जल का वैश्विक परिदृश्य : समस्या एवं प्रबंधन

जल संसाधनों का एकीकृत पर्यावरणीय प्रबंधन आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है इसीलिये जल भंडारण के लिये नदी घाटी योजनाओं एवं जल ग्रहण क्षेत्रों का एकीकृत विकास एवं स्वच्छत भारत जैसे उष्णकटिबंधीय विकासशील देश की पहली प्राथमिकता होना स्वाभाविक है। इस दृष्टि से वर्ष 2002 में अंगीकृत राष्ट्रीय जल नीति एक सराहनीय कदम है जिसके क्रियान्वयन में सरकार के साथ समाज के हर व्यक्ति का योगदान वांछित है।यह एक गूढ़ वैज्ञानिक सत्य है कि जल -जीवन का अमृत है। पृथ्वी को छोड़कर अन्य ग्रहों पर जीवन नहीं होने का मूल वैज्ञानिक तर्क यह है कि किसी अन्य ग्रह पर अभी पानी होने का कोई सबूत नहीं मिल पाया है। दुनिया की तमाम संस्कृतियों का उद्भव, विकास एवं विनाश का सीधा सम्बन्ध पानी की उपलब्धता या कमी से रहा है। क्षेत्र विशेष की जीवन शैली, वहाँ उपलब्ध पानी की मात्रा एवं गुण पर बहुत कुछ निर्भर करती है। भारतीय संस्कृति में तो जल स्रोतों को देवत्व का स्तर प्रदान कर उनके संरक्षण को सर्वोच्च नैतिक दायित्व माना गया है। जल संरक्षण के प्रति हमारे अटूट सांस्कृतिक एवं नैतिक बंधनों के बावजूद भी जनसंख्या के बढ़ते दबाव, शहरीकरण, औद्योगीकरण एवं जल संरक्षण के प्रति कम होते नैतिक समर्पण के कारण आज जल संसाधनों पर मात्रात्मक एवं गुणात्मक दबाव स्पष्ट परिलक्षित होने लगा है। परिणामस्वरूप, जिन नदियों की हम पूजा करते रहे हैं, उन्हीं के अस्तित्व को बचाने के लिये गंगा कार्य योजना, यमुना कार्य योजना जैसी महँगी नदी संरक्षण योजनायें लेनी पड़ रही हैं जो सम्भवत: भारत जैसे विकासशील देश के अर्थ तंत्र के लिये सार्थक संकेत नहीं हैं। जल संसाधनों के एकीकृत विकास की दृष्टि से सन 2002 में भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय जल नीति अंगीकृत की गयी, जिसमें इंगित आंकड़े इस बात का स्पष्ट संकेत देते हैं कि जल की समस्या जल के भण्डार से कम, उसके भण्डारण एवं असमान वितरण की व्यवस्था से ज्यादा प्रभावित है। वर्षा जल के विकेन्द्रीकृत भण्डारण एवं समानुपातिक वितरण सुनिश्चित करने के लिये धन से अधिक सामुदायिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है।

पानी को सार्वभौम घोलक माना जाता है परन्तु यह इसमें घुलनशील पदार्थों के गुणों को अपेक्षाकृत कम प्रभावित करता है। उनके गुणों से स्वयं पानी ज्यादा प्रभावित होता है।

वैश्विक स्तर पर जल की उपलब्धता बाबत संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यू. एन. इ.पी.) के आंकड़े इंगित करते हैं कि पृथ्वी पर उपलब्ध सम्पूर्ण जल का 97.3 प्रतिशत हिस्सा समुद्र में केन्द्रित है। यह पानी खारा या नमकीन होने के कारण रोजमर्रा की मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु उपयुक्त नहीं है। बाकी बचे 2.7 प्रतिशत जल का 22 प्रतिशत हिस्सा भू-जल के रूप में भण्डारित है तथा 77 प्रतिशत भाग हिमशिलाखण्डों में समाहित है। इस प्रकार पृथ्वी पर उपलब्ध जल भण्डार का 99 प्रतिशत ताजा जल या तो पृथ्वी के गर्भ में समाया है या हिमशिलाखण्डों में जमा हुआ है। दोनों ही स्थितियों में बिना प्रयास के यह जल सहज सुलभ नहीं हो सकता। आशय स्पष्ट है कि हमें केवल नदियों, झीलों एवं ऊपरी एक्वीफर में उपलब्ध जल पर ही कमोवेश निर्भर रहना पड़ता है जो कुल उपलब्ध ताजे जल का मात्र एक प्रतिशत है।

