जल को दूषित करेंगे प्लास्टिक के तालाब


प्लास्टिक के तालाबों से एक बड़ा नुकसान यह होगा कि खेत में बने तालाबों का जलग्रहण क्षेत्र जब सिकुड़ने लग जाता है, तो किसान जल से बाहर निकली सतह पर खेती कर लेते हैं। तालाब के नीचे से निकली जमीन बेहद उपजाऊ होती है। क्योंकि इसमें पानी में मिले फूल-पत्तियाँ व कीट जैविक रूप से नष्ट होकर जैविक खाद की मात्रा बढ़ा देते हैं। जाहिर है, प्लास्टिक के तालाबों के निर्माण से कार्बन का उत्सर्जन वैश्विक तापमान तो बढ़ाएगा ही, इनमें भरे पानी का वाष्पीकरण भी तेजी से होगा।

मध्यप्रदेश सरकार संग्रहित जल का भूमि में रिसाव न हो इससे बचने की दृष्टि से खेतों में प्लास्टिक के तालाब बनाने जा रही है। इसके लिये पहले से प्रदेश भर में लागू बलराम तालाब योजना में बदलाव किया जाएगा। पहले प्रदेश का कृषि विभाग इस योजना को बंद करने जा रहा था, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब देवास में बनी बलराम तालाब श्रृंखला की तारीफ की तो इस योजना को जीवनदान मिल गया। 2007 में यह योजना वर्षा के बह जाने वाले जल की अधिकतम मात्रा तालाब में संग्रहित हो जाए, इस दृष्टि से शुरू की गई थी। अनुदान आधारित इस योजना से खेतों में बड़ी संख्या में तालाब बनने से जलग्रहण क्षेत्र में अप्रत्याशित इजाफा तो हुआ ही, ग्रामीण इलाकों में भूजल स्तर भी बढ़ा। तालाबों का पानी सिंचाई के काम आया और जब तालाबों का जलग्रहण क्षेत्र सिमटने लग जाता है, तो गीली सतह पर किसानों ने फसलें भी लहलहाईं। इनके स्थान पर प्लास्टिक तालाब बनाए जाने से जल, वायु और भूमि तो दूषित होंगे ही, जल के रिसाव से मिट्टी में जो आद्रता और भूजल स्तर बना रहता है उसमें भी कमी आएगी। प्लास्टिक के तालाबों के खराब होने पर इस कचरे को नष्ट करने की भी बड़ी समस्या खड़ी होगी? वैसे भी भारत ही नहीं पूरी दुनिया में प्लास्टिक कचरा संकट बना हुआ है। इसे प्राकृतिक रूप से नष्ट करने के लिये जैविक उपाय भी तलाशे जा रहे हैं। साफ है, ये तालाब प्रकृति के अनुरूप कतई नहीं है।

फिलहाल बलराम तालाबों को ही ‘प्लास्टिक लाइन तालाब’ बनाने की योजना पर काम चल रहा है। शुरूआती दौर में यदि यह योजना थोड़ी-बहुत सफल हो जाती है, तो सम्भव है, खेत तालाब योजना भी प्लास्टिक के तालाबों में बदल दी जाए। फिलहाल यह योजना कृषि के समग्र विकास के लिये सतही तथा भूमिगत जल की उपलब्धता को बढ़ाने की दृष्टि से पूरे प्रदेश में लागू है। प्लास्टिक तालाबों के निर्माण में 500 माइक्रोन मोटाई की चादरों का उपयोग किया जाएगा। इन चादरों से सतह से लेकर चारों ओर की दीवारें बनाई जाएंगी। चादरों को आयताकार रूप में जोड़कर टब का आकार दिया जाएगा। इससे पानी में रिसाव कम से कम होने की बात कही जा रही है। लेकिन ठंड और गर्मी के समन्वित प्रभाव से चादरों के जोड़ खुल गए तो जल रिसाव की मात्रा बढ़ सकती है? साथ ही गर्मियों में इस तालाब के भरोसे फसल उत्पादन का किसान को जो भरोसा दिया जा रहा है, वह झूठा साबित होगा।

हालाँकि मध्यप्रदेश में व्यक्तिगत स्तर पर खेती के शौकीन किसानों से प्रदेश के ही रतलाम जिले में प्लास्टिक के तालाब बनाना शुरू कर दिए हैं। लेकिन अभी तक छह तालाब ही अस्तित्व में आए हैं। नए हैं, इसलिए अभी इन पर वायुमंडल के प्रभाव का असर परखा नहीं जा सका है। महाराष्ट्र सरकार ने सूखा प्रभावित जिलों में सरकारी अनुदान से इन तालाबों के निर्माण का सिलसिला शुरू कर दिया है। लेकिन इन पर भी जलवायु के प्रभाव का परीक्षण बाकी है। मध्यप्रदेश में ये तालाब बलराम तालाब योजना के तहत अनुदान के आधार पर तो बनेंगे ही, मनरेगा के तहत भी इन्हें बनाने की अनुमति दे दी गई है। दरअसल बलराम योजना को कृषि विभाग में पनपे भ्रष्टाचार के कारण सरकार बंद करने जा रही थी, लेकिन प्लास्टिक लाइन तालाब ने फिलहाल इस योजना को जीवनदान दे दिया है। किन्तु गौरतलब है कि क्या प्लास्टिक के तालाब निर्माण में भ्रष्टाचार नहीं होगा? प्लास्टिक की 500 माइक्रोन की गुणवत्ता को पलीता लगाकर, योजना में पर्याप्त भ्रष्टाचार की गुंजाइश है। इस मोटाई की चादरें यदि पुरानी प्लास्टिक से बनी या नई प्लास्टिक से बनाई जाती हैं, तो इसमें भी गड़बड़ी की खूब गुंजाइाश है। लेकिन कदाचरण की इन गुंजाइशों को इसलिए नजरअंदाज किया जाएगा, क्योंकि प्लास्टिक के तालाबों की खरीद प्रदेश स्तर पर मसलन केंद्रीयकृत होगी?

