जल को बचाना पृथ्वी को बचाना है

‘अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर लड़ा जाएगा’ इस घोषणा में सच्चाई इसलिए है कि पानी पर कब्जा करने के प्रयास विश्वस्तर पर जारी हैं। पर्यावरण का पहला चरण पानी से शुरू होता है। पानी पर नियंत्रण, पानी प्रदूषण, पानी का बाजारीकरण और पारिस्थितिकी की रचना को लेकर ‘नया ज्ञानोदय’ की प्रसिद्ध पंचायत आयोजित की गई। इसमें प्रतिष्ठित जलकर्मियों ने भाग लिया। ये हैं : ‘पानी वाले बाबा’ के नाम से प्रसिद्ध राजस्थान में पानी यात्रा निकालने वाले, स्वतंत्र चिन्तक अरुण कुमार, बंगला की लेखिका और समाज कर्मी जया मित्रा, भूगोल की प्रोफेसर, विदुषी विनीता माथुर और पंजाब में पानी वापिस लाने के उद्देश्य को समर्पित ‘खेती विरासत’ के उमेन्द्र दत्त। इस पानी पंचायत का समन्वयन कर रहे हैं प्रख्यात जलकर्मी और विचारक अनुपम मिश्र।

पानी पंचायत : एक
प्रकृति ने पानी को बिल्कुल अपवाद की तरह बनाया। जिसके कारण सचमुच ही इसे जीवनदायी रूप मिला। अगर यह रूप नहीं होता तो वनस्पतियाँ जल को ऊपर नहीं खींच पाती, सबसे पहले नीचे का पानी जमता। इन चीजों पर हमें ध्यान रखना चाहिए।अनुपम मिश्र : पहले तो मैं ज्ञानोदय को ऐसे सामाजिक विषय पर पंचायत आयोजित करने के लिए बधाई देता हूँ। क्योंकि साहित्य का मतलब केवल कहानी, कविता नहीं है उसका सरोकार जीवन और समाज से जुड़े सामयिक प्रश्नों से भी है। जब साहित्य इस तरह के प्रश्नों से कटने लगता है तब उसका हश्र वहीं होता है जो अनेक चैनलों का हो रहा है। क्योंकि वे केवल मनोरंजन के लिए हैं। एक अच्छी साहित्यिक पत्रिका को यह कर्तव्य निभाना चाहिए और मेरे ख्याल से नया ज्ञानोदय यह काम कर रहा है।

प्रकृति का जो सरल रूप है उसको पिछले सौ डेढ़ सालों में जटिल बनाने का प्रयास किया गया है। उनमें से कई रूप हमारे सामने हैं और हरेक ने समाज को चोट पहुँचाई है। पानी का प्रश्न जिस तरह से हमारे सामने आज आ खड़ा हुआ है यह उन्हीं का एक रूप है।

अरुण कुमार : पानी जैसे महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा करते हुए हाल ही में जो नदियों के जोड़ने की चर्चा चल पड़ी है उस पर हम विचार करेंगे। यह योजना जिस लचर ढँग से शुरू की गई है वह चौंकाने वाली है। इसके लिए सम्भावित 56 खरब का खर्च तो केवल कहने की बात है। यह शायद दो या तीन सौ खरब तक जाएगा। लेकिन इस मसले पर जिस तरह से राष्ट्रपति, संसद, सुप्रीम कोर्ट में धींगामुश्ती चली है, चिन्ताजनक है, कहीं भी कोई संवाद नहीं हुआ है, न संसद में, न किसी और फोरम पर। नदियों को जोड़ने का मसला 60 के दशक में ही शुरू हो गया था जब के.एल राव, बिजली और पानी के मन्त्री बने थे। उन्होंने शुरू में ही गंगा-कावेरी को जोड़ने का प्रस्ताव रखा। इस मामले के अध्ययन के लिए तब से कई समितियों का गठन किया जा चुका है। समितियों ने इस पर अपनी राय भी दी कि यह सम्भव नहीं है। लेकिन पचास वर्षों में प्रजातंत्र के विकास ने कुछ इस तरह का रूप लिया है कि इस समय, इस मुद्दे पर सम्वाद जैसी कोई चीज बची नहीं है।

विनीता माथुर : सामाजिक यथार्थ से पानी को दूर करके नहीं देख सकते। पानी का जो वितरण है वह एक तरह से सत्ता समीकरण का ही प्रतिबिम्ब है। यानी जिसके पास ज्यादा सत्ता है उसके पास उतना पानी है। पानी के दुरुपयोग में जो रूढ़ियाँ, मान्यताएँ हैं उनके राजनीतिक और सामाजिक कारण हैं, उन पर भी बात करने की जरूरत है। पानी तक पहुँच किस किसकी है, यह अहम सवाल है। जहाँ वह नहीं पहुँच पा रहा है उसे पहुँचाया जा सकता है फिर भी क्यों नहीं ऐसा हो पा रहा है इस पर विचार करने की जरूरत है। जो जन संसाधन है वह निजी सम्पत्ति कैसे बन गया? इसके कारण सैद्धान्तिक उतने नहीं हैं जितने कि राजनीतिक और सामाजिक हैं।

अनुपम मिश्र : आपने बिल्कुल सही सवाल उठाया परन्तु यहाँ हम किन मुद्दों पर चर्चा करेंगे उसकी सीमा तय कर लें तो अच्छा रहेगा।

अरुण कुमार : मेरे ख्याल से पानी बँटवारे का मुद्दा है, सबसे अहम है। उसको समझना जरूरी है। इससे ही चर्चा शुरू करें।

