जल को जीवन देने वाली कुछ विधियां

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया भर में भूजल स्तर नीचे जा रहा है। इसकी प्रमुख वजह मानवीय गतिविधियां, शहरीकरण और औद्योगिक इकाइयों से रासायनिक निकासी मानी गई है। जलवायु परिवर्तन भी इसकी बड़ी वजह है। दुनिया भर में जल गुणवत्ता मापन डाटा और मॉनीटरिंग की कमी के साथ इस दिशा में जन-साधारण के अज्ञान का भी पर्यावरण और जल गुणवत्ता पर असर पड़ता है। जल स्त्रोतों के संरक्षण के प्रति प्रशासनिक उदासीनता भी इसका कारण है।

लिहाजा, प्रदूषित जल का सीधा असर इनसानों और अन्य जीवों के स्वास्थ्य पर पड़ता है। स्वस्थ वातावरण और बेहतर सेहत के लिए प्रति व्यक्ति प्रति दिन पीने और साफ-सफाई के लिए 20 से 40 लीटर जल चाहिए होता है और यह संख्या नहाने-धोने और रसोई इत्यादि के कार्यो के लिए इस्तेमाल जल को मिलाकर 50 लीटर तक पहुंच जाती है।

अनेक देशों में हालांकि पीने और साफ-सफाई के पानी को इस जरूरी मात्र में नहीं जोड़ा जाता। जिन विकासशील देशों में तेज गति से शहरीकरण हो रहा है वहां सीवेज सुविधाएं नहीं हैं जिसका असर पीने योग्य जल में आ मिलने वाले प्रदूषण के रूप में पड़ता है जिससे बीमारियों और मृत्युदर में इजाफा होता है।

गुणवत्ता बनाए रखना


सवाल उठता है कि जल की गुणवत्ता बनाए रखना कैसे संभव है? इसके पैराए में इसकी निवेश संबंधी चिंताएं भी शामिल हैं। जल प्रदूषण की रोकथाम पानी की गुणवत्ता बनाए रखने की दृष्टि में सबसे जरूरी है। प्राकृतिक वातावरण में फैलने वाले प्रदूषण की दृष्टि से जहां जल शोधन प्रक्रिया कुछ मामलों में बेहद जरूरी समझे जाती है, वहीं मनुष्य द्वारा फैलाए जाने वाले प्रदूषण से जूझने की कवायद बेहद जटिल हो जाती है। यों भी जल की गुणवत्ता का संरक्षण उसे बचाए जाने की दृष्टि से आमतौर पर बेहद महंगा कार्य हो जाता है क्योंकि इसके लिए बिगड़े हुए ईको-सिस्टम को पुन: उसके समूचे नैसर्गिक वैविध्य के साथ मूल रूप में वापस लाना पड़ता है जो लगभग नामुमकिन कार्य हो जाता है।

दरअसल, जल स्वच्छता का काम हमारी जैव विविधता के ही मार्फत होता है जिसमें प्राकृतिक पोषक तत्वों का उसमें मिलन और व्यर्थ पदार्थ उससे अलग होते हैं। जलीय क्षेत्रों में पोषक और विषाक्त तत्व अलग रह जाते हैं। वहीं दूसरी ओर ईको-सिस्टम का खुद का आधार जल रहता है।

जल संरक्षण और शोधन की कई तकनीकें हैं। किसी भी विधि में पहला कार्य जल में से मिट्टी के कण, लकड़ियों के टुकड़े, कचरा और जीवाणुओं को हटाना होता है। लिहाजा, स्वच्छ जल प्राप्त करने की प्रक्रिया काफी जटिल होती है, फिर चाहे वह कोई सी भी हो। आइए यहां जानते हैं पानी को साफ कर पीने योग्य बनाए जाने वाली कुछ विधियों के बारे में।

रासायनिक प्रक्रिया


नदियों का जल उनके किनारे जलकुंडों में एकत्र कर के रखा जाता है ताकि प्राकृतिक जैव स्वच्छता प्रक्रिया अपना काम कर सके। स्लो सैंड फिल्टर्स के मामले में यह क्रिया विशेष तौर पर इस्तेमाल में लाई जाती है। इसके बाद फिल्टर किए गए पानी में वायरस, प्रोटोजोआ और बैक्टीरिया को हटाने का काम किया जाता है।

