दूर संचार माध्यमों, प्रचार साधनों के माध्यम से जल-संकट की समस्या जन-जन तक पहुँचाकर जन-मानस को सचेत करने की भी आवश्यकता है। गंदे नालों में बहते मल-जल तथा उद्योगों द्वारा निष्कासित प्रदूषित जल के भी नियंत्रण की आवश्यकता है। वर्षा के जल को एकत्रित कर उसे उपयोग में लाना होगा ताकि उसका सदुपयोग हो सके। इस प्रकार जल संकट से मुक्ति मिल सकती है।
वस्तुतः जल भूमंडल में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्व है जो जलचर, थलचर एवं नभचर समस्त जीवधारियों के लिये उपयोगी है। जीवमंडल जिसमें पेड़-पौधे-वनस्पतियाँ आदि भी सम्मिलित हैं, जल पोषक तत्वों के संचरण, चक्रण एवं अस्तित्व प्रदत्त करने में भी सहायक सिद्ध है। जल से विद्युत उत्पादन, नौका संचालन, फसलों की सिंचाई, सीवेज की सफाई आदि भी सहज ही संभव हो जाती है। स्पष्ट है कि जलमंडल के संपूर्ण जलसंग्र का मात्र एक प्रतिशत ही जल विविध स्रोतों- जैसे भूमिगत जल, सरित जल, झील जल, मृदा स्थित जल, वायुमंडलीय जल आदि से मानव जल प्राप्त करता है। वास्तव में जल की भौतिक, रासायनिक एवं जैवीय प्रक्रियाओं पर विपरीत-हानिकारक प्रभाव डालने वाले कारण या परिवर्तन को जल-प्रदूषण कहा जाता है। जल जो किन्हीं कारणों से दूषित है, कलुषित है, पेय नहीं है, श्रेय नहीं है उसे प्रदूषित जल की संज्ञा से अभिहित किया जाता है। जल-प्रदूषण समस्त जीवधारियों के लिये हानिकारक है। यही कारण है कि संप्रति जल प्रदूषण एक पर्यावरणीय समस्या बना हुआ है। जिसके कारण और निवारण की यहाँ प्रस्तुति है।जल प्रदूषण को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने स्पष्ट शब्दों में परिभाषित करते हुए कहा है कि ‘प्राकृतिक या अन्य स्रोतों से उत्पन्न अवांछित बाहरी पदार्थों के कारण जल दूषित होता है तथा वह विषाक्तता एवं सामान्य स्तर से कम ऑक्सीजन के कारण जीवों के लिये हानिकारक हो जाता है तथा संक्रामक रोगों को फैलाने में सहायक होता है। इस प्रकार भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों की जल में परिवर्तनशीलता ही जल प्रदूषण का कारण बनती है। जल की निर्मिती हाइड्रोजन के दो अणुओं को ऑक्सीजन के एक अणु की समन्विति से सहज ही संभव हो जाती है। तपीय, ऊर्जा की उपस्थिति के कारण जल रंगहीन एवं पारदर्शी तत्व है परंतु जब यह दूषित हो जाता है, प्रदूषित हो जाता है तो इसका गुणधर्म परिवर्तित हो जाता है और यह उपयोगी, हानिकारक एवं अनुपयुक्त हो जाता है। यही कारण है कि समुद्री जल जो क्षारीय खारा जल है, विश्व के संपूर्ण जल का 97 प्रतिशत अंश होते हुए भी, पेय नहीं है, हानिकारक है, प्रदूषित है।
