यदि हम चाहते हैं कि हमारे नगरों के जलस्रोत व भूमि साफ-स्वच्छ रहें तो कचरा न्यूनतम उत्पन्न हो, इसके लिए ‘यूज एण्ड थ्रो’ प्रवृति को हतोत्साहित करने वाले टिकाऊ उत्पाद नियोजित करें। नीतिगत तौर पर मानें कि कचरे को ढोकर ले जाना वैज्ञानिक और नैतिक... दोनों दृष्टि से पाप है। कचरे का निष्पादन उसके स्रोत पर ही करें। निर्मलता का सर्वश्रेष्ठ सिद्धांत यही है। जलस्रोतों को पहले मलीन करना और फिर साफ कराने का अनुभव अब तक मलीनता बढ़ाने वाला ही साबित हुआ है। दुनिया के प्रथम नगर फिलस्तीन और इराक में थे। उन्होंने भी अपनी स्थापना से पूर्व कई पीढ़ियों की जरूरत के पानी का इंतजाम किया; कुण्ड बनाए। हड़प्पाकालीन नगर अवशेषों में 30 मीटर चौड़ी और 25-30 किलोमीटर लंबी नहरें मिलीं।
हर तीसरे घर के सामने एक कुआं मिला। सिंधु घाटी सभ्यता इतनी सुनियोजित थी कि जलनिकासी की उतनी अच्छी व्यवस्था के लिए हम आज भी उसके योजनाकारों पर गर्व कर सकते हैं। किंतु इस दृष्टि से वर्तमान की कई बसावटें गर्व करने लायक नहीं हैं।
नगर कहां बसे; यह तय करने में पानी से नजदीकी निःसंदेह एक प्रमुख कारण होता है। हमें यह सबक सभ्यता विकास की प्राथमिक पुस्तकों में शुरू से ही पढ़ाया जाता रहा है। विजयनगर, बुरहानपुर, हैदराबाद, गोलकुण्डा, तक्षशिला जैसे पुरातत्व महत्व के नगरों से लेकर चंडीगढ़, बंगलुरु, जमशेदपुर, गांधीनगर, पुणे, नवी मुंबई जैसी नई बसावट तक के लिए जगह के चुनाव में पानी एक खास कारक रहा है।
भारत में सबसे कम औसत वर्षा वाले इलाके में भी नगर नियोजकों ने जैसलमेर के लिए ऐसी जगह का चुनाव किया, जो पर्वत श्रृंखलाओं के बीच स्थित है; जहां मीठे पानी के अनेक स्रोत थे।
एक विशाल कुआं ऐसा था, जिसके बारे में किवदन्ती है कि उसे श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से बनाया। जगह का ढाल ऐसा शानदार था कि सन् 1367 में जैसलमेर के राजा घड़सी रावल द्वारा बनाए तालाब घड़ीसर का पानी आज भी कभी नहीं सूखता। इसका आगोर इतना विशाल है कि एक ओर का विस्तार ही 20 किलोमीटर है। हर बारिश से पहले राजा खुद शामिल होकर पूरे आगोर को साफ कराता था। घड़ीसर में नहाने व मवेशियों को पानी पिलाने वालों को राजा स्वयं दंडित भी करता था।
अतीत के अनुभवों से एक सबक साफ है कि संसाधन सीमित हों तो खर्च व खर्च करने वालों की भी सीमा बननी चाहिए। जनसंख्या का नियोजन, किसी भी नगर के नियोजन की आवश्यक शर्त है। जनसंख्या का सटीक आकलन किए बगैर किए गए नियोजन से तो भविष्य में हर संसाधन कम पड़ जाने वाला है।
दूसरी जो बात नगर नियोजकों को दिमाग में ठीक से बैठा लेनी चाहिए, वह यह कि खाली भूमि बेकार नहीं होती। पानी और आबोहवा की सुरक्षा के लिहाज से उसका अपना महत्व होता है। अतः नियोजकों को सैद्धांतिक तौर पर तय करना चाहिए कुल भूमि में से न्यूनतम कितनी प्रतिशत भूमि खुली रहेगी, अधिकतम कितनी प्रतिशत पर अभी निर्माण होगा और कितनी पर कालांतर में आवश्यकता होने पर।
