सिर्फ भाषणों से संभव नहीं जलसाक्षरता
सचमुच! ऐसे खुद करने लायक कार्यों को जानने व अपनाने की जरूरत हम सभी को है। चुनौतियां नईं हैं अतः समाधान भी नये संदर्भों के साथ सोचने व खोजने होंगे। चुनौतियां अब सिर्फ बाढ़ या सुखाड़ की नहीं हैं। अब चुनौतियां जानबूझकर किए प्रदूषण, शोषण, अतिक्रमण, जलाधिकार हनन व बाजार की भी हैं। ऐसी बेसमझी से निपटने के लिए सभी को जलसाक्षर होना जरूरी है- विद्यार्थी, किसान, फैक्टरी मालिक, नेता, अधिकारी, इंजीनियर और वकील से लेकर उस बायो टेक्नोलॉजिस्ट को भी, जो उन्नत के नाम पर अधिक पानी पीने वाली किस्में विकसित कर रहे हैं।
हमें नौचंदी जैसे मेले भी चाहिए और मेरठ में मीट के कमेले भी। उद्योग और खेती... दोनों के बिना विकास का कोई भी पैमाना अधूरा है। धातु के बिना अब ढांचागत निर्माण संभव नहीं और पानी के बिना कच्ची धातु का शोधन असंभव है। कल्पना कीजिए कि बिजली के बिना तो पूरे मीडिया पर ही ताला लग जायेगा। तब हमारी - आपकी मुलाकात इतनी आसान तो नहीं ही रह जायेगी। सबसे ज्यादा पानी पीने व प्रदूषण करने वाली चीनी, शराब, कागज, रसायन तथा उपकरण निर्माण फैक्टियों के बिना सोचिए कि जिंदगी कैसी होगी? जाहिर है कि हमें सब चाहिए, लेकिन नदी, तालाब, पहाड़, जंगल आदि का नाश करके नहीं। उद्योग के बिना सुविधाभोगी जीवन शैली संभव नहीं, लेकिन पानी के बिना तो जीवन ही संकट में पड़ने वाला है। उपभोग और संरक्षण के बीच संतुलन के बिना यह दुनिया चल नहीं सकती। अतः संतुलन जरूरी है। इस संतुलन की पहली जरूरत है कि पानी-प्रकृति को लेकर मूलभूत समझ बने। चुनौतियों का एहसास हो और यह सिर्फ बड़े-बड़े सेमिनारों से संभव नहीं।सच है कि जल-जन जागृति सिर्फ शहर के बड़े-बड़े सभागारों में होने वाले भाषणों से नहीं आयेगी। इसके लिए हर गाँव, कस्बे और विद्यालय में जाना होगा। इंसान व उसके स्थानीय परिवेश... दोनों से सीधे संवाद करना होगा। कागज, कलम और आवाज के साथ-साथ कुदाल-फावड़े को भी औजार बनाना होगा। वृक्षारोपण, तालाबों की गाद निकासी, सफाई तथा कचरा प्रबंधन के जरिए कुछ नवीन इबारतें जमीन पर भी उकेरनी होंगी। पानी उपयोग के अनुशासन अपनी जिंदगी में उतारकर ही पानी बचाने को प्रेरित किया जा सकता है। इसी संकल्प के साथ बीते सप्ताह विकल्प फाउंडेशन ने एक सम्मेलन का आयोजन कर उत्तर प्रदेश के जिला मेरठ में जमीनी जल साक्षरता का आगाज कर दिया है। फाउंडेशन ने वर्ष-2012 को जलसाक्षरता वर्ष के रूप में मनाने का संकल्प लिया है। चुनावी तैयारी के इन दिनों में राष्ट्रीय सेवा योजना इकाई, देवनागरी कॉलेज व श्री बांके बिहारी ग्रूप ऑफ इंस्टीट्यूशन के साथ मिलकर आयोजित जलसंदेश यात्रा के जरिए भी फाउंडेशन ने कई संदेश देने की कोशिश की। विद्यार्थियों ने चेताया कि पानी भी मुद्दा है। “जो पानी स्वच्छ पिलायेगा, वोट वही ले जायेगा।’’ यात्रा में लगे इस नारे से जाहिर है कि पानी चुनाव जिता भी सकता है और हरा भी। उम्मीदवार होशियार हो जायें।
