परिचय
बनी-बनाई लीक से अलग हटकर कुछ अभिनव प्रयोगों पर आधरित है यह लेख।
यह जल संसाधन के निजीकरण के विरुद्ध आंदोलनरत सामाजिक कार्यकर्ताओं द्वारा किये गये जल आंदोलन या गरीब लोगों को जलापूर्ति मिलने की कहानी नहीं है। यह सार्वजनिक जलापूर्ति व्यवस्था का अनुभव है जिसके तहत महसूस किया गया कि जल के बढ़ रहे संकट का समाधान पहले की सुधार रणनीतियों से अलग हटकर ढूंढना होगा और जल प्रबंधन के लोकतंत्रीकरण के लिए जल अभियंताओं और समुदाय दोनों के दृष्टिकोणों में परिवर्तन की जरूरत है। यह एक ऐसी कहानी है जिससे पता चलता है कि जब लोकअधिकारी और नागरिक सच्चे अर्थों में सहयोगी की तरह काम करते हैं तो वे न सिर्फ सभी वंचित समूहों को समान जलापूर्ति सुनिश्चित करने में सफल होते हैं, बल्कि इससे निरंतर जल प्रबंधन सुनिश्चित करते हुए प्राकृतिक जल संसाधनों के संरक्षण का भी मार्ग प्रशस्त होता है।
तमिलनाडु वाटर सप्लाई और ड्रेनेज बोर्ड जिसे ज्यादातर टीडब्ल्यूएडी के नाम से जाना जाता है, एकमात्र सरकारी एजेंसी है जो चेन्नई शहर को छोड़कर पूरे तमिलनाडु राज्य में जल की आपूर्ति करती है। 2004 की शुरुआत में टीडब्ल्यूएडी को लगातार सूखे, वर्षों तक अविवेकपूर्ण तरीके से भू-जल निकालने से भू-जल के स्तर में कमी आने और जल संसाधनों के संरक्षण की कमी से जल के भयानक अभाव की समस्या से जूझना पड़ा था। इसके अलावा जल क्षेत्र खुद भी परिवर्तन के दौर से गुजर रहा था। सार्वजनिक क्षेत्र के जल संसाधनों के नियमन के लिए जिम्मेदार संगठनों की जल संकट के लिए आईएफआई द्वारा निन्दा की गई थी। आईएफआई ने सरकार से सार्वजनिक जलापूर्ति व्यवस्था को पुनर्व्यवस्थित करने की मांग की थी। इसका सीधा मतलब था कि सरकारी जल एजेंसियों को खत्म करके उसके क्रियाकलाप को एनजीओ या निजी कंपनियों को सौंपा जाए।
आरंभिक बातचीत के दौरान ही जल अभियंताओं ने महसूस किया कि गंभीर होते जल संकट के निदान के लिए दूरगामी और बुनियादी समस्याओं से निपटने की जरूरत है। सुधार की प्रक्रिया खुद से शुरू करके धीरे-धीरे उसमें समुदाय को भी जोड़ा जाना चाहिए। परिवर्तन को स्वीकार करने के लिए टीडब्लूएडी के भीतर सर्वसम्मति बनाए बिना कोई परिवर्तन संभव नहीं था। इस बात को भी लगातार महसूस किया जा रहा था कि जल अभियंताओं को जल संकट के विकास में अपनी भूमिका का मूल्यांकन, अपनी शक्तियों और कमजोरियों का मूल्यांकन तथा समुदाय के साथ सच्चे अर्थों में सहयोग स्थापित करने में जो परेशानियां आड़े आ रही थीं, उन परेशानियों को सामने लाकर उन्हें दूर करने के लिए पूरी स्थिति के सही मूल्यांकन की जरूरत थी। समुदाय के साथ काम करते हुए उसके दृष्टिकोण में जरूरी परिवर्तन और सभ्य समाज की सोच में बदलाव लाना भी समान रूप से महत्वपूर्ण मुद्दे थे, ताकि जल व्यवस्था के प्रबंधन और नियंत्रण में वे बड़ी जिम्मेदारी का निर्वहन कर सकें।
परिवर्तन प्रक्रिया जिसे जल प्रबंधन का लोकतंत्रीकरण कहा गया, निम्नलिखित महत्वपूर्ण बिन्दुओं की तरफ निर्देशित था :
1. जिन लोगों तक पानी की पहुंच नहीं थी, वहां तक उसकी पहुंच बनाना।
2. पानी का समान वितरण सुनिश्चित करना।
3. पूरी व्यवस्था सामाजिक न्याय के सिद्धांतों पर आधरित हो, यह सुनिश्चित करना।
1 जल प्रशासन सुधार सुनिश्चित करने संबंधी परिवर्तन
तमिलनाडु के जल संकट के विभिन्न पहलुओं में दो महत्वपूर्ण हैं। पहला, जल उपलब्धता की वास्तविक स्थिति के वस्तुपरक मूल्यांकन की जरूरत और दूसरा, जल अभियंताओं और समुदाय की भूमिकाओं समेत जल संसाधनों के प्रबंधन के तरीके का बहुपक्षीय विश्लेषण।
