वर्षाजल से पेयजल का इन्तजाम करने का कौशल जैसलमेर के रामगढ़ का हर ग्रामवासी जानता है। नगरीय हाउसिंग और औद्योगिक परिसर इसकी पहल करें, तो वे अपने पानी का बिल तथा भूजल निकासी को काफी घटा सकते हैं।
पाँच सेमी से अधिक वार्षिक वर्षा औसत वाली गोवा-कोंकण-मराठी पट्टी इस नतीजे की पुख्ता प्रमाण है कि यदि वर्षाजल का कुशलतम प्रबन्धन तथा उपयोग में अनुशासन न हो तो उपभोगपरस्ती के इस नये कालखण्ड में अधिक बारिश के बावजूद, पानी का रोना रहेगा ही। इसके उलट, भारत में न्यूनतम वार्षिक वर्षा औसत वाली पश्चिमी राजस्थानी पट्टी हमें यह सिखाने को तैयार बैठी है कि यदि कौशल हो तो मात्र 25 सेमी के मामूली वार्षिक वर्षा औसत में भी पानीदार हुआ जा सकता है।भारत का वार्षिक वर्षा औसत 110 सेमी है। यदि इतने पानी को भूमि के ऊपर रोक लें, तो पूरा भारत साढ़े तीन फीट से कुछ अधिक ऊँचाई तक जलमग्न हो जाए। इस बारिश के 40 प्रतिशत को भी भूजल की कोटरियों में उतार दिया जाए तो भारत का भूजल स्तर हर वर्ष ऊपर उठने लगे। वर्षाजल के कुशलतम प्रबन्धन के जरिये ऐसी ही सुरक्षित तस्वीर बारिश में उफन जाने वाले नगरीय नालों और नदी क्षेत्रवासियों के लिये भी सम्भव है।
बारिश से पहले नगरीय नाले-नालियाँ कचरामुक्त तथा तालाब गादमुक्त कर लिये जाएँ तो नगर बाढ़ से बच जाए और सड़कें गन्दगी से। ऐसे साफ नाले-नालियों के पानी को पकड़कर आवश्यकतानुसार कच्चे-पक्के भूमिगत टैंकों में डाला जा सकता है। नगर, ऐसे पानी को शोधित कर जलापूर्ति के मामले में स्वावलम्बी हो सकते हैं। इसी तरह ऊँची मेड़बन्दी करके हम बारिश के पानी के जरिये इतनी नमी को तो खेत में रोक ही सकते हैं कि चौमासे में अतिरिक्त सिंचाई करनी ही न पड़े।
धान की पराली तथा अनुकूल पत्तों को जलाने की बजाय, बारिश आने से पहले खेत में बिछा दें। इस कारण खर-पतवार कम उगेगा, जुताई-बुवाई से पहले बरसा पानी कम-से-कम वाष्पित होगा; खेत में ज्यादा लम्बे समय तक नमी बरकरार रहेगी। पराली व पत्ते सड़कर मिट्टी को पोषित करेंगे, सो अलग।
लोगों ने पुराने कुओं को मिट्टी से भर दिया है। कई ने इसका उपयोग शौचालय के टैंक के तौर पर कर लिया है। बेहतर हो कि उपयोग में न लिये, जा रहे शेष कुओं को हम वर्षाजल संचयन के अनुपम ढाँचों में तब्दील कर दें। पहाड़ की जवानी और किसानी को यदि उसकी जड़ों पर टिकना है तो अन्य आधार के साथ-साथ चाल-खाल जैसी जल प्रणालियों के निर्माण का कौशल का दम भी दिखाना ही होगा।
भारत में भूजल प्रदूषित तथा जलाभाव क्षेत्रों का रकबा जिस तेजी से बढ़ रहा है, हमें वर्षा जलोपयोग प्रणालियों की कुशलता हासिल करने की अपनी निजी व सामुदायिक क्षमता काफी तेजी से बढ़ानी होगी। आज नहीं तो कल, जल खपत में अनुशासन की तकनीक और आदतों को तो अपनाना ही होगा।
