जल की उत्पत्ति

‘जल’ की उत्पत्ति कैसे हुई? इस प्रश्न के उत्तर के लिए हमें ‘पुराणों’ का मंथन करना पड़ेगा। पुराणों का इसलिए क्योंकि ‘पुराण’ ही वे ग्रन्थ हैं जिनमें जगत् की सृष्टि-विषयक प्रश्न पर विशद रूप से विचार किया गया है। लगभग सभी पुराण इस मत पर स्थिर हैं कि जगत् की सृष्टि इस क्रम में हुई है-

(1) प्रधान (प्रकृति) और पुरुष के संयोग के कारण सर्वप्रथम ‘महत्तत्त्व’ उत्पन्न हुआ।
(2) महत्तत्त्व सात्विक, राजस और तामस – तीन प्रकार का है। यह ‘प्रधान’ से आवृत्त (ढँका हुआ) रहता है।
(3) महत्तत्त्व से वैकारिक (सात्विक), तैजस (राजस) और भूतादि रूप (तामस) अहंकार उत्पन्न हुआ।
(4) यह अहंकार त्रिगुणात्मक (सात्विक, राजस और तामस) होने के कारण ‘भूत’ (पंचतत्व) और इन्द्रिय आदि का जनक है।
(5) यह अहंकार महत्तत्व से व्याप्त रहता है।
(6) तामस अहंकार के विकृत होने पर ‘शब्द-तन्मात्रा’ और ‘शब्द’ गुण वाले आकाश की उत्पत्ति हुई।
(7) यह शब्द तन्मात्रा वाला ‘आकाश’ तामस अहंकार से व्याप्त होने के कारण ‘स्पर्श तन्मात्रा’ की उत्पत्ति का कारण बना। अर्थात् स्पर्श गुण वाला ‘वायु’ उत्पन्न हुआ।
(8) वायु आकाश से ‘आवृत्त’ रहता है। अतः इन दोनों (शब्द और स्पर्श तन्मात्राओं) के संयोग से ‘रूप तन्मात्रा’ तथा रूप गुण वाले ‘तेज’ की उत्पत्ति हुई।
(9) ‘तेज’ स्पर्श तन्मात्रा से आवृत्त रहता है। अतः आकाश, वायु और तेज के संयोग से ‘रस तन्मात्रा’ तथा रस गुण वाले ‘जल’ की सृष्टि हुई।
(10) रस तन्मात्रा तेज से आवृत्त रहती है। अतः उसमें जब विकार हुआ तो आकाश, वायु, तेज और जल के संयोग से ‘गन्ध तन्मात्रा’ तथा गन्ध गुण वाली पृथ्वी की उत्पत्ति हुई।

विशेषः

इस सृष्टि क्रम में ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध नामक तन्मात्राएँ, आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी की क्रमशः ‘गुण’ मात्र हैं, इनमें कोई विशेष भाव नहीं है और इनका सुख-दुख तथा मोह रूप से अनुभव नहीं हो सकता और ये शान्त, घोर तथा गूढ़ नहीं हैं। अतः ये अविशेष हैं। उक्त पौराणिक सृष्टि क्रम, तुलना करने पर आधुनिक-विज्ञान की कसौटी पर पूर्ण रूप से ‘खरा’ उतरता है।

आधुनिक भौतिक-विज्ञान के अनुसार ‘जल’ की उत्पत्ति ‘हाईड्रोजन+ऑक्सीजन’ इन दो गैसों पर विद्युत की प्रक्रिया के कारण हुई है। पौराणिक सिद्धान्त के अनुसार ‘वायु’ और ‘तेज’ की प्रतिक्रिया के कारण ‘जल’ उत्पन्न हुआ है। यदि वायु को गैसों का समुच्चय एवं तेज को विद्युत माना जाये तो इन दोनों ही सिद्धांतों में कोई अन्तर नहीं है। अतः जल की उत्पत्ति का पौराणिक सिद्धांत पूर्णतया विज्ञान-सम्मत सिद्ध होता है।

आधुनिक वैज्ञानिक आकाश, वायु तेज, जल और पृथ्वी को तत्व नहीं मानते। न मानने का कारण ‘तत्व’ संबंधी अवधारणा है। तत्व के सम्बन्ध में पौराणिक अवधारणा यह है कि जिसमें ‘तत्’ (अर्थात् पुरुष/विष्णु/ब्रह्म) व्याप्त हो, वह ‘तत्व’ कहलाता है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार ‘तत्व’ केवल मूल पदार्थ (Element) होता है। वस्तुतः ‘तत्त्व’ और ‘तत्व’ में बहुत अन्तर है। ‘तत्त्व’ वास्तविक रूप में एक ‘भूत’ है। किन्तु तत्व या Element एक पदार्थ मात्र है। अतः यह भेद मात्र अवधारणा के कारण उत्पन्न हुआ है।