जया मित्रा : पानी सार्वजनिक चीज रहा है। लेकिन पिछले कुछ वर्षो से यह वाणिज्यिक चीज होता जा रहा है। विकास की अवधारणा इस तरह की बन चुकी है कि पहले सबकुछ बुरा था, अब उसको अच्छा करना है। विकास की इस अवधारणा में सबसे अधिक पानी के बारे में सोचा जा रहा है। पानी को लेकर जब बँटवारे और विकास की बातें होती हैं तो लगता है हम लोग निर्णायक हैं। बात यह होने लगी है कि नदियों से पानी बेकार बह जाता है। नदियों में पानी बढ़ गया तो इससे बिजली बनाओ, जहाँ पानी नहीं है वहाँ पर प्रचुर पानी वाले इलाके से पानी ले जाओ। मानो जहाँ पानी नहीं था वहाँ पहले से ही लोग रहते थे। हम पिछले 15 सालों से सुनते आ रहे हैं कि नर्मदा का पानी जब सौराष्ट्र में पहुँचेगा तब वहाँ के लोगों को पीने का पानी मिलेगा। सौराष्ट्र तो बहुत पुराना राज्य रहा है। कैसे रहते थे वहाँ के लोग? ऐसी ही बात राजस्थान के बारे में कही जाती है। मानो राजस्थान पूरी तरह से कंगाल हो चुका हो। पानी नहीं है राजस्थान में। यहाँ बताना चाहूँगी कि पश्चिम बंगाल में पुरुलिया और बाँकुड़ा दो जिले में पानी नहीं है के नाम पर ही मशहूर हैं। लेकिन वहाँ जाकर मैंने खुद देखा है कि लोग किस तरह से बारिश के पानी का सदुपयोग करते हैं। वर्षा के पानी को रोकने की तकनीक पूरे भारत वर्ष में प्रचलित है। दुनिया के दूसरे देशों में भी जहाँ पुरानी कृषि सभ्यता है पानी संचित करने का अपना तरीका है। आज हम जल प्रबंधन की बात कर रहे हैं तब भी लोग निरन्तर गरीबी रेखा से नीचे चले जा रहे हैं। पहले 8 फीसदी, फिर 16 फीसदी और अब उससे भी अधिक और इसे हम रोक नहीं पा रहे। विकास के साथ-साथ गरीबी बढ़ती जा रही है। पानी के साथ हमारे जीवन की दूसरी समस्याएँ भी जुड़ी हुई हैं।

जिन मुल्कों ने गोदावरी, गंगा और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियाँ देखी होंगी। वे यहाँ पर पानी प्लांट बिठाकर हमारे घर में पानी पहुँचा रहे हैं। और हमारी सरकार कुदरत के दिए हुए पानी को टैक्स लेकर हम तक पहुँचा रही है। यानी लोगों की तृष्णा के लिए पैसा वसूला जा रहा है। कितनी भयावह बात है! इसके बाद ऐसा होगा कि जिसके पास पैसा नहीं है वह साँस नहीं ले सकता है। नया सिलसिला नदियों के जोड़ने का है। गंगा को कावेरी से, कावेरी को गोदावरी से आदि। लेकिन इससे जिस तरह की समस्याएँ होंगी उस पर गौर नहीं किया जा रहा है जितने बाँध बनाए गए हैं उसमें मिट्टी के जमाव से एक-एक नदी को खत्म किया गया है। आप देख सकते हैं कि अधिकांश नदियों में कोई गहराई नहीं रही। सूखे मैदान की तरह दिखती हैं वो।

अनुपम मिश्र : बिल्कुल ठीक कह रही हैं आप। पानी के प्रति समाज में कोई दर्द ही नहीं बचा। इस मुद्दे पर पुनः लौटेंगे। हमारे बीच पंजाब से उमेन्द्र जी हैं उनके अनुभव जान लें।

उमेन्द्र दत्त : पंजाब देश का एकमात्र राज्य है जिसके नाम के साथ पानी जुड़ा रहा है। लेकिन इस प्रदेश का अस्सी फीसदी इलाका डार्क जोन या ग्रे जोन में बदल चुका है। यानी जमीन के नीचे का पानी या तो खत्म हो गया या खत्म होने जा रहा है। तीन नदियाँ विभाजन में पाकिस्तान के हिस्से में चली गईं। सतलज और व्यास यहाँ बहती हैं लेकिन इनमें भी पानी धीरे-धीरे कम होता जा रहा है। इनको बड़ा स्वरूप देने वाली जो छोटी-छोटी धाराएँ थीं पंजाब में वे समाप्त हो चुकी हैं। शिवालिक की पहाड़ियों से निकलने वाली जयन्ती, बुदकी, सिसुआँ नदी पूरी तरह से सूख चुकी हैं। तांगरी नदी में साल में सिर्फ दस दिन ही पानी आता है वह भी बाढ़ की तरह काली बई नदी जो गुरुनानक की स्मृति से जुड़ी है, इस नदी की स्थिति भी काफी खराब थी। अब उसमें बाहर से पानी डाल कर जीवित किया जा रहा है। बुड्ढ़ा दरिया था पंजाब में वह नाला कहलाने लगा है। किस तरह से कोई नदी अपना स्वरूप गँवाती है यह इसका उदाहरण है। उसकी संज्ञा तक चली गई। सतलज को सबसे ज्यादा प्रदूषित करने वाला वह नाला ही है। सबसे ज्यादा मात्रा में सेलेनियम, क्रोमियम इसमें है।

यह उस पंजाब का हश्र है, जहाँ जगह-जगह पर पानी था। प्याऊ की परम्परा तो प्रायः पूरे देश में है लेकिन पंजाब में हर त्योहार पर जगह-जगह रोक कर मीठा पानी पिलाने की परम्परा है। आज के दौर में जो पानी की हालत हो रही है, बिसलरी का पानी खरीद कर के तो यह परम्परा नहीं चल सकती। एक तरह से इस प्रदेश की तो पूरी विरासत ही दाँव पर लगी हुई है।

1996 में पंजाब में ट्यूबवेल की संख्या कोई पचपन हजार थी। आज यह संख्या दस लाख के ऊपर पहुँच चुकी है। लेकिन अब पम्प जवाब देने लगे हैं। अब उसकी जगह नई खर्चीली तकनीक का इस्तेमाल हो रहा है। एक तरह से कहें कि पिछले हजारों सालों में जो पानी धरती के अंदर जमा था उसको हमने 35 सालों के अंदर निकाल बाहर किया। सरकारें बिजली मुफ्त दे सकती हैं लेकिन जमीन के नीचे पानी नहीं बढ़ा सकतीं। पंजाब में 12 हजार 402 गाँव हैं जिनमें से लगभग ग्यारह हजार 859 गाँवों में पानी की समस्या है।