तमिलनाडु में सभी जल संसाधनों का 96 फीसदी हिस्सा भू-जल पर आधरित है। 1980 और 1990 के दशक के दौरान जल संसाधनों के संरक्षण के लिए कोई उपाय किए बिना राज्य के विभिन्न हिस्सों में पाइप के जरिए जल व्यवस्था सुनिश्चित करने पर जोर दिया गया जिससे भू-जल स्तर में काफी गिरावट आई। जल के अनियमित खनन और सिंचाई तथा उद्योग के लिए असंगत तरीके से उपयोग ने पहले से खराब स्थिति को और बदतर बना दिया।
2004 में राज्य के 385 वाटर ब्लॉकों में से 138 की पहचान अत्यधिक उपयोग किए गए जल ब्लॉकों, 37 की पहचान खराब स्थिति में पहुंच गए जल ब्लॉकों के रूप में और 105 की पहचान कम खराब तथा 8 की पहचान नमकीन पानी के ठिकाने के रूप में की गई थी। सिर्फ 7 ब्लॉकों की पहचान सुरक्षित ब्लॉकों के रूप में की गई थी। इसके अलावा राज्य के कुल 81,587 ग्रामीण आवास क्षेत्रों में से लगभग 27 फीसदी गुणवत्ता के मामले में मानक से कमतर थे जिनमें से लगभग 25 फीसदी के पास सुरक्षित जल संसाधन नहीं था।
जल के अत्यधिक उपयोग और सूखे की स्थिति ने तमिलनाडु में ताजे पानी की प्रति व्यक्ति वार्षिक उपलब्धता को कम करके 840 घन मीटर तक पहुंचा दिया है। यह राष्ट्रीय औसत 1200 घन मीटर से काफी नीचे और पानी की कमी के अंतर्राष्ट्रीय मानक-1000 घन मीटर है-से भी कम है।
जल विभाग के गलत कदम और उपभोक्ताओं में पानी के प्रति स्वामित्व की भावना के अभाव से समुदाय के जुड़ाव में कमी आ गई और पेयजल से संबंधित जल संसाधनों की सलामती सुनिश्चित करने में उनकी भागीदारी कम होती गई।
जल संसाधन को सामने रखने वाली कई समस्याओं में चार प्रमुख स्तर हैं :
1. हाशिए पर जी रहे लोगों की बढ़ती संख्या और उन्हें जल सेवा की उपलब्धता से वंचित करना। दूसरे शब्दों में ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में जल आपूर्ति से महरूम लोगों की संख्या में लगातार वृद्धि होना। इनमें दलित, जनजातीय समुदाय और झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले लोग शामिल हैं।
2. जल के वितरण में असमानता का लगातार बरकरार रहना।
3. जल की निरंतरता की समस्या जिसमें जल संसाधनों के प्रभावकारी प्रबंधन से लेकर जल के स्रोतों और निकायों के संरक्षण से जल प्रबंधन के मामले तक जुड़े थे।
4. इस पूरी प्रक्रिया से तकनीकीविदों का जुड़ाव नहीं होना।
अगर स्थायी समाधान ढूंढा जाना है तो जल क्षेत्र में सुधार लाने की किसी भी कोशिश के लिए इन चारों महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर गौर करना जरूरी है। इसी विचार को ध्यान में रखकर ढांचे के अंतर्गत टीडब्लूएडी में सरकारी सुधार को कार्यरूप दिया गया।
2 जल प्रबंधन का लोकतंत्रीकरण
जल अभियंताओं के परिवर्तन एजेंट के रूप में बदलना‘जल प्रबंधन का लोकतंत्रीकरण-लोकतांत्रिक परिवर्तन का पोषण’ नामक इस प्रयोग की शुरुआत 2004 में की गई थी। लोकतंत्रीकरण प्रक्रिया के तीन चरण थे :
1. पहले चरण में टीडब्लूएडी के सभी अधिकारी शामिल थे। इनमें सबसे वरिष्ठ अभियंताओं से लेकर नये अभियंता जिन्हें आवश्यक रूप से छोटे समूहों में प्रशिक्षण प्रक्रिया से गुजरना पड़ा, शामिल थे।
2. दूसरे चरण में जल अभियंता जल संकट के संयुक्त समाधन खोजने के लिए सहयोगी बनने के महत्व के प्रति समुदाय को जागरुक बनायेंगे। इसके अंतर्गत जल के संरक्षण की जिम्मेदारी लेना भी शामिल है।
3. तीसरे चरण में जल अभियंता और समुदाय जल परियोजनाओं का शुभारंभ करेंगे जो इन सिद्धातों पर आधारित हैं (1) प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण सुनिश्चित करते हुए (2) अधिकतम उपयोग (3) प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण (4) योजनाओं की निरंतरता के सिद्धांत और स्थानीय स्व-प्रबंधन। इन उपायों में खपत का स्व-नियमन, जल योजना के प्रबंधन की जिम्मेदारी लेना, तकनीक के विकल्प और योजनाओं की लागत पर सर्वसम्मति, जल शुल्कों की वसूली और सर्वसम्मति व लोकतांत्रिक भागीदारी के आधार पर जल शुल्क तथा अन्य मुद्दों के बारे में फैसले।
