पिछले कुछ सालों में जल संकट में, बढ़ता प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे जुड़ गए हैं। विभिन्न मंचों पर हो रही बहस में इन मुद्दों को अच्छा खासा महत्व भी मिलने लगा है। कुछ लोग सतही जल के प्रदूषण पर की जाने वाली बहस को और आगे ले जाते हैं और कहते हैं कि पानी, खासकर जमीन के नीचे के पानी में, प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। नए-नए इलाकों में उसका विस्तार हो रहा है और पानी की रासायनिक जांच से, उसमें नए-नए किस्म के रसायनों के मौजूद होने के प्रमाण सामने आ रहे हैं।
हम सब को आंकड़े और पानी से जुड़े विशेषज्ञ तथा अर्थशास्त्री बता रहे हैं कि जल संकट विश्वव्यापी है। अनुमान है कि पूरी दुनिया में लगभग 1.2 अरब लोगों को पीने के लिए शुद्ध पानी नहीं मिलता और लगभग 2.6 अरब लोग सेनिटेशन सुविधा से महरूम हैं। विकासशील देशों में लगभग 80 प्रतिशत लोगों की बीमारियों का सीधा संबंध अपर्याप्त साफ पानी और सेनिटेशन की कमी से जुड़ा है। इसके कारण हर साल लगभग 18 लाख बच्चों की अकाल मृत्यु हो जाती है। इस विश्वव्यापी जल संकट की तह में पानी के प्रबंध की खामियों सहित अनेक कारण हैं। ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की ‘वैश्विक भ्रष्टाचार रिपोर्ट 2008’ के अनुसार सारी दुनिया में पानी से जुड़ी सेवाओं में भ्रष्टाचार के कारण लगभग 10 से 30 प्रतिशत तक राशि की हेराफेरी होती है। इस गति से भ्रष्टाचार बढ़ने के कारण अगले 10 साल में पानी का कनेक्शन मिलने में लगभग 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी संभव है।औद्योगिक देशों में भवन निर्माण एवं नगरीय क्षेत्रों की जल अधोसंरचना में अधिक भ्रष्टाचार पाया जाता है। अकेले पश्चिम यूरोप, उत्तरी अमेरिका और जापान में इस सेक्टर का सालाना व्यापार लगभग 2100 अरब अमेरिकन डालर के आसपास है। जल संकट के सिक्के का दूसरा पक्ष प्रदूषण है। भारत के पड़ोसी देश चीन में 90 प्रतिशत एक्वीफर और नगरीय क्षेत्रों से बहने वाला 75 प्रतिशत सतही जल प्रदूषित हो चुका है। भारत भी इन संकटों से ग्रस्त है।
जल संकट पर आम आदमी की राय साफ तौर पर हां के ही आसपास है। उसकी राय आंकड़ों, वैज्ञानिक या इंजीनियरिंग तथ्यों की तराजू पर तुली राय नहीं है। उसकी राय का आधार, उसका भोगा यथार्थ, सुनी सुनाई कहानियां और आसपास का परिवेश ही है। कई बार अखबारों में छपी खबरों से अथवा इलेक्ट्राॅनिक मीडिया में दिखाई जाने वाली सनसनीखेज समाचार कथाओं के माध्यम से भी पानी की कमी का संदेश समाज तक जाता है।
इलेक्ट्राॅनिक मीडिया की इस तरह की रिपोर्टिंग और टिप्पणियां जनमत को यथाशक्ति प्रभावित करती हैं और आम आदमी को राय बनाने और अपने विचारों को व्यक्त करने की समझ प्रदान करती हैं। जल-विज्ञानी, जन प्रतिनिधि, पानी के प्रबंधक, पानी पर शोध करने और लिखने पढ़ने वाले लोग, स्वयंसेवी संगठन और पानी का व्यापार करने वाले व्यापारिक प्रतिष्ठान, निजी क्षेत्र, पानी के काम में आने वाले यंत्रों के निर्माता तथा विश्व बैंक जैसी अनेक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के प्रतिनिधि भी जल संकट के बारे में अपनी बात, अपने नजरिए, आंकड़ों और प्रजेंटेशन के माध्यम से कह रहे हैं। अधिकांश पढ़े लिखे लोग इस बात से सहमत प्रतीत होते हैं कि आने वाले सालों में जल संकट अत्यंत गंभीर हो जाएगा।
पिछले कुछ सालों में जल संकट में, बढ़ता प्रदूषण और ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे जुड़ गए हैं। विभिन्न मंचों पर हो रही बहस में इन मुद्दों को अच्छा खासा महत्व भी मिलने लगा है। कुछ लोग सतही जल के प्रदूषण पर की जाने वाली बहस को और आगे ले जाते हैं और कहते हैं कि पानी, खासकर जमीन के नीचे के पानी में, प्रदूषण तेजी से बढ़ रहा है। नए-नए इलाकों में उसका विस्तार हो रहा है और पानी की रासायनिक जांच से, उसमें नए-नए किस्म के रसायनों के मौजूद होने के प्रमाण सामने आ रहे हैं। रसायनों के बाद अब बायोलाॅजिकल प्रदूषकों की बात चलने लगी है।