सृष्टि में वृष्टि का विशेष महत्त्व है। पानी ने विविध रूपों में परिवर्तित होकर मानव को प्राणवान बनाने में अपनी सार्थकता और उपादेयता प्रमाणित कर दी है। यही कारण है कि जल को जीवन की संज्ञा से अलंकृत एवं विभूषित किया गया है तथा उसका पर्याय सिद्ध किया गया है। वस्तुतः लोक में दो तिहाई भाग जल और एक तिहाई भाग स्थल है फिर भी संप्रति जलप्रदूषण मानव को आतंकित किए हुए है। जल सृष्टि का आधारभूत तत्व है, कारक है। जलाभाव में सृष्टि का रचनाचक्र स्थिर हो जाएगा, प्रगति चक्र रुक जाएगा, वनस्पतियाँ सूख जाएँगी और जलचर, थलचर एवं नभचर सभी काल के गाल में चले जाएँगे। इसलिये जल परम उपयोगी है, जीवनोपयोगी है और उसके अभाव में प्राणी-जीवधारी कोई भी जड़ चेतन जीवन-यापन नहीं कर सकता। जल के लिये पानी सामान्य अर्थ में प्रयुक्त होता है जब कि पर्याय रूप में,
वारि, नीर, अम्बु, वन, जीवन, तोय, सलिल, उदक।
गर करें सदुपयोग इस जल का, पशु पक्षी सभी-फुदक।।
पानी जो जीवन का पर्याय है, उसको प्रदूषित न होने देना हम सबका पुनीत कर्तव्य-कर्म एवं धर्म है। उपनिषद में कहा गया है जैसे पीएँगे पानी वैसी होगी वानी- अर्थात पानी, वाणी को परिमार्जित करता है, वाणी का संस्कार करता है। मानव जाति की आधी बीमारियाँ पानी के कारण ही हैं। पानी संप्रति प्रदूषित हो गया है। जलस्तर नीचे चला गया है। यही कारण है कि वृक्षारोपण अभियान सरकार द्वारा चलाया गया है ताकि आच्छादित प्रदेशों में वाष्पीकरण के द्वारा वर्षा भारी मात्रा में हो सके। वृक्षों की हरी-हरी पत्तियाँ जलकण वष्पन, वर्षा का कारण बनती हैं।
गंगा को प्रदूषित होने से बचाने के लिये सरकार ने स्वच्छ गंगा अभियान चलाया था लेकिन वह भी आंशिक सफल रहा। पर्यावरण संरक्षण हेतु पानी परमावश्यक है ताकि अधिकाधिक संख्या में वृक्षारोपण हो सके, वनस्पतियाँ वातावरण को प्रदूषण से बचा सकें तथा जीव जंतुओं का संरक्षण संभव हो सके। उपलब्ध जल में मृदुल जल का नितांत अभाव है। कठोर जल, खारा जल अधिकांश नगरों में प्रयोग हो रहा है जो पेय नहीं है। आगरा, मथुरा, हाथरस, दिल्ली, भरतपुर, जयपुर, बीकानेर आदि महानगरों में मृदुल जल का अभाव है। खारा जल जन-जीवन को बुरी तरह से प्रभावित करता है। अद्यतन परिवेश में हमें अपने मृदुल जल का स्रोत बढ़ाना है, वृक्षारोपण करना है ताकि वर्षा अधिक हो सके तथा नदियों का जलस्तर बढ़ सके और विद्युत आपूर्ति संभव हो सके क्योंकि औद्योगिक प्रगति विद्युत आपूर्ति पर ही अवलंबित है।
देश की 80 प्रतिशत आबादी कृषि पर निर्भर है जो वर्षा पर अवलंबित है तथा कृत्रिम जल संस्थानों पर। वैश्वीकरण की प्रक्रिया में भारत आधुनिकतम तकनीक अपना रहा है और अपने जलाशयों, नहरों, कुओं, नलकूपों आदि के माध्यम से कृषि की प्रगति कर रहा है। जनमानस को जलसंचय के लिये मानसिक रूप से तैयार करने की आवश्यकता है। परंपरागत जलस्रोतों को राष्ट्रीय स्तर पर पुनर्जीवित करना परमावश्यक है। जल संग्रहण की परियोजना दिल्ली आदि नगरों में शुरू की गई है। पानी के संकट से विश्व गुजर रहा है। इसलिये सभी की सम्मिलित जिम्मेदारी बनती है कि तालाब, नहर कुएँ, नलकूप आदि की संख्या में वृद्धि करें तथा अपेक्षित सहयोग प्रदान करें तथा फिजूल पानी के बहाव को रोका जाए।
