जल स्रोत समेट क्षेत्र की कोई प्रबन्धन व्यवस्था न होने के कारण इन क्षेत्रों पर जैविक दबाव निरन्तर बढ़ा है। इन क्षेत्रों से वानस्पतिक आवरण के ह्रास के साथ ही भूमि में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा में कमी आई है तथा निरन्तर चराई व आग के कारण भू क्षरण की दर बढ़ी है परिणामस्वरूप अधिकतर वर्षा का जल भूमि की सतह से बह जाता है। वर्षा के जल का भूमि में अवशोषण बहुत कम हो जाने के कारण जल स्रोत का जल चक्र प्रभावित हुआ है। जल स्रोत के जल चक्र को पुनः स्थापित करने के लिए निम्न सामाजिक, अभियान्त्रिक और वानस्पतिक उपचार करने आवश्यक हैंः
जल स्रोत के समेट क्षेत्र के विकास के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है कि स्थानीय समुदाय अपने संसाधनों द्वारा जल स्रोतों का संरक्षण व प्रबन्धन स्वयं करें। वर्तमान में जिस प्रकार से विकास कार्यों का सरकारीकरण हुआ है, उसी के सापेक्ष संसाधनों के रख-रखाव में स्थानीय समुदाय की भागीदारी काफी कम अथवा नगण्य हो गई है। अतः सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है कि स्थानीय समुदाय में जागरूकता, जनचेतना जगाई जाए जिससे कि वे आपसी सहयोग से अपने जल स्रोतों का स्वयं प्रबन्धन कर सकें।
जल स्रोत के समेट क्षेत्र के संरक्षण व प्रबंधन के लिए निम्न कार्य आवश्यक हैं:
i. जल स्रोत पर निर्भर परिवारों का समूह बनाना व उनके द्वारा जल स्रोत व जल समेट क्षेत्र के प्रबन्धन हेतु अपने आवश्यकतानुसार सर्वसम्मति से नियम बनाना तथा नियमों का उल्लंघन करने पर दण्ड की व्यवस्था सुनिश्चित करना।
ii. उपभोक्ता परिवारों की नियमित बैठक सुनिश्चित करना, जल संरक्षण सम्बन्धी कार्यों की रूपरेखा, निर्माण कार्य, रख-रखाव एवं कार्यों का मूल्यांकन नियमित रूप से करना।
iii. जल समेट क्षेत्र को पशु चराई, खनन, पतेल, लकड़ी, चारा-पत्ती व अन्य उपयोग हेतु पूर्णरूप से प्रतिबन्धित करना।
iv. जल समेट क्षेत्र को आग से बचाना।
v. जल समेट क्षेत्र के उपचार में ग्रामवासियों का श्रमदान व अंशदान सुनिश्चित करना।
vi. सर्वसम्मति से जल समेट क्षेत्र की सामाजिक घेरबाड़ करना तथा पशुओं को खूंटी पर खिलाने की व्यवस्था करना।
vii. जल समेट क्षेत्र में मल-मूत्र त्याग व कूड़ा करकट फेंकने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाना।
viii. जल स्रोतों की गुणवत्ता एव स्वच्छता बनाये रखने के लिए जल स्रोत की नियमित सफाई की व्यवस्था सुनिश्चित करना।
ix. जल स्रोत के जल के वितरण को समयबद्ध करना तथा पानी का बराबर बँटवारा सुनिश्चित करना।
x. जल स्रोत के भविष्य में रख-रखाव व प्रबन्धन के लिए सामूहिक कोष का निर्माण करना।
ग्रामवासियों द्वारा जल समेट के प्रबन्धन हेतु सामाजिक उपायों पर सहमत होने के उपरान्त उस क्षेत्र का अभियान्त्रिक कार्यों के लिए सूक्ष्म नियोजन किया जाना चाहिए जिससे वर्षा के जल का भूमि में अवशोषण बढ़ाने के लिए आवश्यकतानुसार अभियान्त्रिक कार्यों का निर्धारण हो सके। जिन जल समेट क्षेत्रों में वानस्पतिक आवरण बहुत कम हो, भू क्षरण की दर अधिक हो, तथा वर्षा के जल का सतही बहाव अधिक हो उन क्षेत्रों में निम्न अभियान्त्रिक उपाय करने आवश्यक हैं :
वर्षा के पानी को रोकने, संचय करने व भूमि द्वारा अवशोषित करने में कन्टूर-नालियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। किन्हीं दो समान ऊँचाई पर स्थित बिन्दुओं के मध्य खींची गई सीधी रेखा को कन्टूर रेखा कहते हैं तथा कन्टूर रेखाओं की सीध में खोदी गई नालियों को कन्टूर-नालियाँ कहते हैं। कन्टूर नालियों का निर्माण निम्न प्रकार किया जाता हैः
कन्टूर रेखाओं को खींचने के लिए A-फ्रेम या हेण्डीलेवल का प्रयोग करते हैं इनमें से A -फ्रेम बनाना व इसका उपयोग करना सबसे सरल है।
A-फ्रेम तीन लकड़ियों का बना ढाँचा होता है जिसको दो मीटर के दो डण्डों तथा एक मीटर के एक डण्डे को आपस में चित्रानुसार जोड़कर बनाते हैं। A -फ्रेम के ऊपरी सिरे पर डोरी झूलता हुआ पत्थर बाँधते हैं जो तुला का कार्य करता है।
नोट - A -फ्रेम का उपयोग करने से पूर्व भली भाँति इसका मध्य बिन्दु निकाल लेना आवश्यक है।
भूमि में कन्टूर रेखा को चिन्हित करने के लिए ढलाऊ भूमि के एक किनारे से A -फ्रेम को रखते हैं तथा A -फ्रेम के पिछले पाँव को स्थिर रखकर अगले पाँव को तब तक उपर नीचे करते हैं जब तक कि तुला A -फ्रेम के मध्य में न आ जाय, इस प्रकार तुला का मध्य स्थान निकाल लेते हैं। तुला मध्य स्थान आने पर भूमि पर चूने से निशान लगा लेते हैं अथवा खूंटियाँ गाड़ देते हैं। इसी क्रम को आगे बढ़ा कर जमीन के अन्तिम सिरे तक निशान लगा लेते हैं। अब इन निशानों को चूने की सहायता से जोड़ देते हैं।
नोट - यदि भूमि पर निशान ऊपर-नीचे लगे हों तो इनका मध्य निकालकर सीधी रेखा खींचते हैं।
भूमि में एक कन्टूर रेखा को एक किनारे से दूसरे किनारे तक खींचने के उपरान्त उस रेखा से 4 से 6 मी. की दूरी पर दूसरी रेखा खींचते हैं। ढाल के अनुरूप दो कन्टूरों के मध्य की खड़ी दूरी 4-6 मीटर के बीच होनी चाहिए। इस प्रकार सम्पूर्ण जल समेट क्षेत्र में कन्टूर रेखायें चिन्हित करते हैं।
नोट- यदि कन्टूर रेखा की सीध में चट्टान, पेड़ आदि आयें (जहाँ कन्टूर रेखा नहीं बनाई जा सकती) तो इन्हें छोड़ कर आगे से उसी सीध में कन्टूर रेखायें खींचते हैं।
कन्टूर रेखाओं को चिन्हित करने के उपरान्त प्रत्येक कन्टूर रेखा को 1 फीट गहरा व 1 फीट चौड़ा खोदते हैं। इन नालियों से खुदी मिट्टी को निकाल कर नालियों के बाहरी तरफ लगा देते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण क्षेत्र में कन्टूर-नालियाँ बना लेते हैं।
