लेकिन इसी महाराष्ट्र में एक ऐसा भी इलाका है जो अकाल को अपने गांव की सीमा के बाहर ही रखता है। पानी सहेजने की एक लंबी सामाजिक परंपरा निभाते हुए यह अपनी गुमनामी में भी मस्त रहता है।अकाल की पदचाप सुनाई देने लगी है। पानी के अकाल के साथ-साथ इंसानियत के अकाल की खबरें भी अखबारों में आने लगी हैं। इस अकाल को और ज्यादा भयानक बनाने के लिए महाराष्ट्र राज्य की सरकार ने पहले से ही कमर कस ली थी! सन् 2003 में महाराष्ट्र राज्य की जलनीति तैयार हुई थी। इस नीति में पानी के इस्तेमाल का क्रम बदल डाला था। केंद्र सरकार की नीति में पहली प्राथमिकता पीने के पानी की, दूसरी खेती की और उसके बाद उद्योगों की रखी गई है। पर महाराष्ट्र सरकार ने इस क्रम को बदल कर पहली प्राथमिकता पीने के पानी को दी, दूसरी उद्योगों को और उसके बाद अंतिम खेती को।
बात यहीं तक सीमित नहीं थी। महाराष्ट्र जल क्षेत्र सुधार कार्यक्रम के अंतर्गत सन् 2005 में दो कानून बहुत आनन फानन में बना दिए गए थे। पहला था महाराष्ट्र जल नियामक प्राधिकरण अधिनियम और दूसरा सिंचाई में किसानों की सहभागिता अधिनियम। पहले कानून का आधार लेकर महाराष्ट्र में जल नियामक प्राधिकरण की स्थापना की गई। प्राधिकरण पानी की दरों को तय करेगा, जल वितरण करेगा और जल संबंधी विवादों का निपटारा भी वही करेगा अब। ये सारे काम अब तक शासन करता था। अब तीन लोगों का प्राधिकरण इन कामों को करेगा। प्राधिकरण ने पहले काम की शुरूआत भी बड़ी जल्दी कर दी यानी पानी के दरें तय करना। बड़े पैमाने पर पानी के इस्तेमाल के लिए किस तरीके से दरें तय हों यह बताने के लिए ए.बी.पी. इन्फ्रास्ट्रकचर प्रा. लि. नामक कंपनी को टेंडर निकाल कर नियुक्त किया गया। जल संपदा विभाग ने जो आंकड़े उपलब्ध कराए, उनके आधार पर इस कंपनी ने अगले तीन साल की जल दर पर एक प्रस्ताव तैयार किया। इसे उन्होंने ‘दृष्टि निबंध’ नाम दिया। इस विषय को जनता के बीच लाकर उस पर उसकी भी मोहर लगावाने की तैयारी की। प्रदेश के विभिन्न इलाकों में जन सुनवाईयां हुईं। लोगों ने बढ़ चढ़कर अपनी बात प्राधिकरण के सामने रखी। इसके बाद बताया गया कि लोगों की सलाह से दृष्टि निबंध में कुछ बदलाव किए गए हैं। अब प्रदेश में इस प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जा रहा है।
इस नीति और कानूनों के जरिए जो जल प्रबंधन होगा उसकी भी शुरूआत हो चुकी है। कुछ समय पहले चंद्रपुर जिले के ताडोबा के जंगलों में कोयला खदानों का मुद्दा काफी सुर्खियों में रहा था। इसी क्षेत्र में कई सालों से ऊर्जा नगर ताप बिजली घर चल रहा है। इसकी पानी की जरूरत पूरी करने के लिए ईरई नदी पर बांध बना है। पिछले वर्ष बरसात की कमी की वजह से यह बांध भर नहीं पाया था। अब बिजली निर्माण का संकट सामने था। तो चारगांव बांध, जो खेतों की सिंचाई के लिए बना था, उसमें पीने के पानी को छोड़कर जो भी अतिरिक्त जल उपलब्ध था, उसे बिजलीघर प्रशासन को 4.2 करोड़ रुपए में बेच दिया। साथ में यह भी बताया गया कि यह निर्णय महाराष्ट्र की नई जल नीति के अनुकूल ही लिया गया है।