हमारी धरती प्यासी है। पानी द्वारा ही इसकी तृप्ति हो सकती है। पानी ही मानस के जीवन में सुख, समृद्धि एवं शांति ला सकता है। यही कारण कि ऋषि मुनि पहाड़ों पर रहा करते थे जहाँ शुद्ध जल और प्रदूषण रहित वातावरण था। हरिद्वार, ऋषिकेश, देहरादून आदि स्थानों का जल मृदुल है, पेय है, स्वास्थ्यवर्धक तथा जीवनोपयोगी है। मैदानों में कुछेक स्थानों पर मृदुल जल है, शेष खारा जल है। रेगिस्तान, उड़ीसा आदि में खारा जल है। इसलिये जनजीवन पिछड़ा हुआ है और अन्य स्थानों से इसकी आपूर्ति की जाती है। आइए, हम सभी जल प्रदूषण रोधी अभियान को सफल बनाने में अपना सक्रिय योगदान करें तथा जल की फिजूलखर्ची सतत् अनुपयोगी बहाव की रोकथाम करें, वृक्षारोपण करें ताकि स्वस्थ हरित पर्यावरण बन सके, स्वच्छ एवं स्वास्थ्यवर्द्धक वातावरण का निर्माण संभव हो सके। यही राष्ट्रहित और राष्ट्रीय सेवा है, और यही विश्व कल्याण की कामना है। जल प्रदूषण के संबंध में पी-वीवर (1958) का कथन उल्लेखनीय है जिसमें कहा गया है कि ‘प्राकृतिक या मानव-जनित कारणों से जल की गुणवत्ता में ऐसे परिवर्तनों को प्रदूषण कहा जाता है जो आहार, मानव एवं जानवरों के स्वास्थ्य, कृषि मत्स्य, आमोद-प्रमोद के लिये अनुपयुक्त या खतरनाक होते हैं। जल प्रदूषण विश्व के लिये एक समस्या ही नहीं संकट बना हुआ है और भारत इस जल प्रदूषण की समस्या से जूझ रहा है। इसके लिये केंद्रीय सरकार युद्धस्तर पर योजनाएँ चला रही है फिर भी आंशिक सफलता मिली है।
जल संकट पर वर्ल्ड वाच इंस्टीट्यूट के निदेशक लेस्टर ब्राउन की टिप्पणी विचारणीय है। उन्हीं के शब्दों में “हम एक ऐसे विश्व में हैं, जिसमें जल गंभीर चुनौती बन रहा है। प्रतिवर्ष 8 करोड़ नए लोग विश्व के जल संसाधन पर हक जता रहे हैं। दुर्भाग्यवश, अगली अर्द्धशताब्दी में पैदा होने वाले 3 अरब लोग उन देशों में जन्म लेंगे जहाँ घोर जल संकट है। सन 2050 तक भारत में 52 करोड़, पाकिस्तान में 20 करोड़, चीन में 21 करोड़ लोग जन्म लेंगे। मिस्र, ईरान तथा मैक्सिको की जनसंख्या 50 प्रतिशत से अधिक बढ़ जाएगी। ये करोड़ों लोग जल निर्धनता से ग्रस्त होंगे। विश्व के भूमिगत जलागारों में प्रतिवर्ष 16 अरब घनमीटर का ह्रास हो रहा है। एक टन अनाज पैदा करने में लगभग एक हजार टन जल की आवश्यकता होती है। अतः उक्त जलस्तर ह्रास का अर्थ है- प्रतिवर्ष 16 करोड़ टन अनाज की क्षति।” अतएव जल संकट विश्व के लिये चिंता और चिंतन का विषय है जिस पर नियंत्रण करना परमावश्यक है।