i. कन्टूर नालियाँ सीधी खुदी होनी चाहिए, इनमें ढलान होने पर भू क्षरण बढ़ने की सम्भावनाएँ रहती हैं।
ii. जल समेट के सम्पूर्ण क्षेत्र में (भूमि में ढ़ाल के अनुरूप 4-6 फीट के अन्तराल पर)। कन्टूर नालियाँ खोदनी चाहिए ताकि वर्षा के जल का अधिकतम अवशोषण हो सके।
iii. कन्टूर नालियों से खुदी मिट्टी को कन्टूर नालियों के बाहरी तरफ से लगा कर दबा देना चाहिये क्योंकि खुली मिट्टी में भू क्षरण की सम्भावनाएँ अधिक रहती हैं।
iv. कन्टूर नालियाँ 1 फीट गहरी व 1 फीट चौड़ी अवश्य खोदनी चाहिये ताकि वर्षों का समस्त पानी इनमें रुक सके।
v. उन स्थानों में कन्टूर नालियाँ नहीं बनानी चाहिये जहाँ पर मिट्टी की गहराई कम हो अथवा चट्टानी/कंकरीला क्षेत्र हो।
सोख्ता गड्ढों का निर्माण अधिकतर उन स्थानों पर करना उपयुक्त होता है जहाँ पर वर्षा के इकट्ठा होने की सम्भावनाएँ अधिक हो। सोख्ता नालियाँ बनाने के लिए निम्न स्थान उपयुक्त होते हैंः
i. जिन स्थानों की मिट्टी बालुई हो तथा मिट्टी की गहराई 30 से.मी. से 45 से.मी. हो।
ii. जिन स्थानों की चट्टान में दरार, जोड़ अथवा भ्रंश हो।
iii. ऐसे स्थान जहाँ पर उतीस (Alnus Nepalensis), हिसालू (Rubus Ellepticus), जंगली गुलाब (Rosa Moschata), ब्राहमी (Centila Asiatica), तिपतिया (Trifolium repens) इत्यादि वनस्पतियाँ उगी हों।
iv. जहाँ पहाड़ी की कढ़ाई नुमा भू आकृति हों, हल्के ढाल वाले स्थान हों।
v. जहाँ प्राकृतिक खाल हों।
सोख्ता गड्ढे (परकोलेशन ट्रेन्च) का औसत आकार 10 फीट लम्बाx2 फीट चौड़ा x 2 फीट गहरा होता है इसे स्थान के अनुरूप घटाया अथवा बढ़ाया जा सकता है।
i. सोख्ता नालियाँ केवल उन स्थानों पर बनानी चाहिये जहाँ वर्षा का पानी आसानी से इकट्ठा हो सके।
ii. सोख्ता नालियाँ सीधी खुदी होनी चाहिये।
iii. सोख्ता नालियों से खुदी मिट्टी को नालियों के बाहरी तरफ लगा कर मिट्टी को खूब दबा देना चाहिये।
iv. सोख्ता नालियों में भरी गाद की नियमित समयान्तराल के बाद सफाई करनी चाहिये।
उत्तरांचल में वर्षा के पानी के संरक्षण व जल अवशोषण के लिये पहाड़ियों के ऊपरी भागों में (जहाँ बरसाती पानी के रूकने की सम्भावना हो) खाल या चाल बनाने की पुरानी परम्परा रही है जो कि अब अनेक कारणों से मृतप्रायः हो चुकी है। जल अवशोषण हेतु भू गर्भीय दृष्टि से उपयुक्त स्थानों (जैसे-परत, जोड़, दरार, भ्रंश) पर खाल अथवा चाल बनाना चाहिए। जिन स्थलों पर चिकनी मिट्टी हो वहाँ खाल अथवा चाल गहरे खोदे जाने चाहिये क्योंकि चिकनी मिट्टी में पानी का अवशोषण बालुई-दोमट मिट्टी की अपेक्षा कम होता है। जिन क्षेत्रों में पुराने खाल/चाल हों किन्तु निष्प्रभावी हो गये तो उनका जीर्णोद्धार करना उचित रहता है।
यदि नये खाल व चाल बनाने हो तो इनकी लम्बाई, चौड़ाई व गहराई उस स्थान की भू आकृति, ढलान व मिट्टी के प्रकार के आधार पर तय कर सकते हैं। खाल व चाल स्थान की उपलब्धता के आधार पर गोलाकार, अण्डाकार व चौकोर बनाये जा सकते हैं। सामान्यतः चौकोर आकार के चाल की औसत लम्बाई 10 मी. गहराई 1.50 मी., सतह की चौड़ाई 4.25 व भूमि स्तर पर चौड़ाई 5 मी. होती है। जिन स्थानों पर भूमि कच्ची हो वहाँ पर चाल के सतह व निचली दीवार को छोड़कर अन्य दीवारों पर पत्थरों की चिनाई की जाती है। वर्षा जल के संग्रहण के लिए इसमें ऊपरी ढ़लान से नालियाँ बना देते हैं।
i. खाल/चाल केवल उन स्थानों पर खोदने चाहिये जहाँ पर मिट्टी की गहराई अधिक हो तथा जहाँ वर्षा का पानी आसानी से खाल में इकट्ठा हो सके।
ii. खाल/चाल बनाने में निकली मिट्टी को उसके बाहरी तरफ लगा कर भली भाँति दबा देना चाहिये।
iii. खाल/चाल में पानी इकट्ठा करने के लिये इनके ऊपर की तरफ की भूमि में नालियाँ बनानी चाहिये ताकि वर्षा का पानी इन नालियों द्वारा खाल/चाल में इकट्ठा हो सके।
iv. खाल/चाल में जमा गाद की नियमित सफाई करनी चाहिए।
(सामूहिक भूमि में वर्षा जल के संग्रहण हेतु दूधातोली विकास संस्थान, उफरैखाल, जिला पौड़ी गढवाल व कस्तूरबा महिला उत्थान मण्डल, दन्या, अल्मोड़ा द्वारा किये गये प्रयास सराहनीय व दर्शनीय हैं।)
जब वर्षा की बूँदें वानस्पतिक छत्रक विहीन ढ़लाऊ पहाड़ियों पर पड़ती है तो सीधे भूमि से टकराती है। जिससे मिट्टी के कण उखड़ने लगते हैं तथा छोटी-छोटी नालियाँ बनाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती हैं और हर तेज बारिश के बाद ये अधिक गहरे और चौड़े होने लगते हैं। जिनके द्वारा मिट्टी पानी के साथ ढ़लानों से बहने लगती है। रोक बाँध किसी नाले के आर-पार थोड़े-थोड़े फासले पर बनी हुई पत्थर व मिट्टी की दीवारें होती हैं। ये पानी के बहाव को रोकती हैं ताकि नालियाँ अधिक चौड़ी और गहरी न होती जायें। पानी द्वारा लाई गई क्षरित मिट्टी इन बाँधों के ऊपरी तरफ जमा होती जाती है।
जल समेट क्षेत्र में रोक बाँधों की संख्या उस क्षेत्र में हो रहे भू-कटाव की दर पर निर्भर करती है। यदि नालियों की संख्या अधिक है तो अधिक रोक बाँध बनाने पड़ेंगे तथा यह कोशिश हो कि जल समेट के प्रत्येक नाले पर रोक बाँध बन जाये। किसी भी नाले में रोक बाँध बनाने की प्रक्रिया उस नाले के ऊपरी भाग से प्रारम्भ कर नाले के अन्तिम सिरे तक करनी आवश्यक है।
यदि नाले के कुछ स्थानों पर तीव्र कटान हो रहा हो तो उसके दोनों तरफ दीवार के साथ रोक बाँध बनाना आवश्यक है। यदि चौड़े पत्थर उपलब्ध हों तो नालियों की सतह में पत्थर बिछा कर रोक बाँध बनाते हैं।
i. रोक बाँध नाले के उद्भव स्थल से प्रारम्भ करते हुए नाले के अन्तिम छोर तक बनाने चाहिये।