इस बहस में फसलों पर छिड़के जाने वाले कीटनाशकों और फर्टीलाइजरों के रसायन भी धीरे-धीरे जुड़ रहे हैं तथा पानी और खाद्यान्नों में प्रदूषण से संबंधित प्रमाण तेजी से सामने लाए जा रहे हैं। रासायनिक प्रयोगशालाएं और प्रदूषण मंडल मिलकर या अलग-अलग, विभिन्न रिपोर्टों और शोध की मदद से औद्योगिक, आणविक और कंप्यूटर इंडस्ट्री के खतरनाक रासायनिक कचरों और उसके मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों की जानकारी उपलब्ध करा रहे हैं। इसके अलावा, आधुनिक जीवनशैली के कारण, नगरीय अपशिष्ट एवं सीवर के नदियों एवं भूमिगत जल में मिलने के कारण सतही एवं भूमिगत जल के प्रदूषित होने के खतरों के क्षेत्रों का लगातार विस्तार हो रहा हैं।
दिल्ली के पास यमुना में पानी तो है पर उसके पानी को उपयोग में नहीं लाया जा सकता। इस तरह के हालात कानपुर, वाराणसी और अनेक हजारों छोटे बड़े नगरों में मौजूद हैं। सब जानते हैं कि पानी में बढ़ता प्रदूषण राज्य या देश की सीमा में बंधकर रहने के कायदे कानून से मुक्त है। वह उचित परिस्थितियां मिलते ही पड़ोसी इलाके में पहुंचकर अपना प्रभाव डालता है। संक्षेप में, प्रदूषण के मुद्दे बहुआयामी हैं।
पानी के परिदृश्य पर ग्लोबल वार्मिंग के असर की चर्चा विभिन्न मंचों से सामने आ रही है। पर्यावरणविद, मौसम विज्ञानी एवं विभिन्न विधाओं के विद्वान जो भविष्यवाणियां कर रहे हैं, उनसे लगता है कि सबसे अधिक उथल-पुथल पानी की उपलब्धता, वर्षा के मिजाज, इकोसिस्टम, बाढ़ की तीव्रता, बाढ़ की निरंतरता तथा मानवीय स्वास्थ्य पर होगी।
इंटरगवर्नमेंटल पैनल आन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग के असर से आर्द्र जलवायु और ध्रुवीय प्रदेशों में पानी की उपलब्धता बढ़ेगी, 45 डिग्री अक्षांश के आसपास के इलाकों में पानी की उपलब्धता में कमी आएगी, कर्क और मकर रेखा के आसपास के अर्द्ध-शुष्क इलाकों में सूखे की तीव्रता और बढ़ेगी। इस बदलाव के कारण करोड़ों लोग जल संकट की मार झेलेंगे। बाढ़ और तूफानों के खतरे बढ़ेंगे जिसके कारण जन-धन की हानि का ग्राफ नया रिकार्ड बनाएगा। छोटी जोत वाले किसानों और भूमिहीनों की आजीविका की समस्या अत्यंत गंभीर होगी।
मछलियों तथा कर्क और मकर रेखा के आसपास के इलाकों की दलहनी फसलों के उत्पादन में कमी आएगी। इसके अतिरिक्त कुपोषण, पेचिश, हृदय रोग और छूत की बीमारियों का विस्तार होगा। लू, बाढ़ और सूखे के असर से मनुष्यों, जानवरों, जलचरों और पक्षियों की और अधिक असामयिक मौतें होंगी।
जल संकट के गंभीर होने की जब बात होती है तो लगता है कि लोग, जाने अनजाने में व्यवस्था के प्रयासों, प्रयासों की दिशा और दशा पर टिप्पणी कर रहे हैं। दूसरे, अब पानी को विश्व युद्ध से जोड़े जाने की बात के दिन लद गए हैं। लोग अब पानी के अर्थशास्त्र को पेट्रोल के अर्थशास्त्र से जोड़कर देखने लगे हैं क्योंकि भविष्य में स्वच्छ पानी की सप्लाई प्रकृति से ही नहीं वरन पानी साफ करने वाले कारखानों से होगी और साफ पानी की वैश्विक जरूरत को देखते हुए कहा जा सकता है कि भविष्य में पानी का व्यवसाय सोने का अंडा देने वाली मुर्गी के व्यवसाय जैसा लाभदायी होगा।
नेशनल वाटर पालिसी 2002 के अनुसार पानी की बढ़ती मांग के कारण पानी, जो अल्प मात्रा में उपलब्ध (सीमित) संसाधन है भविष्य में और अधिक सीमित हो जाएगा। नेशनल वाटर पालिसी में पानी के सीमित होने की बात तो कही गई है, पर भविष्य में जल संकट संभावित है इसका उल्लेख नहीं किया गया है। नेशनल वाटर पालिसी 2002 में कहा गया है कि भविष्य में पानी का और अधिक सीमित होना - पानी के उपयोग में अधिकतम दक्षता और उसके संरक्षण के लिए जन जागरण के महत्व को रेखांकित करता है।
नेशनल वाटर पालिसी 2002 में बताया गया है कि सतही और भूमिगत जल में बढ़ते प्रदूषण को समाप्त करने के लिए मौजूदा रणनीतियों में सुधार, तथा नवाचारी नई तकनीकों के लिए विज्ञान और टेक्नोलॉजी के आधार की आवश्यकता होगी। री-साइकिलिंग और पानी के दोबारा उपयोग को आगे बढ़ाना होगा।
बिना पानी के जल संकट दूर नहीं होगा इसलिए जल संकट के हल को उसकी उपलब्धता में खोजना चाहिए। हम पानी के मामले में दुनिया के सबसे अधिक समृद्ध देश हैं, इसलिए पानी की उपलब्धता की कमी मुद्दा नहीं हो सकता। परंतु नेशनल वाटर पालिसी के अलावा भी बहुत से लोग जाने अनजाने में इसे सीमित संसाधन मानते हैं। किसी भी संसाधन के सीमित होने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि वह हमारी आवश्यकता से कम है।
