प्रदूषण आज की एक ज्वलंत समस्या है। प्रदूषण पर्यावरण को ही दीमक की तरह खोखला कर रहा है। आज न केवल मानव जाति, अपितु पशु-पक्षी भी प्रदूषण से व्यथित एवं कुंठित हैं। जन जीवन प्रदूषण से प्रतिकूल प्रभावित हुआ है। विकलांगता, अंधापन आदि प्रदूषण के ही परिणाम है। प्रदूषण चाहे हवा हो या जल का प्रदूषण मानव जाति के लिए घातक है। यही कारण है कि उच्चतम न्यायालय को इण्डियन कौसिंल फार एन्वायरो लीगल एक्शन बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 1446) के मामले में यह कहना पड़ा कि अब समय आ गया है जब प्रदूषण निवारण एवं पर्यावरण संरक्षण के लिए शासन, प्रशासन और स्वैच्छिक संगठनों को पहल करनी होगी।
यह सही है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् इस दिशा में काफी प्रभावी कदम उठाये गये हैं। कई कानून भी बनाये गये हैं। न्यायालयों ने भी पर्यावरण संरक्षण के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण अपनाया है। संविधान के अनुच्छेद 48 - (क) में भी पर्यावरण संरक्षण के लिए यह व्यवस्था की गई है कि राज्य देश के पर्यावरण के संरक्षण तथा संवर्धन का और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा।
इसी प्रकार संविधान के ही अनुच्छेद 51 मैं पर्यावरण संरक्षण को नागरिकों का मूल कर्तव्य मानते हुए यह प्रावधान किया गया है कि भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्तव्य होगा कि वह प्राकृतिक पर्यावरण को जिसके अन्तर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करे और उनका संवर्धन करे तथा प्राणि मात्र के प्रति दया भाव रखे। जल प्रदूषण के निवारण के लिए इसी श्रृंखला में सन् 1974 में जल प्रदूषण (निवारण तथा नियंत्रण) अधिनियम पारित किया गया।
उद्देश्य
इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य इसकी उद्देशिका से स्पष्ट हो जाता है। इसके अनुसार इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य है
i) जल प्रदूषण का निवारण करना;
ii) जल प्रदूषण को नियंत्रित करना;
iii) जल की स्वास्थ्य प्रदत्ता को बनाये रखना; तथा
iv) जल को पूर्वावस्था में लाना।
जल प्रदूषण के निवारण के लिए एक प्रभावी विधेयक तैयार करने हेतु सन् 1962 में एक समिति का गठन किया गया था। उक्त समिति द्वारा भी ऐसे ही उद्देश्यों वाली विधि तैयार करने की अनुशंसा की गई थी।
जल प्रदूषण क्या है?
अधिनियम की धारा-2 (ड.) में जल प्रदूषण की परिभाषा दी गई है। इसके अनुसार - जल प्रदूषण से अभिप्राय है 'जल का ऐसा संदूषण या जल के भौतिक, रासायनिक या जैविक गुणों का ऐसा परिवर्तन या किसी मेल या व्यावसायिक बहिश्राव या किसी अन्य द्रव्य, गैसीय या ठोस पदार्थ का जल में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में ऐसा निस्सरण, जो न्यूसेन्स उत्पन्न करे या जिससे न्यूसेन्स उत्पन्न होना सम्भाव्य हो या जो ऐसे जल को लोक स्वास्थ्य या क्षेम या घरेलू वाणिज्यिक, औद्योगिक, कृषि या अन्य विधि सम्मत उपयोगों के लिए या जीव जन्तुओं या पौधों या जलीय जीवों के जीवन और स्वास्थ्य के लिए अपहानिकर या क्षतिकर बनाता है या बनाना सम्भाव्य करता है। सरलतम भाषा में यह कहा जा सकता है कि -जल सम्बन्धी ऐसा कोई कार्य या प्रयोग जिससे न्यूसेन्स पैदा हो या जो मानव जीवन, पशु-पक्षी पौधों या जलीय जीवों के जीवन और स्वास्थ्य को क्षतिकर या अपहानिकर बना दें, 'जल प्रदूषण है।
जल प्रदूषण का निवारण
अधिनियम के अध्याय पांच की धारा-19 से 33 तक में जल प्रदूषण के निवारण तथा नियंत्रण के बारे में प्रावधान किया गया है। जल प्रदूषण के निवारण एवं नियंत्रण के लिए