इस सम्बन्ध में ‘विष्णु पुराण’ का निम्नलिखित श्लोक दृष्टव्य है-

‘पृथिव्यापस्तथा तेजो वायुराकाश एव च।
सर्वेन्द्रियान्तःकरणं पुरुषाख्यं हि यज् जगत्।।’
अर्थात्- पृथिवी, आपः (जल), तेज, वायु, आकाश, समस्त इन्द्रियाँ और अन्तःकरण इत्यादि जितना भी यह जगत् (गतिशील संसार है, सब ‘पुरुष रूप’ है।
-श्री विष्णु पुराण/प्रथम अंश/अ.-2/श्लोक -68

महर्षि पाराशर का कथन है कि सृष्टि की रचना में भगवान् तो केवल निमित्त-मात्र हैं (क्योंकि) उसका प्रधान कारण तो ‘सृज्य पदार्थों’ की शक्तियाँ ही हैं। वस्तुओं की रचना में निमित्त मात्र को छोड़कर और किसी बात की आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि वस्तु तो अपनी ही (परिणाम) शक्ति से ‘वस्तुता’ (स्थूलरूपता) को प्राप्त हो जाती है-

‘निमित्तमात्रमेवासौ सृ्ज्यानां सर्गकर्मणि।
प्रधान कारणीभूता यतो वै सृज्यशक्तयः।।
निमित्त मात्रं मुक्त्वैवं नान्यक्तिञ्चिदपेक्षते।
नीयते तपतां श्रेष्ठ स्वशक्त्या वस्तु वस्तुताम्।।’

‘जल’ की उत्पत्ति के संबंध में एक अन्य पुरातन- अवधारणा भी विचारणीय है। लगभग सभी पुराणों और स्मृतियों में यह श्लोक (थोड़े-बहुत पाठभेद से) दिया रहता है जो इस अर्थ का वाचक है कि जल की उत्पत्ति ‘नर’ (पुरुष = परब्रह्म) से हुई है अतः उसका (अपत्य रूप में) प्राचीन नाम ‘नार’ है, चूंकि वह (नर) ‘नार’ में ही निवास करता है, अत: उस नर को ‘नारायण’ कहते हैं-

आपो नारा इति प्रोक्ता, आपो वै नरसूनवः।
अयनं तस्य ताः पूर्वं तेन नारायणः स्मृतः।।

-ब्रह्मपुराण/अ-1/श्लोक-38

विष्णुपुराण के अनुसार इस समग्र संसार के सृष्टि कर्ता ‘ब्रह्मा’ का सबसे पहला नाम नारायण है। दूसरे शब्दों में में भगवान का ‘जलमय रूप’ ही इस संसार की उत्पत्ति का कारण है-

जल रूपेण हि हरिः सोमो वरूण उत्तमः।
अग्नीषोममयं विश्वं विष्णुरापस्तु कारणम्।।

-अग्निपुराण /अ.-64/श्लोक 1-2

‘हरिवंश पुराण’ भी इसकी पुष्टि करता है कि ‘आपः’ सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हैं। ‘हरिवंश’ में कहा गया है कि स्वयंभू भगवान् नारायण ने नाना प्रकार की प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा से सर्वप्रथम ‘जल’ की ही सृष्टि की। फिर उस जल में अपनी शक्ति का आधीन किया जिससे एक बहुत बड़ा ‘हिरण्यमय-अण्ड’ प्रकट हुआ। वह अण्ड दीर्घकाल तक जल में स्थित रहा। उसी में ब्रह्माजी प्रकट हुए-

ततः स्वयंभूर्भगवान् सिसृक्षुर्विविधाः प्रजाः।
अप एव ससर्जादौ तासु वीर्यमवासृजत्।।35।।
हिरण्य वर्णभभवत् तदण्डमुदकेशयम्।
तत्रजज्ञे स्वयं ब्रह्मा स्वयंभूरिति नः श्रुतम्।। 37।।

इस ‘हिरण्यमय अण्ड’ के दो खण्ड हो गये। ऊपर का खण्ड ‘द्युलोक’ कहलाया और नीचे का ‘भूलोक’। दोनों के बीच का खाली भाग ‘आकाश’ कहलाया। स्वयं ब्रह्माजी ‘आपव’ कहलाये-

‘उच्चावचानि भूतानि गात्रेभ्यस्तस्य ज्ञज्ञिरे।
आपवस्य प्रजासर्गें सृजतो ही प्रजापतेः।।49।।’