खुली भूमि में हरित क्षेत्र, कचरा निष्पादन क्षेत्र और जलक्षेत्र के बीच आपसी अनुपात तय करें। तद्नुसार ‘वाटर रिजर्व’, ‘ग्रीन रिजर्व’ और ‘वेस्ट रिजर्व’ जोन का निर्धारण करें। नगर के कौन से हिस्से में उद्योग, कौन से हिस्से में आवास आदि हों, इनके निर्धारण में अन्य कारकों के साथ-साथ जलस्रोतों की क्षमता और उपलब्धता का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। निर्माण क्षेत्र में आवश्यकतानुरूप क्रमशः उद्योग, वाणिज्य, आवास, कार्यालय, शैक्षिक, स्वास्थ्य, सड़क, पार्किंग, जनसुविधा, कचरा निष्पादन व जल क्षेत्रों का क्षेत्रफल सुरक्षित रहना चाहिए।
प्रत्येक नदी के दो तट होते हैं- ऊंचा तट और नीचा तट। नदी किनारे नियोजित नगरों को या तो दो नदियों के दोआब में बसाना चाहिए या फिर नदी के ऊंचे तट की ओर। नदी के निचले तट पर होनी वाली बसावट बाढ़ की त्रासदी झेलने के लिए सदैव मजबूर रहेगी।
नदी के दोनों ओर बसावटों का नियोजन नदी को अतिक्रमण, शोषण और प्रदूषण के तीन पाटों के बीच पीस देने जैसा दुष्प्रयास है। इसका नतीजा भविष्य में बसावटें को खुद झेलना पड़ता है। सबक यह भी है कि छोटी-मध्यम-बड़ी नदी के ऊंचे तट की ओर भी नदी भूमि से क्रमशः 200, 400 और 600 मीटर की दूरी पर ही स्थाई निर्माण का नियोजन किया जाना चाहिए। उद्योगों को नदी भूमि से पांच किलोमीटर दूर ही नियोजित करना चाहिए। नदी भूमि को प्राकृतिक हरित क्षेत्र की भांति संरक्षित और संर्वद्धित करना चाहिए।
नगर नियोजन से पहले देख लेना चाहिए कि वर्तमान एवं भविष्य में संभावित आबादी की जरूरत की जलापूर्ति हेतु स्थानीय स्तर पर पर्याप्त समृद्ध जलस्रोत मौजूद हैं। यदि ऐसा नहीं है तो तद्नुसार नए जलस्रोत नियोजित किए जाने चाहिए।
नगर के कौन से हिस्से में उद्योग, कौन से हिस्से में आवास आदि हों, इनके निर्धारण में अन्य कारकों के साथ-साथ जलस्रोतों की क्षमता और उपलब्धता का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। वर्षाजल संचयन और भूजल निकासी की गहराई का नियमन नियोजन के खाके में सर्वमान्य कानून की तरह लागू किया जाना चाहिए।
एक सबक यह है कि जिस स्थान पर नगर नियोजित किया जाए, उस स्थान की मूल संचेतना, शक्ति, भौगोलिक स्वरूप यानी डीएनए से छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। पानी की दृष्टि से इसका मतलब यह भी है कि वहां पहले से मौजूद जलस्रोतों के रकबा व गुणवत्ता से छेड़छाड़ न हो; उनका चिन्हीकरण व सीमांकन हो।
ऐसा न होने के कारण ज्यादातर नगरों में जलस्रोतों पर कब्जा है; सरकारी-गैरसरकारी बसावटें हैं। वार्षिक जल अंकेक्षण यानी ‘वाटर ऑडिट’ इस पर रोक में सहायक सिद्ध हो सकता है।
गौरतलब है कि प्रत्येक स्थान में जलनिकासी के परंपरागत मार्ग होते हैं। इन परंपरागत मार्गों में किसी भी तरह का अवरोध कालांतर में बाढ़ और विनाश का कारण बनता है। यह समझे बगैर कि असमतल भूमि खण्डों को पाटने की गलती जलनिकासी के मार्ग में अवरोध पैदा करती है। कचरा डंप करने हेतु जगह के चुनाव में गलती से भी भूजल का निकासी मार्ग बाधित होता है। मुंबई में यही हुआ। अतः कचरा डंप करने की जगह के चुनाव में सावधानी भी नगर नियोजक की निगाह में रहनी चाहिए।
गौरतलब है कि नित पैदा हो रहा कचरा पानी ही नहीं, सेहत के लिए भी बड़ा खतरा बन चुका है। ज्यादातर रासायनिक कचरा बिना शोधन के ही खाली जगहों भर दिया जाता है।