i) बहिश्रावों का नमूना लिया जाकर उसका प्रयोगशाला से विश्लेषण कराया जा सकता है।
ii) प्रदूषण पदार्थ आदि के व्ययन के लिए सरिता या कुएं के उपयोग का निषेध किया जा सकता है।
iii) नये निकासों एवं निस्सरणों पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है।
iv) मल या व्यावसायिक बहिस्राव के विद्यमान निस्सारण के बारे में समुचित उपबंध किये जा सकते हैं।
v) सरिता या कुएं के प्रदूषण की दशा में आपात उपबन्ध किए जा सकते हैं।
vi) सरिताओं या कुंओं के जल आशंकित प्रदूषण को अवरुद्ध करने के लिए न्यायालय से आवेदन किया जा सकता है।
एम. सी. मेहता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया (ए.आई.आर. 1988 एस. सी. 1115) के मामले में जल प्रदूषण के निवारण के लिए उच्चतम न्यायालय द्वारा कतिपय दिशा निर्देश जारी किये गये हैं।
i) कोई भी नया कारखाना प्रारम्भ किये जाने की अनुमति तब तक नहीं दी जानी चाहिए जब तक ऐसा कारखाना व्यावसायिक बहिस्राव के निस्सरण की पर्याप्त एवं समुचित व्यवस्था नहीं कर लेता है।
ii) पर्यावरण संरक्षण के लिए व प्रदूषण निवारण हेतु लोकहित वाद संस्थित किया जा सकता है।
iii) नगरपालिकायें एवं नगर परिषदें जल प्रदूषण को रोकने के लिए आबद्ध है।
iv) उच्च न्यायालयों को सामान्यतया प्रदूषण नियंत्रण से संबंधित आपराधिक कार्यवाहियों को रोकने का आदेश नहीं देना चाहिए।
इसी प्रकार इण्डियन कौसिंल फार एन्वायरो लीगल एक्शन बनाम यूनियन आफ इण्डिया (ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 1446) के मामले में जल प्रदूषण को रोकने हेतु उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्नांकित दिशा निर्देश जारी किये गये -
i) रासायनिक उद्योगों की स्थापना करने से पूर्व पर्यावरण संबंधी सभी बिंदुओं पर विचार किया जाना चाहिए तथा यह सुनिश्चित कर लेना चाहिए कि इनसे पर्यावरण प्रदूषित तो नहीं होगा।
ii) पर्यावरण संबंधी मामलों के निपटारे के लिए पर्यावरण न्यायालयों की स्थापना की जानी चाहिए।
iii) पर्यावरण संबंधी समस्त सिविल एवं आपराधिक मामलों का निपटारा इन पर्यावरण न्यायालयों द्वारा ही किया जाना चाहिए।
iv) पर्यावरण न्यायालयों में इस विषय में दक्ष, अनुभवी एवं प्रशिक्षित व्यक्तियों को नियुक्त किया जाना चाहिए।
v) पर्यावरण संबंधी मामलों के निपटारे के लिए संक्षिप्त प्रक्रिया का अनुसरण किया जाना चाहिए।
इन्दौर मालवा युनाइटेड मिल्स बनाम मध्यप्रदेश प्रदूषण निवारण बोर्ड (1986 कि.ला रि. 150, मध्यप्रदेश) के मामले में इन्दौर मालवा युनाइटेड मिल्स ब्लीचिंग डाईंग एवं स्पिनिंग यार्न का निर्माण करती थी। इसके व्यावसायिक बहि:स्राव का निस्सरण सरिता और नालों में होता था जो मानव व पशुओं के लिए संकटापन्न था। इस पर रोक लगाने के आदेश को वैध माना गया।
एम.सी. मेहता बनाम कमलनाथ (ए.आई.आर. 2002 एस.सी. 1515) के मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया कि पर्यावरण प्रदूषण के निवारण के लिए दोषी व्यक्ति पर 10 लाख रूपये की उदाहरणात्मक नुकसानी अधिरोपित की जा सकती है ताकि अन्य व्यक्ति ऐसे कार्यों की पुनरावृत्ति न करें।
निर्बन्धन
अधिनियम की धारा - 25 में नये निस्सरणों एवं निकासों पर कतिपय निर्बन्धन अधिरोपित किये गये हैं। इसमें यह प्रावधान किया गया है कि कोई भी व्यक्ति राज्य बोर्ड की पूर्व सहमति के बिना मल या व्यावसायिक बहिःस्राव के किसी सरिता या कुएं या मल नल में या भूमि पर निस्सरण के लिए कोई उद्योग, संक्रिया अथवा प्रक्रिया अथवा निरूपण और निपटान प्रणाली -
