लोकसेवक ने चाल बनाने का काम शुरू किया। भारती की ओर से चाल बनाने का सिलसिला ऐसा चला कि आज उस क्षेत्र में कोई 35 गांव में खाली पड़ी बंजर ज़मीन पर, पानी की कमी से उजड़ गए खेतों में और अच्छे घने वनों तक में कोई सात हजार चालें वर्ष भर चांदी की तरह चमकती हैं। उत्तराखंड में जब 1999 में सभी जगह पानी की बेहद कमी थी, अकाल पड़ रहा था, तब दूधातोली क्षेत्र में अप्रैल, मई और जून में भी चालों में लबालब पानी भरा था। चालों के चलन की दोबारा वापसी ने इस क्षेत्र में अनेक परिवर्तन किए हैं।
उजड़े खेतों में फिर से फसल लगाने की तैयारी हो रही है। बंजर वनभूमि में साल भर पानी रहने के कारण प्रकृति स्वयं अपने अनेक अदृश्य हाथों से उसमें घास और पौधे लगा रही है, तो ठीक पनप चुके वनों में और अधिक सघनता आ रही है। घास, चारा और पानी... इनके बिना पर्वतीय व्यवस्था चरमरा गई थी। आज वहां फिर से जीवन का मधुर संगीत वापस लौट रहा है। अनुपम मिश्र इसी तरह हमें राजस्थान के लापोड़िया इलाके में लोक सेवक लक्ष्मण के प्रयासों को बताते हैं, जिन्होंने अपने और ग्रामीणों के अभिक्रम से अपने इलाके को सजल बना दिया है। पिछले सालों में तमिलनाडु ने वर्षा जल का संरक्षण करके जो मिसाल कायम की है, उसे सारे देश में विकसित करने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि पानी की समस्या से हम निपट नहीं सकते। अगर सही तरीके से पानी का संरक्षण किया जाए और जितना हो सके पानी को बर्बाद होने से रोका जाए और वितरण की व्यवस्था ठीक की जाए तो इसका समाधान बेहद आसान हो जाएगा। लेकिन इसके लिए जागरूकता की जरूरत है, पर मौजूदा परिस्थिति को देखते हुए इस दिशा में काफी काम करने की जरूरत है।
पानी के लिए सामने खड़ी समस्याओं के लिए हम और हमारी सरकारें भी पूरी तरह जिम्मेवार हैं। हमने अपने पूर्वजों के अनुभव और उनके तौर-तरीकों को पिछड़ा बता कर बड़े-छोटे बांध और तटबंध बनाने के नाम पर नदियों के प्रवाह से खिलवाड़ किया और उसमें कारखाने का रासायनिक डाल कर उसे प्रदूषित किया। बाकि बचे झील-तालाबों और कुओं में मिट्टी डाल उस पर दुकानें बना लीं। इन सब कारणों से अब धरती के ऊपरी सतह पर उपलब्ध पानी के ज्यादातर स्रोत सूख रहे हैं। देश की ज्यादातर नदियां सूख रही हैं। इसके कारण खेतों की सिंचाई नहीं हो पा रही है। पीने के पानी की किल्लत देश के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार बढ़ रही है। सरकार की ओर से लोगों को पेयजल उपलब्ध कराने के नाम पर अरबों रुपए खर्च किए जा रहे हैं इसके बावजूद पेयजल का अभाव है और पानी के नाम पर आपसी झगड़े भी हो रहे हैं। कहीं-कहीं कानून-व्यवस्था पर भी संकट आ रहे हैं। जल के बिना हमारे जीवन का काम नहीं चल सकता है। इसे हासिल करने के लिए हम बहुत जद्दोजहद करते हैं पर वहीं यह भी सच्चाई है कि पानी का बड़ा हिस्सा हम दैनिक जीवन में उपयोग करते समय बर्बाद करते हैं।
