झीलों के प्रदूषण से निपटने में कारगर है एयरेशन व बायोमैन्युपुलेशन तकनीक
दैनिक जागरण, (देहरादून 4 मार्च, 2011)
जी. बी. पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिक विश्वविद्यालय, पन्तनगर व आई.आई.टी., रुड़की के वैज्ञानिकों की मदद से एयरेशन व बायोमैन्युपुलेशन तकनीक का प्रयोग मछलियों के लिये जीवनदायिनी साबित हुआ है। जल में घुली ऑक्सीजन की मात्रा को सन्तुलित करने का देश का पहला प्रयोग नैनीताल में नैनी झील में हुआ था। यह प्रयोग सफल रहा। इसके अन्तर्गत नैनी झील के दोनों हिस्सों को दो बेसिनों में विभक्त किया गया। प्रत्येक बेसिन में 15-15 डिस्क झील की तलहटी में स्थापित की गईं। इन डिस्कों में कम्प्रेशरों के माध्यम से पानी में बाहरी वायु प्रवाहित की गईं। डिस्कों के माध्यम से 0.08 माइक्रोन के अरबों बुलबुलों के साथ जब यह पानी में उत्सर्जित हुई तो आॅक्सीजन की मात्रा सन्तुलित हो गई। इसके साथ ही झील में पारिस्थितिकी तंत्र को सही करने के लिये बायोमैन्युपुलेशन किया गया। यह प्रयोग पूरी तरह सफल रहा। वर्तमान में तमिलनाडु के कोडाई कैनाल, कर्नाटक की ऊटी लेक, राजस्थान की उदयपुर लेक एवं जम्मू-कश्मीर की डल झील को प्रदूषण मुक्त करने के लिये इसी तकनीक को अपनाया जा रहा है।
ग्लेशियरों ने डाले माथे पर बल
हिन्दुस्तान (देहराूदन 4 फरवरी, 2011)
ग्लेशियरों की सेहत को लेकर वैज्ञानिक आज चिन्तित हैं। उनका मानना है कि हिमालय के ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। वैज्ञानिक यह भी मानते हैं कि यदि यही हाल रहा तो 2035 तक सारे ग्लेशियर समाप्त ही हो जाएँगे। वैज्ञानिकों का एक बड़ा खेमा ग्लेशियरों के संकट के लिये ग्लोबल वार्मिंग को जिम्मेदार मान रहा है तो दूसरा इसे प्राकृतिक प्रक्रिया ही बता रहा है। लेकिन ग्लेशियरों के पिघलने की गति आज सभी के लिये चिन्ता का विषय है। हिमालय के पर्यावरण पर काम कर रहे जी. बी. पन्त इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने भारत के हिमालयी ग्लेशियर पर एक रिपोर्ट हाल ही में योजना आयोग को भेजी है, जिसमें बताया गया है कि ग्लेशियरों का पिघलने का कारण ग्लोबल वार्मिंग नहीं है। यदि ग्लोबल वार्मिंग के कारण ऐसा होता तो उत्तर-पश्चिम में कम तथा उत्तर-पूर्व में ग्लेशियर ज्यादा न पिघलते। कराकोरम रेंज में ग्लेशियर के आगे बढ़ने के संकेत मिले हैं। यहाँ 114 ग्लेशियरों में 25 आज भी जस-के-तस हैं। तीस आगे बढ़े हैं और बाकी पिघल रहे हैं। यदि ग्लोबल वार्मिंग होती तो सभी ग्लेशियर पीछे खिसकते।
बूँद-बूँद से घट भरे
दैनिक जागरण (देहरादून 16 जनवरी, 2011)
कृषि मंत्री शरद पवार के नेतृत्व में मंत्रियों का एक समूह नई राष्ट्रीय जल नीति पर विचार कर रहा है जिसे आगामी समय में लागू कर दिया जाएगा। इससे पहले राष्ट्रीय जल नीति 2002 में बनाई गई थी।
इस योजना के अन्तर्गत सरकार एक मूल्य निर्धारण व्यवस्था पर भी विचार कर रही है जिससे विभिन्न क्षेत्रों में जल उपलब्धता के आधार पर जल मूल्य निर्धारण, सीवेज व्यवस्था में सुधार तथा ग्रामीण क्षेत्रों में जल उपलब्ध कराने वाली योजनाओं के विकास पर बल दिया जाएगा।
टिहरी से बड़ा बाॅंध बनाएगा टी.एच.डी.सी.
