जल प्रदूषणः समस्या एवं समाधान

water pollution
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बदलते पर्यावरण की अठखेलियाँ व बिगड़ते पानी का स्वरूप, दिन प्रतिदिन मानव के लिए उपलब्ध यह जीवनदायी धरोहर, एक चुनौती बनता जा रहा है। फलस्वरूप उपलब्ध जल, वातावरण, वनस्पति व विभिन्न जीव जन्तुओं पर प्रश्न चिह्न सा लगता जा रहा है। पर्यावरण व उपलब्ध जल स्रोतों पर भी विनाशकारी प्रभाव नजर आने लगे हैं। अब यह आवश्यक है कि जो भी कार्य पर्यावरण व जल संसाधनों के वांछित रख-रखाव में बाधा डालता हो उस पर तुरन्त रोक लगा देना ही उचित होगा, जिससे पर्यावरण व जल संसाधनों के बिगड़ते स्वरूप पुनः संवर सकें।

पृथ्वी का दो तिहाई से ज्यादा भाग समुद्रों एवं महासागर से आच्छादित है। इस जल की मात्रा पृथ्वी के कुल जल का 97.50 प्रतिशत है, जो कि स्वाद में खारा है जबकि मीठे जल की उपलब्धता मात्र 2.50 प्रतिशत ही है। इस मीठे जल का भी लगभग 70 प्रतिशत भाग जमी हुई अवस्था में हिम एवं हिमखण्डों के रूप में विद्यमान है जबकि ताजे जल का तरल रूप में केवल 30 प्रतिशत भाग ही उपलब्ध है जो कि नदियों, झीलों, भूजल, मृदा, वायुमण्डल व जीवों के शरीर में मौजूद है। अतः मनुष्य के द्वारा प्रयोग में लाए जा रहे जल की मात्रा अत्यन्त सीमित है। पृथ्वी पर उपलब्ध पानी का एक प्रतिशत ही जल चक्र में उपलब्ध होता है।

यदि विश्व में वर्षा द्वारा प्राप्त पानी पर गौर करें तो विश्व में लगभग 19.9 सेमी. वर्षा होती है। जबकि भारत में लगभग 194.4 सेमी.वर्षा होती है तथा 600 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी उपलब्ध हो जाता है। इसमें से 70 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी वाष्प के रूप में परिवर्तित हो जाता है। 170 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी जमीन में अवशोषित हो जाता है। 180 मिलियन हेक्टेयर मीटर पानी जमीन के ऊपर उपलब्ध होता है।

30 मिलियन हेक्टेयर मीटर तालाबों आदि में इकट्ठा होता है तथा 150 मिलियन हेक्टेयर पानी समुद्र में चला जाता है। इस प्रकार वर्षा आदि से स्वच्छ पानी प्रकृति द्वारा उपलब्ध कराया जाता है लेकिन जमीन में आने पर पानी आजकल विभिन्न प्रदूषणों की चपेट में आकर प्रदूषित हो जाता है। यह आज मुख्य समस्या है। इस प्रदूषण को दूर करने में प्रकृति भी मौसम में, तापमान में व वर्षा में परिवर्तन कर अठखेलियाँ करने लगी है। यह विशेष ध्यान देने योग्य बात है यदि यह समझ लिया जाए कि मनुष्य किसी भी हद तक प्रकृति के विपरीत कार्य करे और उससे होने वाली हानि को भी ध्यान न दे तो यह भूल प्रकृति को नुकसान पहुँचाती रहेगी। जो वांछनीय नहीं है। अतः जरूरत है समय पर सजग होकर जल स्रोतों का विश्लेषण किया जाए व किसी भी किस्म का हानिकारक प्रदूषण यदि जानकारी में आए तो उसे तुरन्त रोकने के उपाय करने चाहिए ताकि जल संसाधन प्रदूषण रहित रह सके व स्वच्छ जल प्राणिमात्र को उपलब्ध हो सके।

यदि विश्व के सापेक्ष में देखा जाए तो 1995 तक 1000 मीटर प्रति साल प्रति व्यक्तितक की आशंका है एवं सन 2025 तक पानी की भीषण कमी होने की सम्भावना है। राजीव गाँधी ड्रिंकिंग वाटर मिशन, जो कि 10 अप्रैल 1996 को बनाया गया, के हिसाब से प्रति व्यक्ति प्रतिदिन 40 लीटर प्रदूषण रहित पानी को उपलब्ध कराने के मानक स्थापित किए गए। विश्व स्वास्थ्य संगठन की संस्थाओं के अनुसार लगभग 80 प्रतिशत बीमारियाँ दूषित पानी पीने से होती हैं। पीने के पानी के भौतिक,रासायनिक एवं जीवाणु सम्बन्धित मानक विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लू.एच.ओ.) एवं भारत चिकित्सा अनुसन्धान परिषद (आई.सी.एम.आर.) द्वारा निर्धारित किए गए हैं। इन मानकों के भीतर पाए जाने वाले जल को ही पेयजल की संज्ञा दी गई है लेकिन स्वच्छ व हानि रहित जल तो तब प्राप्त होगा जब स्वच्छ जल की उपलब्धि ऐसे स्थानों से कराई जाए जहाँ नदियों और अन्य जल स्रोतों में हानिकारक रासायनिक पदार्थों, डिटरजैंट (जिनका जैविक विघटन नहीं हो पाता है) व मल आदि से प्रदूषित पानी न हो। इन बातों का ध्यान स्वच्छ जल आपूर्ति के लिए योजना बनाते समय न किया गया, तो सारा धन व्यर्थ ही समझा जाएगा। अतः इन मूलभूत बातों की ओर ध्यान देना अति आवश्यक है तभी स्वच्छ व हानि रहित जल लोगों को उपलब्ध हो सकता है।