ii. रोक बाँध का ढाँचा मजबूत होना चाहिये ताकि भारी वर्षा के समय नाले में बहने वाले अधिक पानी के बहाव का दबाव सह सके।
जल समेट क्षेत्र के वे नाले जो काफी चौड़े व गहरे हों तथा जिनमें वर्षा में काफी अधिक पानी बहता हो, उन नालों में अधिकतर पक्के रोक बाँध अधिक उपयोगी होते हैं। ऐसे नालों के मुहाने पर अधिकतर ग्रेबियन बाँध बनाते हैं। गेब्रियन बाँध का आकार व माप नाले की ढाल, चौड़ाई गहराई व उपयोग पर निर्भर करती है। नाले में जिस स्थान पर गेबियन बाँध बनाना हो उस स्थान की सफाई के उपरान्त नींव तैयार करते हैं। उपयुक्त आकार की जी. आई. तार की जाली (100 मीली मीटर से अधिक व्यास का) आयताकार ढाँचा खड़ा करते हैं जिसके अन्दर पत्थरों की चिनाई करते हैं। चिनाई पूर्ण होने के पश्चात दोनों सिरों के जी.आई तार को दीवार के साथ बाँध देते हैं।
यदि नाले में पानी रूकने की अच्छी सम्भावना हो तथा वर्षा के जल को एकत्र कर उपयोग करना हो तो उन स्थानों पर पत्थर व सीमेंट की चिनाई वाले पक्के बाँध बनाते हैं।
i. गेबियन बाँध ढाँचे की नींव गहरी व चौडी होनी चाहिये।
ii. गेबियन बाँध बनाने में प्रयुक्त तार की जाली के अन्दर पत्थरों की चिनाई मजबूत होनी चाहिये।
iii. वर्षा जल के संग्रहण के लिये बनने वाले बाँध की चिनाई सीमेंट से करनी चाहिये तथा दीवार के बाहरी तरफ सीमेंट का पलस्तर करना चाहिए।
यदि जल समेट क्षेत्र के अन्तर्गत निजी कृषि भूमि हो तो उस भूमि का उपचार करना अति आवश्यक होता है। उत्तरांचल में अधिकतर कृषि भूमि सीढ़ीदार व ढालू है। कृषि भूमि में जल अवशोषण बढ़ाने व भू-संरक्षण को रोकने के लिए निम्न उपचार आवश्यक हैः
i. ढालू सीढ़ीदार खेतों का ढलान सामने की तरफ से पीछे की ओर बनाना, जिससे वर्षा का पानी ढ़लान से नीचे न बहकर खेत में जमा होकर मिट्टी द्वारा सोख लिया जाए।
ii. सीढ़ीदार खेत के दोनों किनारों को खेत के मध्य भाग से थोड़ा ढालू बनाया जाए जिससे बारिश का अतिरिक्त पानी खेत के किनारों से बह जाता है।
iii. खेत की मेंड़ को खेत से ऊँचा बनाना।
(निजी कृषि भूमि में वर्षा के जल संरक्षण एवं उपयोग के लिये मिर्तोला आश्रम पनुवानौला, जिला अल्मोड़ा द्वार किये गये प्रयोग सराहनीय व दर्शनीय है।)
i. जल समेट क्षेत्र के अन्तर्गत पड़ने वाले सभी किसानों की निजी भूमि का उपचार करना आवश्यक है।
भू-मृदा एवं आर्द्रता संरक्षण के लिये अभियान्त्रिक उपाय केवल छोटी अवधि तक के लिये ही प्रभावशाली होते हैं क्योंकि वर्षा के साथ आई मिट्टी कंकड़ से ये ढाँचे धीरे-धीरे भर जाते हैं और निष्प्रभावी हो जाते हैं तथा इन्हें पुनः बनाना काफी खर्चीला होता है। इसलिए जल समेट क्षेत्र के सातत्यपूर्ण प्रबन्धन के लिये अभियान्त्रिक उपचार के साथ-साथ वानस्पतिक उपचार करना अति आवश्यक है। वानस्पतिक उपचार के दीर्घावधि में निम्न मुख्य लाभ हैं।
i. भूमि की उर्वराशक्ति का बढ़ना।
ii. जल स्रोतों का प्रवाह निरन्तर बना रहना।
iii. कार्बनिक पदार्थों की अधिकता से जल अवशोषण का बढ़ना व जल बहाव का कम होना।
iv. भू-क्षरण की दर में कमी आना।
v. एक बार वानस्पतिक आवरण विकसित होने के बाद पुनः उपचार व रख-रखाव पर कम लागत आना।
vi. जल चक्र व पारस्थितिकी तन्त्र का सन्तुलित होना।
वृक्षारोपण हेतु प्रजातियों का चयन स्थानीय समुदाय के साथ मिलकर तथा जल एंव मृदा संरक्षण की दृष्टि से प्रजातियों का चयन किया जाना आवश्यक है। वानस्पतिक प्रजातियों के चयन को उस क्षेत्र की निम्न विशेषताओं के आधार पर तय किया जाना आवश्यक है।
i. भू-उपयोग
ii. जलवायु
iii. भौगोलिक स्थिति
iv. भू-गर्भीय संरचना
v. मिट्टी की संरचना, गहराई व प्रकार
विभिन्न शोध कार्यों से पता चलता है कि मध्य हिमालय के कम ऊँचाई वाले क्षेत्रों में बांज के वन व अधिक ऊँचाई में मोरू के वन मृदा-एवं जल संरक्षण की दृष्टि से उपयोगी होते हैं। इस आधार पर चयनित कुछ वृक्ष, झाड़ी व घास की स्थानीय प्रजातियाँ हैं। वानस्पतिक उपचार के अन्तर्गत निम्न कार्य किये जाने आवश्यक हैंः
जल समेट क्षेत्र में मानव हस्तक्षेप एवं पशु चरान पूर्ण रूप से बन्द होेते ही वनस्पतियों का पुन: उत्पाादन तेजी से होने लगता है। यदि क्षेत्र में वनस्पति प्रजातियों की संख्या अधिक है तो वृक्षारोपण की आवश्यकता नहीं होती किन्तु यदि वनस्पति आवरण कम हो तो वृक्षारोपण करना आवश्यक हो जाता है।
जल समेट क्षेत्र में वृक्ष प्रजातियों का रोपण करने के लिये दो कन्टूर-लाईनों के मध्य 2.5 मी. की दूरी पर गड्ढे खोदते हैं। गड्ढे 1.5 फीट गहरे व 1.5 फीट चौड़े होने चाहिये।
औसतन एक हेक्टेयर भूमि में 1000 पौधों का रोपण होना चाहिए। गड्ढे खोदने के उपरान्त गड्ढों से निकली मिट्टी को छान कर आवश्यकतानुसार गोबर की खाद मिलाते हैं। गड्ढे खोदने का कार्य अप्रैल माह तक पूर्ण कर लेना चाहिए। वर्षा ऋतु और जाड़े की ऋतु में इन गड्ढों में पौध रोपण किया जाता है।
i. पौध रोपण कन्टूर नालियों के निचली तरफ 2.5 मीटर की दूरी पर करना चाहिये।
ii. पौध रोपण हेतु उपयुक्त प्रजातियों का चयन करना चाहिये।
iii. बैग में उगे पौधों का उपयोग रोपण हेतु करना चाहिये।
iv. वृक्षारोपण वर्षा के मौसम में करना चाहिये।
v. रोपित पौध की निरन्तर निराई गुड़ाई करनी चाहिये।
भूमि के निरन्तर वानस्पतिक विहीन रहने से मृदा की सतह पतली एवं पोषक तत्वों से विहीन होने लगती है जिसके कारण वृक्ष प्रजातियों के रोपण के बाद उत्तरजीविता एवं वृद्धि सामान्यतः आशातीत नहीं होती है।