जिस क्षेत्र में बिना शोधन ई कचरा डंप किया जाता है, कायदा है कि वहां अगले 15 साल तक कोई भी बसावट नियोजित नहीं की जानी चाहिए। कारण ही अगले 15 साल तक उस क्षेत्र में जल में घुलनशील प्रदूषण व गैसों का उत्सर्जन होता रहता है।
इस कायदे की परवाह किए बगैर न मालूम किस फायदे के लालच में ऐसे लैंडफिल एरिया पर भी बसावटें नियोजित की जा रही हैं। इन अनुभवों का सबक यह है कचरे का उचित नियोजन आज एक विशेषज्ञता और कड़े कानूनों की मांग करता है। यह सब किया जाना चाहिए।
यदि हम चाहते हैं कि हमारे नगरों के जलस्रोत व भूमि साफ-स्वच्छ रहें तो कचरा न्यूनतम उत्पन्न हो, इसके लिए ‘यूज एण्ड थ्रो’ प्रवृति को हतोत्साहित करने वाले टिकाऊ उत्पाद नियोजित करें। नीतिगत तौर पर मानें कि कचरे को ढोकर ले जाना वैज्ञानिक और नैतिक... दोनों दृष्टि से पाप है। कचरे का निष्पादन उसके स्रोत पर ही करें। निर्मलता का सर्वश्रेष्ठ सिद्धांत यही है।
जलस्रोतों को पहले मलीन करना और फिर साफ कराने का अनुभव अब तक मलीनता बढ़ाने वाला ही साबित हुआ है। आज ताजा पानी नहरों में और सीवेज के मल और उद्योगों के शोधित अवजल नदियों में बहाया जा रहा है। नगरीय नालों का नियोजन ऐसा हो कि इसके विपरीत ताजा जल नदी में बहे और शोधित मल-अवजल नहरों में बहाया जाए।
नियोजित कॉलोनियों के निकट उनमें काम करने वाले महरियों, सफाई कर्मियों, ड्राइवरों तथा बढ़ई आदि कारीगरों के लिए आवास नियोजित न करने के कारण नदी तट व अन्य खुली भूमि मलीन बस्तियों में तब्दील होती हैं। ऐसे में मलीनता से मुक्ति संभव हो, तो हो कैसे? अतः किसी की प्रत्येक नियोजित बसावट में इन आवश्यक सहायकों का सम्मानजनक इंतजाम एक जरूरी शर्त की तरह शामिल की जानी चाहिए। यह इंसानियत भी है और उचित नियोजन भी।
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अरुण तिवारी
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ईमेल : amethiarun@gmail.com
हर तीसरे घर के सामने एक कुआं मिला। सिंधु घाटी सभ्यता इतनी सुनियोजित थी कि जलनिकासी की उतनी अच्छी व्यवस्था के लिए हम आज भी उसके योजनाकारों पर गर्व कर सकते हैं। किंतु इस दृष्टि से वर्तमान की कई बसावटें गर्व करने लायक नहीं हैं।
पानी से नजदीकी : पहला सबक
नगर कहां बसे; यह तय करने में पानी से नजदीकी निःसंदेह एक प्रमुख कारण होता है। हमें यह सबक सभ्यता विकास की प्राथमिक पुस्तकों में शुरू से ही पढ़ाया जाता रहा है। विजयनगर, बुरहानपुर, हैदराबाद, गोलकुण्डा, तक्षशिला जैसे पुरातत्व महत्व के नगरों से लेकर चंडीगढ़, बंगलुरु, जमशेदपुर, गांधीनगर, पुणे, नवी मुंबई जैसी नई बसावट तक के लिए जगह के चुनाव में पानी एक खास कारक रहा है।
भारत में सबसे कम औसत वर्षा वाले इलाके में भी नगर नियोजकों ने जैसलमेर के लिए ऐसी जगह का चुनाव किया, जो पर्वत श्रृंखलाओं के बीच स्थित है; जहां मीठे पानी के अनेक स्रोत थे।
एक विशाल कुआं ऐसा था, जिसके बारे में किवदन्ती है कि उसे श्रीकृष्ण ने अपने सुदर्शन चक्र से बनाया। जगह का ढाल ऐसा शानदार था कि सन् 1367 में जैसलमेर के राजा घड़सी रावल द्वारा बनाए तालाब घड़ीसर का पानी आज भी कभी नहीं सूखता। इसका आगोर इतना विशाल है कि एक ओर का विस्तार ही 20 किलोमीटर है। हर बारिश से पहले राजा खुद शामिल होकर पूरे आगोर को साफ कराता था। घड़ीसर में नहाने व मवेशियों को पानी पिलाने वालों को राजा स्वयं दंडित भी करता था।