वर्ल्ड रिसोर्सेज के अनुसार भी वैश्विक स्तर पर, वर्ष 1990-1995 के मध्य जल उपयोग में 6 गुनी वृद्धि हुई जो जनसंख्या वृद्धि दर से करीब दोगुनी थी। कृषि, औद्योगिक, घरेलू आदि क्षेत्रों में भी जल उपयोग में द्रुतगति से वृद्धि हो रही है, भविष्य में और अधिक वृद्धि होने की संभावना की जाती है। उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि सन 2025 तक विश्व की दो तिहाई जनसंख्या जलाभाव से ग्रस्त एवं त्रस्त हो जाएगी। जल की भौतिक, रासायनिक या जैविक विशेषताओं में परिवर्तनशीलता जो मानव या किसी भी प्राणी के जीवन-यापन के लिये हानिकारक है, अनपेक्षित है, अवांछित है, जल प्रदूषण कहा जा सकता है। मोबका के मतानुसार जल प्रदूषण का आशय है- मनुष्य द्वारा बहती नदी में ऊर्जा या ऐसे पदार्थ का निवेश जिससे जल के गुण में ह्रास हो जाए- दूसरे शब्दों में, जल में किसी कार्बनिक या अकार्बनिक पदार्थ का योग, जो जल के भौतिक, रासायनिक एवं जैविक गुणों में इतना परिवर्तन कर दे, जिससे वह मानव या किसी प्राणी के स्वास्थ्य के लिये हानिकारक हो जाय अथवा औद्योगिक या सिंचाई कार्यों के लिये उपयोगी न रह जाए, जल प्रदूषण है।
जल प्रदूषण एवं जल संकट पर संयुक्त राष्ट्र संघ की विश्वजल विकास रिपोर्ट में स्पष्ट उल्लेख है कि जल की दिनानुदिन कम होती आपूर्ति और इसकी गगनचुम्बी मांग के कारण आने वाले बीस वर्षों में लोगों को मिलने वाले पानी की मात्रा वर्तमान की अपेक्षा एक तिहाई हो जाएगी तथा इस सदी के मध्य तक करीब आठ देशों के निवासी जिनकी संख्या करीब सात अरब से भी अधिक है, जलसंकट के शिकार होंगे। भारत के टाटा ऊर्जा शोध संस्थान की रिपोर्ट के अनुसार जल की उपलब्धता सन 1947 में 6008 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति थी वह 1997 में मात्र 2266 क्यूबिक मीटर प्रतिव्यक्ति रह गई तथा आगामी पाँच दशकों में करीब 750 क्यूबिक मीटर प्रति व्यक्ति रह जाने की संभावना है। जलसंकट का दुष्परिणाम है कि भारत में 140975 बस्तियों में संप्रति जल का एक भी स्रोत नहीं है जिसमें 3.26 करोड़ जनता निवास करती है। अकेले उत्तर प्रदेश में 2350 बस्तियाँ हैं जहाँ के निवासियों को सुदूर अंचलों से जल की व्यवस्था करनी पड़ती है।
वायु, वायुमंडल और जलवायु में वीर कुमार अधीर ने उल्लेख किया है कि वायुमंडल की सबसे महत्त्वपूर्ण गैसों में से दो ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के यौगिक रूप में तो जल की महत्ता है, वायुमंडल में जलवाष्प स्वरूप भी जल की अपनी अहमियत होती है। अतएव वायुमंडल पर जल प्रदूषण के कुप्रभाव को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है। भारत की नदियों का 85 प्रतिशत जल प्रदूषित हो चला है। कहीं धोबीघाट है, कहीं कल-कारखाने से निकलता रसायनों का मलबा, कहीं शराब बनाने के संयंत्र, कहीं रबर और प्लास्टिक की फैक्ट्रियाँ और भी न जाने क्या-क्या, पानी को प्रदूषित करने का सामान है। यह स्थिति केवल भारत में ही नहीं, दुनिया के अन्य देशों में और भी बुरा हाल है। परिणाम स्वरूप समुद्री पानी भी अनेक स्थानों पर प्रदूषित हो चला है, जिसका घातक प्रभाव समुद्री जीवों को झेलना पड़ रहा है।