अतः इस भूमि में उपयुक्त एवं तेजी से वृद्धि करने वाली शाकीय पौधों एवं झाड़ियों का रोपण आवश्यक है। ये प्रजातियाँ अपना जीवन चक्र अल्प समय में पूरा कर लेते हैं इसलिए भूमि को कम अवधि में ही कार्बनिक पदार्थ मिलने शुरू हो जाते हैं। इनके रोपण से भूमि में मृदा एवं जल का संचय बढ़ने के साथ-साथ भूमि में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा भी तेजी से बढ़ती है।
घास व झाड़ियों की हेज बनाने के लिए कन्टूर-लाइनों में निम्न दो विधियाँ प्रयोग में लायी जा सकती हैं।
कन्टूर नालियों को खोदकर मिट्टी को भुर-भुरी बना लेते हैं फिर उसमें समान दूरी पर बीजों का छिड़काव करके मिट्टी मिला देते हैं। झाड़ी प्रजाति के बीजों को कन्टूर नालियों के अन्दर के तरफ बोते हैं जबकि घास के बीज को कन्टूर नालियों के बाहर की तरफ बोया जाता है।
नोट - इस विधि में सफलता का प्रतिशत बहुत कम होता है क्योंकि सूखा, तेज वर्षा, पक्षियों व जंगली जानवरों से बोये गये बीज को नुकसान पहुँचने की सम्भावनायें अधिक होती है।
इस विधि में वर्षा के मौसम में चयनित प्रजाति की झाड़ियों व घास की कटिंग अथवा पौध रोपण करते हैं। कन्टूर नालियों में चयनित प्रजाति की झाड़ियों को एक मीटर के फासले पर अन्दर की तरफ लगाते हैं तथा कन्टूर नालियों के बाहरी तरफ एक फुट की दूरी पर घास के पौध/जड़ों का रोपण करते हैं।
नोट - प्रायः घास व झाड़ी के बीज छोटे होने से उनका जन्म प्रतिशत काफी अनिश्चित रहता है तथा बीजों के पानी में बहने की सम्भावना अधिक रहती है। अतः घास का रोपण नर्सरी में तैयार पौध/कटिंग द्वारा ही उचित रहता है। इस विधि में सफलता की सम्भावनायें अधिक होती हैं क्योंकि कन्टूर नालियों में वर्ष भर भू-आर्द्रता बनी रहती है जिससे रोपित पौधे तेजी से बढ़ते हैं।
i. कन्टूर नालियों में घास/झाड़ी प्रजातियों के रोपण/बुवाई से पूर्व कन्टूर नालियों की खुदाई भली भाँति कर लेनी चाहिये।
ii. कन्टूर नालियों में बीज बुवाई सूखे मौसम अथवा भारी वर्षा के समय नहीं करना चाहिये।
iii. बीज बोने से पूर्व बीज का परीक्षण अवश्य कर लेना चाहिये।
iv. पौधे रोपण का कार्य बरसात के मौसम में करना चाहिये।
कन्टूर नालियों के अलावा जल समेट क्षेत्र में बनाये गये अभियान्त्रिक ढाँचों के किनारे भी घास व झाड़ियों का रोपण करना चाहिए क्योंकि खाल/चाल, नाली बन्द, गेबियन बाँध आदि के बनाते समय काफी मिट्टी निकलती है। इस मिट्टी में घास व झाड़ियाँ तेजी से उगती हैं और इससे भू-क्षरण की दर में कमी आती है। इन ढाँचों के आस पास लगायी गई वनस्पतियाँ कुछ वर्षों में बड़ी हो जाती है तथा समय के साथ साथ निष्प्रभावी होने वाले ढ़ाँचों का कार्य खुद करने लगते हैं।
i. पौध रोपण हेतु प्रजातियों का चयन सावधानी पूर्वक करना चाहिये।
ii. पौधरोपण हेतु गड्ढे गहरे व चौड़े खोदे होने चाहिये।
जल समेट के अन्तर्गत आने वाले कृषि भूमि में निम्न जगहों पर पौध रोपण किया जाना चाहिए।
i. मेंड़ों पर घास का रोपण।
ii. बंजर भूमि में झाड़ी व चारा, ईंधन, फलदार वृक्ष प्रजातियों का रोपण।
i. निजी भूमि में वृक्षारोपण हेतु केवल उन प्रजातियों का चयन करना चाहिये।
ii. जिनका फसलों पर प्रतिकूूल प्रभाव न पड़ता हो।
iii. मिश्रित फसलों को बढ़ावा देना तथा वर्षा ऋतु में खेतों को खाली नहीं छोड़ना चाहिये।
iv. खेतों में फसल कटने के बाद जानवरों का चरान बन्द करना।
जिन नालियों में भू-स्खलन अधिक मात्रा में हो रहा हो उन नालियों के दोनों किनारों पर 2 से 3 मीटर की दूरी पर बाँस, केला, औंस आदि प्रजातियों का रोपण करते हैं। ये पौधे 5 वर्ष से कम की अवधि में ही भू-क्षरण रोकने में सक्षम हो जाते हैं। इनके रोपण से गाँववासियों को लम्बे समय तक आर्थिक लाभ प्राप्त होते हैं।
i. उपयुक्त वृक्ष झाड़ी व घास प्रजातियों का जलवायु व भू-मृदा के आधार पर चयन करना चाहिये।
ii. नालों के किनारे केवल उन स्थानों पर पौध रोपण करना चाहिये जहाँ मिट्टी की गहराई अधिक हो।
जल समेट के जिन क्षेत्रों में भूमि का ढ़ाल अधिक हो तथा भूमि वृक्ष विहीन होने से भू-क्षरण की दर अधिक हो उन ढालों में चयनित प्रजातियों की कलमों का रोपण करते हैं। इसके लिए दो पंक्तियों के मध्य 10 से. मी. के अन्तर पर कलमें लगायी जाती हैं। लगाई गयी कलमें बहुत कम अवधि में उग आती हैं जिससे भू-क्षरण की दर तेजी से कम होने लगती है।
i. रोपण हेतु उपयुक्त प्रजाति के परिपक्व कलमों का उपयोग करना चाहिये।
ii. भूमि में कलमें गाड़ने से पहले भूमि की खुदाई करना तथा रोपण के उपरान्त मिट्टी को भली भाँति दबा देना चाहिये।
iii. रोपण हेतु प्रयुक्त कलम को दो तिहाई भूमि से तिरछा दबाना चाहिये।
यदि जल समेट क्षेत्र में संकरी नालियों की संख्या अधिक हो तो उन नालियों में मृदा-क्षरण रोकने का यह सस्ता तरीका है। इस विधि में विभिन्न प्रकार की कलमों द्वारा लोचदार रोक बाँध का निर्माण करते हैं। सामान्यतः नालियों में 3 मीटर से 5 मीटर की दूरी पर जीवित रोक बाँध का निर्माण करते हैं। जीवित रोक बाँध में रोपित कलमों से बहुत कम समय में नई पौध निकलने लगती है जो कि कुछ समय में ही नाली की पूर्णतः रोक देती है जिससे नाली में मृदा-क्षरण पूर्णतः रुक जाता है।
i. जीवित रोक बाँध हेतु ऐसी प्रजाति का चयन करना चाहिये जो विपरीत परिस्थितियों में भी आसानी से उग सके।
ii. रोक बाँध हेतु प्रयुक्त कलमों के सिरे कम से कम एक फुट तक जमीन के अन्दर दबाने चाहिये।
iii. रोक बाँध हेतु केवल परिपक्व कलमों का उपयोग करना चाहिये।
iv. मृत कलमों के स्थान पर पुनः नई कलमें गाड़ देनी चाहिये।
1. सामाजिक उपाय