हिन्दुस्तान (देहरादून, 28 अक्टूबर, 2010)
टिहरी बाॅंध परियोजना से 9 राज्यों को रोशन करने के बाद टिहरी हाइड्रो डेवलपमेंट कारपोरेशन को भूटान में चार हजार मेगावाट की हाइड्रो परियोजना मिलने जा रही है। भूटान में संकोष नदी पर एशिया का सबसे बड़ा बाॅंध बनेगा। इस परियोजना से पूर्वी राज्यों में बिजली संकट तो दूर होगा ही, बंगाल व उड़ीसा में आने वाली बाढ़ पर भी अंकुश लगेगा। इसका जलाशय टिहरी बाॅंध के जलाशय से तीन गुना बड़ा होगा। भारत सरकार व राॅयल किंग आॅफ भूटान के बीच सहमति होने के बाद इसकी डी.पी.आर. तैयार की जा रही है।
पानी की जाॅंच करेंगी हाइटेक लैब
हिन्दुस्तान (देहरादून 22 अक्टूबर, 2010)
पानी की जाँच के लिये उत्तराखण्ड राज्य के सभी जिलों के पास अपनी हाइटेक लैब होगी। अब तक राज्य में लैब की संख्या सीमित है। अब जिलों में भी लैब खोली जाएँगी। लैब खोलने का कार्य केन्द्र सरकार की मदद से किया जाएगा। केन्द्र सरकार ने रूरल वाटर क्वालिटी एंड सर्विलांस प्रोग्राम के अन्तर्गत सभी जिलों में लैब स्थापना की योजना बनाई है। लैब में प्रथम चरण में आयरन, नाइट्रेट, कोलीफार्म, फीकल काॅलीफार्म, जैविक, क्लोराइड एवं हार्डनेस का टेस्ट किया जाएगा।
ओल्ड ग्राउंडवाटर की होगी खोज
अमर उजाला (देहरादून, 14 अक्टूबर, 2010)
राज्य ही नहीं पूरे देश में तमाम ऐसे स्थान हैं जहाँ हजारों साल से ओल्ड (पेलियो) ग्राउंडवाटर जमा है। वैसे तो यह जल स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है वहीं इसके सहारे किसी योजना का निर्माण करना भी करोड़ों का नुकसान उठाना है। राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान (रा.ज.सं.) की ओर से देशव्यापी अभियान चलाने का निर्णय लिया गया है जिसके अन्तर्गत भूजल के सैंपल एकत्रित कर ओल्ड ग्राउंडवाटर का पता लगाया जा सकेगा। इस सम्बन्ध में क्षेत्रीय स्तर पर समय-समय पर खोज होती रही है लेकिन आज तक योजनाबद्ध तरीके से इस दिशा में कार्य नहीं किया जा सका। भूमि के अन्दर बनावट इस प्रकार की होती है जिसमें जगह-जगह पानी एकत्रित होता जाता है और वह चारों तरफ से घिर जाता है। हजारों वर्षों बाद भी यह एक ही स्थान पर बना रहता है। ऐसे जल को पेलियो ग्राउंडवाटर कहते हैं। इसके अन्तर्गत राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान की ओर से देशव्यापी अभियान चलाने की योजना बनाई गई है। इसमें विभिन्न संस्थानों के सहयोग से ओल्ड ग्राउंडवाटर को चिन्हित कर उसे सूचीबद्ध करके उसकी रिपोर्ट केन्द्र सरकार को भेजी जाएगी।
कनाडा के सैटेलाइट की नजर टिहरी बाँध पर
हिन्दुस्तान (देहरादून 23 सितम्बर, 2010)
आपदा की आशंका को देखते हुए कनाडा के सैटेलाइट से टिहरी बाँध की माॅनीटरिंग कराई जा रही है। यह अत्याधुनिक सैटेलाइट, डैम व कैचमेन्ट एरिया की बाहरी तथा भीतरी हलचल पर 24 घंटे नजर रखे हैं। इससे प्राप्त चित्रों का विश्लेषण प्रत्येक पाँच घंटे में टी.एच.डी.सी. व प्रदेश सरकार को उपलब्ध कराया जाएगा। उत्तराखण्ड अन्तरिक्ष उपयोग केन्द्र द्वारा बाँध व आस-पास का बेसिन डाटा नेशनल रिमोट सेंसिंग सेंटर, हैदराबाद के माध्यम से सम्बन्धित संस्था को भेजा जाएगा। डैम सम्बन्धी छोटी-बड़ी जानकारियाँ राज्य को उपलब्ध कराई जाएँगी।
बदल रहा है रेन फॉल का पैटर्न
