जल प्रदूषण : परिभाषा, कारण एवं कारक पर एक निबंध

जल प्रदूषण, फोटो : लेखक
जल प्रदूषण, फोटो : लेखक

स्वच्छ जलस्रोतों में विलयित या निलंबित वाह्य पदार्थ, अशुद्धियां मिल जाती हैं, जिससे जल के गुणों में परिवर्तन हो जाता है। यह जल उपयोग करने लायक न रह कर स्वास्थ्य के लिए हानिकारक बन जाता है। इसे 'जल प्रदूषण' कहते हैं। ये वाह्य पदार्थ मल-मूत्र, रसायन, उर्वरक, कीटनाशक एवं औद्योगिक अपशिष्ट हो सकते हैं। निरंतर बहने वाली नदियों में शहरी कूड़ा करकट या अनुपचारित मलजल का लगातार मिलते रहना; झीलों जलाशयों के आसपास गंदगी का मिलना; वर्षा ऋतु में कृषि भूमि से जल बह कर नदियों में गिरना; औद्योगिक अपशिष्ट का एकत्रित जल रिसकर भूजल में मिलना; समुद्रों में तेल वाहक जहाजों से तेल रिसकर अथवा समुद्र तट पर उद्योगों द्वारा अपशिष्टों को डालना; इस प्रकार जल का पारिस्थितिकी तंत्र बिगड़ जाता है इसे ही ‘जल प्रदूषण' कहते हैं।

जल में निहित बाहरी पदार्थ जब जल के स्वाभाविक गुणों को इस प्रकार परिवर्तित कर देते हैं कि वह मानव स्वास्थ्य के लिए नुकसानदेह हो जाए या उसकी उपयोगिता कम हो जाए तो यह जल प्रदूषण कहलाता है। जो वस्तुएं एवं पदार्थ जल की शुद्धता एवं गुणों को नष्ट करते हैं वे जल प्रदूषक कहलाते हैं

जनसंख्या विस्फोट एवं अंधाधुंध औद्योगिकीकरण से जल का अत्यधिक दोहन शुरू हुआ। नदियों के किनारे नगर तो बसते गए परन्तु मलजल उपचार की योजनाएं नहीं बनी, जिससे करोड़ों लीटर मल-जल बिना उपचार के नदियों में मिल रहा है। आज देश में जीवनदायिनी नदियों पर कई बांध बना दिये गये हैं जिससे नदियों का प्राकृतिक प्रवाह ही परिवर्तित हो गया हैं। अन्यथा पौराणिक काल में वर्ष भर प्राकृतिक प्रवाह के कारण यह मलजल, नदियों में बहकर निकल जाता था। मुख्य रूप से जल प्रदूषण के कारणों को निम्न शीर्षकों में विभक्त किया जा सकता है।

1 . नगरीय अपशिष्ट एवं शहरीकरण

बढ़ती हुई अनियंत्रित जनसंख्या के कारण जल स्रोतों के निकट कचरा पैदा होता जाता है। जिसमें मुख्यतः सड़े-गले पदार्थ, मल-मूत्र, गोबर, पॉलीथिन की थैलियां प्रमुख हैं। ये पदार्थ जल में धीरे-धीरे वर्षा के साथ मिलते रहते हैं। अधिकतर शहरों में इसके विपरीत मलजल को बिना उपचार के ही नदियों में बहा दिया जाता है। राजधानी दिल्‍ली में 17 नालों द्वारा 130 टन विषाक्त कचरा प्रतिदिन यमुना में प्रवाहित कर दिया जाता हैं। आज दिल्‍ली जल बोर्ड अरबों रूपए खर्च करके भी यमुना की सफाई में नाकाम रहा है। यहाँ तक की प्रदूषण का स्तर और बढ़ गया है। अनियोजित विकास के कारण ही नदी तटों पर कई कॉलोनियों, बहुमंजिला इमारतें बनाई जा रही हैं। इनके निर्माण से निकलने वाला लाखों टन कचरा नदियों में ही डाल दिया जाता है। इस कारण नदी मार्ग संकरा होने से वर्षा ऋतु में बाढ़ आ जाती है।