- i) न तो स्थापित कर सकेगा।
- ii) न इस दिशा में कोई कदम उठा सकेगा।
- iii) न विस्तार कर सकेगा और
- iv) न उसमें अभिवृद्धि कर सकेगा।
साथ ही मल के निस्सरण के लिए कोई नया या परिवर्तित निकास उपयोग में नहीं ला सकेगा और न ही मल का नया निस्सरण आरम्भ कर सकेगा।
छत्तीसगढ़ हाइड्रेड लाईम इण्डस्ट्रीज, बिसलपुर बनाम स्पेशियल एरिया डेवलपमेन्ट आथोरिटी बिसलपुर (ए.आई.आर. 1989: मध्यप्रदेश 82) के मामले में मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि राज्य बोर्ड का यह कर्तव्य है कि वह इस दिशा में कदम उठाये जहां किसी उद्योग से जल प्रदूषण की संभावना हो और जिसका स्थापित किया जाना जनहित में न हो, वहाँ ऐसे उद्योग की स्थापना के लिए अनापत्ति प्रमाण पत्र जारी नहीं किया जाना चाहिए।
एम. सी. मेहता बनाम यूनियन ऑफ इण्डिया ( 1986 एम.सी.सी. 122) के मामले में तो यहाँ तक कहा गया है कि यदि एक बार सहमति का आदेश जारी कर दिया जाता है तो ऐसे आदेश के नवीनीकरण से इन्कार भी किया जा सकता है यदि कोई उद्योग जल प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण विषयक मानकों की कसौटी पर खरा नहीं उतरता हो।
इसी प्रकार एस. पथरोस बनाम स्टेट ऑफ केरल (ए.आई.आर. 1997 केरल 48 ) के मामले में केरल उच्च न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि विनिर्माण के लिए जारी अनुज्ञप्ति को कालान्तर में निरस्त भी किया जा सकता है बशर्ते कि इसके ठोस आधार विद्यमान हो। जब राज्य बोर्ड को यह प्रतीत हो कि कोई व्यक्ति अपने किसी कृत्य से किसी सरिता या कुएं के जल को प्रदूषित करने वाला है तो ऐसे व्यक्ति को जल को प्रदूषित करने से रोकने के लिए धारा-33 के अन्तर्गत बोर्ड द्वारा मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट या प्रथम वर्ग के न्यायिक मजिस्ट्रेट से आवेदन किया जा सकता है। एच.सी. काठीवाला बनाम महाराष्ट्र वाटर प्रिवेन्शन एण्ड कन्ट्रोल ऑफ पॉल्यूशन बोर्ड, 1982 क्रि. लॉ रि. 290, बम्बई ।
शास्तियां
जल प्रदूषण को रोकने के लिए अधिनियम की धारा 41 से 50 तक में शास्ति एवं दण्ड के बारे में प्रावधान किया गया है। विभिन्न प्रकार के अपराधों के लिए विभिन्न प्रकार के दंड निर्धारित हैं। अपराधियों के नामों का प्रकाशन भी किया जा सकता है। अपराधों की पुनरावृत्ति पर वर्धित दण्ड की व्यवस्था है।
कंपनियों द्वारा अपराध किये जाने पर कंपनी के भारसाधक अधिकारी को दण्डित किया जा सकता है। इतना ही नहीं, यदि अपराध कम्पनी के किसी निदेशक, प्रबन्धक, सचिव या अन्य अधिकारी की सहमति या मौनानुकूलता से किया गया है तो ऐसे व्यक्ति को दण्डित किये जाने का प्रावधान है।
सरकारी विभागों द्वारा अपराध कारित किये जाने की दशा में उस विभाग के अध्यक्ष को अर्थात विभागाध्यक्ष को भी दंडित किया जा सकता है। इस प्रकार जल प्रदूषण (निवारण तथा नियंत्रण) अधिनियम, 1974 में जल प्रदूषण निवारण के लिए अनेक प्रभावी कदम उठाये गये हैं। प्राइड ऑफ डर्बी एण्ड डर्बी शायर एंगलिंग एसोसिएशन बनाम ब्रिटिश किलेनीज लि. (1953 चांसरी, 149) के मामले में जल प्रदूषण को एक न्यूसेंस माना गया है। इसी न्यूसेंस को रोकना वर्तमान अधिनियम का उद्देश्य है।
लेखक संपर्क - डा. बसन्तीलाल बावेल
निदेशक, राजस्थान विधि संस्थान, निदेशक राजस्थान मानक ब्यूरो, पूर्व सदस्य, राजस्थान उच्चतर न्यायिक सेवा, उप-सचिव, राज्य विधि आयोग, उप-शासन सचिव, गृह (विधि) विधि व्याख्याता, लेखक एवं विचारक, लावा सदारगढ़ राजस्थान।
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