जल मिथकथाओं की अन्तरकथा को देखें, तो पता लगता है कि ये कथाएँ आदिमानव के उद्विकास के साथ चली हैं। जिन्हें आदिम पुरा कथाएँ कहा गया। फिर इनका स्वरूप प्रतीकात्मक रूप से पहले लिखित साहित्य अर्थात् वेद, उपनिषदों में आया। इसके बाद पुराणों से होता हुआ लोकाख्यानों तक पहुँचा। इस लम्बी यात्रा में इन कथाओं में अनेक समय की ऐसी बातें जुड़ती चली गईं, जिनमें मानवीय विकास के विभिन्न पहलू सावयवी रूप से उनमें समाते चले गये। यहाँ तक कि समसामयिक साहित्य में भी रूपक और प्रतीकों के माध्यम से बात कहने की शैली आदिम और वैदिक वाङ्मय से ही आग्रहीत रही है। लोक साहित्य में इस विधा का विस्तार बोलियों की वाचिक परम्परा में पूरे सामर्थ्य के साथ मौजूद है। मध्यप्रदेश की बोलियों में लोक मिथ यानी लोकाख्यान की समृद्ध परम्परा दिखाई देती है जिनमें लोकमनीषा के निकष समाहित हैं। एक बुन्देली लोक मिथ, जिसे डॉ. नर्मदाप्रसाद गुप्त ने संकलित किया है- ‘पाताल में जल ही जल था और जल पर शेषनाग तैरते रहते हैं। शेषनाग के फन पर पृथ्वी रखी है। शेषनाग तैरते रहते हैं। शेषनाग के फन पर पृथ्वी रखी है। शेषनाग कभी नहीं थकते, पर जब वे सांस लेते हैं या करवट बदलते हैं तो पृथ्वी हिलने लगती है, उसी को लोग भूकम्प कहते हैं, जिससे पृथ्वी के सारे जल में उथल-पुथल हो जाती है।’
एक और बुन्देली लोक मिथकथा में समुद्र के खारे होने की बात कही गई है। यह कथा लगभग कई तरह के बदले हुए रुपों में भारत की समस्त बोलियों में प्रचलित दिखाई देती है। ऐसे मिथ सार्वकालिक और सार्वजनिक होते हैं।
‘एक गांव में दो भाई रहते थे। बड़ा धनी था और छोटा दरिद्र। एक दिन छोटे के पास कुछ न बचा, इसलिए वह बड़े भाई के घर जाकर खाने के लिए माँगने लगा। लेकिन बड़े भाई ने उसे अन्न का एक दाना तक न दिया। वह दुखी हो लोट रहा था कि रास्ते में एक वृद्ध मिला। उसके सिर पर लकड़ियों का गट्ठर रखा था। वृद्ध ने उससे पूछा- बेटा, तुम बहुत दुखी लगते हो, तुम्हे क्या दुख है?’
छोटे ने वृद्ध को अपना दुख-दर्द सुना दिया। वृद्ध ने कहा- ‘धीरज रखो! तुम लकड़ियों का गट्ठर घर पहुँचा दो तो हम तुम्हें एक ऐसी वस्तु देंगे, जिससे तुम्हें सब कुछ मिलेगा।’ उसने वह गट्ठर वृद्ध से लेकर घर पहुँचा दिया, जिसके बदले में वृद्ध ने एक चक्की दी। वृद्ध ने उससे कहा- यह चक्की साधारण नहीं है। इसे सीधे हाथ की तरफ घुमाओ और इससे जो माँगो, वह मिलेगा। जब तक उल्टे हाथ की तरफ न घुमाओगे, तब तक वह मिलता रहेगा।
वृद्ध की दी हुई पत्थर की चक्की लेकर वह घर आ गया। उसकी पत्नी भूखी-प्यासी उसी की बाट जोह रही थी, लेकिन पत्थर की चक्की देखकर उसका मुँह लटक गया। जब पति ने बिछौना माँगा, तब वह उदास मन से चादर ले आयी। उसने चादर बिछाकर उस पर चक्की रखी और शुद्ध पवित्र होकर चकिया से कहा- ‘जै मेरी चक्की, चावल चाहिए।’ जैसे ही उसने दाहिनी तरफ चक्की घुमायी, वैसे ही उससे चावल निकलने लगे। मालपुआ मँगाये और थाल भर गये। पूड़ी-सब्जी के ढेर लग गये। तरह-तरह की मिठाईयों से कमरा सज गया। फिर सभी प्रकार की चीजें, नौकर-चाकर, महल-अटारी सब हो गये। सभी ठाठ से रहने लगे। बाद में पास-पड़ोस और नगर के सभी मेल-मोहब्बत वाले बुलावाकर उसने नाना प्रकार के पकवानों का भोज कराया, जिससे उसकी प्रशंसा चारों तरफ होने लगी।