जल प्रदूषण की समस्या को मुख्य रूप से चार वर्गों में विभाजित कर सकते हैं- जिसमें स्वच्छ जल, सुरक्षित जल, संदूषित जल एवं प्रदूषित जल को लिया जा सकता है। निर्मल, शुद्ध तथा अन्य तत्वों से रहित जल को स्वच्छ जल कहा जाता है जिसमें हानिकारक तत्वों का समावेश नहीं होता। गंध रहित, पेय एवं पौष्टिक जल को सुरक्षित जल की श्रेणी में रखा जा सकता है, जिससे प्राणियों एवं जीवधारियों के स्वास्थ्य पर कुप्रभाव न पड़ सके। संदूषित जल से हमारा आशय उस जल से है जिसमें सूक्ष्म कीटाणुओं का समावेश पाया जाता है तथा जो विषाक्त रासायनिक पदार्थों के मिश्रण से युक्त हो।
पेय-जल संकट
21वीं सदी में प्रवेश करते ही विश्व के कई देशों को जल संकट का सामना करना पड़ रहा है। बहुत से शहर जो नदियों के किनारे बसे हैं, वे पानी के बँटवारे को लेकर झगड़ा खड़ा कर रहे हैं। यूरोप की सबसे बड़ी नदी डेन्यूब के पानी को लेकर मध्य यूरोपीय देशों में वाद-विवाद है। अमेरिका में भी ‘कोलोरोडो’ तथा अन्य नदियों का विवाद उभर कर आया। संयुक्त राष्ट्र के चीफ इंजीनियर ‘पियरे नजलिस’ के अनुसार पानी से संबंधित विवाद अब केवल राष्ट्रों के बीच ही नहीं, बल्कि एक ही देश के प्रांतों के बीच भी उभरने लगे हैं। अपने देश में कृष्णा, कावेरी और गंगा नदी के पानी के बँटवारे को लेकर तीन प्रमुख राज्यों में सदैव विवाद बना रहता है।
संयुक्त राष्ट्र की पिछली प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार विश्व की कुल जनसंख्या में से 20 प्रतिशत लोगों को सुरक्षित पेयजल उपलब्ध नहीं है और आज के समय में मानव, सतह पर मौजूद पानी का आधे-से-ज्यादा उपयोग कर रहा है, किंतु विश्व में करीब एक बिलियन से ज्यादा लोगों को स्वच्छ पानी, पीने को नहीं मिल रहा है। अनुमानतः आने वाले 30 वर्षों में संसार की जनसंख्या 70 प्रतिशत बढ़ जाएगी, उस समय 5.5 बिलियन लोग स्वच्छ पानी से वंचित रह जाएँगे। विश्व बैंक के अनुसार विश्व के सभी भागों में पानी का दबाव महसूस किया जा रहा है। पानी की कमी अधिकतर मानसून पर निर्भर है लेकिन बढ़ती जनसंख्या भी इसका कारक है। इस समय उपलब्ध पानी में से 97.5 प्रतिशत पानी खारा है, मात्र 2.5 प्रतिशत पानी उपयोग किया जाता है। कई क्षेत्रों में जहाँ अधिक वर्षा होती थी, वहाँ वर्षा में कमी आती जा रही है। चेरापूँजी इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है, जहाँ 11 मीटर प्रतिवर्ष वर्षा होती रही है, परंतु वृक्षों और वनों की अंधाधुंध कटाई के कारण इस क्षेत्र में वर्षा में गिरावट दर्ज की गई है। जिन 121 देशों में प्रतिव्यक्ति वार्षिक जल वर्ष 1991 में 1965 घन मीटर था, उनमें भारत का 108वां स्थान था। भारत और विदेशों में किए गए अध्ययन के अनुसार भारत में प्रतिव्यक्ति पानी की उपलब्धता 1990 की स्थिति से कम होते-होते सन 2025 में बिल्कुल बदतर हो जाएगी।