लेकिन इसी महाराष्ट्र में एक ऐसा भी इलाका है जो अकाल को अपने गांव की सीमा के बाहर ही रखता है। पानी सहेजने की एक लंबी सामाजिक परंपरा निभाते हुए यह अपनी गुमनामी में भी मस्त रहता है। विदर्भ क्षेत्र के पूर्वी भाग में दो जिले हैं भंडारा और गोंदिया। गोंदिया अलग जिला बनने से पहले भंडारा जिले में ही सम्मिलित था। यह भंडारा जिला गोंड राजाओं के शासन काल में चांदा (आज का चंद्रपुर) देवगढ़ और मंडला के राज्यों में बंटा हुआ था। घने जंगल से व्याप्त इस क्षेत्र पर राज करते हुए राजाओं ने यहां गांव बसाने वाले व्यक्तियों को उस गांव की जमीनदारी और तालाब बनाने वाले व्यक्तियों को उस तालाब से सिंचित होने वाली जमीन देने के फरमान जारी किए थे। इसके कारण यहां उस दौर में नए-नए तालाब बनाने के कामोंमें खूब गति आई। तालाब तो यहां बसने वाले लगभग सभी लोगों ने बनाए थे। पर पानी को रोकने की तकनीक और बाद में उसके प्रबंधन की सुंदर व्यवस्था बनाने के लिए मुख्य रूप से कोहली समाज के योगदान को यहां विशेष सराहा जाता है।
कोहली समाज तालाब बनाने के काम में माहिर समझा जाता था। पानी के काम की योजना बनाना, उसे क्रियान्वित करना और फिर पीढ़ी दर पीढ़ी उसका सुंदर प्रबंध करना इसकी खासियत रही है। चांदा के गोंड राजा इस कोहली समाज को पंद्रहवीं सदी में उत्तर से यहां लाए थे। ऐसी धारणा है कि राजा यात्रा पर देश के उत्तरी भाग में गए थे। वहां पानी के प्रबंधन को जानने वाले इस समाज को देखकर, उन्होंने इन किसानों को अपने राज्य में आने का न्योता दिया।कोहली समाज तालाब बनाने के काम में माहिर समझा जाता था। पानी के काम की योजना बनाना, उसे क्रियान्वित करना और फिर पीढ़ी दर पीढ़ी उसका सुंदर प्रबंध करना इसकी खासियत रही है। चांदा के गोंड राजा इस कोहली समाज को पंद्रहवीं सदी में उत्तर से यहां लाए थे। ऐसी धारणा है कि राजा यात्रा पर देश के उत्तरी भाग में गए थे। वहां पानी के प्रबंधन को जानने वाले इस समाज को देखकर, उन्होंने इन किसानों को अपने राज्य में आने का न्योता दिया। राजा के न्योते को स्वीकार करके ये लोग यहां आए और उन्होंने इस क्षेत्र में जहां-जहां तालाब बनाना संभव था, वहां-वहां अनेक सुंदर छोटे-बड़े तालाब बनाए। कोहली समाज में जो व्यक्ति ज्यादा तालाब बनाता या जिसका सबसे बड़ा तालाब होता था, उस व्यक्ति का समाज में स्थान ऊंचा हो जाता था। कोहली लोगों के अलावा तालाब बनाने में यहां पहले से बसा गोंड और पोंवार समाज भी पीछे नहीं था। इस तरह भंडारा पानी का काम करने वाले उत्तम लोगों का भंडार बन गया था।