हम सबने देखा है कि दुनिया के सबसे अधिक धनवान देश का बहुत सारा पानी हर साल बरसात के मौसम में बहकर समुद्र में चला जाता है। आंकड़े बताते हैं कि भारत में जल संकट का सीधा कारण बरसात में पानी की बर्बादी और सूखे दिनों में पानी की कमी को दूर कर पाने की सही रणनीति और सही दिशाबोध का अभाव है। दूसरे शब्दों में यदि बरसात के दिनों में विकेन्द्रीकृत तरीके से हर ठिकाने पर आवश्यकतानुसार पानी संरक्षित कर लिया जाए तो पानी की कमी नहीं होगी और फिर पानी सीमित संसाधन नहीं रहेगा। अतः बर्बादी की अनदेखी कर पानी की कमी को बनाए रखना और फिर उसे सीमित कहना या सीमित होने का तमगा देना किसी भी दृष्टि से तर्कसंगत नहीं है।
वास्तव में भारत के अधिकांश इलाकों में पानी सीमित या कम नहीं है। वह अधिकांश स्थानों पर हमारी जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है। मौसम के अनुसार उसकी उपस्थिति का आभास (आज कम तो कल अधिक) होता रहता है। धरती पर या भारत की भूमि पर उसकी सकल उपलब्धता मात्रा में कमी या बढ़ोतरी का प्रश्न नहीं है, पर सही समय पर उसे नहीं सहेजना संभवतः हमारी सबसे गंभीर चूक है।
जल संकट की बात चल ही रही है तो संकट को सबसे पहले भुक्तभोगी के दृष्टिकोण से समझना चाहिए। पीने के पानी की कमी का संकट अगर समाज बताएगा तो सिंचाई में पानी की कमी की बात सबसे पहले सिर्फ किसान करेगा। इसी क्रम में उद्योग धंधे, पनबिजली, आमोद-प्रमोद जैसी अनेक गतिविधियों के हितग्राही अपनी बात सामने रख सकते हैं। दूसरे शब्दों में, जलसंकट को खत्म करने की वकालत करने वाले लोग मूल रूप से विभिन्न श्रेणियों के उपभोक्ता (हितग्राही) ही होना चाहिए।
उनका फीड-बैक ही जल संकट की गंभीरता को पूरी तरह परिभाषित कर सकता है। इसीलिए अपनी बात कहने और सरकार के सामने रखने के लिए सबसे पहले उन्हें मौका देना अधिक तर्कसंगत प्रतीत होता है। इस वक्तव्य के बावजूद, जल संकट के संदर्भ में बाकी लोगों का फीडबैक किसी भी रूप में कम महत्वपूर्ण नहीं है पर उनका स्थान वरीयता सूची में मूल हितग्राही के ऊपर नहीं होगा।
विभिन्न मंचों से अनेक विशेषज्ञों और अंतरराष्ट्रीय स्तर की वित्तीय संस्थाओं द्वारा जोर देकर कहा जा रहा है कि आने वाले दिनों में, विभिन्न कारणों से, पानी की मांग में बेतहाशा वृद्धि होगी। प्रदूषण बढ़ने के कारण, शुद्ध पानी मिलना और कठिन हो जाएगा। इस कष्ट से मुक्ति के लिए सन 2001 में भारत सरकार के जल संसाधन मंत्रालय ने सन 2025 तक 2000 अरब क्यूबिक मीटर पानी की अतिरिक्त क्षमता निर्मित करने तथा सन 2002 में नदी जोड़ योजना की मदद से पानी का संकट हल करने की योजना पर काम करने का निर्णय लिया है। कुछ लोगों को लग सकता है कि क्षमता निर्मित करना और उचित ठौर तक पानी उपलब्ध कराना दो अलग-अलग बातें हैं। इस बात को सबसे अधिक भुक्तभोगी ही समझता है।
पानी की कमी मुख्यतः खेती के लिए बरसात पर निर्भर इलाकों, गिरते भूजल स्तर के कारण नदी नालों, कुओं तथा नलकूपों के असमय सूखने, प्रदूषित होेते पानी और जीवनशैली में हो रहे बदलाव के कारण आपूर्ति के क्षेत्र में दिखाई दे रही है। गौरतलब है कि भारत के परिदृश्य पर मौजूद जल संकट को हल करने या समस्या का हल खोजने के लिए दो स्पष्ट विचारधाराएं अपने-अपने एजेंडे के साथ मौजूद दिखाई देने लगी हैं। पानी की कहानी के इस पड़ाव पर, इन दोनों विचारधाराओं के एजेंडे और उसके पीछे की संभावित कहानी से अवगत होना आवश्यक है।
पहली विचारधारा, मुख्यधारा में है। सरकार भी इस विचारधरा के साथ खड़ी दिखाई देती है। इस विचारधारा में विश्व बैंक, एशियन डेवलपमेंट बैंक, पानी के व्यापार से जुड़े बड़े लोग कारपोरेट हाउस और भारत की नीतियों पर असर डालने की ताकत रखने वाला तबका सम्मिलित है जो निजी क्षेत्र के सहयोग (निवेश) से पानी की परियोजनाओं को पूरा कराने (प्रकारांतर से व्यापार करने) का पक्षधर है। इस विचारधारा के पक्षधरों का तर्क है कि निजी क्षेत्र की भागीदारी के बाद परियोजनाओं के क्रियान्वयन के लिए आवश्यक निवेश (धन) आसानी से उपलब्ध होगा, लोगों को उचित (?) कीमत पर पानी से जुड़ी सभी सेवाएं मिलेंगी और निजी क्षेत्र के जुड़ने के कारण, बाजार की ताकतें विवादों का निपटारा बखूबी कर देंगी।