परिवर्तन के प्रमुख क्षेत्र
मुख्य फोकस निम्नलिखित परिवर्तन लाने पर थाः
दृष्टिकोण संबंधी रूपांतरण
व्यक्तियों का एक संगठन के रूप में टीडब्लूएडी के भीतर प्रमुख स्टेकहोल्डरों में
परिप्रेक्ष्य में परिवर्तन
परिप्रेक्ष्य संबंधी सबसे महत्वपूर्ण परिवर्तन इस बात की पहचान करना था कि सभी सेवा प्रदाता संस्थानों, विशेष रूप से वंचित लोगों तक पहुंच बनाना जल क्षेत्र का फोकस होना चाहिए। यह प्रक्रिया समानता और सामाजिक न्याय से जुड़े आदर्शों पर आधरित होनी चाहिए थी। इसके अलावा परिप्रेक्ष्य के तहत नागरिकों के बुनियादी जल के अधिकार की सामुदायिक संसाधन के रूप में पहचान की गयी।
परिप्रेक्ष्य में बदलाव के अधिक महत्वपूर्ण कारकों में से कुछ जिन्हें जल उपयोगिता संबंधी क्रियाकलापों के केन्द्र में लाने की जरूरत थी, में इस प्रकार हैं :
सेवा आपूर्ति : प्रत्येक गांव को नहीं बल्कि प्रत्येक घर को जल आपूर्ति के प्रभाव की जांच
प्रदाता का सहयोगी के रूप में बदलाव: समुदाय को जल प्रबंधन में समान प्रतिभागी या सहयोगी के रूप में देखना।
सेवा के स्थायित्व पर जोर दिया जाना।
इस बात पर अवश्य जोर दिया जाना चाहिए कि इंजीनियरों और नागरिकों तथा अन्य संबंधित लोगों के दृष्टिकोण में परिवर्तन की जरूरत थी। वर्षों तक मुफ्त में पानी उपलब्ध होने से लोग मुफ्त योजना के तहत पानी पाने के आदी हो गए थे लेकिन जल संसाधन के संरक्षण, खपत पर नियंत्रण और पानी की सुरक्षा जैसी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने की पुरानी सामुदायिक परम्परा खत्म हो गई थी। अगर लोकतंत्रीकरण का आधार मजबूत करना था तो जल से जुड़े उद्यमियों और नागरिकों के दृष्टिकोण में समान रूप से परिवर्तन लाना जरूरी था।
संस्थागत रूपांतरण
यह बदलते मूल्यों और मानदंडों, क्रियाकलापों और प्रतिक्रियाओं, भूमिकाओं और विभिन्न संस्थाओं की जिम्मेदारियों, आधिकारिक और सामाजिक मामलों पर ध्यान केंद्रित करना जरूरी है। सभी व्यक्तियों और समूहों की प्रतिष्ठा, पहचान और अंतर्निर्भरता का सम्मान करने और परम्परागत रूप से जल संरक्षण प्रक्रिया से अलग रहे समूह जैसे दलित, शिल्पकार समूह, अल्पसंख्यक, महिलाएं, बुजुर्ग लोग, शारीरिक रूप से विकलांग लोगों और कुछ अन्य लोगों की सहभागिता सुनिश्चित करना इस प्रक्रिया के लिए महत्वपूर्ण था।
महत्वपूर्ण मुद्दे : चुनौतियां
आठ मुख्य क्षेत्रों की पहचान बेहद निर्णायक क्षेत्रों के रूप में की गई हैः
1. सभी नागरिकों को इस तरीके से सुरक्षित पेयजल की पर्याप्त मात्रा की आपूर्ति करना ताकि जल व्यवस्था आगे संकट में नहीं पड़े।
2. सभी संबंधित पक्षों के बीच एक निरंतर व ठोस जलापूर्ति व्यवस्था के निर्माण के लक्ष्य के साथ उन्हें प्रोत्साहित करना और उनकी सक्रिय सहभागिता सुनिश्चित करना।
3. प्रबंधन व्यवस्था का संस्थागत रूपांतरण, संरक्षण के नए मानदंडों पर जल व्यवस्था खरी उतरे, तकनीक, ज्ञान और कौशल का उचित उपयोग हो, यह सुनिश्चित करना।
4. सभी भागीदारों का सशक्तिकरण करते हुए परम्परागत जल प्रबंधन व्यवस्था को फिर से अस्तित्व में लाना और जल व्यवस्था के प्रबंधन में स्थानीय समुदाय की अधिक सक्रिय भूमिका सुनिश्चित करना।
5. जागरुक, सुलझे और सक्रिय समुदाय के साथ सरकारी सेवा प्रदाता को साथ लाकर सामुदायिक सक्रियता को अस्तित्व में लाना।
6. जल व्यवस्थाओं की निरंतरता सुनिश्चित करने के लक्ष्य के साथ साझे स्वामित्व की भावना का निर्माण करना।
7. स्थानीय सरकार के अधिकारियों, महिलाओं और स्थानीय समुदायों, स्थानीय निकायों, एनजीओ के प्रतिनिधिओं समेत विभिन्न पक्षों के क्षमता निर्माण पर ध्यान केंद्रित करना।