इतनी सारी कुशलताओं के व्यवहार में उतारने का सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि सबसे अधिक जल खपत के सिंचाई, उद्योग व सार्वजनिक उपयोग क्षेत्र की जल जरूरत की काफी कुछ पूर्ति वर्षाजल से हो जाएगी। इससे जल विकासी स्वतः घट जाएगी। निकासी और संचयन का सन्तुलन सामने आते ही हम सुखाड़ के दुष्प्रभाव से काफी कुछ बचे रह सकेंगे। अतिरिक्त लाभ यह होगा कि तेजी से बहकर जाने वाले वर्षाजल की गति थमने से बेशकीमती मिट्टी का कटान धीमा पड़ जाएगा। ऐसे में तालाबों और नदियों में गाद के टीले कम, पानी ज्यादा दिखेगा; विनाश कम, लाभ ज्यादा होगा।
मानसून की महिमा
भारतीय उपमहाद्वीप में स्वच्छ जल मुहैया कराने की मानसून प्रकृति प्रदत्त व्यवस्था है। इसकी फुहारें पर्यावरण, खेती-किसानी, समाज और सरकार के साथ देश की अर्थव्यवस्था पर गम्भीर छाप छोड़ती है।
खेती के लिये वरदान
ऐतिहासिक रूप से देश की कृषि आधारित अर्थव्यवस्था रही। जीडीपी में हिस्सेदारी को लेकर भले ही अब सेवा क्षेत्र ने इसे पछाड़ दिया हो, लेकिन आज भी 17 फीसद जीडीपी इसी क्षेत्र से आती है। यह क्षेत्र देश का सबसे बड़ा नियोक्ता है। करीब 60 फीसद लोग काम और आजीविका के लिये इसी पर आश्रित हैं। देश की 49 फीसद जमीन खेतिहर है। सिंचाई के वैकल्पिक साधनों के विकास के बावजूद बड़ी मात्रा में उर्वर जमीन सिंचाई के लिये मानसून की बारिश पर आश्रित है। इसीलिये खेती का कैलेंडर मानसून के आधार पर तय होता है।
अर्थव्यवस्था में फूंकता है जान
अच्छा मानसून तो अच्छी पैदावार। खाद्यान्नों की कीमतें नियंत्रित रहती हैं। आयात घटता है। लिहाजा महँगाई पर अंकुश रहता है। पनबिजली उत्पादन में वृद्धि होती है।
उद्योगों को राहत
देश के ग्रामीण इलाकों में समृद्धि बढ़ने से उद्योग भी राहत की साँस लेते हैं। अच्छे मानसून के मद्देनजर वे अपने उत्पादों को ग्रामीण जरूरतों पर केन्द्रित करते हैं। ट्रैक्टर जैसे उत्पादों की बिक्री में इजाफा होता है।
जल ही जीवन
अच्छा मानसून जलाशयों और नदी बेसिन को लबालब करने की वजह बन सकता है। लिहाजा रबी सीजन में फसलों की सिंचाई और अधिक बिजली उत्पादन के लिये तरसना नहीं होता है। इस विशाल जलराशि से पेयजल किल्लत को भी दूर किया जा सकेगा।
सामाजिक पहलू
भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गर्वनर डी सुब्बाराव ने मौद्रिक नीति की समीक्षा करते हुए एक बार कहा था कि भारत का जीवन कल्याण मानसून के प्रदर्शन पर निर्भर करता है। उन्होंने कहा था कि खुद उनके करियर, उनके जीवन स्तर और उनकी मौद्रिक नीति, सब कुछ मानसून के रुख पर निर्भर है।
बारिश और बाजार
कृषि पैदावार बढ़ने से कुल आबादी में दो तिहाई ग्रामीण लोगों की आय में इजाफा होता है। परिणामस्वरूप घरेलू माँग बढ़ती है। मजबूत आर्थिक परिदृश्य से शेयर बाजार का मनोबल बढ़ता है।
पर्यावरण संरक्षण
लबालब भरे जलस्रोतों से रबी की फसलों की सिंचाई की जा सकेगी। अधिक बिजली उत्पादन से बिजली का संकट नहीं रहेगा। लिहाजा इन दोनों कारकों से डीजल से चलने वाले पम्पों का इस्तेमाल सिंचाई के लिये कम ही होगा। इससे पर्यावरण तो बचेगा ही सब्सिडी के रूप में सरकार को लगने वाली चपत भी रुकेगी।
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