इस आवधारणा के अनुसार पानी एक बाजारू और बिकाऊ वस्तु है। उसे प्रोसेस कर उपलब्ध कराने की जिम्मेदारी, धन लगाने वाले निवेशक की है, कल्याणकारी राज्य की नहीं। इस अवधारणा के अंतर्गत मोल चुकाकर परिशोधित पानी खरीदा जा सकेगा अर्थात धनवान का परिशोधित पानी पर नियंत्रण होगा और वही उसका मनचाहा उपयोग कर सकेगा। पानी का यथोचित मोल चुकाने में असमर्थ समाज का पानी पर नियंत्रण, उसकी पानी पर पहुंच और मांग की पुरौती के बारे में संभावित व्यवस्थाओं में कैसे प्रावधान होंगे, लगता है, इसका वास्तविक उत्तर भविष्य में ही मिलेगा; पर जो बात आसानी से समझी जा सकती है वह है पानी की मदद से व्यापार करना और धन कमाना।
नेशनल वाटर पालिसी 2002 में निजी क्षेत्र की भागीदारी का प्रावधान है। इस प्रावधान का आशय है कि परियोजनाओं की आयोजना, विकास और प्रबंध में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा दिया जाएगा। इस भागीदारी से नवाचार, वित्तीय संसाधन, कारपोरेट सेक्टर जैसा प्रबंध, बेहतर सेवा और उपयोगकर्ताओं के प्रति जवाबदेही बनेगी। विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार (परियोजना) निर्माण, स्वामित्व, संचालन, लीज पर देने और हस्तांतरित करने में भागीदारी के विभिन्न विकल्पों पर विचार किया जाएगा। जलनीति में इस प्रावधान के नकारात्मक पहलुओं के समाधान का जिक्र नहीं है।
नेशनल वाटर पालिसी 2002 में निजी क्षेत्र की भागीदारी का प्रावधान है। इस प्रावधान का आशय है कि परियोजनाओं की आयोजना, विकास और प्रबंध में निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ावा दिया जाएगा। इस भागीदारी से नवाचार, वित्तीय संसाधन, कारपोरेट सेक्टर जैसा प्रबंध, बेहतर सेवा और उपयोगकर्ताओं के प्रति जवाबदेही बनेगी। विशिष्ट परिस्थितियों के अनुसार निर्माण, स्वामित्व, संचालन, लीज पर देने और हस्तांतरित करने में भागीदारी के विभिन्न विकल्पों पर विचार किया जाएगा।दूसरे पक्ष के लोग उपरोक्त विचारधारा से असहमत हैं। ऐसे लोगों की मान्यता है कि निजी क्षेत्र के हाथों में पानी की व्यवस्था सौंपने से भले ही सरकार को पानी की योजनाओं पर धन खर्च करने से थोड़ी देर के लिए राहत मिल जाए, पर निजी क्षेत्र से, कल्याणकारी राज्य की भूमिका निभाने की आशा करना पूरी तरह सही नहीं होगा। निजी क्षेत्र धन कमाने के लिए ही बाजार में उतरेगा, धन लगाएगा और धन कमाएगा। उदारीकरण के दौर में धीरे-धीरे यह स्पष्ट होते जा रहा है कि कीमतों पर, सरकार की अपेक्षा, बाजार अधिक प्रभावी ढंग से नियंत्रण रखता है। अनेक बार नियम कायदे रेगुलेटरी अथॉरिटी और सरकारी अपीलें भी मिलकर बाजार के गठजोड़ का पूरी तरह प्रतिकार नहीं कर पाते हैं।
उपर्युक्त दोनों अवधारणाओं के पक्षधर देश और विदेश में मौजूद हैं। पहला वर्ग साधन और सुविधा संपन्न है। उसके पास प्रभावित करने की क्षमता, नेटवर्क और विलक्षण कौशल है। दूसरे वर्ग के पास मानवीय चेहरा और बहुसंख्य समाज के हितों से जुड़ी चिंताएं हैं। यह वर्ग सामाजिक कार्यकर्ताओं, चंद स्वयं सेवी संगठनों और एक्टिविस्टों का असंगठित समूह है।
मौटे तौर पर ये समूह अपनी ताकत, समाज से प्राप्त करने और उनके बीच जाकर अपनी बात कहने में यकीन रखते हैं। वे अंतरराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और स्थानीय मंचों से अपना दृष्टिकोण रखने की जद्दोजहद में लगे रहते हैं। यह वर्ग, पानी को समाज की संपत्ति मानता है। परंपराओं में यकीन करता है। पानी पर समाज के अलावा अन्य किसी के अधिकार की बात उसे बुरी तरह आंदोलित करती है। कुछ लोगों को छोड़कर, इस वर्ग के अधिकांश लोगों के पास अपनी बात कहने के लिए सीमित नीतिगत, वैधानिक और कानूनी संबल होता है।
सामाजिक कार्यकर्ताओं के असंगठित समूह की नजर में पानी सभी जीव जंतुओं, पक्षियों, जलचरों और वनस्पतियों के जीवन की मूलभूत आवश्यकता और गरीबों की आजीविका का आधार है। उनकी राय में इस पानी का कोई मोल नहीं हो सकता। उनके अनुसार उसे बेचा नहीं जाना चाहिए। इस पानी को चाहने वाले जीव जंतुओं, पक्षियों, जलचरों और वनस्पतियों से इसकी कीमत की वसूली संभव भी नहीं है। इसलिए जब व्यवसाय के लिए पानी के दोहन की बात की जाती है तो विरोधाभासी दृष्टिकोण, जिसकी ऊपर चर्चा की गई है, सामने आता है।