जल स्रोत के समेट क्षेत्र के विकास के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण है कि स्थानीय समुदाय अपने संसाधनों द्वारा जल स्रोतों का संरक्षण व प्रबन्धन स्वयं करें। वर्तमान में जिस प्रकार से विकास कार्यों का सरकारीकरण हुआ है, उसी के सापेक्ष संसाधनों के रख-रखाव में स्थानीय समुदाय की भागीदारी काफी कम अथवा नगण्य हो गई है। अतः सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य है कि स्थानीय समुदाय में जागरूकता, जनचेतना जगाई जाए जिससे कि वे आपसी सहयोग से अपने जल स्रोतों का स्वयं प्रबन्धन कर सकें।
जल स्रोत के समेट क्षेत्र के संरक्षण व प्रबंधन के लिए निम्न कार्य आवश्यक हैं:
i. जल स्रोत पर निर्भर परिवारों का समूह बनाना व उनके द्वारा जल स्रोत व जल समेट क्षेत्र के प्रबन्धन हेतु अपने आवश्यकतानुसार सर्वसम्मति से नियम बनाना तथा नियमों का उल्लंघन करने पर दण्ड की व्यवस्था सुनिश्चित करना।
ii. उपभोक्ता परिवारों की नियमित बैठक सुनिश्चित करना, जल संरक्षण सम्बन्धी कार्यों की रूपरेखा, निर्माण कार्य, रख-रखाव एवं कार्यों का मूल्यांकन नियमित रूप से करना।
iii. जल समेट क्षेत्र को पशु चराई, खनन, पतेल, लकड़ी, चारा-पत्ती व अन्य उपयोग हेतु पूर्णरूप से प्रतिबन्धित करना।
iv. जल समेट क्षेत्र को आग से बचाना।
v. जल समेट क्षेत्र के उपचार में ग्रामवासियों का श्रमदान व अंशदान सुनिश्चित करना।
vi. सर्वसम्मति से जल समेट क्षेत्र की सामाजिक घेरबाड़ करना तथा पशुओं को खूंटी पर खिलाने की व्यवस्था करना।
vii. जल समेट क्षेत्र में मल-मूत्र त्याग व कूड़ा करकट फेंकने पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगाना।
viii. जल स्रोतों की गुणवत्ता एव स्वच्छता बनाये रखने के लिए जल स्रोत की नियमित सफाई की व्यवस्था सुनिश्चित करना।
ix. जल स्रोत के जल के वितरण को समयबद्ध करना तथा पानी का बराबर बँटवारा सुनिश्चित करना।
x. जल स्रोत के भविष्य में रख-रखाव व प्रबन्धन के लिए सामूहिक कोष का निर्माण करना।
2. अभियान्त्रिक उपाय
ग्रामवासियों द्वारा जल समेट के प्रबन्धन हेतु सामाजिक उपायों पर सहमत होने के उपरान्त उस क्षेत्र का अभियान्त्रिक कार्यों के लिए सूक्ष्म नियोजन किया जाना चाहिए जिससे वर्षा के जल का भूमि में अवशोषण बढ़ाने के लिए आवश्यकतानुसार अभियान्त्रिक कार्यों का निर्धारण हो सके। जिन जल समेट क्षेत्रों में वानस्पतिक आवरण बहुत कम हो, भू क्षरण की दर अधिक हो, तथा वर्षा के जल का सतही बहाव अधिक हो उन क्षेत्रों में निम्न अभियान्त्रिक उपाय करने आवश्यक हैं :
2.1. कन्टूर-नालियों (Contour Trench) का निर्माण
वर्षा के पानी को रोकने, संचय करने व भूमि द्वारा अवशोषित करने में कन्टूर-नालियों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। किन्हीं दो समान ऊँचाई पर स्थित बिन्दुओं के मध्य खींची गई सीधी रेखा को कन्टूर रेखा कहते हैं तथा कन्टूर रेखाओं की सीध में खोदी गई नालियों को कन्टूर-नालियाँ कहते हैं। कन्टूर नालियों का निर्माण निम्न प्रकार किया जाता हैः
1. कन्टूर रेखाओं को चिन्हित करना
कन्टूर रेखाओं को खींचने के लिए A-फ्रेम या हेण्डीलेवल का प्रयोग करते हैं इनमें से A -फ्रेम बनाना व इसका उपयोग करना सबसे सरल है।
A-फ्रेम तीन लकड़ियों का बना ढाँचा होता है जिसको दो मीटर के दो डण्डों तथा एक मीटर के एक डण्डे को आपस में चित्रानुसार जोड़कर बनाते हैं। A -फ्रेम के ऊपरी सिरे पर डोरी झूलता हुआ पत्थर बाँधते हैं जो तुला का कार्य करता है।
नोट - A -फ्रेम का उपयोग करने से पूर्व भली भाँति इसका मध्य बिन्दु निकाल लेना आवश्यक है।
भूमि में कन्टूर रेखा को चिन्हित करने के लिए ढलाऊ भूमि के एक किनारे से A -फ्रेम को रखते हैं तथा A -फ्रेम के पिछले पाँव को स्थिर रखकर अगले पाँव को तब तक उपर नीचे करते हैं जब तक कि तुला A -फ्रेम के मध्य में न आ जाय, इस प्रकार तुला का मध्य स्थान निकाल लेते हैं। तुला मध्य स्थान आने पर भूमि पर चूने से निशान लगा लेते हैं अथवा खूंटियाँ गाड़ देते हैं। इसी क्रम को आगे बढ़ा कर जमीन के अन्तिम सिरे तक निशान लगा लेते हैं। अब इन निशानों को चूने की सहायता से जोड़ देते हैं।
नोट - यदि भूमि पर निशान ऊपर-नीचे लगे हों तो इनका मध्य निकालकर सीधी रेखा खींचते हैं।
भूमि में एक कन्टूर रेखा को एक किनारे से दूसरे किनारे तक खींचने के उपरान्त उस रेखा से 4 से 6 मी. की दूरी पर दूसरी रेखा खींचते हैं। ढाल के अनुरूप दो कन्टूरों के मध्य की खड़ी दूरी 4-6 मीटर के बीच होनी चाहिए। इस प्रकार सम्पूर्ण जल समेट क्षेत्र में कन्टूर रेखायें चिन्हित करते हैं।
नोट- यदि कन्टूर रेखा की सीध में चट्टान, पेड़ आदि आयें (जहाँ कन्टूर रेखा नहीं बनाई जा सकती) तो इन्हें छोड़ कर आगे से उसी सीध में कन्टूर रेखायें खींचते हैं।
2. कन्टूर नालियों का निर्माण
कन्टूर रेखाओं को चिन्हित करने के उपरान्त प्रत्येक कन्टूर रेखा को 1 फीट गहरा व 1 फीट चौड़ा खोदते हैं। इन नालियों से खुदी मिट्टी को निकाल कर नालियों के बाहरी तरफ लगा देते हैं। इस प्रकार सम्पूर्ण क्षेत्र में कन्टूर-नालियाँ बना लेते हैं।
सावधानियाँ
i. कन्टूर नालियाँ सीधी खुदी होनी चाहिए, इनमें ढलान होने पर भू क्षरण बढ़ने की सम्भावनाएँ रहती हैं।
ii. जल समेट के सम्पूर्ण क्षेत्र में (भूमि में ढ़ाल के अनुरूप 4-6 फीट के अन्तराल पर)। कन्टूर नालियाँ खोदनी चाहिए ताकि वर्षा के जल का अधिकतम अवशोषण हो सके।
iii. कन्टूर नालियों से खुदी मिट्टी को कन्टूर नालियों के बाहरी तरफ से लगा कर दबा देना चाहिये क्योंकि खुली मिट्टी में भू क्षरण की सम्भावनाएँ अधिक रहती हैं।