एक दिन बड़े भाई ने छोटे भाई के ठाठ-बाट देखकर इसका रहस्य जान लिया। उसने एक रात छोटे भाई के घर में घुसकर चक्की चुरा ली। चक्की चुराकर वह घर नहीं जाकर समुद्र किनारे जा पहुँचा। तब समुद्र का पानी मीठा था। एक नाव में बैठ गया। घर से खाने-पीने की सब चीजें ले गया था। पर नमक लाना भूल गया था उसे तो धनवान होने की जल्दी थी। नाव समुद्र में बहुत दूर तक पहुँच गई। उसे भूख लगी, पर नमक नहीं होने से खाने का सारा मजा किरकिरा हो गया। उसे ध्यान आया कि यह चक्की सब कुछ देती है, इसलिए नमक की कामना के साथ चक्की घुमा दी। चक्की से नमक निकलने लगा।
चक्की घूमती रही, नमक निकलता रहा। वह चक्की बन्द करना नहीं जानता था। इस वजह से नमक का ढेर लगता चला गया और उसके बोझ से नाव डूब गई। कहते हैं वही चक्की अभी तक समुद्र में चल रही है और नमक निरन्तर निकल रहा है। इसी से समुद्र का पानी खारा हो गया।
समुद्र, नदी, झील, सरोवर, पोखर, बादल, बरसात, बूँद, जलचर, नभचर और थलचर प्राणियों के जल से अन्तर्सम्बन्धों को लेकर लोक की अनेक कहानियों को बुना गया है। बादल फटने की व्यथा जंगल के पशुओं के साथ एक टिटहरी के सोने की शैली बन गई। एक निमाड़ी लोक मिथकथा देखिए- जो अन्य बोलियों में भी मिल सकती है।
‘बरसात के दिन थे। एक बार बादल फटने की भयानक आवाज हुई। जंगल में गीदड़ (कोल्या) ने समझा आसमान फट रहा है। भागो-भागों कोल्या शेर के पास गया भागो-भागो! मामा! आसमान गिर रहा है, कोई नहीं बचेगा। जान प्यारी हो तो भागो। शेर एक दहाड़ के साथ भागा। आगे हाथी मिला। शेर और कोल्या को भागता देख पूछा- क्या बात हो गई? क्यों भाग रहे हो? घबराकर दोनों ने कहा- हाथी दादा! जान प्यारी हो तो यहाँ से भागो- आसमान गिर रहा है। जंगल में यह खबर आग की तरह फैल गई। एक-एक करके सभी जानवर शेर के पीछे भागने लगे।
नदी किनारे एक टिटहरी (टिटोड़ी) रहती थी। जंगल के जानवरों को नदी में से भागते देखकर डर गई उसने नदी की रेत में अभी-अभी अण्डे दिये थे। वह इधर-उधर फुदकने लगी। जोर-जोर से चिल्लाने लगी। न भाग सकती थी न अण्डे छोड़कर जा सकती थी। दुविधा में टिटहरी फँस गई। उसने बचने का अंतिम उपाय किया।
आसमान गिरने के डर से वह ऊँचे पैर करके सो गई। उसको भरोसा था कि आसमान गिरेगा तो पैरों में अटक जायेगा। मेरे अण्डे बच जायेंगे। उसी डर से टिटहरी आज भी आसमान की तरफ पैर करके सोती हैं।
जल, पृथ्वी और जीवन का आधार है। इस आधार पर पृथ्वी पर अनेक लोक मिथकथाएँ और अनुष्ठान प्रचलित हुई हैं। पृथ्वी पर जल की पूजा लोक में होमोसेपियन मानव के समय से जारी है। नवजात शिशु के आने पर जलवाय पूजन मूलतः जल और वायु की पूजा है। लोक का गंगा पूजन यथार्थ में जल की पूजा का ही पर्याय है। वर्षा नहीं होने पर लोक में इन्द्रदेव को प्रसन्न करने के लिए कई तरह के टोने-टोटके और प्रार्थनाएँ की जाती हैं। अच्छी वर्षा होने की कामना सदैव की जाती है। देवों का जल से अभिषेक किया जाता है। शिवलिंग पर जलाधारी लगाई जाती है। जल से भरा कलश या घट शुभ और माँगलिकता का प्रतीक है। लोक साहित्य में नदी, समुद्र, तालाब के साथ पानी की महत्ता का वर्णन लोककथा, गीत और गाथाओं में विशेष तौर पर मिलता है।
लोक में प्रलय कथा, समुद्र मंथन, क्षीरसागर, नदियों आदि की कथाओं और लोक आख्यानों की लम्बी परम्परा मिलती है। अठारह पुराणों, रामायण, महाभारत और संस्कृति साहित्य में जल और जल मिथकों का अखूट भण्डार मिलता है। लोकगीतों, पहेलियों, कहावतों में जल के गुणों और उसके महत्व से सम्बन्धित अनेक प्रतीक और मिथक मिलते हैं। जल शुचिता और पवित्रता का प्रतीक है। जल के दर्शन अथवा छींटे मात्र से मनुष्य-वस्तु पवित्र हो जाती है। जल की पवित्रता निर्विवाद हो। जल जीवन की उत्पत्ति का कारण है। देवी भागवत पुराण में जल से पृथ्वी, सात समुद्र, सप्तद्वीप, सूर्य-चन्द्र और ग्रहों की उत्पत्ति हुई है। भारतीय संस्कृति के मूल लोक प्रतीक ओंकार, कमल, शंख, स्वस्तिक आदि में एक तत्व जल भी समाहित है।