यदि पहले दृष्टिकोण के अनुसार जल संकट हल किया जाता है तो गरीबों की मूलभूत आवश्यकताएं अधूरी रहेंगी, आजीविका के लिए जल का संकट बढ़ेगा और पानी की कीमत चुकाने वाले संपन्न लोग ही जल संकट से मुक्त रहेंगे। यदि कल्याणकारी राज्य व्यवस्था द्वारा मूलभूत आवश्यकता और गरीबों की आजीविका का संकट हल करने वाला दूसरा विकल्प चुना जाता है तो सोच, मान्यताएं, दिशाएं और कार्यक्रम बदलेंगे। तब मूलभूत मानवीय एवं पर्यावरणीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए अपेक्षित पानी की पूर्ति करनी होगी। समाज को अधिकार देने होंगे। ये काम जहां-जहां जीवन और बस्तियां हैं वहां-वहां करने होंगे, तब कहीं पानी के विकेन्द्रीकरण पर आधारित जनोन्मुखी मानवीय ढांचा विकसित होगा और समाज का सहभाग ही जल संकट को हल करेगा।
नेशनल वाटर पालिसी 2002 के प्रावधानों में मूलभूत मांग और आजीविका के लिए पानी की पूर्ति के प्रश्न पर आगे बात करेंगे। अभी, केवल आजादी के बाद के सालों में किए गए कामों के कारण, देश में मोटे तौर पर देखे और अनुभव किए जा रहे जल के परिदृश्य की बात की जाए।
यह सच है और इसके लिए देश के जल संसाधन विभागों की तारीफ करनी चाहिए कि उन्होंने लाखों हेक्टेयर खेतों को पानी उपलब्ध कराया है। इस वक्तव्य के साथ-साथ छोटी सिंचाई परियोजनाओं, कुओं तथा नलकूपों के काबिले तारीफ योगदान को भी सम्मानजनक संजीदगी से याद करना होगा। किसानों ने कुओं तथा नलकूपों के निर्माण में अपने गाढ़े पसीने की कमाई लगाई, पानी हासिल किया और देश को अन्न उत्पादन में काफी हद तक आत्मनिर्भर बनाया है। अन्न उत्पादन में मिट्टी, पानी, खाद, बीज, कीटनाशक, अनुसंधान, तकनीकों और मौसम के पृथक-पृथक योगदानों का वर्णन या बखान करना इस किताब की विषय वस्तु नहीं है। इसलिए, पाठक बंद मुट्ठी को लाख की समझें और आगे बढ़ें।
देश ने बांधों, कुओं और नलकूपों के निर्माण में अच्छी तरक्की की। इस किताब में बांधों के विस्थापितों, जमीन के खारे होने या दलदल में बदलने जैसी समस्याओं पर गंभीर चर्चा नहीं की जा रही है; लेकिन सब जानते हैं कि इन समस्याओं का बांधों के साथ चोली दामन का साथ है। इसलिए इस पड़ाव पर पानी के परिदृश्य पर उभरी अन्य प्रमुख समस्याओं पर बात कर लें जो कुओं, नलूकपों और सतही जल परियोजनाओं के निर्माण के प्रारंभिक दौर में या तो ठीक से नहीं समझी गईं थीं या जिनकी विभिन्न कारणों से अनदेखी हुई।
भूजल संकट के बारे में आगे चर्चा की गई है इसलिए यहां उसकी चर्चा का औचित्य नही हैः पर जल संकट की चर्चा में कई बार सतही जल और भूजल के संकट को अलग करना कठिन होता है। इस कारण इस अध्याय में कहीं-कहीं भूजल की चर्चा हुई है। इस अध्याय में मुख्य रूप से जल संकट की बात करनी है इसलिए समझ बढ़ाएं और समस्याओं को समझें। सबसे पहले सिंचाई सेक्टर की बात कर लें। सिंचाई सेक्टर की मुख्य समस्याएं निम्नानुसार हैं-
1. पिछले चालीस-पचास सालों में पेयजल और सिंचाई के लिए बड़ी संख्या में कुओं और नलकूपों का निर्माण किया गया है। इनके निर्माण के प्रारंभिक दौर में इनकी पानी देने की क्षमता और अन्य गुणों के कारण सरकार ने वरीयता दी और समाज ने उन्हें हाथों हाथ लिया। कुओं और नलकूपों ने भूजल दोहन की जैसे ही लक्ष्मण रेखा लांघी, क्षेत्रीय भूजल स्तर में गिरावट दर्ज होने लगी। अब आलम यह है कि भूजल दोहन साल दर साल बढ़ रहा है। देश में भूजल के अतिदोहित, क्रिटिकल और सेमी- क्रिटिकल विकास खण्डों की संख्या में हर साल इजाफा हो रहा है। यह पहली समस्या है।
2. दूसरी समस्या विकास के पश्चिमी मॉडल को अपनाने के कारण पैदा हो रही है। अनुसंधानों और पानी की जांच से जो नतीजे लगातार सामने आ रहा है। उनसे पता चल रहा है कि देश के विभिन्न इलाकों में पानी की गुणवत्ता खराब हो रही है। यह असर बस्तियों के पास के नदी नालों, जलाशयों तथा गहरे नलकूपों के पानी और खाद्य सामग्री में देखा जा रहा है।
3. भूजल के अधिकाधिक दोहन के कारण नदियों का सूखना या उनके पानी की मात्रा में कमी आ रही है। आंकड़े बता रहे हैं कि बारहमासी नदियों में, जिनमें हिमालयीन नदियां भी सम्मिलित हैं, बरसात के बाद का जल प्रवाह लगातार कम हो रहा है। कई छोटी और सहायक नदियां अब नाममात्र की नदियां रह गईं हैं। उनका पानी सूख चला है और अब उनमें पानी के दर्शन केवल बरसात में ही होते हैं। यह तीसरी समस्या है।
