जल नीति में नीयत का सवाल

इंसान ने पेड़ भी काटे लेकिन कभी पौधे लगाए भी पर पानी लिया ही, कभी प्रकृति को पानी लौटाया नहीं। उद्योगों ने नदियों से साफ पानी लिया और उन्हीं नदियों में जहरीला पानी लौटाया, किसानों ने कुएँ, नदियों से पानी लेकर फसलें उपजाई लेकिन पानी लौटाने के बजाय फायदे के लिए वे ज्यादा पानी पीने वाली फसलें लेने लगे। नतीजा यह हुआ कि पानी हमारे हाथ से निकलता गया।

जीवन की प्रमुख पाँच जरूरतों में से एक है-पानी। यह अब केवल जीवन आवश्यकता ही नहीं बल्कि बड़ा राजनीतिक सवाल, औद्योगिक मसला और नीति-नीयत बन गया है। पानी जिस बहुतायत में उपलब्ध है उसे देखते हुए आम जनमानस कभी लगा ही नहीं कि इसे किफायत से वापरना होगा। पानी के लिए मानसून पर निर्भर भारत जैसे देश में यह धारण जल्दी ही गलत साबित होने लगी। अब तो हर साल पानी एक समस्या है-कहीं बहुत ज्यादा वर्षा के कारण तो कहीं बादलों के न बरसने के कारण। देश हर साल किसी हिस्से में सूखा तो किसी में बाढ़ भोग रहा है। क्या वह पर्यावरण असंतुलन के कारण है? फौरी तौर पर तो यही लगता है लेकिन जरा बारीकी में जाएँ साफ हो जाएगा कि प्रकृति के तमाम आयामों की तरह पानी को भी इंसान ने अपनी लालच का शिकार बनाया।

शुरूआती दौर में जब जनसंख्या कम थी तो बारिश का जल पर्याप्त था लेकिन आबादी बढ़ने के बाद जल संकट खड़ा हो गया। इंसान ने पेड़ भी काटे लेकिन कभी पौधे लगाए भी पर पानी लिया ही, कभी प्रकृति को पानी लौटाया नहीं। उद्योगों ने नदियों से साफ पानी लिया और उन्हीं नदियों में जहरीला पानी लौटाया, किसानों ने कुएँ, नदियों से पानी लेकर फसलें उपजाई लेकिन पानी लौटाने के बजाय फायदे के लिए वे ज्यादा पानी पीने वाली फसलें लेने लगे। नतीजा यह हुआ कि पानी हमारे हाथ से निकलता गया। आज पानी उपलब्धता की नहीं बल्कि अधिकार की ‘वस्तु’ बन गया है। इसका वस्तु में तब्दील होना राजनीतिक, औद्योगिक और सामाजिक विद्वेष, दुराग्रह और लड़ाई का सबब बन गया।

सवाल यह है कि पानी पर अधिकार किसका है, कौन इसकी चिंता करें और कौन इसे बचाने के प्रयत्न करे? व्यक्ति, समाज, उद्योग या सरकार? सरकार ने पानी पर अधिकार कंपनियों को सौंपा तो समाज का अधिकार घटता गया। साफ है कंपनी समाज हित में कम, स्वहित में ज्यादा काम करेगी। उद्योग के मुनाफे के आगे पानी का महत्व बौना हो गया और जब जवाबदेही का प्रश्न खड़ा हुआ तो इसे सरकार ने समाज के जिम्मे कर दिया। इसी नजरिए ने पानी को समाज से दूर कर दिया। समाज खास कर व्यक्ति ने इसे अपनी संपदा मानना बंद कर ‘सार्वजनिक सम्पत्ति’ के रूप में उपभोग करना शुरू कर दिया। इसी उपभोगवाद के चलते पानी के लिए नीति बनाने की जरूरत हुई। भारत सरकार ने 1987 में राष्ट्रीय जल नीति बनाई। इस जल नीति के अनुसार पानी का अधिकार या तो निजी कंपनियों के हाथ में दिया गया है या निजी व्यक्तियों के हाथ में। साझा तौर पर पानी का जिम्मा किसी को नहीं दिया गया है। इस वजह से लोगों ने पानी के काम से अपनी जिम्मेदारी समाप्त मान ली।

नीति की मंशा पर संदेह


1987 में पहली जल-नीति घोषित होने के सालों बाद तक जल प्रबंधन की समस्याएं वैसी ही हैं। जल-नीति की घोषणा की और एक साल बाद ही कमियां भांपते हुए ‘जल-नीति प्रारुप 1998’ बनाया। 2002 में नई जल-नीति बनाई, लेकिन यह आज तक सही तरीके से लागू नहीं हो सकी है। केवल मध्यप्रदेश और बिहार दो ही राज्य ऐसे रहे, जिन्होंने अपने यहां जल-नीति बनाकर कुछ काम किया। साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रीवर्स एंड पीपुल्स के हिमांशु ठक्कर के अनुसार जल संकट से निपटने के भूजल स्तर पर्याप्त बनाए रखना जरूरी है लेकिन जल नीति में सरकार ने इस पर जरा भी ध्यान नहीं दिया। जो कुछ किया गया है, उससे उल्टा नुकसान ही हुआ है। यह बात सरकार के आंकड़ों से ही साबित होती है। मसलन, सरकार ने सिंचाई के साधनों को विकसित करने में लिए 1951 से 1985 तक बड़ी और मध्यम सिंचाई परियोजनाओं पर 60 हजार करोड़ रुपये खर्च किये और फिर 1985 से 2000 तक 13 हजार करोड़। जबकि पानी के संरक्षण और पर्यावरण के विकास के लिये पहले दौर में 2723 करोड़ रुपये ही लगाए गए।