आज भारत और विश्व के सामने पीने के पानी की समस्या उत्पन्न हो गई है। धरातल पर तीन-चौथाई पानी होने के बाद भी पीने योग्य पानी एक सीमित मात्रा में ही उपलब्ध है। पानी के लिए सरकारी योजनाओं का कोई सुखद परिणाम नहीं आया तो अब हम भूजल के दोहन में जुट गए हैं और इसके दोहन में सबसे ज्यादा कंपनियां जुट गई हैं। बोतलबंद पानी और अन्य पेय के लिए भूजल का बेहिसाब दोहन कर रही हैं। पहले के जमाने में व्यापारी-दुकानदार शहरों में प्याऊ लगवाते थे और प्यासे को पानी पिलाते थे, इसे नेक काम माना जाता था। अब कंपनियों ने उन्हें पानी बेचने वाला व्यापारी बना दिया है। आज बोतलबंद पानी का व्यापार हजारों करोड़ रुपए से ज्यादा का हो गया है और यह सालाना चालीस फीसद की दर से बढ़ भी रहा है। देश के विभिन्न हिस्सों में कंपनियों द्वारा भूजल दोहन के खिलाफ लोग खड़े हुए हैं और आंदोलन कर रहे हैं। हालांकि आम आदमी का जिस तेजी से पानी पर नियंत्रण कम होता जा रहा है, उस हिसाब से उनमें जैसी जागृति आनी चाहिए, नहीं आई है। पानी के नाम पर आंदोलन और सत्याग्रह स्थानीय स्तर पर कारगर साबित हुए हैं पर इसका स्वरूप राष्ट्रीय स्तर का नहीं हो पाया है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से विश्व जल दिवस जैसे आयोजन से पूरी दुनिया को जल संकट से सचेत करने और चुनौतियों का सामना करने के लिए उत्साहित किया जा रहा है, लेकिन मुनाफाखोर कंपनियों को इससे कोई लेना-देना नहीं है। वे सरकार को कम उपकर चुका कर उपलब्ध पानी पर कब्ज़ा करने में जुटे हुए हैं।
इन दिनों पानी को लेकर राष्ट्रव्यापी जल जन जोड़ो अभियान पर निकले राजेंद्र सिंह का कहना है कि समुदायों के जलाधिकार छिनते जाने के कारण और राजनेताओं के वोट के बदले पानी देने के कोरे आश्वासनों ने समाज को बेपानी बना दिया है। सिंह के मुताबिक उनका आंदोलन शुरू हो चुका है। इसके लिए समुद्र किनारे के कन्नूर से शुरू होकर अभी तक केरल, तमिलनाडु, पांडिचेरी, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, ओड़िशा, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान में इस अभियान को लेकर बैठकें हो चुकी हैं।
अब पानी की उपलब्धता के साथ-साथ उसकी गुणवत्ता को जरूरी माना जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के ताज़ा अभिक्रम में उसका फोकस विश्व में पानी की गुणवत्ता बढ़ाने की ओर है। सभी को पर्याप्त पानी मिलने के साथ उसकी गुणवत्ता पर ध्यान जरूरी माना गया है। इसके मद्देनज़र अपने देश में पानी का हाल यह है कि दस करोड़ लोग जल प्रदूषित जनित बीमारियों के शिकार हैं। भूजल रासायनिक तत्वों जैसे आर्सेनिक फ्लोराइड से प्रदूषित हैं। देश के 593 जिलों में 167 जिले के लोग इन रासायनिक तत्वों के कहर की चपेट में हैं। देश के पंद्रह राज्यों के कई इलाकों में भूजल स्तर चिंताजनक स्थिति में पहुंच गया है।