4. मिट्टी कटने और घने जंगलों के लगातार कम होने के कारण चौथी समस्या ने जन्म लिया है। इस समस्या के कारण हिमालय के कुछ भागों को छोड़कर देश के अधिकांश जंगलों में पानी की कमी, गंभीर होती जा रही है। बरसात के बाद, लगभग सभी श्रेणियों के जंगलों से प्रवाहित होने वाले छोटे-बड़े नालों, डोहों, झरनों और सोतों में पानी तेजी से खत्म हो रहा है। इस समस्या के कारण पानी के प्राकृतिक रीचार्ज एरिया धीरे-धीरे अप्रभावी हो रहे हैं।
5. सिंचाई के लिए पानी फैलाने वाली तकनीक को अपनाने के कारण आमतौर पर फसलों को जरूरत से ज्यादा पानी दिया जा रहा है। पानी का अपव्यय हो रहा है, उत्पादन प्रभावित हो रहा है और नहरों के अंतिम छोर पर पानी की उपलब्धता संदिग्ध बनती जा रही है। यह पांचवीं समस्या है।
6. सतही जल परियोजनाओं की छठवीं समस्या संभाव्य सिंचाई क्षमता और वास्तविक सिंचाई क्षमता के अंतर और उथली वाटर टेबिल वाले इलाकों में जमीन के खराब होने की है। यह समस्या सब जगह एक जैसी नहीं है।
7. सतही जल परियोजनाओं की सातवीं समस्या जलाशयों के पेंदे में गाद जमा होने और बांध के बूढ़े होने की है। अनेक जलाशयों में अनुमान से अधिक गाद जमा हो रही है। उथले होने के कारण बांधों में कम पानी जमा हो रहा है। उनकी बाढ़ रोधक क्षमता घट रही है, निचले इलाकों में बाढ़ का खतरा बढ़ रहा है और लगातार उथले होते बांधों की सिंचाई क्षमता घट रही है और वे धीरे-धीरे बूढ़े हो रहे हैं।
8. हिमालय से निकलने वाली नदियों की बाढ़ रोकने के लिए निर्मित तटबंधों और बांधों के औचित्य पर बहस शुरू हो गई है। बाढ़ से निबटने की ताकत घटने, बाढ़ क्षेत्र का विस्तार होने तथा नदी मार्ग में गाद और मलवा जमा होने के कारण प्रतिकूल होती परिस्थितियां आठवीं समस्या है।
9. सिंचाई के पानी के न्यायोचित बंटवारे और बिना भेदभाव के पानी पर सबकी पहुंच सुनिश्चित नहीं करना, नौवीं समस्या है।
10. बांध निर्माण और पर्यावरणीय मुद्दों के बीच समझ के पुल और उस समझ के आधार पर, पर्यावरण को बिना नुकसान पहुंचाए जल आपूर्ति का विकास नहीं करना दसवीं समस्या है। इस समस्या का हल ऐसे विकल्प में छुपा है जो पानी की सब जगह उपलब्धता सुनिश्चित करे और विस्थापन से अधिकतम मुक्ति दिलाए।
11. बांधों के कैचमेंट में भूमि उपयोग बदलने के कारण कैचमेंट का रन आफ बदल रहा है। इस बदलाव का कैचमेंट से आने वाले पानी की मात्रा पर पड़ रहा है। यह ग्यारहवीं समस्या है।
12. ग्रामीण इलाकों की खेती और पेयजल की पूर्ति की अनदेखी कर एवं बिना विकल्प तलाशे नगरों की पेयजल समस्या के निदान के लिए कुछ किलोमीटर दूर से बहने वाली नदी के पानी को शहर में लाना और नदी घाटी के निवासियों की तकलीफों में इजाफा करना बारहवीं समस्या है।
और भी समस्याएं हैं पर कहा जा सकता है कि आजादी के बाद बनी अधिकांश संरचनाएं, इस सेक्टर के योगदान के परिदृश्य पर आइसबर्ग की तरह हैं। इस आइसबर्ग के नीचे बहुत कुछ दबा है - समस्याओं पर अंतहीन चर्चा, सिंचाई के अनगिनत फायदे, सफलता, विफलता, विस्थापन, जमीन का खारापन, दलदलीकरण, पानी की गुणवत्ता, प्रदूषण का बढ़ता दायरा, राज्यों के बीच पानी का बंटवारा, गिरता भूजल स्तर आदि आदि।
आजादी के बाद बनी संरचनाओं ने देश को कैचमेंट, कमांड और वर्षा आश्रित इलाके में बांट दिया है। इन इलाकों में जल संकट की इबारत अलग-अलग है। हमारा मूल मुद्दा जल संकट के कारणों की बात करना है। इसलिए आगे बात केवल जल संकट की करनी होगी। इसकी जड़ में प्रथम द्रष्टया निम्नांकित मुख्य कारण समझ में आते हैं-
1. पानी के मामले में आत्मनिर्भरता प्राप्त करने के लिए पानी के विकेन्द्रीकृत माडल पर उतना काम नहीं हुआ जितना होना चाहिए था। खेद है कि विकेन्द्रीकृत माडल नोडल विभाग के एजेंडे पर नहीं है।
2. वर्षा आश्रित इलाकों में पेयजल, पानी से जुड़ी आजीविका और पर्यावरणीय प्रवाह की न्यूनतम मूलभूत जरूरत की पूर्ति के लिए अपनाई रणनीति अपेक्षित परिणाम देने में विफल रही तथा संचालित कार्यक्रम लगभग बौने सिद्ध हुए।
3. कैचमेंट क्षेत्रों में पानी की मूलभूत जरूरतों को पूरा किए बगैर, वहां के पानी को कमांड क्षेत्रों में देने की नीति ने कैचमेंट क्षेत्रों में जल संकट पैदा किया है वहीं कमांड क्षेत्र में पानी की अधिकता ने कहीं-कहीं समस्याएं पैदा की।
