प्रकृति प्रदत्त दुर्लभ साधनों के कुशल उपयोग करके विकास प्रक्रिया को सतत् गति देने के परिप्रेक्ष्य कृषि उत्पादकता को बढ़ाने के लिये जल स्रोत प्रबंध एक अपरिहार्य दशा बन चुकी है, विशेषकर भारत जैसी विकासोन्मुख अर्थव्यवस्था में जहां वर्षा अनियंत्रित, असामयिक व अनिश्चित हो। वर्षा की इस प्रकृति के कारण होने वाली अर्थव्यवस्था की अस्थिरता से कारगर ढंग से निपटने के लिये उपलब्ध जल स्रोतों के प्रबंध पर वृद्धिशील बल प्रदान किया जा रहा है ताकि सिंचाई के अन्तर्गत क्षेत्रफल को अधिकाधिक बढ़ाया जा सके। मौसम, मृदागठन, स्थलाकृति, खाद मात्रा व अन्य विविध सस्य क्रियाओं के अनुरूप जल को प्रयोग की परिवर्तित पद्धति को जल प्रबंध कहते हैं। किसानों को आज भी इन विषयों की पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है, तथा जहां थोड़ी-बहुत जानकारी उपलब्ध है, वह भी सरल भाषा में किसानों तक नहीं पहुंच पाती।
भारत में जल के विभिन्न पहलुओं पर प्राचीन साहित्य में विस्तृत उल्लेख मिलता है। वेदों में भी कुँओ, नहरों, बांधों एवं तालाबों के वर्णन के साथ-साथ सिंचाई में इन साधनों के महत्व तथा राजा व प्रजा के कर्तव्यों का उल्लेख है। भारत में अनेक स्थानों पर सदियों पुराने कुँए इनका प्रमाण हैं। प्रकृति ने इस देश को विपुल जल सम्पदा सौंपी हैं। सिंचाई के लिये आवश्यक जल प्राप्त करने के हमारे पास प्रमुखः दो श्रोत हैः (1) सतही जल, एवं (2) भूगर्भीय जल। भारत में देश के बाहर के सतही प्रवाह, पूर्व वर्ष की सिंचाई की रोकी गई आर्द्रता तथा जल वर्णन से प्राप्त ताजा जल की मात्रा 442 मिलियन हेक्टेयर मीटर के बराबर अनुमानित की गई है जो वर्तमान सभी मानवीकृत तरीकों द्वारा सिंचित फसली क्षेत्र से दस गुना अधिक क्षेत्रफल की सिंचाई के योग्य है। लेकिन इसमें से लगभग 285 मिलियन हेक्टेयर मीटर (65%) वाष्पीकरण से नष्ट हो जाता है अथवा समुद्र में बह जाता है। केवल 110 मिलियन हेक्टेयर मीटर (25%) हरीतमा आच्छादन द्वारा वाष्पन के रूप में प्रयोग लाया जाता है, 9 मिलियन हेक्टेयर मीटर भूगर्भीय जल के रूप में धारण किया जाता है और केवल 35 मिलियन हेक्टेयर मीटर में से 24 मिलियन हेक्टेयर मीटर सतही जल से तथा 11 मिलियन हेक्टेयर मीटर भू-गर्भीय जल सिंचाई के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। इन समस्त उपयोगों के बाद शेष 3 मिलियन हेक्टेयर मीटर जल अन्य प्रयोगों में आता है। यदि अब हम यह मानें कि सिंचाई के लिये प्रयोग लाये जाने जल में से 60% तो नित्यन्दन के रूप में लुप्त हो जाता है, तो हम केवल 14 मिलियन हेक्टेयर मीटर जल ही वर्ष भर में शुद्ध सिंचाई के रूप में प्रयोग कर पाते हैं। यह देश में होने वाले कुल वार्षिक जल अर्न्तप्रवाह का केवल 3.2% जल का पूरा उपयोग नहीं किया जाता है। इसमें से भी 50% जल धान की फसल उगाने के कार्य में लिया जाता है जिसे सिंचाई जल का सर्वाधिक अकुशल प्रयोगकर्ता माना जा सकता है क्योंकि यह पानी का प्रयोग तो अधिकतम करती है और उपज कम से कम देती है।
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भारत की जल सम्पदा
भारत में जल के विभिन्न पहलुओं पर प्राचीन साहित्य में विस्तृत उल्लेख मिलता है। वेदों में भी कुँओ, नहरों, बांधों एवं तालाबों के वर्णन के साथ-साथ सिंचाई में इन साधनों के महत्व तथा राजा व प्रजा के कर्तव्यों का उल्लेख है। भारत में अनेक स्थानों पर सदियों पुराने कुँए इनका प्रमाण हैं। प्रकृति ने इस देश को विपुल जल सम्पदा सौंपी हैं। सिंचाई के लिये आवश्यक जल प्राप्त करने के हमारे पास प्रमुखः दो श्रोत हैः (1) सतही जल, एवं (2) भूगर्भीय जल। भारत में देश के बाहर के सतही प्रवाह, पूर्व वर्ष की सिंचाई की रोकी गई आर्द्रता तथा जल वर्णन से प्राप्त ताजा जल की मात्रा 442 मिलियन हेक्टेयर मीटर के बराबर अनुमानित की गई है जो वर्तमान सभी मानवीकृत तरीकों द्वारा सिंचित फसली क्षेत्र से दस गुना अधिक क्षेत्रफल की सिंचाई के योग्य है। लेकिन इसमें से लगभग 285 मिलियन हेक्टेयर मीटर (65%) वाष्पीकरण से नष्ट हो जाता है अथवा समुद्र में बह जाता है। केवल 110 मिलियन हेक्टेयर मीटर (25%) हरीतमा आच्छादन द्वारा वाष्पन के रूप में प्रयोग लाया जाता है, 9 मिलियन हेक्टेयर मीटर भूगर्भीय जल के रूप में धारण किया जाता है और केवल 35 मिलियन हेक्टेयर मीटर में से 24 मिलियन हेक्टेयर मीटर सतही जल से तथा 11 मिलियन हेक्टेयर मीटर भू-गर्भीय जल सिंचाई के रूप में प्रयोग में लाया जाता है। इन समस्त उपयोगों के बाद शेष 3 मिलियन हेक्टेयर मीटर जल अन्य प्रयोगों में आता है। यदि अब हम यह मानें कि सिंचाई के लिये प्रयोग लाये जाने जल में से 60% तो नित्यन्दन के रूप में लुप्त हो जाता है, तो हम केवल 14 मिलियन हेक्टेयर मीटर जल ही वर्ष भर में शुद्ध सिंचाई के रूप में प्रयोग कर पाते हैं। यह देश में होने वाले कुल वार्षिक जल अर्न्तप्रवाह का केवल 3.2% जल का पूरा उपयोग नहीं किया जाता है। इसमें से भी 50% जल धान की फसल उगाने के कार्य में लिया जाता है जिसे सिंचाई जल का सर्वाधिक अकुशल प्रयोगकर्ता माना जा सकता है क्योंकि यह पानी का प्रयोग तो अधिकतम करती है और उपज कम से कम देती है।
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