तालाब के लिए जगह का चयन करना, पाल की उंचाई तय करना- ऐसे काम होने के बाद तालाब बनाने का काम शुरू होता था। इस काम में आसपास के सभी लोगों की मदद ली जाती थी। गोंड राजा का नियम थाःतालाब बनाने वाले को उससे सिंचित होने वाली जमीन खुद कास्त के रूप में दे दी जाती थी। लेकिन वह व्यक्ति भी सारी जमीन अपने पास नहीं रखता था। जिन लोगों ने तालाब बनाने में उसकी मदद की है, उन्हें भी उस सिंचित जमीन में से हिस्सा मिलता था। उस दौर में लोगों ने जो तालाब बनाए उन्हें पांच किस्मों में वर्गीकृत किया। यह वर्गीकरण तालाब के आकार के आधार पर है।
भंडारा में सबसे बड़े आकार के तालाब को बांध कहते हैं। ऐसे तालाब एक से ज्यादा गांवों की सिंचाई करते हैं। इन दो जिलों में आज भी ऐसे चार बांध हैं। एक बार फिर याद कर लें कि इतना विशाल काम अंग्रेजों के आने से, आधुनिक सिंचाई विभाग बनने से पहले का है। दूसरा प्रकार गांव तालाब, या तालाब कहलाता है। ऐसे तालाब एक ही गांव के लिए बनते थे। एक से ज्यादा तालाब भी एक गांव में होते हैं। भंडारा जिले में हर गांव में नौ तालाब का औसत है। डोंगरी बुद्रुक गांव में 52 तालाब हैं तो आष्टी गांव में तो 76 तालाब हैं। सिंचाई के अलावा पशुओं को पानी पिलाने और गांव के रोजमर्रा के कामों में निस्तारी में गांव तालाब का उपयोग होता है।
बड़े तालाब का पानी नहरों द्वारा दिया जाता है। अपनी बारी आने से पहले यदि फसल को पानी की जरूरत है और अगले एक दो दिन बाद पानी मिलने वाला है तो ऐसे संकट के समय कुटन के पानी को बाकी बंधियों में चला कर फसल बचाने के काम में लाया जाता है। बड़े तालाब का पानी मिलने पर फिर से कुटुटन को भर लिया जाता है।गांव के तालाब का पानी भले ही खेत में आता हो, कहीं-कहीं चार-पांच किसान मिलकर अपने खेत में ही एक छोटा-सा तालाब बना लेते थे। इस तरह उन्हें गांव के तालाब के साथ-साथ अपने तालाब का पानी भी मिलता था। सामाजिक जिम्मेदारी में निजी जिम्मेदारी का संगम हो जाता था। स्वावलंबन का यह एक बारीक उदाहरण था। ऐसे तालाबों को बोडी कहा जाता है। बोडी का चलन बड़े पैमाने पर होता था। आज भी बोडी लगभग हर गांव में हैं और इतने तालाब होते हुए भी अगर कोई खुद के लिए तालाब बनाता है तो अधिकांश बोडी ही उसकी पसंद होती है। इस क्षेत्र में धान का उत्पादन मुख्य फसल के रूप में किया जाता है। पहले, खेत के किसी कोने में रोपे उगाते हैं और बाद में पूरे खेत में इन्हें रोपा जाता है। रोपे उगाने के लिए किसान गांव तालाब के पानी का इस्तेमाल नहीं करते। सब अपनी-अपनी बोडी का पानी इस काम में लेते हैं। चार महीने के वर्षा काल में बोडी में फिर से पानी आ जाता है। वर्षा के बाद जब बोडी का पानी खत्म हो जाता है, तब बोडी के पेट में गेंहू या चना बोया जाता है। वहां उस संचित नमी में बिना किसी अतिरिक्त सिंचाई के अच्छी फसल हो जाती है।
अब देखें यहां का चौथा तरीका। धान के खेतों में समतल जमीन के हिसाब से अलग-अलग बंधियां बनाई जाती हैं। इन बंधियों में जो बंधी खेत की सबसे ऊंची जगह पर है, उस बंधी में वर्षा का पानी इकट्ठा किया जाता है। इस विशेष बंधी को कुटन कहते हैं। यहां पानी तो जमा करते ही हैं, बाद में फसल भी बोते हैं।