अमर उजाला (देहरादून 30 जुलाई, 2010)
कभी सूखे के आसार तो कभी वर्षा से तबाही, मौसम का बदलता मिज़ाज न सिर्फ आम जनता बल्कि वैज्ञानिकों के लिये भी चिन्ता का सबक है। आई.आई.टी., रुड़की के हाइड्रोलाॅजी विभाग में आयोजित इंडो-इटालियन कार्यशाला में इस क्षेत्र के जाने-माने विशेषज्ञों ने क्लाइमेट चेंज को लेकर परिचर्चा में माना कि पिछले 150 वर्षों में पृथ्वी का तापमान 0.6 डिग्री सेंटीग्रेड बढ़ा है जो ग्लोबल वार्मिंग के लिये घातक माना जा रहा है। वैज्ञानिकों की मानें तो क्लाइमेट चेंज का अध्ययन साल-दो-साल की बात नहीं बल्कि इसके लिये कम-से-कम 100 साल का अध्ययन जरूरी है। इसके लिये उन्होंने कार्बन डाइआॅक्साइड के अधिक उत्सर्जन को महत्त्वपूर्ण बताया। साथ ही इसकी रोकथाम के लिये जियोलाॅजिकल स्टोरेज विधि को आवश्यक बताया। इस विधि के अन्तर्गत पृथ्वी की सतह पर उत्सर्जित कार्बन डाइआॅक्साइड को खुले में छोड़ने के बजाय पहाड़ों के भीतर, राॅक्स में, डाल दिया जाये। ऐसे में क्लाइमेट चेंज को लेकर सभी वैज्ञानिक एकमत हैं लेकिन इसका प्रकृति, जीव-जन्तुओं और जल संसाधनों पर क्या असर पड़ रहा है इसे लेकर अध्ययन जारी हैं।
खतरे की घंटी है हिन्द महासागर का तेजी से बढ़ता स्तर
दैनिक जागरण (देहरादून 15 जुलाई, 2010)
“नेचर जियोसांइस’’ के ताजा अंक में प्रकाशित रिपोर्ट में कहा गया है कि हिन्दमहासागर का तट स्तर पहले की तुलना में अधिक तेजी से बढ़ रहा है। सागरीय तट स्तर में सामान्यतः एक वर्ष में तीन मिमी. तक की वृद्धि हो रही है। लेकिन हिन्द महासागर का तट स्तर इससे अधिक तेजी से बढ़ रहा है वैज्ञानिकों ने 1960 से लेकर अब तक के आँकड़ों का तुलनात्मक विश्लेषण और कम्प्यूटरीकृत माॅडल पर इसे परखने के बाद यह निष्कर्ष निकाला है।
एंडोसल्फान : दूसरे कीटनाशकों के बराबर नहीं
साभार-दैनिक नई दुनिया से
खेतों में कीड़ों से बचाव के लिये कीटनाशकों का उपयोग कोई नई बात नहीं है लेकिन एंडोसल्फान को दूसरे कीटनाशकों के बराबर नहीं रखा जा सकता, क्योंकि इसके इस्तेमाल के दौरान और पश्चात भी लोगों ने त्वचा और आँखों में जलन तथा शरीर के अंगों के निष्क्रिय होने तक की शिकायतें की हैं। इस कीटनाशक के इस्तेमाल से होने वाली घातक बीमारियाँ सैकड़ों लोगों को मौत के मुँह में धकेल चुकी हैं और कई पक्षियों और कीट-पतंगों की प्रजातियाँ नष्ट हो रही हैं। इस कीटनाशक के घातक प्रभाव की सबसे ज्यादा शिकायतें केरल से आई हैं और केरल सरकार को पीड़ितों को मुआवजा तक देना पड़ा है। सवाल उठता है कि इस कीटनाशक पर प्रतिबन्ध लगाना क्यों सम्भव नहीं है?
केरल के सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल ने प्रधानमंत्री से मिलकर इस पर पाबन्दी लगाने की माँग की थी और इसी माँग को लेकर केरल के मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन ने एक दिन का उपवास भी रखा था लेकिन सरकार की दलील है कि इस कीटनाशक पर प्रतिबन्ध से पैदावार में कमी आएगी। सवाल उठता है कि ऐसी पैदावार किस काम की, जो लोगों को बीमार बनाती हो और मौत के मुँह में धकेलती हो। यह मुद्दा मानवीय सरोकारों से जुड़ा है।
पंकज गर्ग
वैज्ञानिक
राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, रुड़की
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