iv. कन्टूर नालियाँ 1 फीट गहरी व 1 फीट चौड़ी अवश्य खोदनी चाहिये ताकि वर्षों का समस्त पानी इनमें रुक सके।
v. उन स्थानों में कन्टूर नालियाँ नहीं बनानी चाहिये जहाँ पर मिट्टी की गहराई कम हो अथवा चट्टानी/कंकरीला क्षेत्र हो।
2.2 सोख्ता नालियाँ (Precolation Trench)
सोख्ता गड्ढों का निर्माण अधिकतर उन स्थानों पर करना उपयुक्त होता है जहाँ पर वर्षा के इकट्ठा होने की सम्भावनाएँ अधिक हो। सोख्ता नालियाँ बनाने के लिए निम्न स्थान उपयुक्त होते हैंः
i. जिन स्थानों की मिट्टी बालुई हो तथा मिट्टी की गहराई 30 से.मी. से 45 से.मी. हो।
ii. जिन स्थानों की चट्टान में दरार, जोड़ अथवा भ्रंश हो।
iii. ऐसे स्थान जहाँ पर उतीस (Alnus Nepalensis), हिसालू (Rubus Ellepticus), जंगली गुलाब (Rosa Moschata), ब्राहमी (Centila Asiatica), तिपतिया (Trifolium repens) इत्यादि वनस्पतियाँ उगी हों।
iv. जहाँ पहाड़ी की कढ़ाई नुमा भू आकृति हों, हल्के ढाल वाले स्थान हों।
v. जहाँ प्राकृतिक खाल हों।
सोख्ता गड्ढे (परकोलेशन ट्रेन्च) का औसत आकार 10 फीट लम्बाx2 फीट चौड़ा x 2 फीट गहरा होता है इसे स्थान के अनुरूप घटाया अथवा बढ़ाया जा सकता है।
सावधानियाँ
i. सोख्ता नालियाँ केवल उन स्थानों पर बनानी चाहिये जहाँ वर्षा का पानी आसानी से इकट्ठा हो सके।
ii. सोख्ता नालियाँ सीधी खुदी होनी चाहिये।
iii. सोख्ता नालियों से खुदी मिट्टी को नालियों के बाहरी तरफ लगा कर मिट्टी को खूब दबा देना चाहिये।
iv. सोख्ता नालियों में भरी गाद की नियमित समयान्तराल के बाद सफाई करनी चाहिये।
2.3 खाल अथवा चाल
उत्तरांचल में वर्षा के पानी के संरक्षण व जल अवशोषण के लिये पहाड़ियों के ऊपरी भागों में (जहाँ बरसाती पानी के रूकने की सम्भावना हो) खाल या चाल बनाने की पुरानी परम्परा रही है जो कि अब अनेक कारणों से मृतप्रायः हो चुकी है। जल अवशोषण हेतु भू गर्भीय दृष्टि से उपयुक्त स्थानों (जैसे-परत, जोड़, दरार, भ्रंश) पर खाल अथवा चाल बनाना चाहिए। जिन स्थलों पर चिकनी मिट्टी हो वहाँ खाल अथवा चाल गहरे खोदे जाने चाहिये क्योंकि चिकनी मिट्टी में पानी का अवशोषण बालुई-दोमट मिट्टी की अपेक्षा कम होता है। जिन क्षेत्रों में पुराने खाल/चाल हों किन्तु निष्प्रभावी हो गये तो उनका जीर्णोद्धार करना उचित रहता है।
यदि नये खाल व चाल बनाने हो तो इनकी लम्बाई, चौड़ाई व गहराई उस स्थान की भू आकृति, ढलान व मिट्टी के प्रकार के आधार पर तय कर सकते हैं। खाल व चाल स्थान की उपलब्धता के आधार पर गोलाकार, अण्डाकार व चौकोर बनाये जा सकते हैं। सामान्यतः चौकोर आकार के चाल की औसत लम्बाई 10 मी. गहराई 1.50 मी., सतह की चौड़ाई 4.25 व भूमि स्तर पर चौड़ाई 5 मी. होती है। जिन स्थानों पर भूमि कच्ची हो वहाँ पर चाल के सतह व निचली दीवार को छोड़कर अन्य दीवारों पर पत्थरों की चिनाई की जाती है। वर्षा जल के संग्रहण के लिए इसमें ऊपरी ढ़लान से नालियाँ बना देते हैं।
सावधानियाँ
i. खाल/चाल केवल उन स्थानों पर खोदने चाहिये जहाँ पर मिट्टी की गहराई अधिक हो तथा जहाँ वर्षा का पानी आसानी से खाल में इकट्ठा हो सके।
ii. खाल/चाल बनाने में निकली मिट्टी को उसके बाहरी तरफ लगा कर भली भाँति दबा देना चाहिये।
iii. खाल/चाल में पानी इकट्ठा करने के लिये इनके ऊपर की तरफ की भूमि में नालियाँ बनानी चाहिये ताकि वर्षा का पानी इन नालियों द्वारा खाल/चाल में इकट्ठा हो सके।
iv. खाल/चाल में जमा गाद की नियमित सफाई करनी चाहिए।
(सामूहिक भूमि में वर्षा जल के संग्रहण हेतु दूधातोली विकास संस्थान, उफरैखाल, जिला पौड़ी गढवाल व कस्तूरबा महिला उत्थान मण्डल, दन्या, अल्मोड़ा द्वारा किये गये प्रयास सराहनीय व दर्शनीय हैं।)
2.4 नालियों में रोक बाँध
जब वर्षा की बूँदें वानस्पतिक छत्रक विहीन ढ़लाऊ पहाड़ियों पर पड़ती है तो सीधे भूमि से टकराती है। जिससे मिट्टी के कण उखड़ने लगते हैं तथा छोटी-छोटी नालियाँ बनाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती हैं और हर तेज बारिश के बाद ये अधिक गहरे और चौड़े होने लगते हैं। जिनके द्वारा मिट्टी पानी के साथ ढ़लानों से बहने लगती है। रोक बाँध किसी नाले के आर-पार थोड़े-थोड़े फासले पर बनी हुई पत्थर व मिट्टी की दीवारें होती हैं। ये पानी के बहाव को रोकती हैं ताकि नालियाँ अधिक चौड़ी और गहरी न होती जायें। पानी द्वारा लाई गई क्षरित मिट्टी इन बाँधों के ऊपरी तरफ जमा होती जाती है।
जल समेट क्षेत्र में रोक बाँधों की संख्या उस क्षेत्र में हो रहे भू-कटाव की दर पर निर्भर करती है। यदि नालियों की संख्या अधिक है तो अधिक रोक बाँध बनाने पड़ेंगे तथा यह कोशिश हो कि जल समेट के प्रत्येक नाले पर रोक बाँध बन जाये। किसी भी नाले में रोक बाँध बनाने की प्रक्रिया उस नाले के ऊपरी भाग से प्रारम्भ कर नाले के अन्तिम सिरे तक करनी आवश्यक है।
यदि नाले के कुछ स्थानों पर तीव्र कटान हो रहा हो तो उसके दोनों तरफ दीवार के साथ रोक बाँध बनाना आवश्यक है। यदि चौड़े पत्थर उपलब्ध हों तो नालियों की सतह में पत्थर बिछा कर रोक बाँध बनाते हैं।
सावधानियाँ
i. रोक बाँध नाले के उद्भव स्थल से प्रारम्भ करते हुए नाले के अन्तिम छोर तक बनाने चाहिये।
ii. रोक बाँध का ढाँचा मजबूत होना चाहिये ताकि भारी वर्षा के समय नाले में बहने वाले अधिक पानी के बहाव का दबाव सह सके।
2.5 गेबियन रोक बाँध