हानिकारक जीवाणुओं को हटाने के बाद उनमें रसायन या पराबैंगनी किरणों की प्रक्रिया से गुजारा जाता है जो अब तक बचे रह गए जीवाणुओं का सफाया कर देता है। कृषि आदि के लिए इस्तेमाल लाए जाने वाले पानी में यह रासायनिक और जैविक क्रिया अक्सर जरूरी होती है।

स्कंदन और ऊर्णन


यह दोनों पारंपरिक विधियां हैं जो ऐसे रसायनों के साथ काम करती है जो छोटे कणों को एकत्र करता है और वह फिल्टर में रेत या अन्य कणों के साथ जा जुड़ते हैं। इसी तकनीक के एक नए स्वरूप में पानी को बिना रसायनों के परिष्कृत करने के लिए रासायनिक माइक्रोस्कोपिक छेद वाली पॉलीमर फिल्म का इस्तेमाल किया जाता है जिसे माइक्रो या अल्ट्राफिल्ट्रेशन मैम्ब्रेन कहते हैं। मैम्ब्रेन मीडिया यह निर्धारित करता है कि पानी के बहाव के लिए कितना दबाव जरूरी होगा और किस आकार के माइक्रोब निकल सकते हैं।

उबालना


बेहद पुरानी और कारगर विधि है। आमतौर पर घरों में सामान्य तापमान में पानी में पैदा होने वाले जीवाणुओं से बचाने के लिए उसे उबाला जाता है। समुद्र तट के निकट एक मिनट तक का रोलिंग बॉयल अपने में काफी होता है।

ऊंचे स्थानों यानी दो किलोमीटर या 5000 फीट तक पानी तीन मिनट तक उबाला जाना चाहिए। जिन क्षेत्रों में पानी सख्त होता है यानी उसमें कैल्शियम साल्ट घुले होते हों, उसे उबाले जाने से बाइकाबरेनेट आयन्स खत्म हो जाते हैं। कैल्शियम से इतर सबसे ऊंचे बिंदु पर उबालने से भी पानी में मिलने वाले अन्य तत्व दूर नहीं होते।

कार्बन फिल्टरिंग


घरों में चार्कोल से होकर आने वाला पानी इस्तेमाल होता है। चार्कोल, जो कार्बन का एक रूप है, कई विषैले तत्वों को अपने अंदर समाहित कर लेता है। दो तरह के कार्बन फिल्टर होते हैं। पहला, ग्रेन्युलर चार्कोल जो कई विषाक्त तत्वों जैसे पारा, ऑर्गेनिक रसायन, कीटनाशकों और अन्य तत्वों को हटा पाने में सक्षम नहीं होता। सब-माइक्रोमीटर कार्बन फिल्टर ऐसे सभी विषाक्त तत्वों को हटाने में कारगर होता है।

डिस्टिलिंग


डिस्टिलेशन में पानी को उबाल कर उसका वाष्प प्राप्त किया जाता है। चूंकि पानी में मिलने वाले तत्व आमतौर पर वाष्पित नहीं होते हैं, लिहाजा वह उबलते हुए पानी में ही रहते हैं। डिस्टिलेशन पानी को पूरी तरह स्वच्छ नहीं करता है क्योंकि ब्वाइलिंग प्वाइंट पर कई प्रदूषित तत्व जीवित रहते हैं और भाप के साथ बची रह गई अवाष्पित बूंदों के कारण। इसके बावजूद, डिस्टिलिंग से 99.9 प्रतिशत स्वच्छ जल प्राप्त हो सकता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार मनुष्य के इस्तेमाल के लिए स्वच्छ जल की कमी के कारण प्रतिवर्ष 4 अरब डायरिया के मामले सामने आते हैं। इसके अलावा कई अन्य बीमारियां भी हैं। प्रतिवर्ष 17 लाख लोग डायरिया के कारण दम तोड़ देते हैं जिसमें से अधिकांश पांच वर्ष की आयु के बच्चे होते हैं। इस तरह दूषित जल से होने वाली बीमारियों से मानव जाति लगातार जूझती है।

सन् 1990 के बाद से इस दिशा में व्यापक कार्य किए जाने के बावजूद अभी तक कोई पुख्ता परिणाम नहीं निकले हैं। आज भी दुनिया भर में 1.1 अरब लोगों को पीने के लिए साफ पानी उपलब्ध नहीं होता। यह समस्या अफ्रीका, पश्चिमी एशिया और यूरोएशियाई क्षेत्र में सबसे अधिक है।

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