अनुपम मिश्र : यह तो सरकारी आँकड़ा है। बाकी गाँव भला कैसे बच सकते हैं जब वहाँ भी इन्हीं कीट-नाशकों और उर्वरकों का इस्तेमाल किया गया है। इस पूरे पानी में वहीं कीटनाशक और जहर मिला हुआ है जिसको साफ करने की कोई वैज्ञानिक विधि है ही नहीं। जिस दिन इस पानी को शुद्ध करके लोगों को देने की बात चलेगी उस दिन यह पानी बिसलरी से भी महँगा पड़ेगा।

उमेन्द्र दत्त : इस पानी को ठीक करने के लिए विश्व बैंक से हजारों करोड़ रुपये का कर्ज मिलने वाला है ऐसी चर्चा है। स्थिति यह है कि हमने भविष्य के पंजाब का नाम ढूँढ लिया है वह है बेआब। मेरे ख्याल से इस मुद्दे की चर्चा हर मोर्चे पर होनी चाहिए इसी में सबका हित है। और साहित्य तो हित-विहीन नहीं हो सकता न।

अनुपम मिश्र : हमारे यहाँ एक गीत काफी लोकप्रिय है सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा। यह क्यों सारे जहाँ से अच्छा रहा है, अपनी सभी चीजें देखने की एक दृष्टि रही है। मैं ऐसा मानता हूँ कि जीवन-दर्शन के मामले में जमीन, खेती, पानी आदि में गहरी आत्मीयता, ममत्व जिसे आप आध्यात्मिकता कहें या व्यवहार कहें, रही है। इसके फिर खत्म होने के नमूने हैं कि पंजाब, बेआब हो जाएगा। इस सबसे बचने के लिए ऐसी जीवन-शैली निकाली गई। उसको पिछले दौर में चौपट करने के प्रयास हुए हैं। और इसमें कोई बहुत बड़ा षड्यंत्र भी नहीं रहा, लोग गा-बजाकर शामिल हुए, जिनके हाथ में राज रहा। षड्यंत्र तो सौ लोगों में एक या दो लोग करते हैं। लेकिन इस सबमें लगभग सर्वसम्मति दिखती है। मेरे ख्याल से नक्सलवाद को छोड़कर बाकी सभी विचारधारा के लोगों ने राज करके दिखाया है भारत में। लेकिन किसी ने भी कुछ अलग करके नहीं दिखाया। यहाँ पर गोदी में खेलती थीं जिसके हजारों नदियाँ गीत के अब शायद उसकी क्रिया भी बदलनी पड़े कि ...गोदी में सूखती थीं ...पानी जाने के बाद अब कौन-सी कविता लिखेंगे।

हमारे यहाँ एक मुहावरा है उल्टी गंगा बहाना। अब उल्टी वर्षा जैसा कुछ मुहावरा चलेगा। जैसा कि इन्होंने पंजाब के बारे में बताया, हम तो यही जानते थे कि पानी ऊपर से बरसता है लेकिन वहाँ मुफ्त बिजली पाकर पानी नीचे से ऊपर बहा। एक इलाके में दस-दस लाख ट्यूबवेल लगने का क्या मतलब है। दूसरी बात है कि समुद्र को भी नदियों के पानी की जरूरत है। वह बेकार नहीं जाता। यह एक नया सिद्धांत है जो पिछले दिनों प्रचलित हुआ है। जब तक उससे बिजली नहीं बनती या खेत की सिंचाई नहीं होती तब तक उसकी कोई उपयोगिता ही नहीं है। वह समुद्र की तरफ जाने लगती है उसका बहाव धीमा होता जाता है। वह अपने बहाव की ताकत को खुद सम्भालती है। अगर उसके प्रवाह को रोका गया तो खतरा हो सकता है। समुद्र की ताकत के आगे नदी का बहाव कुछ नहीं होता।

पानी का एक अद्भुत गुण है जो उसे तमाम तरल पदार्थों से भिन्न करता है। तापमान जब नीचे गिरता है तो वह ऊपर से जमता है। जबकि दूसरे तरल नीचे से। अगर वह नीचे से जमता तो सबसे पहले जीवन समाप्त हो जाता। इस तरह से पानी की संरचना को प्रकृति ने अपना नियम तोड़कर बनाया है। शायद इसीलिए यह मुहावरा बना है कि ‘जल ही जीवन है’। ठंडे से ठंडे इलाके में भी बर्फ के नीचे जल रहता है और उसके नीचे जीवन सुरक्षित रहता है। प्रकृति ने पानी को बिल्कुल अपवाद की तरह बनाया। जिसके कारण सचमुच ही इसे जीवनदायी रूप मिला। अगर यह रूप नहीं होता तो वनस्पतियाँ जल को ऊपर नहीं खींच पाती, सबसे पहले नीचे का पानी जमता। इन चीजों पर हमें ध्यान रखना चाहिए।

