जल की मिथकीय अवधारणा (भाग 2)

गोंड मिथकथाओं का आविर्भाव लिंगोपेन की लम्बी गाथा से होता है। उसमें भी जल और कमल की युति का जिक्र आता है। पहले भगवान वर्षों जल के ऊपर कमल पत्ते पर शयन करते रहे। हजारों-लाखों वर्ष बीत जाने के पश्चात एक दिन भगवान के हाथ में फोड़ा उठा। फोड़ा बढ़ा, पका और फुटा। उससे महादेव और पार्वती का जन्म हुआ। आगे चलकर महादेव ने जल पर धरती, वनस्पति और जीवों का निर्माण किया।

अगरिया पृथ्वी पर अग्यासुर की आग से पैदा हुए, वे लौह अयस्क और लौह प्रगलन की विधि खोजने वाले पहले आदिवासी हैं। उनकी मिथकथाओं में पानी का वैसा ही वर्णन मिलता है। जैसे गोंडों की कथाओं में, क्योंकि अगरिया गोंडों की ही उपशाखा हैं। उनकी कथा है- भगवान ने पहले पानी के ऊपर कमल का एक बड़ा पत्ता रखकर दुनिया बनाई। लेकिन सूरज उगा और उसने अपनी गर्मी से वह पत्ता नष्ट कर दिया। तब भगवान ने लाख से दुनिया बनाई, पर जब वह उस पर चढ़ा तो उसके हजारों टुकड़े हो गये। आगे मैल से कौए और पृथ्वी की कथा आती है। एक भुंइया कथा में जल के बारे में कहा गया है- सब तरफ पानी ही पानी था। कमल के पत्ते पर बस्की माता पैदा हुईं। देवताओं ने नीचे देखा और पाया कि लहरें उसे आगे-पीछे धकेल रही हैं, उन्होंने सोचा कि अब क्या करना चाहिए। बस्की माता चिल्लाई बोरम बूढ़ा का बेटा परिहार है। उसे मारो उसके खून और उसकी हड्डियों से दुनिया पैदा होगी। सभी देवता धरम देवता के पास गये और बस्की माता ने जो कहा था, वह उसे बताया। उसने जवाब दिया- बोरम मेरा बेटा है, मैं इसके लिए क्या कर सकता हूँ? तुम खुद उसके पास जाओ और उससे पूछो। वे उसके पास गये और बोले कि उन्हें एक तूम्बे की जरूरत है। उसने कहा कि वह उन्हें तूम्बा देगा। उसे यह पता नहीं था कि वे उसका बेटा चाहते हैं। जब उन्हें बेटा मिल गया तो उन्हें पता नहीं था कि उसे कैसे मार डालें। उसे काटने के लिए उनके पास लोहे के कोई हथियार या औजार नहीं थे। वे फिर से धरम देवता के पास गये, तब धरम देवता ने अपने शरीर के मैल से एक बाघ बनाकर उसे लाल रंग से रंग दिया। उसने कहा- भैया बाघ जाओ और जब परिहार पानी पीने के लिए आये तो उसे खा जाना। बाघ पानी के पास छुप गया। परिहार को इसकी खबर लगी तो उसने एक लोहार से कहा कि वह बाघ को मारने के लिए लोहे का धनुष और बाण बना दे। इन्हें लेकर वह बाघ को मारने चला, थक जाने पर वह एक नाले में पानी पीने गया। एक क्षण के लिए उसने हथियार नीचे रख दिये और तभी बाघ ने उसे पकड़ लिया। वह चिल्लाया और देवता यह देखने दौड़े कि मामला क्या है? बाघ ने उसे जाने दिया। पर कुछ कदम दौड़ने के बाद लड़का गिरकर मर गया।