केंद्रीय भूजल बोर्ड की मानें तो राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की ज़मीन सूख चुकी है। समय रहते नहीं चेते तो गंभीर नतीजे भुगतने पड़ेंगे। दिल्ली के 93 फीसद इलाके का भूजल खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है। जलापूर्ति के मामले में कारगर सरकारी व्यवस्था नहीं होने की वजह से भूजल का दोहन ज्यादा हो रहे हैं। यह दोहन न केवल पीने और नहाने के लिए बल्कि सीमेंट के जंगलों के निर्माण के लिए भी अंधाधुंध तरीके से किया जा रहा है। पिछले पांच-छह दशकों में डीजल और बिजली के शक्तिशाली पंपों के सहारे खेती, उद्योग और शहरी ज़रूरतों के लिए इतना पानी निकाला जा रहा है कि भूजल के प्राकृतिक संचय और यांत्रिक दोहन के बीच का संतुलन बिगड़ गया और जल स्तर नीचे गिरने लगा है। दिल्ली सहित बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश में भूजल स्तर तेजी से नीचे गिरता जा रहा है। दुनिया में सबसे ज्यादा बरसात चेरापूंजी में होती है। अब वहां के लोग भी पानी का अभाव झेल रहे हैं। पहले चेरापूंजी का इलाक़ा वनाच्छादित था। वृक्षों की जड़े झाड़ियां पानी संचय करती थीं। तब वहां के झरनों से पर्याप्त और अविरल जल मिलता था। वनों की निर्मम कटाई से वहां के पहाड़ नंगे हो गए हैं, जिससे झरने सूख गए। बरसात का पानी अब ठहरता नहीं, बह कर दूर चला जाता है। पूर्वोत्तर के कई राज्य और देश के कई अन्य पर्वतीय इलाकों में भी वन विनाश के कारण लोग जल संकट झेल रहे हैं। राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों में पानी आदमी की जान से भी ज्यादा कीमती है। पीने का पानी इन इलाकों में बड़ी कठिनाई से मिलता है। कई-कई किलोमीटर चल कर इन इलाकों की महिलाएं पीने के पानी लाती हैं। इनकी जिंदगी का अहम समय पानी की जद्दोजहद में ही बीत जाता है।
दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में औसतन हर साल लगभग दस फुट पानी नीचे जा रहा है। इस समय यहां का भूजल स्तर 67 मीटर नीचे चला गया है। जल संसाधन मंत्रालय के मुताबिक दिल्ली के भूजल में फ्लोराइड की मात्रा अधिक है। नाइट्रेट की मात्रा भी 233 मिलीग्राम प्रति लीटर पाई गई है। इसी के साथ यहां के भूजल में शीशे, क्रोमियम और कैडिमियम भी है। यह केवल दिल्ली की बात नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट ने भारत जैसे विकासशील राष्ट्र की कलई खोल कर रख दी है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हरेक साल करीब सात लाख 83 हजार लोगों की मौत दूषित पानी और खराब साफ-सफाई की वजह से होती है। इसमें से लगभग साढ़े तीन लाख लोग हैजा, टाइफाइड और आंत्रशोथ जैसी बीमारियों के शिकार होकर मौत के मुंह में चले जाते हैं। दिल्ली की तरह वाराणसी के भूजल में अमोनिया है तो बिहार के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा ज्यादा है। ये दोनों रासायनिक तत्व सभी जीव जंतुओं के लिए नुक़सानदेह है। गुजरात के कच्छ इलाके के तटीय क्षेत्रों में खारापन ज्यादा है। लगभग पूरे देश में विभिन्न जल स्रोत नाइट्रेट और उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग के कारण प्रदूषित हो गए हैं।