आज की तारीख में अगर एक भी गाँव ऐसा बचा है तो उससे इन आधुनिक व्यवस्थाओं को सीखना चाहिए। सभी चीजों को आँख मूँदकर आजकल गाली देने या फिर बेकार कहने का चलन है। हमें यह जानना चाहिए कि समाज के ढाँचे को नष्ट करके हम बहुत कुछ नहीं कर सकते और यह हमने पिछले वर्षों में प्रयोग करके देख लिया है।यह बात उठी कि अकाल और बाढ़ पर चर्चा होनी चाहिए। अकाल कभी अकेले नहीं आता है। उसके पहले समाज में अच्छे कामों का और विचारों का अकाल पड़ जाता है। आज का समय न जाने किसके कारण, किसकी प्रेरणा से ऐसे असंयम के कारण कुछ शब्दों में फँस गया है। जिसमें एक्टीविस्ट जैसे शब्द हैं जिन्हें मैदानी कार्यकर्ता कहा जाता है। नीचे के स्तर पर भी काम करने वाला चाहिए और ऊपर स्तर पर भी काम होना चाहिए। अच्छे सोचने विचारने वाले लोग भी चाहिए। विचार और कर्म इनमें से कोई भी चीज टर्मिनेटर बीज की तरह नहीं होता, जिसमें अंकुरण होता ही नहीं है। अच्छा विचार, अच्छे समाज को जन्म देता है। उसी पीढ़ी में नहीं तो अगली पीढ़ी में कभी न कभी। वह अच्छे काम को पॉलिश्ड भी करता हैं मेरा मानना है कि समाज में जब अच्छे विचारों और कामों की कमी हो जाती है तभी अकाल या सूखा आता है। हमारे यहाँ एक नया चलन है कि हर चीज की एक नीति बनाओ, ऐसा तब होता है जब समाज में अनीति हावी हो। जल नीति वर्ष 1987 में बनी और एक बार फिर 2002 के बाद से उसकी तैयारी हो रही है। इन नीतियों से क्या निकलता है। कितने दिन चलती हैं ये नीतियाँ। मैं यह मानता हूँ कि अच्छा सजग समाज अपने लिए एक जल-दर्शन तैयार करता है। वह दर्शन हजार दो हजार सालों तक बदलता नहीं। ऐसा नहीं कि एक बड़ा शहर बस गया तो उसके लिए जल-दर्शन बदल दो, उल्टी गंगा बहा दो। आज कल यह भी चलन है कि छोटे-छोटे स्तर पर ही हम अपने समाज की चीजों को ठीक करें उसमें सुधार करें। मेरे ख्याल से नीतिवाले सवाल को भी किसी न किसी को थोड़ा देख लेना चाहिए।

प्रभाकर श्रोत्रिय : अकाल सिर्फ हमारे समय में ही पड़ा हो ऐसा नहीं है। इसका एक इतिहास भी रहा है।

अनुपम मिश्र : हाँ! इसका कितना लम्बा इतिहास रहा है, इसे सचमुच देखना चाहिए। हमारे बीच जया जी मौजूद हैं। मेरे ख्याल से वे बिहार, बंगाल और ओड़ीसा में आने वाली बाढ़ के बारे में बताएँगी। पिछले दो सौ सालों में बाढ़ की जो मारक शक्ति बढ़ी, उसका क्या इतिहास रहा है। मुझे जहाँ तक पता है बाढ़ का वहाँ स्वागत होता रहा है क्योंकि बाढ़ के कारण खेतों की उपज बढ़ जाती थी। कभी बाढ़ को समस्या की तरह नहीं लिया गया।

जया मित्रा : कोसी में तो जब बाढ़ आने लगती थी तो गाँव के बड़े-बूढ़े लोग माला सजाकर उनके पास जाते थे कि माँ तुम जल्दी आओ। हमोर पौधों को जी-जान और हमारे तालाब में मछलियाँ दे जाओ।

अनुपम मिश्र : बिल्कुल, जिन विद्वानों ने कोसी क्षेत्र का अध्ययन किया है वे यह मानते हैं कि इस इलाके में मलेरिया नहीं था। क्योंकि बाढ़ के साथ मछली के जीरे भी पूरे प्रदेशों में फैल जाते थे जो मच्छरों के अंडे खा जाते थे। मलेरिया का ही इतिहास इस इलाके में कोई लिखे तो जल-दर्शन और जल-प्रबंधन का स्वरूप निकल आएगा। राजस्थान में नहर का इतिहास कोई प्रन्द्रह साल पुराना है और यही मलेरिया का भी है।

प्रभाकर श्रोत्रिय : उस समय अपनी तरह की दिक्कतें थी लेकिन अब अपनी तरह की होंगी।

अनुपम मिश्र : हरेक समाज अपने को नई चुनौतियों, ज़रूरतों के साथ अपडेट तो करता ही है। लेकिन बिल्कुल उत्तर से दक्षिण नहीं चला जाता। अपनी जरूरतें समेटता और कुछ नई जरूरतें बनाता, आगे बढ़ता जाता है। मैं तो यह कहता हूँ कि एक सजग समाज यह तय कर सकता है कि बिल्कुल आपद काल है हमें 20 लाख ट्यूबवेल लगाने ही होंगे। लेकिन अगर वह सोच समझ कर लगाएगा तो वह यह भी करेगा कि जितने गैलन पानी हम रोज फेंक रहे हैं उसको रिचार्ज करने के लिए भी नए पुराने तालाबों के इन्तजाम करेन होंगे। बिना सोचे-समझे हम यह कहें कि सिर्फ ट्यूबवेल लगाते चले जाएँ तो जैसा कि बताया गया कि पंजाब डार्क जोन बन रहा है वही हश्र होगा। अगर यह खेती अच्छी है तो यह कह कर करो कि यह सिर्फ दो पीढ़ी के लिए अच्छी है। तीसरी पीढ़ी की कोई जिम्मेवीरी नहीं है, तो हमारी सच्चाई सामने आ जाएगी।

अरुण कुमार : तुगलक वंश के समय एक नहर बनी थी शिवालिक से फिरोजपुर तक। करीब सौ साल तक पंजाब के लोगों ने इसका इस्तेमाल किया। सौ साल बाद यह सामूहिक निर्णय हुआ कि यह नहर रहेगी तो लोग नहीं रहेंगे। उसके बाद उस नहर को पाट दिया गया। यह एक ऐतिहासिक उदाहरण है। दूसरा उदाहरण गंगा नहर का भी देना चाहूँगा। हरिद्वार से निकल कर मेरठ होती हुई मुरादनगर की तरफ निकलती है। मेरे ख्याल से ये पुरानी ड्रेन है जो दो चार दस साल में जब भी गंगा में अतिरिक्त पानी आ जाता होगा हरिद्वार के पास, तो उसको लेकर इस इलाके में बाँटती होगी। लेकिन इसकी पक्की नहर तो नहीं थी। पक्की नहर तो 1850 में अंग्रेजों के समय बनाया गया। श्री उमेन्द्र दत्त ने अभी पंजाब की बात कही लेकिन यह जो गंगा जमुना का दोआब है यह हिन्दुस्तान की रूह है। इसमें इतनी समृद्धि है उतनी दुनिया के किसी भी देश में नहीं है। इस दोआब में दुनिया की सबसे जानदार और विविध किस्म की फसलें और फल होते रहे हैं। लेकिन हमने पिछले डेढ़ दो सौ सालों में इस क्षेत्र की पहचान गन्ने के इलाके के रूप में कर दी। किसान जो बहुत समृद्ध था, जहाँ हर रोज उत्सव होते थे, उसके सारे उत्सव खत्म कर दिए गए। आज की तारीख में हमने इस इलाके के किसान को कितना गरीब बना दिया है इसका आपको अनुमान नहीं है और यह इस नहर का कमाल है।