चित्र 3.: महानगर किनारे स्थित जल संसाधनों की स्थिति

हाल ही में दिल्‍ली विकास प्राधिकरण ने राष्ट्रमंडल खेल 2010 के लिए यमुना नदी के तट पर एक खेल गांव विकसित किया है। लगभग चार वर्ष पूर्व नीरी (राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान), नागपुर ने इसे यमुना के लिये घातक बताया था। भारत में 75% जनसंख्या गाँवों में निवास करती हैं। अधिकांश ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा के अभाव के कारण कुओं, तालाबों एवं नदियों में नहा धोकर, जानवरों को नहला कर इसे प्रदूषित करते हैं। जनसंख्या वृद्धि से मल-मूत्र हटाने की एक गंभीर समस्या का समाधान नासमझी में यह किया गया कि मल-मूत्र को नदियों, नहरों, तालाबों आदि किसी अन्य जलस्रोतों में बहा दिया जाता है। यह मल-मूत्र हमारे जल स्रोतों को दूषित कर रहे हैं।

2 . औद्योगिक अपशिष्ट

किसी भी देश के विकास के लिए उद्योगों का विकास अति आवश्यक हैं। वैश्वीकरण के कारण गत पांच वर्षों में औद्योगीकरण में अत्यधिक वृद्धि हुई है। हजारों उद्योग एवं प्रतिष्ठान सैकड़ों तरह के अवशिष्ट विषैले पदार्थों का उत्पादन करते हैं। उन्हें ठिकाने लगाने का सबसे सरल, सस्ता एवं निकटतम स्थान नदी या झील ही हैं। इन अवशिष्टों में अनेक प्रकार के लवण, अम्ल, क्षार, भारी धातु, लौह धातु एवं विभिन्न प्रकार की गैस एवं रसायन घुले रहते हैं। ये पदार्थ नदी में मिलने पर जलीय जंतुओं के लिए विष का कार्य करते हैं। अत्यधिक कार्बनिक पदार्थ डालने से ही जल की रासायनिक ऑक्सीजन मांग (सी.ओ.डी) बढ़ जाती है। जिसके फलस्वरूप जल में घुलित ऑक्सीजन की मात्रा अत्यधिक कम हो जाती हैं। जल में ऑक्सीजन की कमी होने के कारण मछलियां मर जाती हैं।

चित्र 3.2 : जीवन को तरसता जल ( प्रदूषण से मछलियों की मृत्यु)

रसायन, चीनी तथा कागज के कारखानों द्वारा प्रदूषण से यह घटनाएं कई स्थानों पर हो चुकी हैं। जल में उर्वरक उद्योगों का अपशिष्ट घुल कर उसमें नाइट्रेट, फास्फोरस एवं पोटेशियम की मात्रा बढ़ा देता है। जिसके फल स्वरूप यूट्रोफिकेशन हो जाता हैं एवं अनावश्यक जलीय वनस्पतियां एवं काई उग जाती हैं, जो जलीय जंतुओं के लिए हानिकारक हो सकती हैं। केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने 17 तरह के उद्योगों को लाल-रंग (RedZone) की श्रेणी में रखा है जिनसे अत्यधिक प्रदूषण फैलता है। इन में मुख्यतया पेट्रोलियम परिष्करण, उर्वरक, डाई एवं डाई इंटरमीडिएट, कागज, चीनी, स्मेल्टर आदि हैं। नवादा जिले के नुतफुल्लापुर गाँव में रंगाई उद्योग अपना अपशिष्ट-जल नालों में एवं खाली भूमि पर डाल रहे हैं। जिसके कारण वहाँ भूजल भी रंगीन निकलता है जिसे पीने से वहाँ लोगों में शारीरिक विकृति एवं नपुंसकता पैदा हो गई है।