उपलब्ध पानी के स्रोतों की बिगड़ती स्थिति और नदियों में बढ़ते रासायनिक व मल-मूत्र प्रदूषण को ध्यान में रखते हुए पिथौरागढ़ में शहर के नजदीक रई गधेरे में बहने वाले पानी का रासायनिक परीक्षण दो स्थानों पर किया गया। एक तो शहर के पास, तदुपरान्त 3 किमी. आगे ठुलीगाड़ में ताकि यह पता चल सके कि इसमें उपलब्ध घटक का जैविक विघटन हो रहा है या नहीं। वर्ष 2000 में जिन पैरामीटरों का अध्ययन किया गया वह निम्नवत है-

उक्त पानी के स्रोत का अधिक पी.एच., इलैक्ट्रिकल कंडक्टिविटी, आयरन एवं नाइट्राइट की उपस्थित की वजह से पीने योग्य नहीं कहा जा सकता है।

पुनः वर्ष 2001 व 2002 में इस पानी में विभिन्न कार्बनिक हानिकारक पदार्थों की उपस्थिति के लिए पानी के नमूनों का विश्लेषण एच.पी.एल.सी. द्वारा किया गया तो पाया कि वर्ष 2001 में 18 किस्म के (तालिका 2) विभिन्न कार्बनिक रसायन पानी घुलते हुए बह रहे हैं जिनमें से 9 की मात्रा अधिक थी। वर्ष 2002 में फिर नए नमूनों का परीक्षण करने पर 22 किस्म के कार्बनिक रसायन जैसे एल्डिहाइड, कीटोन आदि पाए गए, जिनमें 7 कार्बनिक रसायन ज्यादा मात्रा में थे। वर्ष 2002 में घरों में वितरित किए जाने वाले पानी के नमूनों का विश्लेषण किया गया तो 6 विभिन्न कार्बनिक रसायनों की उपस्थिति पाई गई।

पिथौरागढ़ के कुछ जल स्रोतों का भौतिक रासायनिक परीक्षण

पिथौरागढ़ के कुछ जल स्रोतों जैसे घाट जल स्रोत, नैनीपातल, मढ़, रई गधेरा, भिलोंत तथा नगर के विभिन्न भागों जैसे सिनेमा लाईन, जाखनी, टकाना, बिण आदि स्थानों में स्थित कुओं के पानी का ग्रीष्म ऋतु में भौतिक रासायनिक एवं सूक्ष्मजीवी परीक्षण किया गया। रई गधेरा, सिनेमा लाइन, टकाना एवं बिण स्थित हैण्ड पम्प के पीने वालेजल के पानी के रंग, गन्ध एवं धुधलेपन मानकों में खरे नहीं उतरे, वहीं रई गधेरा, टकाना व बिण हैण्डपम्प के पानी के पी.एच, मानक सीमा से ऊपर पाए गए। सिनेमा लाईन, रई गधेरा में नाइट्रेट की अधिकता पाई गई जबकि घाट, नैनीपातल, भिलोंत, सिनेमा लाइन, मढ़,रई गधेरा, जाखनी के हैण्डपम्पों के पानी में लौह मात्रा निर्धारित से काफी अधिक पाई गई। जल की कठोरता सिनेमा लाइन, चाखनी, मढ़, रई गधेरा, टकाना तथा बिण के पानी के नमूनों में नाइट्राइट की उपस्थिति पाई गई। जबकि फेकल कोलिफार्म बैक्टीरिया की उपस्थिति सिनेमा लाइन, टकाना, रई गधेरा व बिण के पानी के नमूनों में पाई गई। इससे यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि अधिक घनी आबादी में स्थित कुओं अथवा हैण्डपम्पों का जल पीने योग्य नहीं है। जबकि रई गधेरे का पानी भी काफी दूषित पाया गया।
 

 

तालिका 1

भौतिक-रासायनिक घटक

रई गधेरा पुल के पास

एम.ई.एस.के पास ठुलीगाड़ में

रंग

रंगहीन

रंगहीन

पानी का पी.एच.

9.20

9.00

ई.सी(मिलीमोह्ज/सेमी.