आमदनी अठन्नी तो, क्यूं खर्च करें रुपया
अतीत के अनुभवों से एक सबक साफ है कि संसाधन सीमित हों तो खर्च व खर्च करने वालों की भी सीमा बननी चाहिए। जनसंख्या का नियोजन, किसी भी नगर के नियोजन की आवश्यक शर्त है। जनसंख्या का सटीक आकलन किए बगैर किए गए नियोजन से तो भविष्य में हर संसाधन कम पड़ जाने वाला है।
बेकार नहीं खाली भूमि
दूसरी जो बात नगर नियोजकों को दिमाग में ठीक से बैठा लेनी चाहिए, वह यह कि खाली भूमि बेकार नहीं होती। पानी और आबोहवा की सुरक्षा के लिहाज से उसका अपना महत्व होता है। अतः नियोजकों को सैद्धांतिक तौर पर तय करना चाहिए कुल भूमि में से न्यूनतम कितनी प्रतिशत भूमि खुली रहेगी, अधिकतम कितनी प्रतिशत पर अभी निर्माण होगा और कितनी पर कालांतर में आवश्यकता होने पर।
खुली भूमि में हरित क्षेत्र, कचरा निष्पादन क्षेत्र और जलक्षेत्र के बीच आपसी अनुपात तय करें। तद्नुसार ‘वाटर रिजर्व’, ‘ग्रीन रिजर्व’ और ‘वेस्ट रिजर्व’ जोन का निर्धारण करें। नगर के कौन से हिस्से में उद्योग, कौन से हिस्से में आवास आदि हों, इनके निर्धारण में अन्य कारकों के साथ-साथ जलस्रोतों की क्षमता और उपलब्धता का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। निर्माण क्षेत्र में आवश्यकतानुरूप क्रमशः उद्योग, वाणिज्य, आवास, कार्यालय, शैक्षिक, स्वास्थ्य, सड़क, पार्किंग, जनसुविधा, कचरा निष्पादन व जल क्षेत्रों का क्षेत्रफल सुरक्षित रहना चाहिए।
तीन पाटों में न फांसे नदी को
प्रत्येक नदी के दो तट होते हैं- ऊंचा तट और नीचा तट। नदी किनारे नियोजित नगरों को या तो दो नदियों के दोआब में बसाना चाहिए या फिर नदी के ऊंचे तट की ओर। नदी के निचले तट पर होनी वाली बसावट बाढ़ की त्रासदी झेलने के लिए सदैव मजबूर रहेगी।
नदी के दोनों ओर बसावटों का नियोजन नदी को अतिक्रमण, शोषण और प्रदूषण के तीन पाटों के बीच पीस देने जैसा दुष्प्रयास है। इसका नतीजा भविष्य में बसावटें को खुद झेलना पड़ता है। सबक यह भी है कि छोटी-मध्यम-बड़ी नदी के ऊंचे तट की ओर भी नदी भूमि से क्रमशः 200, 400 और 600 मीटर की दूरी पर ही स्थाई निर्माण का नियोजन किया जाना चाहिए। उद्योगों को नदी भूमि से पांच किलोमीटर दूर ही नियोजित करना चाहिए। नदी भूमि को प्राकृतिक हरित क्षेत्र की भांति संरक्षित और संर्वद्धित करना चाहिए।
जल स्रोत के अनुकूल नियोजित करें निर्माण
नगर नियोजन से पहले देख लेना चाहिए कि वर्तमान एवं भविष्य में संभावित आबादी की जरूरत की जलापूर्ति हेतु स्थानीय स्तर पर पर्याप्त समृद्ध जलस्रोत मौजूद हैं। यदि ऐसा नहीं है तो तद्नुसार नए जलस्रोत नियोजित किए जाने चाहिए।
नगर के कौन से हिस्से में उद्योग, कौन से हिस्से में आवास आदि हों, इनके निर्धारण में अन्य कारकों के साथ-साथ जलस्रोतों की क्षमता और उपलब्धता का भी ध्यान रखा जाना चाहिए। वर्षाजल संचयन और भूजल निकासी की गहराई का नियमन नियोजन के खाके में सर्वमान्य कानून की तरह लागू किया जाना चाहिए।
मूल स्वरूप से न करें छेड़छाड़