अर्थात्- इस प्रकार प्रजा की सृष्टि रचते हुए उन ‘आपव’ (अर्थात् जल में प्रकट हुए) प्रजापति ब्रह्मा के अंगों में से उच्च तथा साधारण श्रेणी के बहुत से प्राणी प्रकट हुए।

-हरिवंश/हरिवंश पर्व/प्रथम अध्याय

‘जल’ केवल ‘नारायण’ ही नहीं, ब्रह्मा विष्णु और महेश (रूद्र) तीनों है।

‘वायु पुराण’ के अनुसार जल शिव की अष्टमूर्तियों में से एक है। दूसरे शब्दों में ‘रूद्र’ की उपासना के लिए जो आठ प्रतीक निर्धारित हैं उनमें से एक जल है-

ततोSभिसृष्टास्तनव एषां नाम्ना स्वयंभुवा।
सूर्यो मही जलं वह्निर्वायुराकाशमेव च।।
दीक्षितो ब्राह्मणश्चन्द्र इत्येते ब्रह्मघातवः।
तेषु पूज्यश्च वन्द्यः स्याद् रुद्रस्तान्न हिनस्तिवै।।

ये आठ प्रतीक क्रमशः सूर्य, मही, जल, वह्नि(पशुपति), वायु, आकाश, दीक्षित ब्राह्मण तथा चन्द्र हैं। रूद्र की जो आठ मूर्तियाँ निश्चित हैं, उनकी पूजा (क्रमशः) सूर्य (रूद्र), मही (शर्व), जल (भव), वह्नि (पशुपति), वायु (ईशान), आकाश (भीम), दीक्षित ब्राह्मण (उग्र) तथा चन्द्र (महादेव) में करने से रूद्र कभी भी उपासक को हानि नहीं पहुँचाते।

इनमें शिव का जो ‘रसात्मक’ रूप है वह ‘भव’ कहलाता है और जल में निवास करता है। इसलिए ‘भव्’ और ‘जल’ से सम्पूर्ण भूत समूह (प्राणी) उत्पन्न होता है और वह सबको उत्पन्न करता है। अतः ‘भवन-भावन-सम्बंध’ होने के कारण ‘जल जीवों का संभव’ कहलाता है-

यस्माद्भवन्ति भूतानि ताम्यस्ता भावयन्ति च।
भवनाद्भवनाच्चैव भूतानां संभवः स्मृतः।।22।।

इसी कारण कहा गया है कि जल में मल-मूत्र नहीं त्यागना चाहिए। न थूकना चाहिए। नग्न होकर स्नान नहीं करना चाहिए। जल में मैथुन नहीं करना चाहिए। शिरः स्नान नहीं करना चाहिए। स्थिर या बहते हुए जल के प्रति कोई अप्रीतिजनक बात नहीं कहनी चाहिए। पवित्र या अपवित्र शरीर के स्पर्श से जल कभी-भी दूषित नहीं होता। किन्तु मटमैले, विरस, दुर्गन्धित और थोड़े जल का उपयोग नहीं करना चाहिए।

समुद्र जल का उत्पत्ति स्थान है। इसलिए जलराशि समुद्र की कामना करती है। जल समुद्र को पाकर पवित्र और अमृतमय हो जाता है। बहते हुए जल को रोकना नहीं चाहिए। क्योंकि वह समुद्र में जाना चाहता है। इस प्रकार ‘जल तत्त्व’ को जानकर जो जल में रहता है, उसकी ‘हिंसा’ भव-देवता नहीं करते हैं।

भगवान् महादेव ही अमृतात्मा जलमय चन्द्रमा कहे जाते हैं। (महादेवोSमृतात्माSसौ द्यृम्मयश्चन्द्रमाः स्मृतः)।

जलरूप भव की पत्नि ‘उषा’ और पुत्र ‘उशना’ माने गये हैं- भवस्य या द्वितीया तु तनुरापः स्मृता तु वै। तस्योषाSन्न स्मृता पत्नी पुत्रश्चाप्युशना स्मृतः।।

-वायुपुराण/अ.-27/श्लोक-50

पुराणों और स्मृतियों के अनुसार ‘जल’ आधिदैविक, आध्यात्मिक और आधिभौतिक तीनों रूपों में विद्यमान है।