विनीता माथुर : आधुनिक इतिहास विधा ने तो जीवन को दो-तीन हजार वर्षों में सिमटा दिया। जीवन का इतिहास तो कम-से-कम दो अरब वर्ष रहा है, इसको विज्ञान भी मानता है। इतने वर्षों की कल्पना तो इतिहास में नहीं है। भूगोल में भी यह कल्पना एकाध लाख साल तक ही जाती है। ऐसे में हमारे साहित्य का प्रमाण बहुत महत्वपूर्ण है। महाभारत में एक सन्दर्भ आता है जिसमें कहा गया है कि पृथ्वी नदियों के कोख से जन्मी है। और इसकी रक्षा करना हर राजा का कर्तव्य है। दरअसल, मनुष्य अपने को ईश्वर के बराबर और सीमाओं से बाहर अपने को मानने लगा है। उसे लगता है कि वह सबकुछ कर देगा।

प्रभाकर श्रोत्रिय : आज जिस तरह से जनसंख्या का दबाव है उसके लिए हम प्रकृति के संसाधनों का उपयोग करना चाहें तो किस तरह करेंगे, पानी, अनाज, ऊर्जा उसकी जरूरत है।

अनुपम मिश्र : जनसंख्या वाला मामला बहुत बड़ा विषय है। अभी के लोगों ने जिस तरह से जनसंख्या को देखा है उसको मैं सूत्र की तरह छोटी-सी बात कहना चाहता हूँ। जनसंख्या की बात करनेवाले लोग सचमुच अपनी गिनती उसमें नहीं करते। उनके सामने बात यह है कि आप लोग बहुत हो गए हैं। मुझे ही सिर्फ रहना चाहिए, आप सब वांछनीय नहीं हैं। यह दृष्टिकोण बदल कर बात करने की तैयारी हो तब तो बात की जाए।

जहाँ तक अकाल का प्रश्न है उसमें प्रकृति का स्केल लाखों साल का है। वह पाँच और दस सेन्टीमीटर की परवाह ही नहीं करती। औसत मानसून जैसी चीजें हम सबके लिए भ्रम है। क्योंकि यह सब पिछले सौ सालों के आँकड़े पर आधारित हैं। नदियों को इस तरह से बनाया है कि वे छोटा बहाव भी झेल लेती हैं और बड़ा बहाव भी। इसमें कोई भी छोटा उतार चढ़ाव आने पर उस समय के समाज पर उस समय के पानी की कमी या अधिकता का कोई ज्यादा असर होता होगा लेकिन एक ऐसा समाज जो अच्छी धुरी पर हो उससे निबटने के अच्छे तरीके जरूर जानता है।

एक छोटा-सा उदाहरण रखना चाहता हूँ। लापोड़िया गाँव में हमें जाने का मौका मिला था। वह गाँव कोई द्वीप की तरह तो नहीं होगा अगर वहाँ किसी तरह की व्यवस्था है तो वैसी आस-पास के गाँवों में भी रही होगी। गाँव में कुल एक सौ पैंसठ धर थें तीन तालाब थे जो साधारण पानी गिरने से भी भर जाते थे। सौ कुएँ थे जिनमें साल भर पानी रहता था। इस तरह वहाँ पानी, चारा और अनाज को सुरक्षित रखने की ऐसी परम्परा थी कि तीन साल तक लगातार सूखा या अकाल पड़े तो भी काम चल जाता था। अनाज रखने के लिए गाँव में विशेष संरचना ‘खाई’ होती थी। जिसमें लोग स्वेच्छा से अपनी फसल का कुछ हिस्सा डालते थे। अनाज इतनी मात्रा में इकट्ठा हो जाता था कि तीन साल तक अकाल पड़े तो भी सब लोग आपस में मिलकर इसका उपयोग कर सकते थे। गाँव के स्तर पर जो संचालक होता था उसे यह पता होता था कि किस परिवार में क्या संकट है और यह तो होना ही चाहिए। सबने भोजन कर लिया यह जानने के बाद ही वह स्वयं भोजन करता था। यह व्यवस्था पिछले दो सौ साल तक चलती रही। आज की तारीख में अगर एक भी गाँव ऐसा बचा है तो उससे इन आधुनिक व्यवस्थाओं को सीखना चाहिए। सभी चीजों को आँख मूँदकर आजकल गाली देने या फिर बेकार कहने का चलन है। हमें यह जानना चाहिए कि समाज के ढाँचे को नष्ट करके हम बहुत कुछ नहीं कर सकते और यह हमने पिछले वर्षों में प्रयोग करके देख लिया है।