एक सबक यह है कि जिस स्थान पर नगर नियोजित किया जाए, उस स्थान की मूल संचेतना, शक्ति, भौगोलिक स्वरूप यानी डीएनए से छेड़छाड़ नहीं करनी चाहिए। पानी की दृष्टि से इसका मतलब यह भी है कि वहां पहले से मौजूद जलस्रोतों के रकबा व गुणवत्ता से छेड़छाड़ न हो; उनका चिन्हीकरण व सीमांकन हो।
ऐसा न होने के कारण ज्यादातर नगरों में जलस्रोतों पर कब्जा है; सरकारी-गैरसरकारी बसावटें हैं। वार्षिक जल अंकेक्षण यानी ‘वाटर ऑडिट’ इस पर रोक में सहायक सिद्ध हो सकता है।
जलनिकासी मार्ग रखें निर्बाध
गौरतलब है कि प्रत्येक स्थान में जलनिकासी के परंपरागत मार्ग होते हैं। इन परंपरागत मार्गों में किसी भी तरह का अवरोध कालांतर में बाढ़ और विनाश का कारण बनता है। यह समझे बगैर कि असमतल भूमि खण्डों को पाटने की गलती जलनिकासी के मार्ग में अवरोध पैदा करती है। कचरा डंप करने हेतु जगह के चुनाव में गलती से भी भूजल का निकासी मार्ग बाधित होता है। मुंबई में यही हुआ। अतः कचरा डंप करने की जगह के चुनाव में सावधानी भी नगर नियोजक की निगाह में रहनी चाहिए।
शोधन पश्चात् ही डंप करें रासायनिक कचरा
गौरतलब है कि नित पैदा हो रहा कचरा पानी ही नहीं, सेहत के लिए भी बड़ा खतरा बन चुका है। ज्यादातर रासायनिक कचरा बिना शोधन के ही खाली जगहों भर दिया जाता है।
जिस क्षेत्र में बिना शोधन ई कचरा डंप किया जाता है, कायदा है कि वहां अगले 15 साल तक कोई भी बसावट नियोजित नहीं की जानी चाहिए। कारण ही अगले 15 साल तक उस क्षेत्र में जल में घुलनशील प्रदूषण व गैसों का उत्सर्जन होता रहता है।
इस कायदे की परवाह किए बगैर न मालूम किस फायदे के लालच में ऐसे लैंडफिल एरिया पर भी बसावटें नियोजित की जा रही हैं। इन अनुभवों का सबक यह है कचरे का उचित नियोजन आज एक विशेषज्ञता और कड़े कानूनों की मांग करता है। यह सब किया जाना चाहिए।
स्रोत पर कचरा निष्पादन ही सर्वश्रेष्ठ
यदि हम चाहते हैं कि हमारे नगरों के जलस्रोत व भूमि साफ-स्वच्छ रहें तो कचरा न्यूनतम उत्पन्न हो, इसके लिए ‘यूज एण्ड थ्रो’ प्रवृति को हतोत्साहित करने वाले टिकाऊ उत्पाद नियोजित करें। नीतिगत तौर पर मानें कि कचरे को ढोकर ले जाना वैज्ञानिक और नैतिक... दोनों दृष्टि से पाप है। कचरे का निष्पादन उसके स्रोत पर ही करें। निर्मलता का सर्वश्रेष्ठ सिद्धांत यही है।
जलस्रोतों को पहले मलीन करना और फिर साफ कराने का अनुभव अब तक मलीनता बढ़ाने वाला ही साबित हुआ है। आज ताजा पानी नहरों में और सीवेज के मल और उद्योगों के शोधित अवजल नदियों में बहाया जा रहा है। नगरीय नालों का नियोजन ऐसा हो कि इसके विपरीत ताजा जल नदी में बहे और शोधित मल-अवजल नहरों में बहाया जाए।
...ताकि न बसें मलीन बस्तियां
नियोजित कॉलोनियों के निकट उनमें काम करने वाले महरियों, सफाई कर्मियों, ड्राइवरों तथा बढ़ई आदि कारीगरों के लिए आवास नियोजित न करने के कारण नदी तट व अन्य खुली भूमि मलीन बस्तियों में तब्दील होती हैं। ऐसे में मलीनता से मुक्ति संभव हो, तो हो कैसे? अतः किसी की प्रत्येक नियोजित बसावट में इन आवश्यक सहायकों का सम्मानजनक इंतजाम एक जरूरी शर्त की तरह शामिल की जानी चाहिए। यह इंसानियत भी है और उचित नियोजन भी।
संपर्क
अरुण तिवारी
फोन : 011-22043335
मो. : 9868793799
ईमेल : amethiarun@gmail.com
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