तब देवताओं ने परिहार का शरीर उठाया और उसे कई बार चारों तरफ घुमाया। उसका खून बिखरा और जहाँ-जहाँ पानी में खून गिरा वहाँ जमीन बन गई। उसकी हड्डियाँ उड़ गईं और वे सात चट्टान बन गईं। उसके बाल सात पेड़ बन गये। देवताओं ने परखना चाहा कि जमीन ठोस है या नहीं, उन्होंने बरसात को बुलवाया और एक बड़ा तुफान आया। कुछ पानी गड्ढों में भर गया और बाकी सूख गया। देवता सारे संसार में घूमे। उनके पैर कीचड़ में गंदे हो गये और जब उन्होंने पैर से कीचड़ निकाला तो उससे टेकरियाँ और पहाड़ बन गये।

तब बस्की माता समुद्र के तल पर गईं और अपने सिर के बल खड़ी हो गईं। उसका सिर कमल के फूल पर टिका था और उसने अपने पैरों के ऊपर पृथ्वी को रख लिया। जब थकने पर वह एक पैर से दूसरे पैर पर पृथ्वी को रखती है तो बीच की दुनिया में जल हिल जाता है और भूकम्प आ जाता है। (वेरियन एल्विन मिथ्स आफ मिडिल इंडिया से साभार)।

इस पूरी मिथकथा में पानी का महत्व और प्रतिष्ठा का प्रतिपादन बहुत स्पष्ट दिखाई देता है। बाघ तक पानी के पास छुपने का उपक्रम करता है, जो एक मौलिक अभिप्राय बन गया है। इस कथा में एक बात और साफ होती है, वह है मातृशक्ति की अवधारणा। कमल के पत्ते पर बस्की माता पैदा हुई, इस एक वाक्य में जल, कमल पत्ते पर पहली पराशक्ति की अवधारणा भी साफ होती है। पानी में खून से जमीन बनने का समर्थन भी मिलता है। बस्की माता का मिथ लक्ष्मी से मिलता है। वह समुद्र तल पर गईं, कमल फूल पर वह सिर के बल पर खड़ी हुई, पैरों पर उसने पृथ्वी को रख लिया। हमारे यहाँ लक्ष्मी समुद्र मंथन में कमल पर खड़ी या बैठी निकलीं। पृथ्वी और सृष्टि के विकास में जल कमल का अत्यधिक महत्व होने से उसे पृथ्वी-सृष्टि का प्रतीक माना गया है। तंत्र में इसे बहुत व्यापक रूप से ग्रहण किया गया है। एक और भुंइया मिथकथा में कहा गया है कि- चौदह भाग पानी था और सात भाग किचड़ था। वह सब आपस में मिल गया था। देवताओं ने देखा कि दुनिया में आधा किचड़ है और आधा पानी। उन्होंने कहा कि वे लौकी खाना चाहते हैं, जिससे दुनिया ठोस हो जाये। एक गौर सींग माड़िया कथा में बताया है कि- एक बार बहुत बारिश हुई और पहली दुनिया डूब गई, लेकिन एक भाई कवाची और उसकी बहन कुहरामी दध। बुरका कवाची नामक तम्बी में बैठकर इधर-उधर बहते रहे। एक आगे की कथा में जंगली सुअर के कड़े बालों में चिपकी मिट्टी से संसार का जन्म हुआ। इस कथा में वराह अवतार के बीज समाहित हैं. पहले गाय के पास दूध नहीं था, एक बार उसने ‘पानी’ दिया और वह दूध में बदल गया, तब गाय दूध देने लगी। संभवतया लोग दूध में थोड़ा-बहुत पानी अवश्य मिलाते हैं। इसीलिए निमाड़ी मान्यता है कि कोरा दूध किसी को देने से गाय-भैंस के थन जलते हैं। एक बोण्डो कथा में पृथ्वी पानी में डूबी हुई थी और महाप्रभु को कोई नहीं दिख रहा था। फिर मैल से कौआ बनाया, उसने मिट्टी का पता लगाया। गदबा कहानी में- यह संसार बनने से पहले पानी के भीतर एक कुम्हार पैदा हुआ। वह पानी के ऊपर आया और उसने रहने के लिए जगह तलाशने की कोशिश की। वह तैरता रहा और संसार के चारों कोनों में गया और थककर चूर हो गया। वह इतना थक गया कि मुँह में लार की धार निकलने लगी। वह पानी की सतह पर फैल गई। और धीरे-धीरे जमकर कड़ी हो गई, जिससे समुद्र के ऊपर एक परत बन गई। कुम्हार उस पर चढ़, पर वह परत नीचे धँस गई। उसने अपना बायाँ हाथ और बायाँ पैर काट डाला और प्रत्येक के दो-दो टुकड़े कर दिये। इस तरह कुल चार टुकड़े हो गये। उसने पृथ्वी की परत के चारों कोनों पर गाड़ दिया और उसे स्थिर कर दिया। अब पानी की लहरें भी उसे हिला नहीं पा सकती थीं।