पानी बाहुल्य क्षेत्र के लोग उस समस्या को नहीं समझ सकते जिस जगह पानी अल्प मात्रा में है। विकासशील देशों में स्थिति दयनीय है। अब ग्रामीण इलाकों में बड़े उद्योग स्थापित हो जाने के कारण छोटे-मझले किसानों को कठिनाई का सामना कर पड़ रहा है। वहाँ पर पानी से उत्पन्न गंदगी एक गंभीर समस्या है।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार सभी देशों को अपने जल वितरण प्रणाली का आधुनिकीकरण करना आवश्यक है, जिससे पानी की बर्बादी और बढ़ते प्रदूषण को रोका जा सके। विश्वबैंक के अनुसार इस क्षेत्र में 600 करोड़ डॉलर का खर्चा आएगा। कई देशों में इस पर कार्य भी शुरू हो चुका है। हाईटेक प्रौद्योगिकी को भी इस क्षेत्र में लगा दिया गया है ताकि समय-समय पर मौसम की भविष्यवाणी हो सके। इस तकनीक से समुद्र के खारे पानी को पीने योग्य बनाया जाएगा, अशुद्ध जल का शुद्धीकरण भी किया जाएगा। बड़े-बड़े हिमखंडों को पानी के अभाव वाले क्षेत्रों में पहुँचाने की योजना बनाई गई है।
अमेरिकी नेशनल वेदर की करेंट रिपोर्ट के अनुसार नए संसाधन, जल की समस्या का दीर्घ हल नहीं है, क्योंकि इससे लोगों की आदतों में बदलाव नहीं आएगा। संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार पानी मुफ्त और अंतहीन प्राकृतिक संसाधन नहीं है लोगों को इसे तेल, वन, इस्पात और लौह अयस्क की तरह मानना चाहिए। “ग्लोबल वाटर पॉलिसी प्रोजेक्ट की सांद्रा के अनुसार जल को बेच सकने की क्षमता से जल की बर्बादी कम होगी और जीवों का भला होगा। अब समस्त देशों को पानी की समस्या पर तीव्र गति से कार्य प्रारंभ कर देना चाहिए। फ्रांस ने जल आपूर्ति का निजीकरण एक शताब्दी पहले ही कर दिया। इंग्लैंड में 1989 में दस क्षेत्रीय जल प्राधिकरणों का निजीकरण कर दिया गया। विकासशील देशों में भी इस दिशा में पहले से ज्यादा आवश्यकता है, कि वह योजना सही दिशा-निर्देश तथा तेजी से कार्य जारी रखते हुए एक निश्चित परिणाम तक पहुँच सके।”
भारत में जल-प्रदूषण के कारण
जल-प्रदूषण द्वारा न केवल नगरीय क्षेत्रों में वरन ग्रामीण अंचलों में भी विकट पर्यावरणीय समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं। दिल्ली (यमुना नदी), कानपुर (गंगा), जेतपुर (भदार नदी, गुजरात), पाटनचेरू (चेन्नावागू, पेड्डा वागू तथा नक्काबागू नदियां, मेडक जिला, आंध्र प्रदेश), धनबाद-हल्दिया (दामोदर, हुगली नदियां), लखनऊ (गोमती नदी) आदि स्थानों पर नदियों का अत्यधिक प्रदूषित जल, औद्योगिक अपशिष्ट जल के नाले तथा विषाक्त जल मिश्रित रसायनों द्वारा दूषित जल, भारत के जलीय प्रदूषण के उदाहरण हैं।