इन तालाबों के निर्माण से वायु कितनी प्रदूषित होगी और कितना कार्बन उत्सर्जित होगा, इस नजरिए से भारत में तो अभी तक कोई वैज्ञानिक अनुसंधान नहीं हुआ है, लेकिन तालाबों का निर्माण कितना घातक होगा, इसका अंदाजा हम अमेरिका में पानी की बोतल बनाए जाने पर होने वाले प्रदूषण से लगा सकते हैं। पैसेफिक संस्थान के मुताबिक एक टन मिनरल वाटर की बोतल बनाने में 3 टन कार्बन का उत्सर्जन होता है। साथ ही एक लीटर बोतलबंद पानी बनाने में 5 लीटर पानी खर्च करना पड़ता है। भारतीय मानक ब्यूरो के पास तो बोतलबंद पानी की जाँच की कोई व्यवस्था ही नहीं है। लेकिन सीएसई के शोध में बोतलबंद पानी में मैलेथियॉन, डीडीटी और ऑर्गेनोक्लोरींस जैसे कैंसर जनक कीटनाशक पाए गए हैं। चूँकि प्लास्टिक के बर्तन में पानी में पाए जाने वाले जीवाणु व विषाणु जैविक प्रक्रिया से नष्ट नहीं होते हैं, इसलिए इनकी घातकता बनी रहती है।

प्लास्टिक के तालाबों में इन कीटों के पनपने की आशंकाएं जताई जा रही हैं। क्योंकि इसमें कीट जैविक रूप से नष्ट नहीं होंगे। दरअसल खेत की मिट्टी में केंचुआ समेत कृषि के लाभदाई जो कीट पाए जाते हैं, वे जल में पाए जाने वाले घातक कीटाणुओं को आहार बनाकर जैविक रूप से नष्ट कर देते हैं। लिहाजा प्लास्टिक के तालाब वजूद में आते हैं तो पानी में रासायनिक प्रदूषण तेजी से बढ़ेगा। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में 21 फीसदी संक्रामक बीमारियाँ दूषित व रासायनिक पानी की वजह से ही होती हैं।

दरअसल नियोजित जल संसधानों के अभाव से देश की बड़ी आबादी जूझ रही है। बढ़ते निजीकरण, शहरीकरण और औद्योगिक, प्रौद्योगिक व मानवीय अपशिष्टों से पेयजल संकट बढ़ा भी है और दूषित भी हुआ है। इस कारण 10 करोड़ घरों में बच्चोें को पर्याप्त पानी नहीं मिल रहा है। नतीजतन हर दूसरा बच्चा कुपोषित है। 70 हजार करोड़ रुपए जल संरक्षण योजनाओं पर खर्च हो चूकने के बावजूद 18 प्रतिशत ग्रामीण आबादी के पास शुद्ध पानी उपलब्ध नहीं है। जल ग्रहण योजनाओं के लिये अभी 3 लाख करोड़ रुपयों की और जरूरत है। ऐसे में अल्पवर्षा और सूखा पानी समस्या को और भयावह बना रहे हैं। पानी के स्रोतों में भरपूर जल नहीं होने की वजह से दूषित पानी की मात्रा बढ़ रही है। ऐसे पानी में फ्लोराइड, आर्सेनिक, सीसा और यूरेनियम तक पानी में विलय हो रहे हैं। ऐसे में प्लास्टिक के तालाब पानी में प्रदूषण बढ़ाने का ही काम करेंगे। इन तालाबों में पानी का वाष्पीकरण भी ज्यादा होगा। क्योंकि प्लास्टिक की परत सूरज की गर्मी से जल्द गरम होकर जल का वाष्पीकरण करने लग जाएगी।

प्लास्टिक के तालाबों से एक बड़ा नुकसान यह होगा कि खेत में बने तालाबों का जलग्रहण क्षेत्र जब सिकुड़ने लग जाता है, तो किसान जल से बाहर निकली सतह पर खेती कर लेते हैं। तालाब के नीचे से निकली जमीन बेहद उपजाऊ होती है। क्योंकि इसमें पानी में मिले फूल-पत्तियाँ व कीट जैविक रूप से नष्ट होकर जैविक खाद की मात्रा बढ़ा देते हैं। जाहिर है, प्लास्टिक के तालाबों के निर्माण से कार्बन का उत्सर्जन वैश्विक तापमान तो बढ़ाएगा ही, इनमें भरे पानी का वाष्पीकरण भी तेजी से होगा। साथ ही मृदा की नमी खत्म होगी, जो खेत में पानी की मांग बढ़ाने का काम करेगी। कुल मिलाकर प्लास्टिक के तालाब खेती और पर्यावरण दोनों को ही नुकसानदायी साबित होंगे। प्लास्टिक के इन तालाब बनाम टबों के खराब होने पर इस प्लास्टिक को नष्ट करना भी मुश्किल होगा। अब तक प्लास्टिक कचरा शहरों के लिये मुसीबत बन रहा था, अब गाँव में भी यह संकट का सबब बनने जा रहा है।

लेखक वरिष्ठ साहित्यकार और पत्रकार हैं।

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