आदिम मिथकथाओं में तूम्बे से मनुष्य के पैदा होने की कथा प्रायः हर आदिवासी समूह में मिलती है। संभवतया तूम्बा यानी लौकी, दुनिया का पहला बड़ा फल होना पाया जाता है। इसका जिक्र कहीं न कहीं इसी बहाने हर उत्पत्ति कथा में पाया जाता है। फिर जल से भी तूम्बे का गहरा सम्बन्ध है, क्योंकि वह पानी पर आसानी से तैरता है और उसके भीतर पानी जाने की गुंजाइश भी नहीं होती, जब तक कि वह सड़ नहीं जाये अथवा फूट न जाये। कई बार चट्टान से टकराकर तूम्बे के टूटने का वर्णन इन आदिवासी मिथकथाओं में मिलता है, जिसमें से एक पुरुष और स्त्री अथवा दोनों पुरुष निकलने की बात आती है। एक गदबा कहानी में इस बात की पुष्टी हो जाती है- बड़े दानव लारंग ने दुनिया को निगल लिया और पानी के सिवा कुछ नहीं बचा। पर पानी में एक तूम्बा उतर रहा था, जिसमें एक लड़का और एक लड़की थे। लारंग की पूँछ पर कपास का एक पेंड़ उगा। वह पेंड़ पानी से निकलकर बढ़ा और आसमान की तरफ फैल गया। पेड़ पर फूल खिले। जब महाप्रभु ने देखा कि पानी के अलावा और कुछ नहीं है, तब वह सोचने लगा और सोचता ही रहा।

यहाँ तूम्बे और तूम्बे के आकार-प्रकार की ओर बरबस ध्यान जाता है। अधिकांश आदिम पुरा उत्पत्ति कथाओं में आदमी के जन्म का आधार तूम्बे को बनाया है। जिस प्रकार जल धरती का आधार है, ठीक इसी प्रकार पानी में तैरने वाला तूम्बा मनुष्य के जन्म का आधार है। पहले तूम्बे का आकार-प्रकार इतना विशाल रहा होगा कि उसमें दो व्यक्ति स्त्री-पुरुष आसानी से रह सकते होंगे। समझ लें, तूम्बा एक नाव का आकार का हो सकता है।