दुनिया में जो सर्वश्रेष्ठ पानी है वह हिन्दुस्तान में ही उपलब्ध है। अधिकांश देश, पंजाब की जिस तरह से बात हुई इसी तरह अपना पानी नष्ट कर चुके हैं। तब जाकर आसन्न खतरे को समझे हैं। अब उनकी योजना पानी को उसके स्रोत पर ही कब्जा करने की है। इसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार हैं।विनीता माथुर : पिछले एक डेढ़ सौ साल में जो सोच आई है, उससे सार्वजनिक संसाधनों की बदहाली और निजी की अतिरिक्त चिन्ता की प्रवृत्ति लगातार बढ़ी है। अपना काम चलना चाहिए, बाकी की कोई चिन्ता नहीं है। सार्वजनिक संसाधनों की देखभाल का जिम्मा किसी का नहीं है। ऐसा किसी एक भौगोलिक इलाके में नहीं प्रायः हर जगह है। आपने जैसे अभी लापोड़िया का उदाहरण दिया। छोटे स्तर पर चीजों का प्रबंधन ज्यादा आसान है। लेकिन स्वतंत्रता के बाद से हमारे यहाँ केन्द्रीकरण का जोर काफी रहा है। केन्द्रीकृत फार्मूला हर जगह सफल नहीं होता है और न ही एक जगह पर किसी सफल चीज को दूसरी जगह पर हू-ब-हू किया जा सकता है उसको वहाँ की परिस्थितियाँ प्रभावित करती ही हैं।

अरुण कुमार : यह कोई नई बात नहीं है पिछले सौ डेढ़ सौ सालों से तो वह होता ही रहा है। उसको फिर से लागू करने की जरूरत है। परन्तु आँख मूँदकर हम पुरानी व्यवस्था को लागू नहीं कर सकते। दरअसल हमें उस नए नजरिए पर भी विचार करने की जरूरत है कि इसमें कोई प्रदूषण है तो क्यों हैं उससे हम कैसे टकराएँगे, कैसे समझेंगे।

उमेन्द्र दत्त : सभ्यता जिस-जिस दौरे से निकलती है उसमें बहुत सी चीजें बदलती हैं। गुजरे दौर को वापस नहीं लाया जा सकता। समाज जब तालाब से पानी लेता था तो उसके नियम थे कि उसके आस-पास में कोई गन्दगी नहीं होनी चाहिए। अब पानी सप्लाई सरकार के जिम्मे है उसमें तो कोई सामाजिक नियम तो है नहीं। सरकार ने विचार, नियम और शासन, सबका अधिकार अपने हाथ में ले लिया। जो समाज अपने को अनुशासित करने के लिए खुद नियम कानून बनाता था वह सरकार के हिस्से चला गया। इससे कई तरह की अव्यवस्था खड़ी हो गई।

जया मित्रा : हाल यह है कि सरकार जब पानी की यह व्यवस्था कॉरपोरेट के हाथ में दे रही है तब भी किसी से नहीं पूछ रही है।

उमेन्द्र दत्त : इस कारण से बाजार हमारे नल के माध्यम से घर के भीतर तक आ गया है। तमाम बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को शहरों के पानी साफ करने के ठेके दिए जा रहे हैं। पानी दिल्ली जल बोर्ड का आ रहा है और बिल को फ्रांसीसी कम्पनी उठा रही है। मेरे समझ से इस समय सबसे बड़ा अकाल विचारों का है। इस अकाल को हटाने की जरूरत है।

अब एक नई तरह की समस्या की तरफ ध्यान दिलाना चाहूँगा। हरित क्रांति के जो महत्वपूर्ण इलाके हैं पंजाब, विदर्भ, मध्य प्रदेश का इलाका है, कर्नाटक का कुछ क्षेत्र तमिलनाडु और तेलंगाना का इलाका है। इन इलाकों में हजारों किसानों ने आत्महत्याएँ की हैं यह मामला किसी अकाल के कारण नहीं हुआ है। पानी होने के बावजूद ये लोग मरे हैं। उड़ीसा के कालाहांडी जिले की अकाल के साथ चर्चा होती है। वहाँ से कितनी नदियाँ निकलती हैं?

जया मित्रा : वहाँ से सात नदियाँ निकलती हैं। कालाहांडी तो इसलिए कहा जाता था कि वहाँ धान की सबसे अधिक उपज होती थी।

अनुपम मिश्र : वहाँ अलवर से ज्यादा पानी गिरता है। बहुत अच्छी बरसात होती है।

उमेन्द्र दत्त : इसलिए मुझे लगता है कि इस मामले को पुरानी विधि से सोचना चाहिए। बाढ़, अकाल अब राजनीतिक मुद्दे हो गए हैं। इसका प्रबंधन हमारे समाज में किस ढँग से होता था, इस पर विचार ही नहीं किया जा रहा।

जया मित्रा : मनुष्य की जिस सीमा की बात अरुण जी बार-बार कर रहे हैं, मुझे तो ऐसा लगता है कि जरूरत की सीमा हमें समझनी चाहिए कि दरअसल हमें किसी चीज की जरूरत कितनी है। प्रकृति जरूरत तो पूरी कर सकती है लेकिन लालच को पूरा नहीं कर सकती।

दरअसल अंग्रेजों ने तो दामोदर और कोसी जैसी नदियों को देखा नहीं था। इसलिए किसी को ‘बिहार का दुख’ कहा किसी को ‘चीन का दुख’ करार दिया। दामोदर में जितना तेज बहाव आता था वह तीन घंटे के भीतर खत्म। उसका ढलान गंगा से बहुत ज्यादा है तो वह एक तरह से हुगली के मुहाने को साफ करती थी। दामोदर पर जो पाँच बाँध बने और यह दावा किया गया था कि इससे बाढ़ रुकेगी। सूखे के दिनों में पानी मिलेगा, साथ में पनबिजली भी बनेगी। इसके लिए छोटानागपुर के तरफ पुराने जंगल से दो लाख से ऊपर पेड़ों की कटाई हुई। एक पेड़ का मूल्य एक रुपया निर्धारित किया गया। सत्रह अठारह मौजे डूब गए और मैथन में जितनी बिजली निकलती है सिर्फ उस शहर की ही बत्ती जलती है। बेतवा पर राजघाट में जो थोड़ी-सी पनबिजली बनती है वह इंदौर जाती है। राजघाट में बिजली थर्मल पावर की जलती है। मणिपुर की लोकताल झील पर उत्तरपूर्व की पूरी इकोलॉजी आश्रित है। वह कई रूपों में लोगों के आजीविका की स्रोत थी। वहाँ से तीन नदियाँ निकलती थीं। उसमें से लाइकाक नदी पर बाँध बनाया गया। इसमें तीन छोटी बड़ी धाराएँ आती हैं। जब लाइकाक नदी के प्रवाह को रोका गया तो उसका तो पानी बहुत बढ़ गया। नदी के किनारे बाँध बनने के साथ ही उसमें डूब गई। प्रदूषण इतना है कि उसमें दूसरा कुछ किया ही नहीं जा सकता।