इस मौके पर उ.प्र. मानवाधिकार आयोग के महानिरीक्षक महेंद्र मोदी, इंडिया वाटर फाउंडेशन के अध्यक्ष अरविंद त्यागी के अलावा बतौर पानी पत्रकार मुझे भी अपनी बात कहने का मौका मिला। देवनागरी कॉलेज के प्राचार्य डॉ. त्रिवेणी दत्त ने अभियान में नोडल भूमिका निभाने का वादा कर आश्वस्त किया। भारतीय पुलिस सेवा अधिकारी की नौकरी में रहते हुए पानी पर बात करना भिन्न बात है। यह भिन्न बात महेंद्र मोदी जी ने अपनी प्रस्तुति में पेश की। उनकी पावर प्वाइंट प्रस्तुति घरेलु उपयोग के पानी के पुर्नउपयोग तथा वर्षा जलसंचयन प्रणाली पर थी। सुधरी तकनीक वाली उनकी प्रस्तुति के आधार पर देश में कई इलाकों में काम हो रहा है। यह तकनीक सीधे-सीधे कुओं में रिचार्ज बढ़ाने के लिए काफी कारगर और किफायती बताई गई है। उन्होंने बताया कि वह जलसंचयन प्रणाली व तकनीक को लेकर अप्रैल से जून के मध्य लखनऊ में 10-10 के समूह में प्रशिक्षक प्रशिक्षण शुरू करेंगे। ताकि ऐसी इस तकनीक को उन तक पहुंचाया जा सके, जिनके कुंए सूखने के कगार पर खड़े हैं।
अरविंद त्यागी जी ने विद्यालयों के साथ मिलकर जलसाक्षरता के लिए युवाओं से आगे आने का आह्नान भी किया और विद्यालयों से जुड़ने में दिलचस्पी भी दिखाई। लेकिन उनकी नजर में विभिन्न समूहों, समुदायों, विभागों, नीतियों, कार्यक्रमों तथा अनुसंधानों के बीच तालमेल के अभाव को दूर करने की जरूरत पहले है, जनजागृति की बाद में। हालांकि जलसाक्षरता के इस सम्मेलन में व्यक्तिगत संवाद व जिज्ञासाओं के समाधान की असल भूमिका हम पानी पर काम कर रहे बड़ी उम्र वालों की थी, लेकिन उसकी असल पूर्ति नोएडा के स्लम से उठकर मेरठ को जगाने आये नन्हें बेटे और बेटियों ने की। “काका! पनिया से ट्रेक्टरवा काहे धोय रहे हो? एक दिन खेतवा बोवय का पनिया न रही, तो ट्रेक्टरवा कउने काम आई? सोचे हो?’’ दो राय नहीं कि पानी पर बर्बादी पर जैसे कटाक्ष और समाधान इन बच्चों ने पेश किए, उनके सामने हम बड़ों की बातें सिर्फ बड़ी-बड़ी बातें ही साबित हुईं। जल साक्षरता के असली सूत्रधार तो मदारी और जमूरे की भूमिका में धर्मवीर भारती और रंजना गुप्ता भी बने। ये बच्चे डिवाइन एंड भारती ग्रुप फाउंडेशन के सदस्य हैं। विकल्प के प्रशांत की बनाई सादी, लेकिन असरकारी ऐनिमेशन ने भी लोगों को जलसंकट के प्रति आगाह किया।
विकल्प फाउंडेशन के अगुवा अमित मोहन ने जलसाक्षरता के इस सम्मेलन को सेमिनार हाल से बाहर निकालकर स्कूल-स्कूल ले जाने की बाकायदा रणनीति बनाई है। अमित समेत निशा तायल, संजीव मलिक, अंकुर, प्रंशात का स्थाई दल अगले एक वर्ष के भीतर करीब सौ विद्यालयों में जलसंरक्षण का ककहरा पढ़ायेगा। श्रमदान करेगा। पौधे रोपेगा। विद्यालयों में जलसाक्षरता इकाइयों की स्थापना करने का भी लक्ष्य रखा गया है। कोशिश होगी कि विद्यार्थियों में अपने घर से स्कूल आने-जाने के रास्ते व स्थानीय प्राकृतिक परिवेश के प्रति जिज्ञासा जगाई जायें। नाट्य टोलियों के माध्यम से वे काम बतायें जायें, जिन्हें वे बिना किसी की मदद के कर सकते हैं। सचमुच! ऐसे खुद करने लायक कार्यों को जानने व अपनाने की जरूरत हम सभी को है। चुनौतियां नईं हैं अतः समाधान भी नये संदर्भों के साथ सोचने व खोजने होंगे। चुनौतियां अब सिर्फ बाढ़ या सुखाड़ की नहीं हैं। अब चुनौतियां जानबूझकर किए प्रदूषण, शोषण, अतिक्रमण, जलाधिकार हनन व बाजार की भी हैं। ऐसी बेसमझी से निपटने के लिए सभी को जलसाक्षर होना जरूरी है- विद्यार्थी, किसान, फैक्टरी मालिक, नेता, अधिकारी, इंजीनियर और वकील से लेकर उस बायो टेक्नोलॉजिस्ट को भी, जो उन्नत के नाम पर अधिक पानी पीने वाली किस्में विकसित कर रहे हैं। कौन करेगा?
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