प्रकृति की विडम्बना ही है कि यही एक प्रतिशत पानी हाइड्रोलॉजिकल साइकिल या जल चक्र के माध्यम से पुनर्चक्रित होता रहता है। यह विचित्र सत्य है कि पृथ्वी पर उपस्थित जल का मात्र बहुत ही थोड़ा भाग मानवीय उपयोग के लिये उपलब्ध होने के बावजूद वैश्विक स्तर पर जल की माँग की पूर्ति के लिये पर्याप्त जल उपलब्ध है। अत: वैश्विक स्तर पर पानी की समस्या मात्रात्मक समस्या न होकर बल्कि जल संसाधन प्रबंधन की समस्या है क्योंकि पानी का क्षेत्रीय आधार पर समान वितरण नहीं है, ताजा जल कहीं तो अधिक है, कहीं कम है, कहीं किसी खासा समय पर अधिक होता है, कहीं माँग के समय कम उपलब्ध रहता है। उदाहरणार्थ कागो -जेरे बेसिन में अफ्रीका की मात्र 10 प्रतिशत आबादी रहती है परन्तु यहाँ पूरे अफ्रीका का 50 प्रतिशत पानी उपलब्ध है, स्पष्ट है कि अफ्रीका के बहुत सारे क्षेत्र जल अभाव का सामना करते हैं। इसी प्रकार केवल अमेजन नदी में दुनिया का 15 प्रतिशत पानी बहता है। असमान वर्षा के वितरण का इससे अच्छा क्या उदाहरण हो सकता है कि कुल वर्षा जल संग्रहण के सबसे महँगे तरीकों को अपना करके भी अफ्रीका का अधिकांश भाग अमेरिका का पश्चिमी भाग, दक्षिणी पश्चिमी एशिया, आस्ट्रेलिया एवं दक्षिण अमेरिका का पश्चिमी भाग को पर्याप्त जल उपलब्ध नहीं हो पायेगा। दूसरी तरफ केन्द्रीय अमेरिका और दक्षिण पूर्व एशिया का अधिकांश भाग प्रतिवर्ष बरसात के समय जल प्लावित हो जाता है।

पानी की माँग और पूर्ति के भी आंकड़े कम रोचक नहीं हैं। आंकडों के अनुसार दुनिया में सबसे ज्यादा करीब 73 प्रतिशत पानी सिंचाई के लिये इस्तेमाल होता है, जबकि सबसे कम मात्र 6 प्रतिशत घरेलू उपयोग में काम आता है। बाकी का 21 प्रतिशत पानी औद्योगिक क्षेत्र में प्रयोग होता है। इस प्रकार कृषि क्षेत्र पानी का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। इसके साथ ही यह भी आश्चर्यजनक यथार्थ है कि कृषि क्षेत्र के लिये उपयोग किये जाने वाले पानी का करीब 70 प्रतिशत हिस्सा फसलों की उत्पादकता से सीधे रूप से जुड़ा नहीं है। कृषि क्षेत्र में पानी की इस तरह की बर्बादी से जमीन का जल प्लावित एवं ऊसरीकरण होना विकासशील देशों की ही नहीं बल्कि अमेरिका जैसे विकसित देशों की भी समस्या है। अमेरिका की कोलोरेडो नदी में सिंचाई से पहुँचने वाला अतिरिक्त जल इस कदर नमकीन हो जाता है कि नदी की निचली धारा के किसानों द्वारा उपयोग के पहले इसे उपचारित करना पड़ता है।