देश में रसायन, बिजली, खनन, अत्यधिक खनिज, परिवहन उपकरण आदि से संबंधित उद्योगों में वर्ष 1984-85 से 1993-94 तक भारी वृद्धि हुई है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने सर्वाधिक प्रदूषण करने वाले 17 प्रकार के उद्योगों का निर्धारण किया है, जिनसे उत्सर्जित गैसों एवं ठोस कणिकीय पदार्थों तथा अपशिष्ट मल जल वाहिनी नालियों से वायु एवं जल का बड़े पैमाने पर प्रदूषण होता है। इनमें से 77 प्रतिशत उद्योग जल का, 8 प्रतिशत जल तथा वायु दोनों का प्रदूषण करते हैं। सर्वाधिक प्रदूषक चीनी उद्योग एवं दवा संबंधी कारखानों से निकलते हैं। इसके अलावा वस्त्रों की रंगाई व छपाई द्वारा भूमिगत जल का प्रदूषण अधिक होता है।
भारत में औद्योगिक वृद्धि के कारण भूमिगत जल, सरिता जल तथा जलाशयों के जल के प्रदूषण आदि में भारी वृद्धि होने से अनेक नगर एवं कस्बे स्वास्थ्य की दृष्टि से नरक बन गए हैं। लुधियाना (पंजाब), तेजपुर (गुजरात), त्रिपुरा (तमिलनाडु) आदि औद्योगिक नगरों के ऐसे उदाहरण हैं जो औद्योगीकरण एवं उससे जनित नगरीय वृद्धि के कारण उत्पन्न अत्यधिक प्रदूषण की भयावह दशा का बयान करते हैं। लुधियाना नगर सतलज नदी के सकल प्रदूषक भार का 50 प्रतिशत जिम्मेदार है। लुधियाना की नगरीय जनसंख्या सन 1991 में 44 हजार से बढ़कर सन 1996 में 1.6 मिलियन हो गई।
जल संकट के प्रति सार्वजनिक चेतना जाग्रित करना तथा जन-जागरण परमावश्यक है ताकि जन-जन को जल सहज सुलभ हो सके।
जल मानव जीवन में ही नहीं अपितु समस्त जीवधारियों- नभचर, जलचर, थलचर आदि के लिये परमावश्यक तत्व है। प्रदूषित जल संप्रति अनेक बीमारियों का जनक है तथा विश्व में करीब चालीस प्रतिशत व्यक्ति जल-प्रदूषण के कारण किसी-न-किसी बीमारी के शिकार हैं। जीवन स्तर की बढ़ोत्तरी में जल का विशेष योगदान है। औद्योगीकरण के कारण अधिकांशतः नदियां, तालाब एवं अन्य जलाशय प्रदूषित हो चुके हैं जिनका कचरा, रासायनिक घोल आदि जल-प्रदूषित करने में सहायक सिद्ध हुए हैं।
जल-प्रदूषण के अंतर्गत ही जल-प्रदूषण नियंत्रण, वैश्विक जल संकट, भारत में जल संकट आदि तथ्यों, कथ्यों एवं सत्यों का रहस्योद्घाटन सहज-सरल रूप में आत्माभिव्यंजन शैली में किया गया है। जल-संकट से मुक्ति पाने के लिये प्रत्येक नागरिक की यह सम्मिलित जिम्मेदारी बनती है कि जलाशयों, नदियों, झीलों, कुओं, नहरों, सागरों आदि के जल को प्रदूषित होने से बचावें। कूड़ा-करकट, कचरा आदि को किसी भी दशा में जल में न फेंकें। नदियों के जल में फल, फूल, दूध, नारियल, मिष्ठान, धूप-दीप आदि पूजा अर्चना के समय कदापि न फेंकें। श्मशान घाटों पर शवों के जलाने के उपरांत अस्थि-कलश विसर्जन नदी के जल में न करें ताकि प्रदूषण से बचाव हो