पानी के गलत वितरण के कारण ही 2002 में ऐसी जलविहीन बसाहटों की संख्या 90 हजार थी जहाँ एक से पांच किलोमीटर के दायरे में पानी उपलब्ध नहीं है 1950 में ऐसी बस्तियाँ 900 थीं।

न समस्या जानी न समाधान


पानी हमारे हर काम के लिए जरूरी तत्व है। प्यास बुझाने के लिए, फसल उगाने के लिए, उद्योग चलाने के लिए पानी ही चाहिए। नीति निर्माण पर न तो पानी के महत्व को समझा गया और न इसकी समस्या को। लिहाजा समाधान भी दूर है। जहाँ हर काम की डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट बनाना जरूरी है उसी तंत्र में पानी के मामले में भी कभी विस्तार से बात नहीं की गई। कभी यह आकलन नहीं किया गया कि पानी की उपलब्धता, जरूरत और उपयोग की क्या स्थिति है? हम कितना पानी ले रहे और बारिश का कितना पानी बचाने के इंतजाम कर रहे हैं? कौन–सा उद्योग या फसल कितना पानी लेती है और इन्हें देखते हुए पानी का प्रबंध कैसे हो?

इसी दोष के कारण पानी के वितरण में भी नीतिगत गड़बड़ी है। बड़े और अमीर लोगों की पहुँच में पैसा भी है पानी भी। उन्हें सस्ते में पानी मिल जाता है जबकि गरीबों के पास पैसा नहीं है तो उन्हें टैंकर से पानी खरीदना पड़ता है। भोपाल जैसे शहर में जहाँ 24 घंटे पानी देने की योजना बनाई जा रही है वहाँ पानी की दर 300 रुपए से बढ़ कर 650 तक करने का प्रावधान है। कहा जा सकता है यहाँ जिनके पास पैसा है पानी भी उन्हीं के लिए होगा जितना मर्जी हो बहाएँ, पैसा जो देते हैं।

खतरे में है नदियों का जीवन


हरिद्वार में गंगा के प्रवाह को लेकर हुए अध्ययन के मुताबिक सर्वाधिक आबादी वाले कुछ क्षेत्रों में नदियां प्रवाह खोती जा रही हैं। अमेरिका के नेशनल सेंटर फॉर एटमॉस्फीयरिक रिसर्च के अध्ययन के अनुसार इसका सबसे बड़ा कारण जलवायु परिवर्तन है। 1948 से 2004 के बीच धाराओं के प्रवाह की जांच में पता चला कि दुनिया की एक तिहाई बड़ी नदियों के जल प्रवाह में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। इस दौरान अगर किसी एक नदी का प्रवाह बढ़ा है तो उसके अनुपात में 2.5 नदियों के प्रवाह में कमी आई है। उत्तरी चीन की पीली नदी, भारत की गंगा, पश्चिम अफ्रीका की नाइजर और अमेरिका की क्लोराडो बड़ी आबादी वाले इलाकों की प्रमुख नदियां हैं जिनके प्रवाह में गिरावट आई है। बांध, कृषि व उद्योग के लिए पानी को मोड़ा जाना नदी के प्रवाह को प्रभावित करता है।

जरा गौर करें दक्षिण भारत में वैज्ञानिकों ने कृत्रिम वर्षा में महारत हासिल की है लेकिन यह भी तब संभव है जब बादलों में पानी हो और वे एक तय दायरे में आए। इसका मतलब है कि पानी तभी पाया जा सकता है जब वह हो। साफ है पानी नहीं होगा तो खाद्यान भी नहीं होंगे, रोजगार भी नहीं होंगे और खुशहाली-बेफिक्री भी नहीं होगी। ऐसे संकट के समय में पहल सरकार को करना होगा। समाज को फिर से पानी के करीब लाना होगा। पानी का महत्व और प्रबंधन भूल चुके समाज को उसकी पुरानी आदतें याद दिलाना होगा। तय करना होगा कि पानी की पहली जरूरत किसे है और कौन उसके प्रति जवाबदेह?समग्र नीति बनाने का काम सरकार कर सकती है लेकिन पानी बचाने का सरकार और समाज को मिल कर करना होगा। सरकार पानी की उपलब्धता, जरूरत, उपयोग और संरक्षण की विस्तृत अध्ययन कर नीति बनाएँ ताकि सभी को अपनी जरूरत का पानी मिल सके। पानी के इस्तेमाल को लेकर भी स्पष्ट कानून बनाने की जरूरत है। जहां कम पानी है वहां अधिक पानी की जरूरत वाली फसलें लगाने और पानी के अधिक इस्तेमाल वाले उद्योगों पर रोक लगाई जाय। वॉटर हार्वेस्टिंग का काम करने वाले लोगों को आर्थिक मदद दी जाए। पानी लूटने या बर्बाद करने वालों को दंड दिया जाना चाहिए।

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