8. सरकारी एजेंसियों से जुड़े संगठनों को अधिकाधिक लोकोन्मुख बनाना, समुदाय के प्रति समर्पित और सार्वजनिक रूप से जिम्मेदार संगठन के रूप में बदलने के लिए शुरुआती बिन्दु के रूप में सरकारी एजेंसियों का रणनीतिक उपयोग।
अभियंता से समुदाय : परिवर्तन प्रक्रिया का स्थानांतरण
2004 के अंत तक लगभग 160 जल अभियंताओं को प्रशिक्षण दिया गया। उनमें से अनेक ने परिवर्तन परियोजना जैसे सामुदायिक नेताओं, पंचायत अध्यक्षों, महिला स्व-सहायता समूह के सदस्यों, दलितों, युवा समूहों आदि के साथ काम करने के दूसरे चरण की शुरुआत की। परिवर्तन परियोजना को वृहद आकार देने और उस पर काम करने के लिए 143 गांवों को चुना गया जिनमें लगभग 472 परिवार थे। पायलट परियोजनाओं को शुरू करने के लिए राज्य के 30 जिलों में से 29 से इनका चयन किया गया था।
गांवों में इंजीनियरों ने कई बैठकों, कार्यशालाओं और प्रशिक्षण कार्यक्रमों का आयोजन किया। वे प्रशिक्षण के तरीकों में गुणात्मक तब्दीली लाये। स्थानीय स्तर पर गलियों और नुक्कड़ों पर नाटक, फिल्मों और अन्य रचनात्मक गतिविधियों का आयोजन किया गया ताकि अधिक से अधिक संख्या में युवाओं, बच्चों, बुजुर्गों और वंचित लोगों को इनसे जोड़ा जा सके। उन्होंने प्रत्येक गांव की जल योजनाओं के परिप्रेक्ष्य का मूल्यांकन शुरू किया गया जहां जल उपलब्धता, विभिन्न तरह के उपयोगों के लिए मांग का मूल्यांकन, जल प्रबंधन, समान आपूर्ति बनाए रखने के लिए लोगों की सदस्यता और सुरक्षित तरीके और क्रियाकलापों के प्रति ग्रामीणों के रूझान समेत पानी के उपयोग के मौजूदा तरीकों का मूल्यांकन शुरू किया गया।
परिणाम के रूप में नए निवेश की जरूरत, विस्तार की क्षमता की तलाश, मौजूदा जल योजनाओं की मरम्मत और उसे व्यवस्थित करने तथा अधूरी योजनाओं की जरूरतों के क्रम में प्रस्तावित नई जल स्कीमों की प्रासंगिकता की आलोचनात्मक समीक्षा के लिए ग्रामीण समुदाय को प्रशिक्षित किया गया। जल की खपत का स्व-नियमन, मौजूदा जल आपूर्ति व्यवस्था का बेहतर रखरखाव, बिजली की कम खपत और प्राकृतिक संसाधनों की रखवाली की तरफ समुदाय को प्रेरित करने के लिए उचित प्रयास किए गए।
समुदाय के साथ संबंध सुधारने के आरंभिक नतीजे तुरंत आने लगे। जैसे ही अभियंताओं ने समुदाय को जोड़ना शुरू किया, वैसे ही लोग इस प्रक्रिया से जुड़ने लगे। इससे विभिन्न क्षेत्रों में अधिक केंद्रीय प्रयास को बढ़ावा मिला। इस तरह की व्यवस्था के लिए भागीदारों को अतिरिक्त जिम्मेदारी लेनी पड़ती है और समर्पित प्रयास करने पड़ते हैं। अभियंताओं द्वारा समुदाय के लोगों के पास जाने और उनके साथ काम करने से स्थानीय लोगों और उनके बीच गहरा जुड़ाव होने लगा।
मराईमालाईनगर घोषणा
जल योजनाओं की प्रकृति को बदलने की चुनौती निर्णयात्मक अभियंताओं की एक कार्यशालाओं के दौरान मिली उपलब्धि से आसान हो गई। इसे मराईमालाईनगर घोषणा कहा गया।
मराईमालाईनगर घोषणा (अगस्त 2004):
• हम लोग वर्तमान योजनाओं का मूल्यांकन करेंगे और योजनाओं का अधिकतम उपयोग सुनिश्चित करेंगे।
• जहां भी जरूरी होगा, परंपरागत स्रोतों को फिर से अस्तित्व में लाने के साथ पुनर्वास कार्य भी किया जाएगा।
• ब्लॉकों में किसी अन्य स्कीम पर काम करने से पहले इसे अंतिम रूप दिया जाएगा।
• हम सभी लोगों का लक्ष्य इसी बजट के साथ जलसेवा क्षेत्र में 10 फीसदी का इजाफा करना होगा।
महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि राज्य नियंत्रित कई अन्य स्वायतशासी सार्वजनिक संगठनों की तरह टीडब्लूएडी को राज्य बजट से राजस्व प्राप्त नहीं होता, बल्कि इसके बदले यह परियोजनाओं पर खर्च की जाने वाली राशि का कुछ फीसदी आय के रूप में पाता है। 2004 में टीडब्लूएडी बोर्ड को सभी बजटीय योजनाओं के 13 फीसदी राशि देने की बात की गई थी। इस कोष से यह वेतन का भुगतान, क्रियान्वयन संबंधी खर्च और अन्य खर्चों का वहन करता है। इस तरह से जितनी अधिक संख्या में स्कीमों को टीडब्लूएडी क्रियान्वित करता, उसकी आय उतनी ही अधिक होती। घोषणा को स्वीकार करके जल अभियंता कम आय स्वीकार कर रहे थे। लंबी बातचीत के बाद घोषणा को सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया।
2005-06 के बीच के दो वर्षों के दौरान टीडब्लूएडी की कई परियोजनाओं की पुनर्समीक्षा की गई और परियोजनाओं को छोटा किया गया। अभियंताओं ने अपने सह-अभियंताओं और सामुदायिक नेताओं को राजी किया कि लंबे समय में नए कुंए या तालाब निर्मित करने के बदले जल संरक्षण संबंधी तरीकों को अपनाना बेहतर रहेगा। यद्यपि सामुदायिक नेताओं को नई योजनाओं से जुड़ने से पहले स्व-नियमन के लिए तैयार करना समय लगने वाला मामला था लेकिन तमिलनाडु के कई गांवों के लोगों ने धीरे-धीरे जल प्रबंधन के नए तरीकों को अपनाना शुरू कर दिया।
संपूर्ण सामुदायिक जल प्रबंधन : जिंदगी की एक नयी दृष्टि
परिवर्तन प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिए स्वयंसेवी अभियंताओं के साथ एक परिवर्तन प्रबंधन समूह (सीएमजी) का गठन किया गया। सीएमजी ने एक दस्तावेज का निर्माण किया जिसे ‘आवर ड्रीम - सिक्योर वाटर फॉर ऑल, फोरएवर’ कहा गया। इसके तहत जल अभियंताओं के कार्यों के रूप में प्रकृति के संरक्षण की पहचान की गई, जल के स्रोतों को सुनिश्चित किया गया और जल की समान आपूर्ति का लक्ष्य तय किया गया। इस पर राज्य भर में चर्चा हुई और फिर इसे सर्वसम्मति से स्वीकार कर लिया गया।
अभियंता समुदाय के साथ इन क्षेत्रों में काम करने के लिए कृतसंकल्प हुए :
• बेहतर सेवा आपूर्ति के लिए सुधरी हुई व्यवस्था और प्रबंधन व्यवस्था।
• स्रोतों की सुरक्षा और सुधार।
• अन्य उपयोगों और रिचार्ज के लिए सभी परंपरागत जल निकायों को पुनर्जीवित करना।
• समान जलापूर्ति सुनिश्चित करना विशेषकर दलितों और जनजातीय लोगों जैसे कमजोर वर्गों के लिए।
• जल निकायों के अंदर और उसके आसपास साफ पर्यावरण का निर्माण।
• संक्रमण न हो, इसकी नियमित व्यवस्था और समय-समय पर जल की गुणवत्ता का परीक्षण।
• कम लागत पर उपयोग के लिए बेहतर कार्य संचालन और प्रबंधन व्यवस्था।
• जल की कम मात्रा का बेहतर उपयोग।
• संरक्षण के उपाय।
• उपयोग किए जा चुके जल का फिर से उपयोग।
• नियमन उपायों के बारे में ग्राम सभा में सर्वसम्मति।
• वंचित लोगों तक पहुंच।
3 लोकतंत्रीकरण प्रक्रिया के प्रभाव
सोपानात्मक व्यवस्था और मानसिकता में बदलाव : ‘कूदम’ को लागू करना
टीडब्लूएडी इंजीनियरों के बीच खुली बातचीत के रास्ते में बाधाओं के रूप में सोपानात्मक अंतर और हैसियत संबंधी मुद्दे मौजूद थे। इन व्यवस्थाओं को खत्म किया जाना जरूरी था, ताकि आत्म-आलोचना और ईमानदारी के साथ खुली बातचीत संभव हो सके।
इसके लिए तमिल सांस्कृतिक प्रथा ‘कूदम’ का इस्तेमाल किया गया। इसमें उत्तर भारत के चौपाल की तरह बड़ी संख्या में लोग एक जगह एकत्रित होते हैं।
कूदम को परंपरागत गांव में पवित्र माना जाता है। अधिकांशतः ऐसी जगह मंदिरों या त्योहारों के दौरान या किसी पेड़ के नीचे होती है। कूदम में सभी प्रतिभागी समान होते हैं और समाज के सभी युवा सदस्य इसमें हिस्सा लेते हैं। इसमें सामान्य महत्व के सभी मामलों पर चर्चा होती है और सर्वसम्मति से लोग निष्कर्ष पर पहुंचते हैं। कूदम के अंतर्गत पूरी व्यवस्था सहमति टिकी होती है। इसमें सभी सदस्य किसी हैसियत, सम्पत्ति या शिक्षा का ख्याल रखे बिना समान माने जाते हैं। कूदम में प्रत्येक व्यक्ति को निश्चित मुद्दे पर अपना विचार देना होता है और उस पर चर्चा होती है। कूदम एक सम्मानित जगह है। यह इसलिए पवित्र जगह है क्योंकि सभी प्रतिभागी इसे सम्मान देते हैं। यह धार्मिक स्थल नहीं है। यहां पर निगरानी या पुलिस व्यवस्था की कोई जरूरत नहीं होती क्योंकि सामाजिक सहमति लोगों को जोड़ने वाला कारक है।