अभी जो नदियों को जोड़ने की बात हो रही है, ऐसा कहा जा रहा है कि इससे 30 हजार मेगावाट बिजली मिलेगी। क्या करेंगे इतनी बिजली का? ब्राजील का सबसे बड़ा बाँध है चीक्षा। कहा जाता है कि उसकी मिट्टी आदिवासियों के खून से सनी हुई है। एक ही दिन में चार सौ से ज्यादा आदिवासी मारे गए थे क्योंकि वे बाँध नहीं बनने देने के लिए प्रतिरोध कर रहे थे। तब विश्व बैंक का कहना था कि बाँध से पनबिजली का उत्पादन 15 गुना बढ़ जाएगी। उद्योग कारखाने लगेंगे तो किसी को कोई दुख ही नहीं रह जाएगा। जब बाँध का काम पूरा हुआ तो देखा गया कि सिर्फ सात प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। इसको उन्नति हम कैसे कह सकते हैं जिससे हमोर संसाधन इस तरह बर्बाद हो जाएँ कि उसे ठीक करना मुश्किल हो जाए। इस तरह से हम आने वाली पीढ़ियों के लिए पृथ्वी का कौन-सा रूप छोड़ जाएँगे?

प्रभाकर श्रोत्रिय : इस प्रसंग में विस्थापन से जुड़े मुद्दे पर भी कुछ बात कर लेनी चाहिए।

अरुण कुमार : विस्थापन पर चर्चा करेंगे लेकिन पहले साहित्य पर भी विचार करने की जरूरत है। पिछले डेढ़ सौ वर्ष में साहित्य में भी गड़बड़ी हुई है। वह यह कि हमें लगातार यह बात सिखाई गई है कि जो कुछ हमारा अपना था, वह बहुत घटिया था। हमको पश्चिम का सोच और विज्ञान ही उबार सकता है। यह सोच की बड़ी भारी कमी है और आलोचनात्मक विचार की भी कमी है। इसका नतीजा यह हुआ कि हमारे पास जो था उसे भी गँवा बैठे।

विस्थापन की जो बात की जा रही है, तो वह बाढ़, अकाल और नदयों के कारण होता ही है लेकिन यह ऐसी विडम्बना है जिसे पिछले दो सौ सालों के इतिहास को ठीक से समझे बगैर नहीं जाना जा सकता। राजस्थान में गंगा नहर के विस्थापन के आँकड़े मैं देख रहा था। वहाँ पर जो आबादी थी अब वह कहीं दिखाई नहीं देती, मैंने जब यह सवाल वहाँ के चीफ इंजीनियर से किया तो उसने झट से कहा, “अब भारी मात्रा में मूंगफली का उत्पादन हो रहा है उसे आप नहीं देख रहे हैं और एक आध लोग इधर उधर हो गए उसकी ही चर्चा कर रहे हैं।”

नदियों को जोड़ने की 56 खरब की योजना बना दी गई है। हिन्दुत्व के बड़े पुरोधा शंकराचार्य भी इन नदियों को जोड़ने का समर्थन कर रहे हैं। सरकार ने इतनी बड़ी योजना बना दी है उसमें कितना बड़ा विस्थापन होगा इसका सरकार को अन्दाजा ही नहीं है। जया जी ने मिट्टी का सवाल उठाया। सोलह सौ किलोमीटर लम्बी, 25 मीटर चौड़ी और पाँच मीटर गहरी केनाल बनेगी, जैसा कि अनुमान लगाया जा रहा है; तो उससे निकलने वाली मिट्टी कहाँ डाली जाएगी? मिट्टी की बात तो छोड़िए, लोग जो विस्थापित होंगे उसके बारे में सोचने की फुर्सत तो है ही नहीं। दरअसल आधुनिक दुनिया बनाने के लिए जिस तरह से विस्थापन को हथियार बनाया गया है, उसको समझे बगैर इस विस्थापन को भी नहीं समझा जा सकता। साहित्य ने इस विडम्बना को ठीक से दर्ज नहीं किया है। यह सुनियोजित षडयंत्र 1750 से ही सक्रिय है। समय-समय पर इसके रूपक बदलते रहे हैं। आज जो इसका रूप है ग्लोबलाइजेशन वह विस्थापन की ही योजना है। इस पर ढँग से शोध नहीं हो रहा। मेरा तो यह आप लोगों से अनुरोध है कि साहित्यकारों को यह दृष्टि मिले कि वे इस समस्या को ठीक से समझें।

नदियों को जोड़ने के सम्बन्ध में सुप्रीम कोर्ट नजर रख रहा है परन्तु सवाल यह है कि उसकी भी सीमा है। वह किस हद तक इसको समझता है।

हमें सूखे और गीले के विस्थापन को समझना चाहिए। जब से बाढ़ नियन्त्रण कार्यक्रम शुरू हुआ है, 1950 में हमारे यहाँ 2.5 करोड़ हेक्टेयर जमीन थी जहाँ पर बाढ़ आती थी। आज इस भूमि का विस्तार है सात करोड़ हेक्टेयर और इस भूमि पर जब बाढ़ आ जाती है तो वह उतरती नहीं है। उसकी निकासी का कोई तरीका नहीं है।

अनुमप मिश्र : इस सन्दर्भ में कुछ कानूनी पेंच भी जान लेना चाहिए। भू-अर्जन कानून बनाया गया, किसी भी लोकहित की योजना या विकास की योजना के लिए सरकार को किसी से पूछने की जरूरत नहीं है। यह भवन जहाँ बैठकर हम विचार कर रहे हैं, वह बिजली, सड़क किसी भी चीज के लिए गिराई जा सकती है।