प्रत्येक वस्तु में जल की सानुपातिक उपस्थिति होती है। समुद्र के जल से निकले अमूल्य चौदह रत्न पानी की देन हैं। जिसमें विष- अमृत औऱ लक्षमी तो जल की ही उत्पत्ति है। सागर तनया लक्ष्मी विष्णु के साथ समुद्र के जल में ही रहती हैं। कई देवी-देवताओं का वास जल में होता है। विशेषकर लोक की सप्त मातृकाएँ (सात माताएँ) नदी, तालाब, किसी कुएँ के जल में और जल के समीप पूजी जाती हैं। ये सात देवियाँ जल अप्सराएँ होती हैं। जो हमेशा सामूहिक रूप से पानी के पास रहती हैं। ये देवियाँ कल्याणकारी होती हैं, पर रुष्ट होने पर अनिष्ट भी करती हैं, लेकिन मनाने पर तुरन्त प्रसन्न भी हो जाती हैं।
जल में दुष्टात्माओं का भी वास होता है। ये सदैव अनिष्टकारक और विद्रूप होती हैं। पुराने कुएँ, बावड़ी, तालाब, सुनसान सरोवरों के जल में अकल्याणकारी शक्तियाँ भूत, चुड़ैल, डाकन और बुरी अथवा औघड़ आत्माएँ भी जल में अपना निवास बना सकती हैं। लोक विश्वास के अनुसार जल में डूबकर मरने वाली स्त्री की आत्मा उसी जल में विचरण करती है. अचानक दुर्घटना के कारण आत्मा भटकती रहती है, उसकी सद्गति नहीं होती, ऐसी आत्माएँ प्रायः जल में अपना निवास बना लेती हैं औऱ समय-समय पर प्राण बलि उस जगह लेती रहती हैं। जल में ऐसी आत्माओं के कारण लोग उस जल स्थल पर रात-बेरात में जाने से भयभीत होते हैं औऱ उस जल तक का उपयोग करना बंद कर देते हैं। जल में परियाँ रहती हैं, ऐसा लोक विश्वास है, जो जल परियों की अनेक कथाएँ गढ़ने में सहायक होता है। जल वाले तीर्थों के जल में पिण्डदान और तर्पण करने की आनुष्ठानिक प्रतीकात्मक पद्धति सम्पूर्ण भारत में प्रचलित है। जल मुक्ति का प्रतीक है। प्राण त्यागते हुए आदमी के मुँह में तुलसी पत्ता और गंगाजल डालने की प्रथा प्रायः सम्पूर्ण भारत में है। दोनों जल के ही रूप हैं।
जल स्वयं देवता है, वरुण देवता। देवताओं में वरुण का बहुत मह्त्वपूर्ण स्थान है। समुद्र भी अपने आप में देवता हैं। भगवान राम ने समुद्र की पूजा की थी औऱ समुद्र स्वयं भगवान राम के सम्मुख पुरुष के रूप में हाथ जोड़े प्रकट हुआ था। उसने लंका तक समुद्र में पत्थरों के पुल बनाने में सहर्ष स्वीकृति औऱ सहयोग प्रदान किया था। समुद्र ने रामनामी पत्थरों को पानी में तैरा दिया था औऱ पुल शीघ्र तैयार हो गया था। लंका जाते हनुमान सीता की खोज में समुद्र पर से उड़कर जा रहे थे, तब उनका स्वेद कण मकरी के मुँह में गिरा था, उससे हनुमानपुत्र मकरध्वज की उत्पत्ति हुई थी। इस प्रकार की अनेक लोक मिथकथाएँ जल के केन्द्र में औऱ जल के आसपास लोक में मिलती हैं। जो आज भी लोक में कही-सुनी और पढ़ी जाती हैं।
जिस प्रकार जल अनन्त है, उसी प्रकार जल की मिथकीय कथा औऱ अवधारणाएँ सारे विश्व में फैली हैं। जब तक पृथ्वी पर जल है, तब तक जल की मिथकथाएँ चलती रहेंगी, नये समय के साथ जल की नई कहानियाँ बनती रहेंगी। विज्ञान तक ने यह सिद्ध कर दिया है, कि अणु-परमाणु के सबसे छोटे कण के भी जो हिस्से किये गये हैं, वे आधे तरल हैं और आधे कणीय तथा दोनों की स्थिति आपस में बदलती रहती है, जिसे ‘काण्टम’ कहा गया है। इसका अर्थ यह हुआ कि अणु-परमाणु के चाहे जितने छोटे टुकड़े कर दिये जायें, अन्त में वे तरलता अथवा जल का ही रूप हो सकता है, इसलिए पुराकथाएँ भी यही कहती हैं जल की अवस्थाएँ बदल सकती हैं, लेकिन अन्त में केवल तरल या जल ही बचता है। जल की यही नई वैज्ञानिक व्याख्या और मिथकीय कथा है।
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