4. गिरते भूजल स्तर की अनदेखी हुई तथा उसे थामने के लिए परिणाम मूलक प्रयास नहीं किए गए हैं। इसके लिए राज्यों में सक्षम संगठन का अभाव है। इस अनदेखी के कारण कैचमेंट में जल संकट गहराया।
5.अतिदोहित, क्रिटिकल और सेमी-क्रिटिकल विकास खंडों में समस्या के अनुरूप कार्यक्रमों को नहीं लेने के कारण इन इलाकों में जल संकट गंभीर हुआ।
6. नदियों और जंगलों में पर्यावरण के नजरिए से न्यूनतम पानी सुनिश्चित करने का लक्ष्य हासिल करने में कैचमेंट ट्रीटमेंट प्रोग्राम बहुत से स्थानों पर बौने सिद्ध हुए, रोकथाम का प्रयास आधा अधूरा रहा और बढ़ते नुकसान की भरपाई नहीं हुई। इसके कारण वन क्षेत्रों में मानसून बाद जल संकट पनपा।
डेड स्टोरेज के पानी का उपयोग, गर्मी के मौसम में कैचमेंट इलाके के किसानों द्वारा सब्जी उगाने, नर्सरी बनाने या सूखते वृक्षों को बचाने में किया जा सकता है। इस पानी की मदद से जलाशय के निकट रहने वाले कसानों की कुछ जमीन की गर्मी के मौसम में सिंचाई संभव है। यह हो सकता है कि किसी साल में जलाशय में पानी कम बचे तो ऐसी हालत में पेयजल या सूखते वृक्षों को जीवन बचाने लायक पानी दिया जा सकता है। इस व्यवस्था के लिए सरकार के स्तर पर नियम भी बनाए जा सकते हैं।नेशनल वाटर पालिसी के अनुसार परियोजनाओं में जल प्रबंध सुधारना होगा। सोच में परिवर्तन लाना होगा। समस्या की जड़ में छिपे कारणों के मर्म पर लगातार चोट करनी होगी और अवधारणा का एकांगी नज़रिया बदलना होगा। इसके बाद भी अनेक इलाकों में जल संकट बढ़ रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि नेशनल वाटर पालिसी की उपर्युक्त सोच और तदनुरूप कार्यक्रमों की दिशा तथा प्राथमिकताओं में तालमेल नहीं है। उपर्युक्त कामों के लिए माकूल बजट नहीं है। एकांगी सोच हावी है। सारा ध्यान स्थानीय परिस्थितियों की अनदेखी करने वाले पश्चिम के माडल अर्थात बड़े बांध बनाने का नदी जोड़ योजना पर है। पानी को व्यापार की वस्तु मानने, विश्व बैंक और अन्य विदेशी वित्तीय संस्थाओं तथा कारपोरेट हाउसों को लाभ दिलाने और बहुसंख्य गरीब समाज की क्रयशक्ति की अनदेखी का है। कुछ लोगों का मानना है कि यही मूल समस्या है।
सिंचाई परियोजनाओं के कैचमेंट में सिंचाई की संभावना
सिंचाई जलाशयों के जलग्रहण क्षेत्र (कैचमेंट) वे इलाके हैं जिनमें बरसे पानी का अधिकांश भाग जलाशय में आता है। वे सामान्यतः कमांड क्षेत्र की विपरीत दिशा में ऊंचाई पर स्थित होते हैं। कैचमेंट में खेती की जमीन सहित अन्य किसी भी प्रकार की वर्षा आश्रित जमीन को सामान्यतः पानी नहीं मिलता। प्रोजेक्ट की प्लानिंग करते समय या बाद के कालखंड में भी इस इलाके की जमीन को जलाशय का पानी उपलब्ध कराने के बारे में सामान्यतः नहीं सोचा जाता। इस कारण जलाशय से लगी होने या मांग होने के बाद भी पानी उपलब्ध नहीं रहता है। गर्मी के दिनों में कैचमेंट में सामान्यतः मनुष्यों, पालतू जानवरों सहित जंगली जानवरों को पीने के पानी का संकट रहता है। इन इलाकों में पेयजल की आपूर्ति के लिए नलकूप खोदे जाते हैं और यदाकदा निजी और/या सार्वजनिक कुएं होते हैं। बरसात के बाद इन इलाकों में अमूमन जल संकट रहता है। कई स्थानों में झरने, कुएं औश्र नलकूप सूख जाते है और फिर पानी लाने के लिए कई किलोमीटर दूर से पानी का इंतजाम करना पड़ता है।
मुख्य फसल लेने के बाद, कई जलाशयों में पानी बचा रहता है। सामान्यतः यह पानी नहर तल के नीचे का पानी होता है। इस पानी को नहरों की मदद से खेतों तक नहीं पहुंचाया जा सकता। यह डेड स्टोरेज का पानी कहलाता है। गर्मियों में इस पानी का काफी बड़ा हिस्सा भाप बनकर उड़ जाता है। डेड स्टोरेज के पानी के सदुपयोग के बारे में सोच सीमित और एकांगी है।
डेड स्टोरेज के पानी का उपयोग, गर्मी के मौसम में कैचमेंट इलाके के किसानों द्वारा सब्जी उगाने, नर्सरी बनाने या सूखते वृक्षों को बचाने में किया जा सकता है। इस पानी की मदद से जलाशय के निकट रहने वाले कसानों की कुछ जमीन की गर्मी के मौसम में सिंचाई संभव है। यह हो सकता है कि किसी साल में जलाशय में पानी कम बचे तो ऐसी हालत में पेयजल या सूखते वृक्षों को जीवन बचाने लायक पानी दिया जा सकता है। इस व्यवस्था के लिए सरकार के स्तर पर नियम भी बनाए जा सकते हैं। इस पानी के प्रबंध के लिए पंचायत की समिति, वन क्षेत्रों में संयुक्त वन प्रबंध समिति या स्वतंत्र जल समिति को भी अधिकार दिए जा सकते है।