इस प्रकार यह तो स्पष्ट है कि कृषि क्षेत्र में पानी की बर्बादी रोकने के लिये समुचित प्रबंधन की पहल विकासशील देशों के साथ विकसित देशों को भी करनी पड़ेगी। औद्योगिक क्षेत्रों में मात्रात्मक रूप से तो कृषि क्षेत्र से कम पानी उपयोग होता है परन्तु गुणात्मक दृष्टि से औद्योगिक क्षेत्र में उपयोग होने वाले पानी का पर्यावरणीय प्रभाव कृषि क्षेत्र में उपभोग होने वाले पानी से कई गुना अधिक होता है। प्रबंधन की दृष्टि से कृषि क्षेत्र में पानी की बर्बादी को रोकना मूल समस्या है तो औद्योगिक क्षेत्र में निस्सारित जल का गुणात्मक सुधार अति आवश्यक है। औद्योगिक क्षेत्र द्वारा पानी के पुनर्चक्रीकरण से जल अभाव की समस्या का काफी निदान हो सकता है। वैसे तो तुलनात्मक रूप से घरेलू उपयोग में कृषि एवं औद्योगिक क्षेत्र की तुलना में बहुत ही कम पानी उपयोग होता है (मात्र 6 प्रतिशत) परन्तु भारत सहित तमाम विकासशील देश इसी 6 प्रतिशत की सीमित समस्या से जूझ रहे हैं। घरेलू उपयोग के पानी में भी शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों के बीच भी काफी बड़ा अन्तर है। घरेलू उपयोग के क्षेत्र में पानी की मात्रा से ज्यादा पानी की गुणात्मकता महत्त्वपूर्ण है।

आज भी, विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार विकासशील देशों में बीमार होने वाले 60 प्रतिशत से अधिक लोग जल-जनित बीमारियों से ग्रसित होते हैं, कारण यदि पेयजल की गुणवत्ता ठीक न हो तब भी बीमार होते हैं और घरेलू उपयोग का जल सही तरीके से निस्सारित न हो तब भी बीमारियाँ होती हैं। घरेलू जल उपयोग में बहुत संवेदनशील प्रबंधन की आवश्यकता होती है जिसमें मात्रात्मक तथा गुणात्मक दोनों ही दृष्टि से पानी का प्रबंधन आवश्यक रहता है। पश्चिमी जीवन शैली की तरफ झुकाव भी घरेलू उपयोग के पानी के प्रबंधन से कम से कम मात्रात्मक दृष्टि से तो बड़ी समस्या के रूप में उभर रहा है, उदाहरणार्थ पश्चिमी शौचालय में एक फ्लश करने में 10 लीटर पानी की आवश्यकता होती है जो शायद जल समस्या से ग्रसित विकासशील देशों के लिये उचित विकल्प नहीं है।

केन्द्रीय जल आयोग ने 1985 से लेकर 2025 तक के लिये देश में जल की माँग का एक आंकलन किया था। इस आंकलन के अनुसार वर्ष 2025 तक पानी की माँग, वर्ष 1985 की तुलना में 100 प्रतिशत से अधिक बढ़ जायेगी जिसमें सर्वाधिक माँग औद्योगिक क्षेत्र में बढ़ने की सम्भावना है जो वर्ष 1985 में कुल माँग का 2 प्रतिशत से बढ़कर सन 2025 में 11 प्रतिशत हो जाने की सम्भावना बतायी गई है जबकि घरेलू उपयोग के क्षेत्र में जल की माँग करीब ढ़ाई गुना ही बढ़ने की सम्भावना है जो वर्ष 1985 में 17 घन कि.मी. से बढ़कर सन 2025 तक 40 घन किलोमीटर हो सकती है। सबसे कम वृद्धि सिंचाई के क्षेत्र में अनुमानित है जो इस दौरान 2 गुने से भी कम बढ़ने की सम्भावना है। पानी की गुणात्मकता के ह्रास के कारणों का विश्लेषण करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि घरेलू माँग में वृद्धि के मुख्य कारक बड़े शहर होंगे और इन्हीं बड़े शहरों में पानी की बढ़ती माँग के कारण अपशिष्ट जल की मात्रा भी बढ़ना स्वाभाविक है। औद्योगीकरण भी बड़े नगरों के आस-पास ही अधिक केन्द्रित है उनके अपशिष्ट जल भी सतही जल मुख्यत: हमारी बड़ी नदियों के प्रदूषण का मुख्य कारण है।

