जल संकट लगातार गहराता जा रहा है। लेकिन इसका असली समाधान भी हमारी प्रकृति में ही छिपा है। प्रकृति ही जल संकट का स्थायी और सहज समाधान कर सकती है। प्रकृति ने हजारों सालों से पानी की सुगम उपलब्धता और पर्याप्तता बनाए रखी है। हमारा समाज सदियों से बुद्धिमत्ता और प्राकृतिक नीति-नियमों के अनुसार ही प्रकृति के संग्रहीत पानी में से न्यूनतम जरूरत के लिए पानी लेता रहा, उसे बढ़ाता रहा, बारिश के पानी को सहेजता रहा। हमारे पूर्वज हजारों सालों से इसका समझदारीपूर्वक उपयोग करते रहे, लेकिन पिछले पांच-छह दशकों में समाज ने पानी को अपने सीमित हितों के लिए अंधाधुंध खर्च कर पीढियों से चले आ रहे। समाज स्वीकृत प्राकृतिक नीति-नियमों की अनदेखी करनी शुरू की है, तभी से पानी की समस्या बढ़ती चली गई। हमने अब भी प्रकृति के आधार पर समाधान करने का प्रयास नहीं किया तो आने वाली पीढ़ियां कभी भी पानी से लबालब जलस्रोतों को देख भी नहीं सकेंगी।
पिछले कुछ सालों में हम पानी के मामले में सबसे ज्यादा घाटे में रहे हैं। कई जगहों पर लोग एक-एक बाल्टी पीनी के लिए मोहताज हैं, तो कहीं पानी की कमी से खेती तक नहीं हो पा रही है। भूजल भंडार तेजी से खत्म होता जा रहा है। कुछ फीट खोदने पर जहां पानी मिल जाया करता था, आज वहां आठ सौ से बारह सौ फीट तक खोदने पर भी धूल उड़ती नजर आती है। सदानीरा नदियां अब दिसंबर तक भी नहीं बहती हैं। ताल-तलैया सूखते जा रहे हैं। कुएं-कुंडियां अब बचे नहीं हैं। बारिश का पानी नदी-नालों में बह जाता है और हम जमीन में पानी ढूंढते रह जाते हैं। लोग पानी के लिए जान के दुश्मन हुए जा रहे हैं।
हमने अपने पारंपरिक व प्राकृतिक संसाधनों और पानी सहेजने की तकनीकों व तरीकों को भुला दिया है। स्थानीय रिवायतों को बिसरा दिया और लोगों के परंपरागत ज्ञान और समझ को हाशिये पर धकेल दिया। पढ़े-लिखे लोगों ने समझा कि उन्हें अनपढ़ों के अर्जित ज्ञान से कोई सरोकार नहीं और उनके किताबी ज्ञान की बराबरी वे कैसे कर सकते हैं। जबकि समाज का परंपरागत ज्ञान कई पीढ़ियों के अनुभव से छनता हुआ लोगों के पास तक पहुंचा था। समाज में पानी बचाने, सहेजने और उसकी समझ की कई ऐसी तकनीकें मौजूद रही हैं, जो अधुनातन तकनीकी ज्ञान के मुकाबले आज भी ज्यादा कारगर साबित हो सकती है।
जल ही जीवन का आधार है। जल के बिना जीवन की कल्पना बेईमानी है। पानी को किसी भी प्रयोगशाला में नहीं बनाया जा सकता। प्यास दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदी है और भारत के लिए तो और भी ज्यादा बड़ी। जिस देश में कभी ‘पग-पग नीर’ की उक्ति कही जाती रही हो, वहां अब पानी की यह कंगाली हमें बहुत शर्मिंदा करती है। कहा जाता है कि जल है तो कल है, पर अब इसे एक सवाल की तरह देखा जाना चाहिए कि जल ही नहीं होगा तो कल कैसा? पर्यावरण की समझ रखने वाले लोगों को यह सवाल बड़े स्तर चिंतित कर रहा है। इधर कुछ ही सालों में हमने पानी के अकूत भंडारों को गंवा दिया और अब प्यास भर पानी के लिए सरकारों के मोहताज होते जा रहे हैं। प्रकृति ने हमें पानी का अनमोल खजाना सौंपा था, लेकिन हम ही सदुपयोग नहीं कर पाए। हमने उत्पादन और मुनाफे की होड़ में धरती की छाती में गहरे से गहरे छेद कर हजारों सालों में संग्रहीत सारा पानी उलीच लिया।
नलों में पानी क्या आया, कुएं-कुंडियां पाट दीं। तालाबों की जमीन पर अतिक्रमण कर लिया। नदियों का मीठा पानी पाइप लाइनों से शहरों तक भेजा। अब हर साल सूखा और जल संकट हमारी नियति बन गए हैं। साल-दर-साल बारिश के आंकड़े कम से कमतर होते जा रहे हैं। इस साल भी लगातार पांचवे साल देश के कई हिस्सों में सूखा पड़ा है। देश के बीच करोड़ छोटे किसान खेती के लिए मानसून पर निर्भर होते हैं। साल-दर-साल भूजल स्तर तीन फीसद से ज्यादा की दर से घट रहा है। जंगल कम होते जा रहे हैं, जबकि नदियों तक पानी पहुंचाने में जंगलों का बड़ा योगदान होता है। इसका असर वन्यजीवों पर भी पड़ रहा है। गर्मी शुरू होती ही पानी के लिए वे गांवों और बस्तियों की तरफ आने लगते हैं। जंगलों के पोखर, नदी-नाले सूख जाने से उनके सामने पीने के पानी का संकट खड़ा हो जाता है।