जल समेट क्षेत्र के वे नाले जो काफी चौड़े व गहरे हों तथा जिनमें वर्षा में काफी अधिक पानी बहता हो, उन नालों में अधिकतर पक्के रोक बाँध अधिक उपयोगी होते हैं। ऐसे नालों के मुहाने पर अधिकतर ग्रेबियन बाँध बनाते हैं। गेब्रियन बाँध का आकार व माप नाले की ढाल, चौड़ाई गहराई व उपयोग पर निर्भर करती है। नाले में जिस स्थान पर गेबियन बाँध बनाना हो उस स्थान की सफाई के उपरान्त नींव तैयार करते हैं। उपयुक्त आकार की जी. आई. तार की जाली (100 मीली मीटर से अधिक व्यास का) आयताकार ढाँचा खड़ा करते हैं जिसके अन्दर पत्थरों की चिनाई करते हैं। चिनाई पूर्ण होने के पश्चात दोनों सिरों के जी.आई तार को दीवार के साथ बाँध देते हैं।
यदि नाले में पानी रूकने की अच्छी सम्भावना हो तथा वर्षा के जल को एकत्र कर उपयोग करना हो तो उन स्थानों पर पत्थर व सीमेंट की चिनाई वाले पक्के बाँध बनाते हैं।
सावधानियाँ
i. गेबियन बाँध ढाँचे की नींव गहरी व चौडी होनी चाहिये।
ii. गेबियन बाँध बनाने में प्रयुक्त तार की जाली के अन्दर पत्थरों की चिनाई मजबूत होनी चाहिये।
iii. वर्षा जल के संग्रहण के लिये बनने वाले बाँध की चिनाई सीमेंट से करनी चाहिये तथा दीवार के बाहरी तरफ सीमेंट का पलस्तर करना चाहिए।
2.6 निजी कृषि भूमि का उपचार
यदि जल समेट क्षेत्र के अन्तर्गत निजी कृषि भूमि हो तो उस भूमि का उपचार करना अति आवश्यक होता है। उत्तरांचल में अधिकतर कृषि भूमि सीढ़ीदार व ढालू है। कृषि भूमि में जल अवशोषण बढ़ाने व भू-संरक्षण को रोकने के लिए निम्न उपचार आवश्यक हैः
i. ढालू सीढ़ीदार खेतों का ढलान सामने की तरफ से पीछे की ओर बनाना, जिससे वर्षा का पानी ढ़लान से नीचे न बहकर खेत में जमा होकर मिट्टी द्वारा सोख लिया जाए।
ii. सीढ़ीदार खेत के दोनों किनारों को खेत के मध्य भाग से थोड़ा ढालू बनाया जाए जिससे बारिश का अतिरिक्त पानी खेत के किनारों से बह जाता है।
iii. खेत की मेंड़ को खेत से ऊँचा बनाना।
(निजी कृषि भूमि में वर्षा के जल संरक्षण एवं उपयोग के लिये मिर्तोला आश्रम पनुवानौला, जिला अल्मोड़ा द्वार किये गये प्रयोग सराहनीय व दर्शनीय है।)
सावधानियाँ
i. जल समेट क्षेत्र के अन्तर्गत पड़ने वाले सभी किसानों की निजी भूमि का उपचार करना आवश्यक है।
3. वानस्पतिक उपचार
भू-मृदा एवं आर्द्रता संरक्षण के लिये अभियान्त्रिक उपाय केवल छोटी अवधि तक के लिये ही प्रभावशाली होते हैं क्योंकि वर्षा के साथ आई मिट्टी कंकड़ से ये ढाँचे धीरे-धीरे भर जाते हैं और निष्प्रभावी हो जाते हैं तथा इन्हें पुनः बनाना काफी खर्चीला होता है। इसलिए जल समेट क्षेत्र के सातत्यपूर्ण प्रबन्धन के लिये अभियान्त्रिक उपचार के साथ-साथ वानस्पतिक उपचार करना अति आवश्यक है। वानस्पतिक उपचार के दीर्घावधि में निम्न मुख्य लाभ हैं।
i. भूमि की उर्वराशक्ति का बढ़ना।
ii. जल स्रोतों का प्रवाह निरन्तर बना रहना।
iii. कार्बनिक पदार्थों की अधिकता से जल अवशोषण का बढ़ना व जल बहाव का कम होना।
iv. भू-क्षरण की दर में कमी आना।
v. एक बार वानस्पतिक आवरण विकसित होने के बाद पुनः उपचार व रख-रखाव पर कम लागत आना।
vi. जल चक्र व पारस्थितिकी तन्त्र का सन्तुलित होना।
3.1. प्रजातियों का चयन
वृक्षारोपण हेतु प्रजातियों का चयन स्थानीय समुदाय के साथ मिलकर तथा जल एंव मृदा संरक्षण की दृष्टि से प्रजातियों का चयन किया जाना आवश्यक है। वानस्पतिक प्रजातियों के चयन को उस क्षेत्र की निम्न विशेषताओं के आधार पर तय किया जाना आवश्यक है।
i. भू-उपयोग
ii. जलवायु
iii. भौगोलिक स्थिति
iv. भू-गर्भीय संरचना
v. मिट्टी की संरचना, गहराई व प्रकार
विभिन्न शोध कार्यों से पता चलता है कि मध्य हिमालय के कम ऊँचाई वाले क्षेत्रों में बांज के वन व अधिक ऊँचाई में मोरू के वन मृदा-एवं जल संरक्षण की दृष्टि से उपयोगी होते हैं। इस आधार पर चयनित कुछ वृक्ष, झाड़ी व घास की स्थानीय प्रजातियाँ हैं। वानस्पतिक उपचार के अन्तर्गत निम्न कार्य किये जाने आवश्यक हैंः
3.2 वृक्ष प्रजातियों का रोपण
जल समेट क्षेत्र में मानव हस्तक्षेप एवं पशु चरान पूर्ण रूप से बन्द होेते ही वनस्पतियों का पुन: उत्पाादन तेजी से होने लगता है। यदि क्षेत्र में वनस्पति प्रजातियों की संख्या अधिक है तो वृक्षारोपण की आवश्यकता नहीं होती किन्तु यदि वनस्पति आवरण कम हो तो वृक्षारोपण करना आवश्यक हो जाता है।
जल समेट क्षेत्र में वृक्ष प्रजातियों का रोपण करने के लिये दो कन्टूर-लाईनों के मध्य 2.5 मी. की दूरी पर गड्ढे खोदते हैं। गड्ढे 1.5 फीट गहरे व 1.5 फीट चौड़े होने चाहिये।
औसतन एक हेक्टेयर भूमि में 1000 पौधों का रोपण होना चाहिए। गड्ढे खोदने के उपरान्त गड्ढों से निकली मिट्टी को छान कर आवश्यकतानुसार गोबर की खाद मिलाते हैं। गड्ढे खोदने का कार्य अप्रैल माह तक पूर्ण कर लेना चाहिए। वर्षा ऋतु और जाड़े की ऋतु में इन गड्ढों में पौध रोपण किया जाता है।
सावधानियाँ
i. पौध रोपण कन्टूर नालियों के निचली तरफ 2.5 मीटर की दूरी पर करना चाहिये।
ii. पौध रोपण हेतु उपयुक्त प्रजातियों का चयन करना चाहिये।
iii. बैग में उगे पौधों का उपयोग रोपण हेतु करना चाहिये।
iv. वृक्षारोपण वर्षा के मौसम में करना चाहिये।
v. रोपित पौध की निरन्तर निराई गुड़ाई करनी चाहिये।
3.3 घास व झाड़ियों का रोपण
भूमि के निरन्तर वानस्पतिक विहीन रहने से मृदा की सतह पतली एवं पोषक तत्वों से विहीन होने लगती है जिसके कारण वृक्ष प्रजातियों के रोपण के बाद उत्तरजीविता एवं वृद्धि सामान्यतः आशातीत नहीं होती है।
अतः इस भूमि में उपयुक्त एवं तेजी से वृद्धि करने वाली शाकीय पौधों एवं झाड़ियों का रोपण आवश्यक है। ये प्रजातियाँ अपना जीवन चक्र अल्प समय में पूरा कर लेते हैं इसलिए भूमि को कम अवधि में ही कार्बनिक पदार्थ मिलने शुरू हो जाते हैं। इनके रोपण से भूमि में मृदा एवं जल का संचय बढ़ने के साथ-साथ भूमि में कार्बनिक पदार्थों की मात्रा भी तेजी से बढ़ती है।