कूदम के विचार ने लोगों और अभियंताओं के बीच एक नए तरह के अपनेपन से भरे संबंधों की बुनियाद रखने में मदद की। 2006 के अंत तक 470 से अधिक अभियंताओं ने सघन प्रशिक्षण कार्यक्रम में हिस्सा लिया। इन अभियंताओं में मुख्य अभियंताओं से लेकर सहायक अभियंता तक सभी शामिल थे।
परिवर्तन प्रक्रिया की रूपरेखा बनाने में फलक के रूप में कूदम
जब अभियंताओं ने प्रत्येक गांव में कूदम की रचना की जरूरत जताई लो समुदाय के सदस्यों ने सकारात्मक प्रतिक्रिया दी। इस तरह की किसी व्यवस्था के निर्माण की जरूरत और उसमें सभी लोगों की समान भागीदारी में कई समुदायों की जरूरतें पूरी होती नजर आईं। ग्रामीण कूदम में पंचायत अध्यक्ष, स्थानीय अधिकारी और समुदाय, जिला स्तरीय कूदम और चुने गये प्रतिनिधियों तथा आम नागरिकों के कूदमों का गठन किया गया। जिस विचार ने अधिकांश लोगों को प्रभावित किया वह था सभी की समानता और अपने विचार और दृष्टिकोण को अभिव्यक्त करने का समान अवसर जहां जाति वर्ग, जेंडर और समुदाय के लिए कोई जगह नहीं थी।
परिवर्तन प्रक्रिया की शुरुआत में इस तरीके पर विचार नहीं किया गया था लेकिन कूदम के विचार ने संगठन के भीतर और बाहर परिवर्तन के प्रयासों को ऊर्जावान बना दिया और समाज के विभिन्न खंडों के बीच आपसी सामंजस्य की बेहतरीन बुनियाद रखी।
143 ग्राम पंचायतों के अंतर्गत 472 बसाहटों के परिणाम
नीचे दिये आंकड़ें 2006 के अंत में लगभग 140 ग्राम पंचायतों के अनुभवों से संबंधित हैं। इसके प्रभाव को नजरिये में आये सात बदलावों की प्रकृति में देखा जा सकता है। ये हैं :
बदलाव 1 : तकनीकी विकल्प की पसन्द
बदलाव 2 : अधिक लागत प्रभावी उपाय की तलाश
बदलाव 3 : सामुदायिक जुड़ाव के प्रति
बदलाव 4 : बचत के प्रति
बदलाव 5 : संरक्षण के प्रति
बदलाव 6 : क्रियान्वयन और रखरखाव संबंधी खर्चों में कमीं
बदलाव 7 : निरंतरता बनाए रखने की व्यवस्था
140 ग्राम पंचायतों के पूरे आंकड़े उपलब्ध हैं, उनकी 330 स्कीमों में से सिर्फ 128 यानि 39 फीसदी स्कीमों के तहत नए कुएं खोदने पर सहमति बनी और सभी ग्राम पंचायतों में से सिर्फ 8 यानि 2 फीसदी के तहत संयुक्त जलापूर्ति योजना (सीडब्लूएसएस) का चुनाव हुआ। बाकी पाइलट गांव की 194 स्कीमें जो सभी स्कीमों की 59 फीसदी हैं के तहत कम लागत वाले विकल्पों का चयन किया गया, जिनके अंतर्गत स्थानीय तकनीक, अधिकांश वर्तमान स्कीमों के पुनर्वास पर फोकस करने वाली संरक्षण उन्मुख जल स्कीमों, पाईप लाईन के विस्तार, लघु पावर पम्प या हैंड पम्प आते हैं। इससे अलग तरह के निर्णय लेने की प्रक्रिया जो सामुदायिक स्वामित्व, पसंद और क्रियान्वयन लागत के प्रबंधन की इच्छा पर आधारित है, प्रतिध्वनित होती है।
सबसे अधिक महत्वपूर्ण परिणामों में एक परिणाम जो इस प्रक्रिया की निहित क्षमता को रूपायित करता है, वह है परियोजना गांव में प्रति परिवार पूंजी लागत में 40 फीसदी की कटौती। देखा गया कि गैर पाइलट स्कीमों के अंतर्गत प्रति परिवार औसत लागत लगभग 4580 रुपये थी जबकि पायलट बैच में औसत लागत सिर्फ 1827 है। वास्तविक आधार पर इसका मतलब प्रत्येक वर्ष 2006 के इसी बजट के अंतर्गत 400,000 परिवारों को अतिरिक्त सेवा प्रदान करना संभव है।