चित्र 3.3 : विषैलें औधोगिक अपस्त्रिव द्वारा प्राकृतिक जल स्रोत में प्रदूषण

मुम्बई के इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के अध्ययन अनुसार मुंबई के उपनगरीय क्षेत्रों में बहने वाली काली नदी के किनारे स्थापित उद्योग जल प्रदूषण का नया खतरा खड़ा कर रहे हैं। वहाँ के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. बी.सी. हालदार कहते हैं कि जो लोग काली नदी और उसके आसपास पैदा होने वाली मछली और अनाज खा रहे हैं, उनके चेहरों पर मिनीमाता के लक्षणों की झलक दिखने लगी हैं। इस अध्ययन में पाया गया कि आंबीवली के पास गिरने वाली औद्योगिक गंदगी में पारा, सीसा, ताँबा और रांगा जैसी धातुएँ क्लोराइड, रंग, ऑर्गेनिक एसिड रहते हैं, इसलिए वहाँ के पानी का रंग ही बदल गया है। ये तत्व अघुलनशील होने के कारण बहते नहीं हैं और पेंदे में बैठ जाते हैं। इस पानी में उगने वाली घास एवं मछलियां, पशुओं के लिए हानिकारक हैं। यहाँ तक कि इस क्षेत्र में पाइक्रिस पौधों को खाने वाली गायों के दूध में पारे की मात्रा 5 पीपीएम. से भी ज्यादा पाई गई। आज आंबीवली गाँव में इस जहरीले पानी से मछलियां मरती हैं एवं लकवे के मारे लोग दुर्बल हो गए हैं।

3 . अपमार्जक ( डिटर्जेंट)

बढ़ती हुई औद्योगिक प्रगति के कारण सफाई के लिए नित नए अपमार्जक बाजारों में आ रहे हैं। ये अपमार्जक जल में घुल कर जलाशयों में पहुंचते हैं तथा जल की सतह पर इनके ठोस कणों की पतली परत बन जाती हैं इन परतों के कारण सूर्य का प्रकाश जल के भीतर प्रवेश नहीं कर पाता हैं जिससे जल में ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में घुल नहीं पाती हैं और जल प्रदूषित हो जाता है। ऑक्सीजन की कमी होने के कारण जलीय जन्तु एवं वनस्पतियों पर हानिकारक दुष्प्रभाव पड़ता है।

4 . कृषि-जनित जल प्रदूषण

उत्पादन में वृद्धि हेतु आज कल रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग अत्यधिक किया जा रहा है। ये उर्वरक फसल के पश्चात वर्षा काल में मृदा के साथ पानी में घुलकर नदियों में पहुंचते हैं अथवा भूमि में से जल के साथ रिसकर भूजल में मिल जाते हैं। इसी प्रकार आजकल कीटों के प्रकोप को खत्म करने के लिए अत्यंत जहरीले कीटनाशकों का प्रयोग किया जाने लगा है। ये कीटनाशक रिसकर व वर्षा जल के प्रवाह के साथ आसपास के नदी-नालों में पहुँच जातें हैं जो जल प्रदूषण का मुख्य कारण हैं। आज इस कीटनाशक युक्त जल के कारण ही ये कीटनाशक मां के दूध में भी पाए गए हैं।

5 . सागरीय प्रदूषण

समुद्र में तेल वाहक जहाज लाखों टन तेल का परिवहन करते हैं। तकनीकी कारणों से अथवा दुर्घटनाग्रस्त होने पर यह तेल छलक कर समुद्र की सतह पर फैल जाता है। जिससे समुद्र के पैंदे में सूर्य की किरणें नहीं पहुंच पाती हैं इस प्रकार जलीय जीव-जंतुओं और वनस्पति का जीवन संकट में पड़ जाता है।

6 . खनन

खनन से पूर्व खदानों से पानी को नलकूप लगा कर निकाल दिया जाता है ताकि विस्फोट आसानी से हो सके। यह जल सीधे नदी-नालो में छोड़ दिया जाता है। यह जल अम्लीय होता है तथा जलस्रोत को अम्लीय कर देता है। इसी प्रकार वर्षा ऋतुओं में खदानों में खनन कचरे के साथ पानी बहकर जल-स्रोतों को प्रदूषित कर देता है। भारत में कई ओपन-कास्ट खदानों में भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण आस-पास के गाँवों में भूजल का स्तर बहुत गिर चुका है।