भारतीय जल संसाधनों के विश्लेषण से कई बातें सामने आती हैं-

1. भारतीय जल संसाधनों में बड़ी नदी कछारों का काफी बड़ा योगदान है। प्रत्यक्ष रूप से तो नदी कछारों से सतही जल उपलब्ध होता है, परन्तु परोक्ष रूप से भू-जल के पुनर्भरण में भी इनका बहुत बड़ा योगदान होता है।
2. देश का करीब 90 प्रतिशत क्षेत्र वृहद एवं मध्यम नदियों के कछार हैं। यद्यपि मध्यम नदियों की संख्या वृहद नदियों से 4 गुना अधिक है परन्तु उनका जलग्रहण क्षेत्र बड़ी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र का मात्र 10 प्रतिशत है।
3. सिन्धु, गंगा एवं ब्रह्मपुत्र तीन ऐसी बड़ी नदियाँ हैं जिनकी सीमा ही नहीं, जलग्रहण क्षेत्र भी अन्तर्राष्ट्रीय है।
4. गंगा नदी का जलग्रहण क्षेत्र सबसे बड़ा है। यह ब्रह्मपुत्र के जलग्रहण क्षेत्र से 5 गुना एवं सिन्धु नदी के जलग्रहण क्षेत्र से 3 गुना बड़ा है।
5. गंगा के कछार में देश की 37 प्रतिशत आबादी बसती है।
6. भारत की सभ्यता, संस्कृति एवं वैभव की प्रतीक मानी जाने वाली गंगा इतनी प्रदूषित हो गयी है कि भारत सरकार को गंगा को प्रदूषण से मुक्त कराने के लिये गंगा कार्य योजना जैसी देश की सबसे बड़ी नदी संरक्षण परियोजना प्रारम्भ करनी पड़ी।

पानी की माँग एवं पूर्ति का परिदृश्य स्पष्ट इंगित करता है कि वर्षा जल का समुचित विकेन्द्रीकृत भण्डारण और उसका समानुपातिक तार्किक उपयोग होना चाहिये। इस परिप्रेक्ष्य में उल्लेखनीय है कि भारतीय नदियों में मानसून के 4 महीने में करीब 80 प्रतिशत पानी बहता है, बाकी के 8 महीने मात्र 20 प्रतिशत जल प्रवाहित होता है। आशय स्पष्ट है- बरसात के 4 महीने में मिलने वाले वर्षा जल का जितना अधिक संग्रहण किया जा सकेगा, बाकी के 8 महीने जल की दृष्टि से उतने ही सुगम रहेंगे। यह भी एक वैज्ञानिक तथ्य है कि पहली बौछार के बाद का वर्षाजल गुणवत्ता में सर्वोत्तम जल होता है। इस जल में आने वाली विकृतियाँ मानवीय गतिविधियों के कारण ही होती हैं। अत:जल संरक्षण की तरकीबों में जल की गुणवत्ता प्रभावित नहीं हो ऐसा उपक्रम करना भी जरूरी है। जल संसाधनों का एकीकृत पर्यावरणीय प्रबंधन आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है इसीलिये जल भंडारण के लिये नदी घाटी योजनाओं एवं जल ग्रहण क्षेत्रों का एकीकृत विकास एवं स्वच्छत भारत जैसे उष्णकटिबंधीय विकासशील देश की पहली प्राथमिकता होना स्वाभाविक है। इस दृष्टि से वर्ष 2002 में अंगीकृत राष्ट्रीय जल नीति एक सराहनीय कदम है जिसके क्रियान्वयन में सरकार के साथ समाज के हर व्यक्ति का योगदान वांछित है।

Path Alias

/articles/jala-kaa-vaaisavaika-paraidarsaya-samasayaa-evan-parabandhana

Post By: Hindi
×