वन्य प्राणियों की तादाद घटने के पीछे भी वन्य प्राणी विशेषज्ञ जल संकट को बड़ा कारण मानते हैं। इससे जैव विविधता के लिए भी बड़ा संकट खड़ा है। नर्मदा में कुछ साल पहले तक सत्तर से ज्यादा प्रजातियों की मछलियां हुआ करती थीं, लेकिन जगह-जगह बांध बन जाने से यह संख्या अब महज चालीस प्रजातियों तक सिमट गई हैं। जबकि प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की जगह उनका शोषण किया जाने लगता है तो फिर समाज को ऐसे ही संकटों का सामना करना पड़ता है। जल संकट इसका एक बड़ा रूप है। लेकिन इससे कई बातें जुड़ती हैं। ग्लोबल वाॅर्मिंग, जंगलों का घटना, जैव-विविधता और वन्य प्राणियों की तादाद में कमी, खेती के संकट और सेहत पर असर आदि कई रूपों में सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय संकटों का सामना करना पड़ रहा है।आने वाले कुछ सालों में ये खतरे हमारे सामने और बड़ी चुनौती के रूप में दिखने लगेंगे।
समाज और सरकारों ने व्यक्ति की बुनियादी जरूरत और जिंदगी के लिए सबसे अहम होने के बाद भी पानी को कभी अपनी प्राथमिकता सूची में सर्वोच्च स्थान नहीं दिया। हमेशा इसके लिए कामचलाउ तरीके ही अपनाए गए। इन पर कभी भी समग्र और दूरगामी परिणामों को सोचते हुए फैसले नहीं किए गए। प्राकृतिक संसाधनों के पर्यावरणीय हितों की लंबे समय तक लगातार अनदेखी की जाती रही। ग्लोबल वाॅर्मिंग से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं। ग्लेशियर पानी के पारंपरिक स्रोत रहे हैं और हिमालय से आनी वाली गंगा सहित अन्य नदियां इन पर निर्भर हैं। सिर्फ नदियां नहीं, इन पर आश्रित करीब चालीस करोड़ से ज्यादा लोगों पर भी इसका बुरा असर पड़ सकता है। ग्लोबल वाॅर्मिंग का सबसे बड़ा खतरा बारिश पर होगा। बारिश की अनिश्चितता ओर भी बढ़ सकती है, यह जुड़ी है सीधे तौर पर हमारी खेती से। इसलिए आने वाला वक्त किसान और किसानी दोनों के लिए ज्यादा चुनौती भरा होगा।
हमने अपने पारंपरिक व प्राकृतिक संसाधनों और पानी सहेजने की तकनीकों व तरीकों को भुला दिया है। स्थानीय रिवायतों को बिसरा दिया और लोगों के परंपरागत ज्ञान और समझ को हाशिये पर धकेल दिया। पढ़े-लिखे लोगों ने समझा कि उन्हें अनपढ़ों के अर्जित ज्ञान से कोई सरोकार नहीं और उनके किताबी ज्ञान की बराबरी वे कैसे कर सकते हैं। जबकि समाज का परंपरागत ज्ञान कई पीढ़ियों के अनुभव से छनता हुआ लोगों के पास तक पहुंचा था। समाज में पानी बचाने, सहेजने और उसकी समझ की कई ऐसी तकनीकें मौजूद रही हैं, जो अधुनातन तकनीकी ज्ञान के मुकाबले आज भी ज्यादा कारगर साबित हो सकती है।
पानी सहेजने के कुछ छोटे और खरे उपाय जैसे स्थानीय पारंपरकि जलस्रोतों को संरिक्षत करने, बरसाती पानी का ज्यादा से ज्यादा उपयोग करने, नदी-नालों के छोटे बांध और तालाब बनाने आदि में अब समाज और सरकार दोनों की दिलचस्पी खत्म हो गई है। जन कामों को अब अनावश्यक माना जाने लगा है। समाज को हमने कभी जल साक्षर नहीं बनाया। नई पीढ़ी के लोगों का पानी के मामले में ज्ञान बहुत थोड़ा और सतही है। उन्हें नए समय की तकनीकों और किताबी ज्ञान का बोध तो है, पर जीवन के लिए सबसे जरूरी पानी के इस्तेमाल और इस बारे में जरूरी जानकारी नहीं है। मसलन, पानी कहां जाता है, बरसाती पानी को कैसे सहेजा जा सकता है, नदियों और तालाबों के खत्म होते जाने के दुष्परिणाम क्या होंगे, इनके मनमाने दोहन का क्या असर पड़ेगा आदि। हमें इन मुद्दों पर समझ बढ़ानी होगी। जल-जंगल और जमीन के आपसी संबंधों को समझने की नए सिरे से कोशिश करनी होगी। अकेले बड़ी लागत की योजनाएं बना लेने या पानी के लिए हमेशा नदियों और जमीनी पानी पर निर्भर रहने भर से जल संकट का निदान संभव नहीं है।
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