कैचमेंट में पानी पहुंचाने के लिए अनेक विकल्प मौजूद है। पहले विकल्प के अनुसार जलाशय की परिधि के थोड़े अंदर, प्लेटफार्म बनाकर अस्थायी पम्प स्थापित किए जाकर पानी को कैचमेंट के किसी ऊंचे स्थान पर पहुंचाकर पानी की आपूर्ति की जा सकती है। दूसरे विकल्प के अनुसार पम्प को जलाशय के बाहर स्थापित किया जा सकता है और नाली की सहायता से जलाशय के पानी को प्लेटफार्म तक और फिर लिफ्ट कर किसी ऊंचे स्थान पर पहुंचाकर पानी की आपूर्ति की जा सकती है।
नहरों के अंतिम छोर पर सिंचाई की समस्या और उसका निदान
सिंचाई परियोजनाओं के कमांड क्षेत्र में नहरों के अंतिम छोर पर स्थित खेतों तक पानी का नहीं पहुंचना पुरानी समस्या है जो सामान्यतः हर कमांड क्षेत्र में पाई जाती है। नहरों के शुरुआती हिस्से में स्थित कुछ खेतों के मालिक, अधिक पानी प्राप्त करने के लिए नहर काटकर अधिक पानी प्राप्त करने का प्रयास करते हैं जिसके कारण नहरों के अंतिम छोर पर स्थित खेतों तक पानी नहीं पहुंच पाता या बहुत कम मात्रा में पहुंचाता है। कई लोग सोचते हैं कि नहरों के अंतिम छोर तक पानी नहीं पहुंचने के पीछे किसानों द्वारा अधिक पानी लेने के रवैये के अलावा पानी की कमी, लालच और बदइंतजामी जैसे अनेक घटक है। इस समस्या से निबटने के लिए अनेक प्रयास किए गए हैं जिनमें नहरों को पक्का करना, बाराबंदी और किसानों को पानी के उपयोग के बारे में प्रशिक्षित करना सम्मिलित है।
पिछले कुछ सालों से सहभागी सिंचाई प्रबंध पद्धति अपनाई जा रही है। इस पद्धति के अंतर्गत बहुत सी जिम्मेदारियां किसानों को सौंपी गई है। इन सारे प्रयासों के बाद भी, समस्या का संतोषजनक हल सभी जगह प्राप्त नहीं हुआ है। कारण कुछ भी हों, पर नहरों के अंतिम छोर तक पानी नहीं पहुंचना अनसुलझी पुरानी समस्या है।
सिंचाई के सीजन में, रिसाव और खेतों से निकाला अतिरिक्त पानी कमांड क्षेत्र के नदी नालों में बहता है। नदी नालों में बहने वाले इस पानी का वर्तमान में कोई उपयोग नहीं है। लेखक का सुझाव है कि इस पानी को नदी नालों के ऊपरी हिस्से में जगह-जगह स्टाप डेम बनाकर रोका जाए। स्टाप डेमों में जमा पानी को नहरों पाइप लाइन की मदद से नहर के निचले हिस्से में स्थित उपयुक्त ऊंचाई वाले स्थान पर जोड़ दिया जाए तो नदी नालों के प्रवाह का सारा पानी, गुरुत्व बल की मदद से प्रवाहित होकर नहरों के अंतिम छोर पर प्राप्त हो जाएगा। इस पानी का नहरों के अंतिम छोर पर स्थित खेतों की सिंचाई के काम में लिया जा सकता है। गौरतलब है कि इस व्यवस्था को स्थापित करने पर एक ही बार व्यय करना पड़ेगा। गुरुत्व बल की मदद से पानी का परिवहन करने के कारण इस व्यवस्था का संचालन व्यय बहुत ही कम है।
सैद्धांतिक रूप से इस सुझाव पर असहमति की गुंजाइश बहुत कम है। यह सुझाव नहरों के अंतिम छोर पर पानी की मात्रा बढ़ाने की तजबीज का हिस्सा है। नहरों के अंतिम छोर पर स्थित खेतों के मालिकों के लिए यह सुझाव आशा की किरण है। वे इसे आसानी से स्वीकार कर लेंगे। इस कारण इस सुझाव पर सैद्धांतिक सहमति बनाने के बाद पूरी जिम्मेदारी कमांड क्षेत्र में काम कर रही सहभागी सिंचाई प्रबंध समितियां को साौंपना चाहिए। लेखक को लगता है, यहां प्रश्न व्यवस्था का नहीं है, क्योंकि व्यवस्था से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है नहरों के अंतिम छोर पर स्थित खेतों की सिंचाई और नदी नालों में बेकार बहते पानी के सदुपयोग का, क्योंकि सभी चाहते हैं कि पानी की हर बूंद का सदुपयोग हो।
संभवतः अब समय आ गया है जब पानी के प्रबंधकों, योजनाकारों, जल विज्ञानियों और हाशिए पर बैठे लोगों को समस्या की जड़ पर चोट करने की रणनीति अपनानी होगी। जल स्वराज या समाज के हर सदस्य के लिए पानी की आत्मनिर्भरता के लिए पानी के विकेन्द्रीकृत मॉडल पर काम करना होगा। संकट-जन्य हालात के सुधार के लिए अभी वक्त है। परंतु यदि अभी भी सचेत नहीं हुए और अधिक देर हो गई तो बहुत मुमकिन है कि आने वाली पीढ़ी, वित्तीय संस्थाओं, पानी के कारपोरेट हाउसों और पानी का मोल चुकाने वालों के हाथ से भी बाजी निकल जाएगी।
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