हिमाचल प्रदेश के पालमपुर क्षेत्र के नदी-नालों, में हो रहे खनन से मछलियों की विभिन्न प्रजातियों के अस्तित्व पर खतरा पैदा हो गया है। यहां की कई नदी नालों में कभी महशीर, कोमन कार्प, ग्रास कार्प एवं रिवलर कार्प सहित मछलियों की कई प्रजातियां मौजूद थीं, लेकिन बीते दशकों में यहां हुए बेरोकटोक व अवैज्ञानिक खनन से यह प्रजातियां लगभग लुप्त हो गई हैं। क्षेत्र की अधिकांश सहायक नदियाँ व्यास में जाकर मिलती हैं, जिनमें न्यूगल, मौल, आवा, भिरल तथा मंध प्रमुख खड्‌डें हैं। इन नदी-नालों पर जमकर खनन हो रहा है। ट्रकों व ट्रैक्टरों से यहां किए जा रहे खनन से खड्‌डों में गहरे गड्डों की हालत भी बेहद खराब हो गई है। इससे अब इन नदी नालों से मछलियां भी गायब होने लगी हैं। मत्स्य प्रजातियों के विलुप्त होने का प्रतिकूल प्रभाव पर्यावरण पर भी पड़ रहा है। 

कांगड़ा के नदी-नालों में पहले महशीर आखेट फिशिंग के शौकीनों के लिए विशेष आकर्षण रखता था, जो दूरदराज प्रदेशों से यहां आकर कांटे के साथ उन्हें पकड़ते थे। इस प्रकार पर्यटन को भी बढ़ावा मिलता था। लेकिन अब इन शौकीनों ने इधर मुंह करना छोड दिया है जो प्रदेश के लिए दोहरी क्षति है। पर्यावरण संरक्षण से जुडी संस्था 'दी इनवार्यमेंट अवेयरनेस सोसायटी' के प्रांतीय अध्यक्ष शारदा गौतम के अनुसार सरकार के उदासीन रवैये व खनन विभाग के उचित रखवाली के चलते यह स्थिति पैदा हुई है, शीघ्र स्थिति पर नियंत्रण न पाया गया तो कुछ वर्षों में इस क्षेत्र की बची प्राकृतिक मत्स्य संपदा भी तबाह हो जाएगी। ऐसे में खनन गतिविधियों पर भी नियंत्रण आवश्यक है । इसके अलावा क्षेत्र में अन्य कई कारणों से हो रही पर्यावरण क्षति से भी यहां की वन संपदा, खासकर देवदार के पेड़ों पर भी काफी असर पड़ रहा है।

7 . धार्मिक कार्यकलाप

वाराणसी, हरिद्वार एवं प्रयाग आदि शहरों का पवित्र गंगा के कारण बहुत धार्मिक महत्व है। इन शहरों में गंगा के किनारे शवों को जलाया जाता है। यहाँ तक कि शवों को नदी में प्रवाहित भी कर दिया जाता हैं। इन शवों के सड़ने व गलने से पानी में जीवाणुओं की संख्या में वृद्धि होती है, जल सड़ाँध देता है और जल प्रदूषित होता ही है। हरिद्वार में अस्थि विसर्जन अपने आप में प्रदूषण का कारण है। इसी प्रकार महाराष्ट्र में गणेशोत्सव में गणेश जी की विशालकाय मूर्तियों जो रासायनिक रंगों एवं सामग्री से बनी होती है, को जल स्रोतों एवं समुद्र में प्रवाहित किया जाता है ये मूर्तियाँ गल कर पेंदे में रह जाती है जिससे जल-स्रोतों की गहराई कम हो रही है। वहीं साज-सज्जा में प्रयुक्त रासायनिक सामग्री जलीय जीवों के लिए खतरा बन जाती हैं।

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