पानी के लिए सामने खड़ी समस्याओं के लिए हम और हमारी सरकारें भी पूरी तरह जिम्मेवार हैं। हमने अपने पूर्वजों के अनुभव और उनके तौर-तरीकों को पिछड़ा बता कर बड़े-छोटे बांध और तटबंध बनाने के नाम पर नदियों के प्रवाह से खिलवाड़ किया और उसमें कारखाने का रासायनिक डाल कर उसे प्रदूषित किया। बाकि बचे झील-तालाबों और कुओं में मिट्टी डाल उस पर दुकानें बना लीं। इन सब कारणों से अब धरती के ऊपरी सतह पर उपलब्ध पानी के ज्यादातर स्रोत सूख रहे हैं। देश की ज्यादातर नदियां सूख रही हैं। इसके कारण खेतों की सिंचाई नहीं हो पा रही है। पीने के पानी की किल्लत देश के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार बढ़ रही है। पानी के बढ़ते संकट के कारण सभी के आंखों में पानी उतरने लगा है। पानी का सवाल अकेली दिल्ली या देश के किसी एक राज्य और उसकी राजधानी और उनके जिलों भर का मामला नहीं है, यह देश दुनिया में व्याप गया है। नमक से कहीं ज्यादा जरूरी इस प्राकृतिक साधन पर खतरे मंडरा रहे हैं। इस साधन को सहेजने, संवारने और बरतने वाले आम आदमी का हक इस पर से टूटता जा रहा है और इसे हड़पने वाली कंपनियां दिनोंदिन मालामाल होती जा रही हैं और ऐसे में केवल सरकार है, जिससे उम्मीद की जाती है तो वह भी इसका कारगर हल खोजने के बदले कहीं तमाशबीन तो कहीं शोषकों के खेल में भागीदार बन कर लोगों के संकट को बढ़ा रही है। इन सभी कारणों से आम आदमी का भरोसा टूटा है और उनके आंदोलन शुरू हो गए हैं। इसी के साथ पानी से जुड़े सभी पुराने सरोकार और इस पर आधारित संस्कृति का ताना-बाना भी छिन्न-भिन्न हो गया है, जिसकी भरपाई कभी नहीं हो सकेगी और कभी होगी तो उसमें काफी समय लग जाएगा। मौजूदा स्थिति का यूनेस्को के विश्व जल विकास रिपोर्ट के मुताबिक हिसाब-किताब करें तो अगले बीस सालों में हरेक व्यक्ति को उपलब्ध पानी की औसत मात्रा तीस फीसद कम हो जाएगी और सच्चाई यह भी है कि इस समय दुनिया में चालीस फीसद लोगों के पास न्यूनतम स्वच्छता के लिए पर्याप्त जल उपलब्ध नहीं है।
यह कहा जाना लगा है कि अगर वाकई में कोई विश्व युद्ध कभी हुआ तो बहुत मुमकिन है कि वह पानी को लेकर हो। हैरानी की बात है कि हम पानी को लेकर विश्व युद्घ होने का इंतजार कर रहे हैं लेकिन युद्ध की नौबत लाने के पहले ही इसके समाधान खोजने और उस पर अमल करने की तत्परता की बात क्यों नहीं करते हैं। पानी को लेकर लापरवाही हम बरत रहे हैं। लेकिन उनकी कठिनाइयों को नहीं जान पा रहे हैं जो जरूरत से भी कम पानी हासिल करने के लिए अपने गांव के पास से गुजरने वाले किसी रेल के आने का इंतजार करते हैं। भारत में कुल वर्षा का औसत 1170 मिलीमीटर है। अगर इनका उचित प्रबंधन किया जाए तो हमें हमारी जरूरत से ज्यादा पानी उपलब्ध हो जाएगा। लेकिन हम इसके भंडारण की योजना पर विचार करने के लिए गंभीर नहीं दिखते हैं, जबकि देश में पानी के भंडारण के लिए कई जगह सफल व्यवस्था की गई है, जिनमें हम सीख सकते हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ के रिपोर्ट (2006) में भी कहा गया है कि सभी के लिए पर्याप्त पानी है, लेकिन इसकी उपलब्धि कुप्रबंधन और भ्रष्टाचार से प्रभावित है।
पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र का कहना है कि हमें उस तरफ ध्यान देना चाहिए जहां-जहां लोगों ने पारंपरिक तौर-तरीकों को अपनाकर स्थानीय स्तर पर न केवल पीने के पानी की समस्या का निराकरण किया, बल्कि वहां के वातावरण को हरा-भरा करने के साथ खेती, तालाब, झील और नदियों को सजल कर दिखाया है। उत्तराखंड के दूधातोली क्षेत्र को उदाहरण के रूप में पेश कर मिश्र बताते हैं कि वहां सच्चिदानंद भारती के नाम के एक लोकसेवक ने चाल बनाने का काम शुरू किया। भारती की ओर से चाल बनाने का सिलसिला ऐसा चला कि आज उस क्षेत्र में कोई 35 गांव में खाली पड़ी बंजर ज़मीन पर, पानी की कमी से उजड़ गए खेतों में और अच्छे घने वनों तक में कोई सात हजार चालें वर्ष भर चांदी की तरह चमकती हैं। उत्तराखंड में जब 1999 में सभी जगह पानी की बेहद कमी थी, अकाल पड़ रहा था, तब दूधातोली क्षेत्र में अप्रैल, मई और जून में भी चालों में लबालब पानी भरा था। चालों के चलन की दोबारा वापसी ने इस क्षेत्र में अनेक परिवर्तन किए हैं।
उजड़े खेतों में फिर से फसल लगाने की तैयारी हो रही है। बंजर वनभूमि में साल भर पानी रहने के कारण प्रकृति स्वयं अपने अनेक अदृश्य हाथों से उसमें घास और पौधे लगा रही है, तो ठीक पनप चुके वनों में और अधिक सघनता आ रही है। घास, चारा और पानी... इनके बिना पर्वतीय व्यवस्था चरमरा गई थी। आज वहां फिर से जीवन का मधुर संगीत वापस लौट रहा है। अनुपम मिश्र इसी तरह हमें राजस्थान के लापोड़िया इलाके में लोक सेवक लक्ष्मण के प्रयासों को बताते हैं, जिन्होंने अपने और ग्रामीणों के अभिक्रम से अपने इलाके को सजल बना दिया है। पिछले सालों में तमिलनाडु ने वर्षा जल का संरक्षण करके जो मिसाल कायम की है, उसे सारे देश में विकसित करने की जरूरत है। ऐसा नहीं है कि पानी की समस्या से हम निपट नहीं सकते। अगर सही तरीके से पानी का संरक्षण किया जाए और जितना हो सके पानी को बर्बाद होने से रोका जाए और वितरण की व्यवस्था ठीक की जाए तो इसका समाधान बेहद आसान हो जाएगा। लेकिन इसके लिए जागरूकता की जरूरत है, पर मौजूदा परिस्थिति को देखते हुए इस दिशा में काफी काम करने की जरूरत है।
पानी के लिए सामने खड़ी समस्याओं के लिए हम और हमारी सरकारें भी पूरी तरह जिम्मेवार हैं। हमने अपने पूर्वजों के अनुभव और उनके तौर-तरीकों को पिछड़ा बता कर बड़े-छोटे बांध और तटबंध बनाने के नाम पर नदियों के प्रवाह से खिलवाड़ किया और उसमें कारखाने का रासायनिक डाल कर उसे प्रदूषित किया। बाकि बचे झील-तालाबों और कुओं में मिट्टी डाल उस पर दुकानें बना लीं। इन सब कारणों से अब धरती के ऊपरी सतह पर उपलब्ध पानी के ज्यादातर स्रोत सूख रहे हैं। देश की ज्यादातर नदियां सूख रही हैं। इसके कारण खेतों की सिंचाई नहीं हो पा रही है। पीने के पानी की किल्लत देश के शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में लगातार बढ़ रही है। सरकार की ओर से लोगों को पेयजल उपलब्ध कराने के नाम पर अरबों रुपए खर्च किए जा रहे हैं इसके बावजूद पेयजल का अभाव है और पानी के नाम पर आपसी झगड़े भी हो रहे हैं। कहीं-कहीं कानून-व्यवस्था पर भी संकट आ रहे हैं। जल के बिना हमारे जीवन का काम नहीं चल सकता है। इसे हासिल करने के लिए हम बहुत जद्दोजहद करते हैं पर वहीं यह भी सच्चाई है कि पानी का बड़ा हिस्सा हम दैनिक जीवन में उपयोग करते समय बर्बाद करते हैं।