सके। शवों को गंगा नदी में मोक्ष प्राप्ति की भावना से कदापि न प्रवाहित करें। औद्योगिक संस्थानों के अम्लीय, क्षारीय जल, रंगाई-छपाई से निर्गत रंगीन गंदले जल को नदियों, झीलों तथा तालाबों में प्रवाहित न होने दें, उसका मार्ग अंतरीकरण करके अन्यत्र उपयोग करें ताकि जलीय जीव-जंतु, मछलियों आदि को हानि न हो सके और अनेक बीमारियों से मुक्ति मिल सके। जलीय जीव-जंतु भी मानव के लिये उपयोगी एवं हितकारी हैं तथा उनकी रक्षा करना मानव का परम कर्तव्य है।
नागरिक दायित्व
शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में मल-त्याग हेतु नाले-नालियों पर लोगों को नहीं बैठना चाहिए। खुले शौचालयों का मल जलाशयों में कदापि न बहाया जाय। जानवरों को नदियों, तालाबों में स्नान न कराया जाय। जल संसाधनों का उपयोग नहाने, कपड़े धोने, मवेशियों को नहलाने-धुलाने के लिये कतई न करें। कुओं में लाल दवा-पोटाश-फिटकरी आदि डालकर जल को शुद्ध पेय बनाया जाय। घरों में शौचालय बनाकर मल का प्रयोग कृषि हेतु खाद के रूप में किया जाए। जन-जागरण अभियान चलाकर जनमानस को जाग्रत किया जाए ताकि जल-प्रदूषण से मानव जीवन की रक्षा हो सके। जल-प्रदूषण समितियाँ, जल-प्रदूषण नियंत्रण संस्थाएं प्रत्येक गाँव, शहर-नगर में स्थापित की जाएँ तथा जल-प्रदूषण की हानियों से आम जनता को सचेत किया जाए। शहर के भीतर के तालाबों-पोखरों पर कपड़े धोने, नहाने अथवा जानवरों को नहलाने-धुलाने से रोका जाय। नगर पालिका द्वारा प्रदत्त जल के निगर्मन-सप्लाई का सर्वेक्षण किया जाय तथा नालियों से गुजरते हुए पाइप लाइन के रिसाव का निरीक्षण सजगता, सतर्कता और जागरुकता के साथ किया जाय। कीटनाशक दवाइयों का छिड़काव नालियों-शौचालयों में किया जाये। जल-कल संस्थानों को अपनी पूरी जिम्मेदारी समझनी चाहिए तथा पानी की टंकी की सफाई- साप्ताहिक, मासिक कराई जाय। औद्योगिक संस्थानों का कचरा नदियों में प्रवाहित न कर उसे अन्यत्र बहाया जाय। जलापूर्ति हेतु डाली गई पाइप लाइनों को क्षति होने से बचाएँ। जल निकासी की पक्की नालियां बनाई जाएँ तथा उसे सोख्ता गड्ढे में खोला जाय, नदियों, तालाबों से उसको न जोड़ा जाय। पेयजल को श्रेय बनाया जाय तथा उसको दूषित होने से बचाया जाय।
दूर संचार माध्यमों, प्रचार साधनों के माध्यम से जल-संकट की समस्या जन-जन तक पहुँचाकर जन-मानस को सचेत करने की भी आवश्यकता है। गंदे नालों में बहते मल-जल तथा उद्योगों द्वारा निष्कासित प्रदूषित जल के भी नियंत्रण की आवश्यकता है। वर्षा के जल को एकत्रित कर उसे उपयोग में लाना होगा ताकि उसका सदुपयोग हो सके। इस प्रकार जल संकट से मुक्ति मिल सकती है।
लेखक परिचय
डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय
8/29ए, शिवपुरी, अलीगढ़ (उ.प्र.)
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