धीरे-धीरे यह साफ हो गया कि उचित तकनीक विकल्पों का चयन और समयबद्ध रखरखाव, पंपिग और आपूर्ति का घंटे के हिसाब से नियमन, पर्याप्त गुणवत्ता और मात्रा बनाए रखने आदि से भविष्य में स्कीमों के खर्च में कटौती की जा सकती है। इन सभी उपायों से प्रत्येक गांव में जलापूर्ति व्यवस्था के क्रियाकलाप और उसकी प्रकृति पर सकारात्मक असर पड़ा। पंपिंग घंटों के नियमन में (1) यह सुनिश्चित करना शामिल था कि बोर पम्प जरूरत से अधिक शक्तिशाली न हो (2) पंपिग के निर्धरित घंटों पर अमल जो स्रोत में उपलब्ध जल की मात्र और आपूर्ति के लिए जरूरी मात्रा के बीच संतुलन सुनिश्चित करने पर आधारित है। पंपिंग के घंटों को कम करने में इसका व्यापक असर पड़ा और इससे बिजली की खपत भी कम हो गई। जल स्रोत की निरंतरता बनाए रखने के दृष्टिकोण से जल संसाधन को फिर से व्यवस्थित करने और पंपिग घंटों का नियमन समान रूप से महत्वपूर्ण था। इसके अलावा टीसीडब्लूएम की पहल से कई सारी आधुनिकतम और प्रगतिशील स्कीमों का क्रियान्वयन हुआ। पेड़ लगाने के कार्यक्रम को बड़े स्तर पर क्रियान्वित किया गया। इस क्रम में 20,000 से अधिक पौधे लगाये गए। कई सारे बांधों का निर्माण वर्षा के जल के संचय के उद्देश्य से किया गया।
यह तथ्य उजागर करना महत्वपूर्ण है कि इन उपायों से गांवों के क्रियान्वयन और रखरखाव खर्च में लगभग 25 फीसदी की कमी आई जबकि राजस्व संग्रह में 70 फीसदी की वृद्धि हुई जिससे इन स्कीमों की वित्तीय निरंतरता व मजबूती में सुधार हुआ।
इन आंकड़ों से नई पहल के वित्तीय प्रभाव का पता चलता है।
योगदान : राज्य के 29 जिलों की 143 ग्राम पंचायतों के 50,896 परिवारों द्वारा 1.42 करोड़ रुपये का योगदान जिससे स्वामित्व की भावना उजागर होती है।
निवेश लागत : कुल मिलाकर 40-50 फीसदी की कमी, नियमित स्कीमों में प्रत्येक परिवार की औसत परियोजना लागत 4580 रुपये से प्रति परिवार 1827 रुपये।
निम्न लागत विकल्प : 50 फीसदी स्कीमें अब अति महंगे विकल्पों के बदले पाईप लाईन विस्तार जैसी स्कीमें हैं।
बचत : नियमित बजट में आठ से 33 फीसदी तक की बचत हासिल की गई। क्रियान्वयन और बचत संबंधी खर्च घटकर प्रति परिवार 18.6 रुपये हो गया।
कुल मिलाकर बजटीय स्कीमों के अंतर्गत 50 करोड़ रूपये की बचत संभव हुई।
समानता : 65 फीसदी स्कीमें उन समूहों और समुदायों के लिए थी जहां अधिकांश लोग गरीबी रेखा से नीचे थे। इनमें अनुसूचित जातियां भी शामिल थी।
निरंतरता : 90 फीसदी घरों में वर्षा के पानी के रखरखाव की जा रही व्यवस्था और 150 परंपरागत जल निकायों को पुनर्जीवित किया गया।
4 लोकतंत्रीकरण के प्रतिमान का विस्तार
सार्वजनिक-निजी भागीदारी के विकल्प के रूप में सार्वजनिक-सार्वजनिक भागीदारी
टीडब्लूएडी द्वारा शुरू किए गए लोकतंत्रीकरण प्रयोग के सकारात्मक परिणाम सार्वजनिक व्यवस्थाओं में प्रशासनिक सुधार लाने की प्रक्रिया में निहित शक्ति के सूचक हैं। अभी भी कई चुनौतियां हैं, जो जल प्रबंधन परिवर्तन प्रक्रिया की सफलता पर खतरे उपस्थित कर रही हैं। परिवर्तन प्रक्रिया को लगातार बनाए रखना और परिवर्तन के लिए नए मामलों को सामने लाना, दो सबसे महत्वपूर्ण मुद्दे हैं जिनका सामना टीडब्लूएडी एक संगठन के रूप में अभी कर रहा है।
लोकतंत्रीकरण के प्रयोग का सबसे महत्वपूर्ण परिणाम कई परिणाम सरकारी व्यवस्थाओं, सरकारी अधिकारों, राजनीतिज्ञों और गरीब लोगों के बारे में कई परंपरागत गलत धरणाओं का टूटना है। सबसे शक्तिशाली यह धारणा खत्म हो गई कि लोग विशेषकर गरीब लोग हमेशा सिर्फ मुफ्त की स्कीमें चाहते हैं और अपनी संपदाओं और संसाधनों की रखरखाव की जिम्मेदारी नहीं उठाएंगे। कई सारे गांव में अब स्पष्ट रूप से प्रदर्शित हो चुका है कि समुदाय अपनी जल स्कीमों का कार्यभार संभालने के लिए इच्छुक है और जल संसाधन का उचित और समान वितरण हो, इसे सुनिश्चित करने के लिए भी वह तत्पर है। नया कार्यविचार जिसे धीरे-धीरे जल अभियंताओं द्वारा स्वीकार किया जा रहा है, बदली हुई स्थितियों के प्रति सरकारी अधिकारियों द्वारा प्रतिक्रिया जताने की क्षमता का संकेतक है। इसके तहत पारदर्शिता और जिम्मेदारी निर्वहन पर बल दिया गया और सकारात्मक नतीजे सामने जाए। टीडब्लूएडी अभियंताओं ने यह भी दिखा दिया है कि वे भी चुनौतियां स्वीकार करने में किसी अन्य पेशेवरों की तरह ही रचनात्मक, प्रगतिशील, प्रतिबद्ध और उत्सुक हैं।