लोकहित के काम में इतना अनुपात तो मानेंगे कि सौ लोगों का कल्याण अगर हो रहा है तो कम से कम पाँच लोग विस्थापित हो रहे होंगे। उस योजना से जिन लोगों को लाभ हो रहा है, उसको इन विस्थापित लोगों में बाँटने का कोई तरीका नहीं है? उनको विस्थापित कहना ही नहीं पड़े वे खुद कहें कि हमने किसी चीज में सहर्ष अपनी जमीन दी और हमें उसका इतना लाभ मिला। कोई भी योजना यह नहीं कहती कि हम घाटे के लिए यहाँ आए हैं नर्मदा हो या कोई भी।

अरुण कुमार : वे तो यह कहकर आते हैं कि स्वर्ग बना देंगे।

अनुपम मिश्र : तो बाकी लोगों को क्यों नर्क में डाल रहे हो। उन दस पाँच लोगों को भी साथ ले लो न। भाखड़ा नांगल बाँध को बनाये हुए कितने साल हो गए लेकिन उसकी रिपोर्ट यह है कि अभी तक वहाँ के लोगों का पुनर्वास नहीं किया जा सका है। ऐसा किया जा सकता था कि जितने भी लाभान्वित किसान हैं उनकी आमदनी का 0.01 फीसदी विस्थापित लोगों का दिया जाता, लेकिन उनके लिए तो सारे कानून सख्ती के हैं। संवाद की तो को गुंजाइश ही नहीं है।

अकाल और बाढ़ की बात बार-बार आई इस सम्बन्ध में कुछ उदाहरण रखना चाहूँगा। बांग्लादेश में हम जिन नदियों को जानते हैं, उनका स्वभाव बिल्कुल अलग है। नदियाँ वहीं हैं लेकिन वे अपने मुहाने पर हैं। उनका पाट इतना चौड़ा है कि सामने का किनारा नहीं दिखता। उस इलाके में इतने संघर्ष के बाद नया देश बना, बांग्लादेश। लेकिन इस योजना में उनकी कोई भागीदारी नहीं ली गई। उन गाँव वालों से नहीं पूछा गया कि जब बाढ़ आती है तो तुम उससे कैसे निबटते हो।

वहाँ के लोग बाढ़ के दिनों में कच्ची मिट्टी के टीले बनाते थे। इन गाँवों ने अपनी बुद्धि से, हजारों साल के अनुभव से ही बचाव का कोई तरीका निकाला होगा। वे कोई 15-20 फुट ऊँचा तटबंध बनाते थे मिट्टी का। जरूरत होती थी तो उसको बीच-बीच में काट देते थे। इसके लिए उन्हें किसी सरकार से कोई ग्रांट या ऋण लेने की जरूरत नहीं थी। गाँव ही वह करता था।

अब कंक्रीट के 20 मीटर ऊँचे और पचास किलोमीटर लम्बे बाँध बनाए गए हैं और पद्मा तथा बह्मपुत्र को एक चैनल में बाँध दिया गया है। अब हालत यह है कि बाढ़ आती है तो पानी वापस निकल ही नहीं पाता। पानी खड़ा रहता है जिसके कारण वहाँ दलदल, मलेरिया कई तरह की बीमारियाँ फैलाती हैं। असली गरीबी तो अब आई है।

जया मित्रा : आपने ठीक कहा बांग्ला देश सरकार कितने कर्ज में डूबी इसकी तो बात छोड़ दें लेकिन वहाँ की जनता को तो इस फ्लड एक्शन प्लान ने बर्बाद ही कर दिया। इसको लेकर कोई चर्चा नहीं है, न भारत में और न बांग्ला देश में। साहित्य की बात की गई हमें यह बताइए कि जब इतनी ही दरिद्रता थी तब किसी ने सोनार बांग्ला कैसे लिखा? सोना रहा होगा तब उसने यह कविता लिखी होगी। थोड़ी अतिशयोक्ति रही होगी लेकिन कुछ था ही नहीं यह कहना तो ज्यादती है।

तटबंध के खिलाफ बहुत कुछ लिखा है लोगों ने अंग्रेजों ने भी लिखा है। परन्तु आज जैसी राजनीतिक स्थित है, एक वोट से सरकार गिर जाती है; लेकिन इन सब प्रश्नों में जहाँ जीवन-मरण का प्रश्न है वहाँ पर सर्वसम्मति है, एक भी व्यक्ति बाँधों के विरुद्ध बोलने वाला नहीं है।

अरुण कुमार : यह तो अब आम धारणा है कि सरकार किसी की भी हो कोई भी ऐसे मसले पर कुछ नहीं करने वाला। क्योंकि इन मामलों में सबकी हिस्सेदारी है पक्ष की भी और विपक्ष की भी।

उमेन्द्र दत्त : आगे का जो युद्ध है वह हथियारों से नहीं, पानी के लिए होने वाला है और वह घर-घर में होगा। हथियारों के युद्ध में तो संस्कृति, सभ्यता बच जाएगी लेकिन पानी की लड़ाई में तो मानवता ही खतरे में है।

अरुण कुमार : दरअसल पानी का जो काम है वह बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का सुनियोजित तरीका है। क्योंकि उनका तो साफ तर्क है कि पानी जहाँ है वहीं से लाना पड़ेगा। दरअसल उनकी योजना यह है कि हिन्दुस्तान को किसी भी तरह से तोड़-मरोड़ कर अपने काबू में रखना है। दुनिया में जो सर्वश्रेष्ठ पानी है वह हिन्दुस्तान में ही उपलब्ध है। अधिकांश देश, पंजाब की जिस तरह से बात हुई इसी तरह अपना पानी नष्ट कर चुके हैं। तब जाकर आसन्न खतरे को समझे हैं। अब उनकी योजना पानी को उसके स्रोत पर ही कब्जा करने की है। इसके लिए वे कुछ भी करने को तैयार हैं।

प्रस्तुति : लालबहादुर ओझा
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