आज भारत और विश्व के सामने पीने के पानी की समस्या उत्पन्न हो गई है। धरातल पर तीन-चौथाई पानी होने के बाद भी पीने योग्य पानी एक सीमित मात्रा में ही उपलब्ध है। पानी के लिए सरकारी योजनाओं का कोई सुखद परिणाम नहीं आया तो अब हम भूजल के दोहन में जुट गए हैं और इसके दोहन में सबसे ज्यादा कंपनियां जुट गई हैं। बोतलबंद पानी और अन्य पेय के लिए भूजल का बेहिसाब दोहन कर रही हैं। पहले के जमाने में व्यापारी-दुकानदार शहरों में प्याऊ लगवाते थे और प्यासे को पानी पिलाते थे, इसे नेक काम माना जाता था। अब कंपनियों ने उन्हें पानी बेचने वाला व्यापारी बना दिया है। आज बोतलबंद पानी का व्यापार हजारों करोड़ रुपए से ज्यादा का हो गया है और यह सालाना चालीस फीसद की दर से बढ़ भी रहा है। देश के विभिन्न हिस्सों में कंपनियों द्वारा भूजल दोहन के खिलाफ लोग खड़े हुए हैं और आंदोलन कर रहे हैं। हालांकि आम आदमी का जिस तेजी से पानी पर नियंत्रण कम होता जा रहा है, उस हिसाब से उनमें जैसी जागृति आनी चाहिए, नहीं आई है। पानी के नाम पर आंदोलन और सत्याग्रह स्थानीय स्तर पर कारगर साबित हुए हैं पर इसका स्वरूप राष्ट्रीय स्तर का नहीं हो पाया है। लेकिन संयुक्त राष्ट्र संघ की ओर से विश्व जल दिवस जैसे आयोजन से पूरी दुनिया को जल संकट से सचेत करने और चुनौतियों का सामना करने के लिए उत्साहित किया जा रहा है, लेकिन मुनाफाखोर कंपनियों को इससे कोई लेना-देना नहीं है। वे सरकार को कम उपकर चुका कर उपलब्ध पानी पर कब्ज़ा करने में जुटे हुए हैं।
इन दिनों पानी को लेकर राष्ट्रव्यापी जल जन जोड़ो अभियान पर निकले राजेंद्र सिंह का कहना है कि समुदायों के जलाधिकार छिनते जाने के कारण और राजनेताओं के वोट के बदले पानी देने के कोरे आश्वासनों ने समाज को बेपानी बना दिया है। सिंह के मुताबिक उनका आंदोलन शुरू हो चुका है। इसके लिए समुद्र किनारे के कन्नूर से शुरू होकर अभी तक केरल, तमिलनाडु, पांडिचेरी, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, ओड़िशा, झारखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और राजस्थान में इस अभियान को लेकर बैठकें हो चुकी हैं।
अब पानी की उपलब्धता के साथ-साथ उसकी गुणवत्ता को जरूरी माना जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र संघ के ताज़ा अभिक्रम में उसका फोकस विश्व में पानी की गुणवत्ता बढ़ाने की ओर है। सभी को पर्याप्त पानी मिलने के साथ उसकी गुणवत्ता पर ध्यान जरूरी माना गया है। इसके मद्देनज़र अपने देश में पानी का हाल यह है कि दस करोड़ लोग जल प्रदूषित जनित बीमारियों के शिकार हैं। भूजल रासायनिक तत्वों जैसे आर्सेनिक फ्लोराइड से प्रदूषित हैं। देश के 593 जिलों में 167 जिले के लोग इन रासायनिक तत्वों के कहर की चपेट में हैं। देश के पंद्रह राज्यों के कई इलाकों में भूजल स्तर चिंताजनक स्थिति में पहुंच गया है।