अगस्त 2006 में भारत सरकार और यूनिसेफ ने टीडब्लूएडी के अनुभव को बांटने के लिए गंभीर पेयजल संकट का सामना कर रहे दस राज्यों का सम्मेलन बुलाया था। सम्मेलन के अंत में एक राष्ट्रीय स्तर का परिवर्तन प्रबंधन फार्म का गठन किया गया। सम्मेलन में हिस्सा लेने वाले सभी राज्यों ने एकमत से प्रस्ताव पर अपनी स्वीकृति दे दी कि पेजयल क्षेत्र में परिवर्तन के लिए भविष्य के प्रयास आवश्यक रूप से संस्थागत रूपांतरण से जुड़े हुए होने चाहिए।
सबसे महत्वपूर्ण यह है कि महाराष्ट्र और झारखंड ने टीडब्लूएडी के अभियंताओं को तमिलनाडु में की गई अपने इंजीनियरों की कोशिशों से अवगत कराने के लिए आमंत्रित किया। टीडब्लूएडी के इंजीनियरों ने महाराष्ट्र जल प्रतिकरण (एमजेपी) और झारखंड के जल विभाग के अभियंताओं के लिए कार्यशालाओं का आयोजन किया जिसका उद्देश्य परिवर्तन के लिए महत्वपूर्ण क्षेत्रों की पहचान करने में उनकी मदद करना था।
सार्वजनिक क्षेत्र के एक संस्थान के ऐसे क्रियाकलापों से अन्य सार्वजनिक क्षेत्र के प्रदर्शन को सुधारने की इस प्रक्रिया को संयुक्त राष्ट्र द्वारा वाटर ऑपरेटर्स पार्टनरशिप (डब्ल्यूओपी) या पब्लिक-पब्लिक पार्टनरशिप (पीयूपी) कहा गया। पीयूपी का मतलब है सार्वजनिक क्षेत्र के सफल संगठनों में अन्य सार्वजनिक संगठनों में गुणात्मक सुधार लाने के लिए मदद के लिए पहलकदमी लेना। यह परिवर्तन सार्वजनिक निजी भागीदारी के विचार को प्रोत्साहित करने वाले अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों द्वारा रखे गए निजीकरण के मॉडल को चुनौती देने वाला शक्तिशाली वैचारिक तंत्र बन गया है। भारत के अन्य जल संगठनों और विदेशों के भी कुछ संगठनों से भी उनकी परियोजनाओं में सहायता करने के लिए आग्रह सामने आए हैं।
यह बताना आवश्यक है कि टीडब्ल्यूएडी प्रयोग में परिवर्तन के जिस मॉडल को अपनाया गया वह जल विभाग तक ही सीमित नहीं है बल्कि स्वास्थ्य, कल्याण और शैक्षिक संस्थानों समेत कई अन्य क्षेत्रों के लिए उसका सफलतापूर्वक उपयोग किया जा सकता है।
वैश्विक रूप से आज टीडब्ल्यूएडी का अनुभव सार्वजनिक सेवाओं का सच्चे अर्थों में लोकतंत्रीकरण करने का उदाहरण बन गया है, जिसके तहत लोग और समुदाय आखिरकार सार्वजनिक उपयोगिता वाले संसाधनों और साझी संपत्ति के उपयोग का कार्यभार खुद संभालते हैं। टीडब्ल्यूएडी बोर्ड द्वारा पूर्ण लोकतांत्रिकरण के लक्ष्यों को हासिल करने से पहले अभी काफी दूरी तय की जानी है लेकिन संतुष्ट करने वाली बात यह है कि यात्रा की शुरुआत हो चुकी है और वह भी निर्णायक रूप से।
मद्रास हाइकोर्ट के एडवोकेट वी सुरेश खाद्य सुरक्षा मामलों के सुप्रीम कोर्ट कमिश्नर के सलाहकार (तमिलनाडु) हैं और पीयूसीएल (तमिलनाडु एवं पांडिचेरी) के अध्यक्ष हैं। काश्तकारी संघटना से जुड़कर आदिवासियों के अधिकारों के लिए काम करने वाले प्रदीप प्रभु कैम्पेन फॉर सरवाइवल एंड डिग्निटि के राष्ट्रीय संयोजक और नेशनल इंस्टिट्यूट फॉर रुरल डेवलपमेंट के सीनियर फेलो हैं। वी सुरेश और प्रदीप प्रभु शिक्षा, स्वास्थ्य, कल्याण और भी हाल में पानी जैसी सार्वजनिक सेवाओं में शासन संबंधी विभिन्न सुधारों पर काम कर रहे हैं।
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