0.334

0.482

हार्डनैस (मि.ग्रा./ली.)

216

256

फ्लोराइड (मि.ग्रा./ली.)

0.60

0.70

नाइट्रेट (मि.ग्रा./ली.)

40.0

40.0

नाइट्राइट (मि.ग्रा./ली.)

0.10

0.10

आयरन (मि.ग्रा./ली.)

0.80

0.90

क्लोराइड (मि.ग्रा./ली.)

26.00

20.00

मुक्त क्लोराइड (मि.ग्रा./ली.)

नहीं

नहीं

टोटल डिजौल्व सौलिड (मि.ग्रा./ली.)

234

282

फीकल कोलिफोर्म

उपस्थिति

उपस्थिति

 

प्रदूषण पानी से होने वाली बीमारियाँ

प्रदूषित पानी से होने वाली बीमारियाँ को निम्न भागों में बाँटा जा सकता है-

1.विभिन्न बीमारियाँ पैदा करने वाले सूक्ष्म जीवों की उपस्थिति के कारण।
क.विषाणु-पीलिया, पोलियो।
ख.जीवाणु-हैजा, बेसिलरी दस्त, टाईफाइड, पैराटाईफाइड, ज्वर, आन्त्रशोध, बच्चों की पेचिश।
ग.प्रोटोजुआ- आमीबिक इसेफिलाइटिस।
घ. कृर्मि- गोल कृर्मि, व्हीप कृर्मि, धागा कृर्मि आदि।
2. पानी में निवास करने वाले जन्तुओं द्वारा।
क. स्कीस्टोमायोसिस (वाहक-घोघा)।
ख. गुनिया वर्म और फिश टेप वर्म (वाहक-साइक्लोपोडस)।
3. विषाक्त तत्वों की उपस्थिति द्वारा।
क. विषाक्त तत्वों जैसे- शीशा, आर्सेनिक, पारा, केडमियम, साइनाहड आदि की जल में उपस्थिति।
ख. फ्लोराइड, नाइट्रेट, नाइट्राइट आदि की स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली सान्ध्रता।
ग. हानिकारक कार्बनिक रासायनों की जल उपस्थिति।

इस प्रकार यदि नदियों का आजकल अवलोकन किया जाए तो जिन नदियों में कुछ वर्ष पूर्व स्वच्छ जल बहता दिखाई देता था आज उसमें झाग ही झाग दिखाई देता है व पानी का रंग भी गहरा गन्दा हरा दिखाई देता है। यही स्थिति तालाबों के पानी की भी हो गई है। जो इन हानिकारक जटिल कार्बनिक रसायनों की उपस्थिति दर्शाता है जो कि कारसिनोजिनिक होते हैं व स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालते हैं। अगर विस्तार से विश्लेषण किया जाय तो यह भी स्थिति स्पष्ट होती है कि पहाड़ों में कोई फैक्ट्री आदि न होने से इनके अवशेष भी पानी में नहीं जाते हैं, तो कहाँ से ये कार्बनिक पदार्थ पानी में आ रहे हैं। अतः जैविक विघटनशील न होने वाले डिटरजेंटों द्वारा प्रदूषण व दुष्परिणाम का प्रभाव स्पष्ट नजर आता है जिसके लिये निम्न उपाय नितान्त आवश्यक हैं।

1.सीवर लाइनों की निवासी बिना प्यूरीफाई किए नदियों या नालों में न की जाए।
2.कपड़े धोने, नहाने आदि के पानी की निकासी सीधे नालियों मेें न करके सोख पिट में की जाए।
3. केवल उन्हीं डिटरजेंटों का प्रयोग किया जाए जिनका जैविक विघटन हो सके। इसके लिए पहाड़ों में रीठे आदि के उत्पादन को बढ़ावा दिया जाए व उसके साबुन आदि बनाये जाए जिनका जैविक विघटन हो सके और जिससे नदियों, नालों के पानी के प्रदूषण से बचाया जा सके।
4.हानिकारक कीटनाशक, फफूंदी नाशक आदि रसायनों का इस्तेमाल न किया जाए जिससे वह नदियों व भूमिगत जल में न पहुँच जा सके।
5.पीने के जल को मुख्य जलापूर्ति के स्रोत पर ही अच्छी तरह से फिल्टर एवं उपचारित किया जाना चाहिए।
6.जलापूर्ति पाइप लाइनों को गन्दी नालियों से न गुजारा जाए तथा छिद्रित एवं पुरानी पाइप लाइनों को समय-समय पर बदला जाए।

यदि उपरोक्त बातों पर ध्यान दिया जाए तो स्वयं की दूसरों के स्वास्थ्य की रक्षा हो सकती है तथा जल सम्पदा न पर्यावरण सुरक्षित रह सकता है। इसके साथ ही साथ पृथ्वी पर उपलब्ध इस धरोहर को बनाए रखने में हर व्यक्ति हर स्तर पर सहयोग करे यह तभी सम्भव है।
 

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