घास व झाड़ियों की हेज बनाने के लिए कन्टूर-लाइनों में निम्न दो विधियाँ प्रयोग में लायी जा सकती हैं।
1. कन्टूर-नालियों में छिड़काव द्वारा बीज बोना
कन्टूर नालियों को खोदकर मिट्टी को भुर-भुरी बना लेते हैं फिर उसमें समान दूरी पर बीजों का छिड़काव करके मिट्टी मिला देते हैं। झाड़ी प्रजाति के बीजों को कन्टूर नालियों के अन्दर के तरफ बोते हैं जबकि घास के बीज को कन्टूर नालियों के बाहर की तरफ बोया जाता है।
नोट - इस विधि में सफलता का प्रतिशत बहुत कम होता है क्योंकि सूखा, तेज वर्षा, पक्षियों व जंगली जानवरों से बोये गये बीज को नुकसान पहुँचने की सम्भावनायें अधिक होती है।
2. कन्टूर-नालियों में कटिंग/पौधरोपण करना
इस विधि में वर्षा के मौसम में चयनित प्रजाति की झाड़ियों व घास की कटिंग अथवा पौध रोपण करते हैं। कन्टूर नालियों में चयनित प्रजाति की झाड़ियों को एक मीटर के फासले पर अन्दर की तरफ लगाते हैं तथा कन्टूर नालियों के बाहरी तरफ एक फुट की दूरी पर घास के पौध/जड़ों का रोपण करते हैं।
नोट - प्रायः घास व झाड़ी के बीज छोटे होने से उनका जन्म प्रतिशत काफी अनिश्चित रहता है तथा बीजों के पानी में बहने की सम्भावना अधिक रहती है। अतः घास का रोपण नर्सरी में तैयार पौध/कटिंग द्वारा ही उचित रहता है। इस विधि में सफलता की सम्भावनायें अधिक होती हैं क्योंकि कन्टूर नालियों में वर्ष भर भू-आर्द्रता बनी रहती है जिससे रोपित पौधे तेजी से बढ़ते हैं।
सावधानियाँ
i. कन्टूर नालियों में घास/झाड़ी प्रजातियों के रोपण/बुवाई से पूर्व कन्टूर नालियों की खुदाई भली भाँति कर लेनी चाहिये।
ii. कन्टूर नालियों में बीज बुवाई सूखे मौसम अथवा भारी वर्षा के समय नहीं करना चाहिये।
iii. बीज बोने से पूर्व बीज का परीक्षण अवश्य कर लेना चाहिये।
iv. पौधे रोपण का कार्य बरसात के मौसम में करना चाहिये।
3.4 निर्मित ढाँचों के किनारे पौध रोपण
कन्टूर नालियों के अलावा जल समेट क्षेत्र में बनाये गये अभियान्त्रिक ढाँचों के किनारे भी घास व झाड़ियों का रोपण करना चाहिए क्योंकि खाल/चाल, नाली बन्द, गेबियन बाँध आदि के बनाते समय काफी मिट्टी निकलती है। इस मिट्टी में घास व झाड़ियाँ तेजी से उगती हैं और इससे भू-क्षरण की दर में कमी आती है। इन ढाँचों के आस पास लगायी गई वनस्पतियाँ कुछ वर्षों में बड़ी हो जाती है तथा समय के साथ साथ निष्प्रभावी होने वाले ढ़ाँचों का कार्य खुद करने लगते हैं।
सावधानियाँ
i. पौध रोपण हेतु प्रजातियों का चयन सावधानी पूर्वक करना चाहिये।
ii. पौधरोपण हेतु गड्ढे गहरे व चौड़े खोदे होने चाहिये।
3.5 निजी भूमि में पौधा रोपण
जल समेट के अन्तर्गत आने वाले कृषि भूमि में निम्न जगहों पर पौध रोपण किया जाना चाहिए।
i. मेंड़ों पर घास का रोपण।
ii. बंजर भूमि में झाड़ी व चारा, ईंधन, फलदार वृक्ष प्रजातियों का रोपण।
सावधानियाँ
i. निजी भूमि में वृक्षारोपण हेतु केवल उन प्रजातियों का चयन करना चाहिये।
ii. जिनका फसलों पर प्रतिकूूल प्रभाव न पड़ता हो।
iii. मिश्रित फसलों को बढ़ावा देना तथा वर्षा ऋतु में खेतों को खाली नहीं छोड़ना चाहिये।
iv. खेतों में फसल कटने के बाद जानवरों का चरान बन्द करना।
3.6. नालियों में पौधरोपण
जिन नालियों में भू-स्खलन अधिक मात्रा में हो रहा हो उन नालियों के दोनों किनारों पर 2 से 3 मीटर की दूरी पर बाँस, केला, औंस आदि प्रजातियों का रोपण करते हैं। ये पौधे 5 वर्ष से कम की अवधि में ही भू-क्षरण रोकने में सक्षम हो जाते हैं। इनके रोपण से गाँववासियों को लम्बे समय तक आर्थिक लाभ प्राप्त होते हैं।
सावधानियाँ
i. उपयुक्त वृक्ष झाड़ी व घास प्रजातियों का जलवायु व भू-मृदा के आधार पर चयन करना चाहिये।
ii. नालों के किनारे केवल उन स्थानों पर पौध रोपण करना चाहिये जहाँ मिट्टी की गहराई अधिक हो।
3.7. झाड़ीदार तह लगाना
जल समेट के जिन क्षेत्रों में भूमि का ढ़ाल अधिक हो तथा भूमि वृक्ष विहीन होने से भू-क्षरण की दर अधिक हो उन ढालों में चयनित प्रजातियों की कलमों का रोपण करते हैं। इसके लिए दो पंक्तियों के मध्य 10 से. मी. के अन्तर पर कलमें लगायी जाती हैं। लगाई गयी कलमें बहुत कम अवधि में उग आती हैं जिससे भू-क्षरण की दर तेजी से कम होने लगती है।
सावधानियाँ
i. रोपण हेतु उपयुक्त प्रजाति के परिपक्व कलमों का उपयोग करना चाहिये।
ii. भूमि में कलमें गाड़ने से पहले भूमि की खुदाई करना तथा रोपण के उपरान्त मिट्टी को भली भाँति दबा देना चाहिये।
iii. रोपण हेतु प्रयुक्त कलम को दो तिहाई भूमि से तिरछा दबाना चाहिये।
3.8 जीवित रोक बाँध
यदि जल समेट क्षेत्र में संकरी नालियों की संख्या अधिक हो तो उन नालियों में मृदा-क्षरण रोकने का यह सस्ता तरीका है। इस विधि में विभिन्न प्रकार की कलमों द्वारा लोचदार रोक बाँध का निर्माण करते हैं। सामान्यतः नालियों में 3 मीटर से 5 मीटर की दूरी पर जीवित रोक बाँध का निर्माण करते हैं। जीवित रोक बाँध में रोपित कलमों से बहुत कम समय में नई पौध निकलने लगती है जो कि कुछ समय में ही नाली की पूर्णतः रोक देती है जिससे नाली में मृदा-क्षरण पूर्णतः रुक जाता है।
सावधानियाँ
i. जीवित रोक बाँध हेतु ऐसी प्रजाति का चयन करना चाहिये जो विपरीत परिस्थितियों में भी आसानी से उग सके।
ii. रोक बाँध हेतु प्रयुक्त कलमों के सिरे कम से कम एक फुट तक जमीन के अन्दर दबाने चाहिये।
iii. रोक बाँध हेतु केवल परिपक्व कलमों का उपयोग करना चाहिये।
iv. मृत कलमों के स्थान पर पुनः नई कलमें गाड़ देनी चाहिये।
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