उसमें जीवन की पूरी संभावना रह सकती है। वेरियर एलविन ने लांझिया सओरा आदिवासियों की मिथकथा में यह खुलासा दिया है- ‘सबसे पहले पाताल के पानी के ऊपर एक दुनिया थी। किट्टुंग के चूहे ने पहाड़ के नीचे बिल बनाया तो नीचे का पानी ऊपर आ गया और धरती डूब गई और किट्टुंग और किट्टुंगबोई तुम्बे में रहते थे। विशाल किट्टुंग ने आकाश में एक कौआ बनाया और यह जानने के लिए भेजा कि क्या हो रहा है। उसे तूम्बा मिला और तूम्बा कहाँ है, यह बताने के लिए वह किट्टुंग के पास लौटा। किट्टुंग और किट्टुंगबोई से तुम्बे में रामा और भीमों पैदा हुए। छोटी पहाड़ी के बराबर एक तूम्बा था जब दुनिया पानी में डूब गई तब सओरा लड़के और उसकी बहन ने तूम्बे के एक तरफ छेद किया और उसमें छुप गये। एक तूम्बा पानी की सतह पर उतराने लगा। राजा मुरिया कथा में भी तूम्बा आया है- जब दुनिया में पानी के सिवाय कुछ नहीं था, तब एक भाई और बहन तूम्बे में रहते थे, जो पानी में आगे-पीछे उतरा रहा था। धीरे से तूम्बा चला औऱ वह एक जगह बारह साल तक रुका रहा। तेज हवा के कारण वह अदान के पेड़ से टकराया। इससे पेड़ हिला और महापुरुब हिला। उसने अपने मन में सोचा- मैंने बारह साल तक समाधि ली हैं, अब ये क्या है? उसे गुस्सा आया और पेड़ के पास जाकर उसने भाई-बहन को मार डाला। उनके शरीर से धरती बनी।

तूम्बे के दो टुकड़े हो गये दोनों टुकड़े जमीन पर उल्टे गिर गये। महापुरुब ने उन्हें ठोकर मारकर किनारे किया और वे पलट गये। तूम्बे के एक टुकड़े में एक नया लड़का था और दूसरे टुकड़े में नई लड़की थी। महापुरुब उन्हें घर ले गये और जब वे बड़े हो गये तो उनकी शादी कर दी। उन्हीं से सारी मानव जाति बनी। गदबा मिथकथा में कहा गया है कि जब संसार में कोई भी लोग नहीं थे तब एक तूम्बे में एक भाई और एक बहन साथ में रहते थे। उनके पास एक गाय और एक छोटे से कपड़े के अलावा कुछ नहीं था। जब पृथ्वी पानी के नीचे चली गई तो जंगलू नाम का गदबा और और उसकी माँ कपास के पेड़ की खोल में छुप गये। उसमें न तो डालियाँ थीं और न पत्ते थे, और वह नाव की तरह बह रहा था। वह मुरीमाटी कोना की तरफ बहा और वहाँ किनारे लग गया।’

तूम्बा मूल रूप से प्रलय कथा का शेषांश है। प्रलय के अन्त में जब जल ही जल बचा था, पृथ्वी जलमग्न हो गई थी। ऐसी स्थिति में केवल विशाल तूम्बा ही पानी में तैर सकता था। जीवन बचने की आस केवल तूम्बे में थी। उसकी रचना ही ऐसी थीं, अन्दर से खोखला था, उसमें हवा तो आ-जा सकती थी, पर पानी उसमें घुस नहीं सकता था, केवल लहरें ही उसे इधर-उधर बहा सकती थीं। उसमें जीवन सुरक्षित रह सकता था, इसीलिए मानव बीज बचाने के लिए आदि मानव ने उसका कार्य-कारण युक्ति से सार्थक उपयोग किया। इसीलिए एलविन मिथकों को ‘वैज्ञानिक कल्पनाएँ’ भी कहता है। आदिवासी मिथकथाओं में एक और तथ्य सामने आता है, वह है पृथ्वी का जल पर खून अथवा दही की तरह जमना। राजनेगी परधान कथा में स्पष्ट कहा गया है- जब दुनिया बन रही थी और पानी के ऊपर दही की तरह जम रही थी, तो पूर्व में हवा चली औऱ पश्चिम की तरफ बहने लगी, फिर हवा बदली और पूर्व से बहने लगी। कोल भारत की बहुत पुरानी जनजाति है, जिसके प्रमाण हमें रामायणकाल में मिलते हैं। उनकी कथा में आता है-