केंद्रीय भूजल बोर्ड की मानें तो राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की ज़मीन सूख चुकी है। समय रहते नहीं चेते तो गंभीर नतीजे भुगतने पड़ेंगे। दिल्ली के 93 फीसद इलाके का भूजल खतरनाक स्तर तक पहुंच चुका है। जलापूर्ति के मामले में कारगर सरकारी व्यवस्था नहीं होने की वजह से भूजल का दोहन ज्यादा हो रहे हैं। यह दोहन न केवल पीने और नहाने के लिए बल्कि सीमेंट के जंगलों के निर्माण के लिए भी अंधाधुंध तरीके से किया जा रहा है। पिछले पांच-छह दशकों में डीजल और बिजली के शक्तिशाली पंपों के सहारे खेती, उद्योग और शहरी ज़रूरतों के लिए इतना पानी निकाला जा रहा है कि भूजल के प्राकृतिक संचय और यांत्रिक दोहन के बीच का संतुलन बिगड़ गया और जल स्तर नीचे गिरने लगा है। दिल्ली सहित बिहार, गुजरात, महाराष्ट्र, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और मध्य प्रदेश में भूजल स्तर तेजी से नीचे गिरता जा रहा है। दुनिया में सबसे ज्यादा बरसात चेरापूंजी में होती है। अब वहां के लोग भी पानी का अभाव झेल रहे हैं। पहले चेरापूंजी का इलाक़ा वनाच्छादित था। वृक्षों की जड़े झाड़ियां पानी संचय करती थीं। तब वहां के झरनों से पर्याप्त और अविरल जल मिलता था। वनों की निर्मम कटाई से वहां के पहाड़ नंगे हो गए हैं, जिससे झरने सूख गए। बरसात का पानी अब ठहरता नहीं, बह कर दूर चला जाता है। पूर्वोत्तर के कई राज्य और देश के कई अन्य पर्वतीय इलाकों में भी वन विनाश के कारण लोग जल संकट झेल रहे हैं। राजस्थान के रेगिस्तानी इलाकों में पानी आदमी की जान से भी ज्यादा कीमती है। पीने का पानी इन इलाकों में बड़ी कठिनाई से मिलता है। कई-कई किलोमीटर चल कर इन इलाकों की महिलाएं पीने के पानी लाती हैं। इनकी जिंदगी का अहम समय पानी की जद्दोजहद में ही बीत जाता है।
दिल्ली के अलग-अलग इलाकों में औसतन हर साल लगभग दस फुट पानी नीचे जा रहा है। इस समय यहां का भूजल स्तर 67 मीटर नीचे चला गया है। जल संसाधन मंत्रालय के मुताबिक दिल्ली के भूजल में फ्लोराइड की मात्रा अधिक है। नाइट्रेट की मात्रा भी 233 मिलीग्राम प्रति लीटर पाई गई है। इसी के साथ यहां के भूजल में शीशे, क्रोमियम और कैडिमियम भी है। यह केवल दिल्ली की बात नहीं है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की ताजा रिपोर्ट ने भारत जैसे विकासशील राष्ट्र की कलई खोल कर रख दी है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में हरेक साल करीब सात लाख 83 हजार लोगों की मौत दूषित पानी और खराब साफ-सफाई की वजह से होती है। इसमें से लगभग साढ़े तीन लाख लोग हैजा, टाइफाइड और आंत्रशोथ जैसी बीमारियों के शिकार होकर मौत के मुंह में चले जाते हैं। दिल्ली की तरह वाराणसी के भूजल में अमोनिया है तो बिहार के भूजल में आर्सेनिक की मात्रा ज्यादा है। ये दोनों रासायनिक तत्व सभी जीव जंतुओं के लिए नुक़सानदेह है। गुजरात के कच्छ इलाके के तटीय क्षेत्रों में खारापन ज्यादा है। लगभग पूरे देश में विभिन्न जल स्रोत नाइट्रेट और उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग के कारण प्रदूषित हो गए हैं।
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