वेदों में जल को ‘आपो देवता’ कहा गया है। ऋग्वेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद – इन तीनों संहिताओं में, यद्यपि जल के लिए पूरे एक सौ पर्यायवाची शब्द प्रयुक्त हुए हैं, तथापि सर्वाधिक प्रयोग ‘आपः’ शब्द का हुआ है, इसका करण हैवस्तुत: आपः शब्द ‘आप्’ धातु का विकसित रूप है। आप् धातु का प्रयोग व्यापक होने, फैलने एवं सर्वत्र विद्यमान रहने के अर्थ में किया जाता है। दूसरे शब्दों में, जो सर्वव्यापी है, जो फैल सकता है और जो सर्वत्र विद्यमान है, वह ‘आपः’ कहलाता है। ये तीनों लक्षण क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश के वाचक हैं। अतः वेदों में यदि जल को ‘आपो देवता’ कहा गया है तो ठीक ही है। वह पूर्ण उपयुक्त है। साथ ही उपवृंहण करने पर पुराणों की विचारधारा से भी मेल खाता है।

थोड़ा-सा हम ‘देवता’ शब्द पर भी विचार कर लें। क्योंकि पाश्चात्य भाष्यकारों ने वैदिक-देवताओं के प्रति अपने जो विचार व्यक्त किए हैं, उनके कारण वैदिक देवता बहुत ही हल्के होकर रह गये हैं। देवता ही क्यों, ‘वेद’ तक ‘सामान्य धर्मग्रन्थ’ बनकर रह गये हैं। आज के लोग जब ‘वेदों’ को पढ़ते हैं तो उन्हें वेदों में कोई खास बात नजर नहीं आती। पाश्चात्यों के अनुकरण पर (उन्हें भी) वेदों में केवल यज्ञ-उपासना, बलि और हिंसा ही अधिक दिखायी देती है. वेदों के मंत्र-ऋक्, यजुष्, साम और अथर्व की बजाय उन्हें घुमन्तू कबीले के प्राचीन-गीत अधिक मालूम पड़ते हैं। वेदों की ‘देवता’ पर उनका ध्यान ही नहीं जाता। और यह सब केवल ‘देवता’ शब्द के कारण हुआ है जिसे प्राचीन भारतवासियों के अलावा, अन्य कोई भी नहीं समझ पाया।

वस्तुतः ‘देवता’ शब्द उस ईश्वरीय शक्ति या रूप के लिए प्रयुक्त होता है, जिसका सृष्टि के विकास, उसकी स्थिरता तथा संहार पर प्रभाव पड़ता है और जिसका इन तीनों क्रियाओं में ‘सीधा दखल’ रहता है।

महर्षि वाल्मीकि ने अपनी ‘महारामायण’ (योग वासिष्ठ) में कहा है कि स्थावर (पर्वत आदि), जंगम (प्राणिवर्ग), आकाश, जल, अग्नि, वायु इत्यादि में ‘शुद्ध चेतन’ नित्य रूप से विद्यमान रहता है। वह न कभी उदित होता है और न अस्त।

शुद्धं हि चेतनं नित्यं नोदेति न च शाम्यति।
स्थावरे जंगमे व्योम्नि शैलेSर्ग्नो पवने स्थितम्।।

-योग वसिष्ठ/उत्पत्ति प्रकरण/सर्ग-55/3

पाणिनी के अष्टाध्यायी (3/3/121) के अनुसार ‘दिवु’ (दिवादिगण) धातु से ‘दीव्यति द्योतते इति देवः’ (इस अर्थ में) ‘हलश्च’ सूत्र से ‘घ’ प्रत्यय करके ‘देव’ शब्द बनता है। पुनः उसी अर्थ में ‘तल्’ प्रत्यय करके ‘देवता’ शब्द की सिद्धि होती है।
‘वेद’ के ‘निरुक्त’ नामक अंग के भाष्यकार महर्षि यास्क के अनुसार “यो देवः सा देवता” (7/4/2) अर्थात् जो दीप्तिमान (या प्रभावशाली) है वह देवता है। यास्क ने कहा है कि देवता शब्द ‘दा’‘दीप’ और ‘द्युत्’ धातुओं से बना है।

(देवो दानाद् वा दीपनाद वा द्योतनाद् वा निरुक्त, दैवत काण्ड 7/4/2)

अर्थात्- जो ऐश्वर्य प्रदान करता है (ददाति ह्यसौ ऐश्वर्याणि) जो स्वयं तेजोमय होने के कारण दूसरों के प्रकाशित करता है ( दीपयति ह्यसौ तेजोमयत्वात्) अथवा स्वयं प्रकाशमान होने के कारण दूसरों को प्रकाशित करता है (द्योतनाद वा)।

यहाँ ‘देवता’ शब्द की विस्तृत व्याख्या करना हमारा ‘अभीष्ट’ नहीं है। संक्षेप में यही समझ लेना चाहिए कि वैदिक ऋषियों ने जिस शक्ति या पदार्थ की ‘देवता’रूप में अनुभूति की है, उसे ही उन्होंने उस मंत्र (ऋचा, यजुष् या साम) का ‘देवता’ बताया है।

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