जनजातियों की मिथकथाएँ नई औऱ पुरानी दोनों अवधारणाओं को व्यक्त करती हैं. इन कथाओं में जल और पृथ्वी की कथाएँ एक दूसरे में ऐसी गूँथी हुई हैं कि, लगता है कि जल का ही रूप आगे चलकर पृथ्वी बन जाता है। यह बात यहाँ ध्यान देने लायक है कि जल की जो तीन अवस्थाएँ हैं- तरल, ठोस और गैस। उसे जल को अर्जित करने में संभवतया लाखों-करोड़ों वर्ष लग गये होंगे। इसलिए जल को दही की तरह जमने की वैज्ञानिक कल्पना की गई है। फिर गैस बनकर बादल के रूप में जल आकाश में पहुंचा था। पानी के दो घर हैं- एक समुद्र, दूसरा आकाश। जल के बारे में जनजातीय अवधारणा बिल्कुल स्पष्ट है, आदिवासियों के सारे मिथक यह मानते हैं कि पहले जल ही जल था और कुछ भी नहीं था। पृथ्वी के बारे में दो धारणाएँ आदिम समूहों में मिलती हैं- एक पहले धरती (मिट्टी) थी, जो पानी में डूब गई है और उसकी खोज की ये कहानियाँ गढ़ी गई हैं। दूसरी मिट्टी, खून, हड्डी, माँस से और दही की तरह जमकर यह पृथ्वी बनी हैं। इस संबंधी भी कई मिथकथाएँ रची गई हैं। पर पृथ्वी के बनने में जल सबसे प्रमुख कारक रहा है। जनजातीय मिथकथाएँ एक प्रकार से आदिम पुराण कथाएँ ही हैं। डॉ. एलविन ने एक जगह लिखा है- ‘पुराणों के समान इनमें काल्पनिक कहानियों, अवास्तविक और असाधारण नाम और दूर-दराज की तुलना की बहुतायत है। पुराण के समान यह बिना किसी हिचक के जीवन के उदय और यौन क्रिया के सिद्धांतों को उजागर करती हैं। ऐसे बीसियों विषय हैं, जिन पर सभी जनजातियाँ एकमत हैं। सृष्टि की रचना से संबधित विचार अनुपौराणिक प्रभाव से अधिकांशतः स्थिर हो गये हैं। आग और मृत्यु के मिथकों को विभिन्न जनजातियाँ ताजा और मौलिक रूप से बताती हैं, लेकिन विश्वास और रिति-रिवाज पूरे इलाके में सामान्यतः एक से हैं।’

प्रारम्भ में पृथ्वी बहुत कड़ी थी, इस दौरान गिच्छा राजा पृथ्वी को नर्म करने के लिए पानी की बूँदें थूक रहा था। गिच्छा राजा जल बरसाने वाला देवताओं का राजा इन्द्र हो सकता है। जनजातीय मिथकों में ब्रम्हाण्ड निर्मित की कल्पना पुरुष के अवदान से की गई है। यह अवधारणा बलि की परम्पराओं को पुष्ट जरूर करती है, लेकिन इस अभिव्यक्ति अथवा कल्पना का साम्य संसार के पहले ग्रन्थ ऋग्वेद के पुरुष सूक्त से मेल खाते हैं। जल की अनेक आदिम मिथकीय अवधारणाएँ हमारे वेदों, पुराणों और उपनिषदों में स्थान पाती दिखती हैं। पर यह भी सही है कि जिस आदिम रूप में वे अनगढ़ रूप से गढ़ी गई हैं, पौराणिक आख्यानों में उनका ज्यों का त्यों वैसा रूप नहीं ग्रहण किया गया है, उसमें समय और संस्कृति का फर्क है। एक आदिम रूप है तो दूसरा सभ्य विकसित मानव की सोच-समझ का व्यवस्थित रूप है। फिर भी जल के संबंध में आदिम और सभ्य समाज की सोच बहुत कुछ मिलती-जुलती है। सभ्य मानव अपने आदिम पूर्वजों-की कल्पना से विलग नहीं हो पाता है, बल्कि अपने सोच का उसे ठोस आधार भी मानता है।
 

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Post By: tridmin
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