बड़े तालाब का पानी नहरों द्वारा दिया जाता है। अपनी बारी आने से पहले यदि फसल को पानी कि जरूरत है और अगले एक दो दिन बाद पानी मिलने वाला है तो ऐसे संकट के समय कुटन के पानी को बाकी बंधियों में चला कर फसल बचाने के काम में लाया जाता है। बड़े तालाब का पानी मिलने पर फिर से कुटन को भर लिया जाता है। आज कृषि विकास की चालू भाषा में जिसे फसल बीमा कहा जाता है- वैसी तमाम योजनाएं यहां इन खेतों में बेमतलब की हैं।
समिति के सदस्य तालाब में कितना पानी है, यह देखकर, हर खेत में कितने समय तक पानी देना है इसे तय करते हैं। निश्चित समय के अनुसार तालाब का तुडूम (पानी छोड़ने का द्वार) खोलने, नहरों की साफ-सफाई, नहर फोड़कर खेत में पानी छोड़ने के लिए, पाणकर की नियुक्ति की जाती है। पाणकर एक बड़ा विशेष पद होता है इन गांवों में।यदि खेत में पानी ज्यादा हो जाए तो उसे बाहर भी निकालना पड़ेगा। पानी को बाहर निकालने की जो जगह होती है, वहां एक छोटा गड्ढा बनाया जाता है। खेत के निचले हिस्से में बने इस गड्ढे को डोब कहते हैं। अतिरिक्त पानी बाहर निकालते समय इस डोब को भर लेते हैं। अगर कभी पानी की कमी की वजह से फसल में थोड़ा पानी कम पड़ रहा हो तो डोब के पानी को इस्तेमाल में लाते हैं। अन्यथा वह भरा रहता है। छोटी मछलियां भी डोब में पलती हैं।
इस तरह इस क्षेत्र में तालाबों के माध्यम से गांव में गिरने वाली पानी की हर बूंद को रोकने का प्रयास लोगों ने वर्षों से किया है। पानी को न सिर्फ रोका गया बल्कि तालाब, पाट (नहर) और येवा (आगौर) के रखरखाव का पुख्ता इंतजाम भी किया जाता रहा है। येवा से तालाब में आने वाले पानी के रास्तों को साफ रखना, तालाब में आने वाली गाद निकालना, हर साल पानी इस्तेमाल करने से पहले नहरें साफ रखना- इन सब कामों पर ध्यान रखने के लिए गांव में अपनी एक जल प्रबंधन समिति होती थी। गांव के सब किसान इस समिति के सदस्य होते थे। सब मिलकर पानी का इस्तेमाल करने के नियम बनाते थे। इन नियमों पर अमल करवाने का काम जल प्रबंध समिति का होता था। यह परंपरा आज भी कई हिस्सों में जारी है।
गांव में जिनके पास जमीन नहीं है या जिनके खेतों में तालाब का पानी नहीं पहुंच पाता ऐसे लोग खस की जड़ें खोदने का काम करते थे। हर गर्मी के मौसम में ये जड़ें बिक जाती थीं। इस तरह उन परिवारों को भी आमदनी हो जाती थी जिनके पास जमीन नहीं है या जमीन है पर उनके खेतों तक तालाब की नहरों से पानी नहीं पहुंच पाता।समिति के सदस्य तालाब में कितना पानी है, यह देखकर, हर खेत में कितने समय तक पानी देना है इसे तय करते हैं। निश्चित समय के अनुसार तालाब का तुडूम (पानी छोड़ने का द्वार) खोलने, नहरों की साफ-सफाई, नहर फोड़कर खेत में पानी छोड़ने के लिए, पाणकर की नियुक्ति की जाती है। पाणकर एक बड़ा विशेष पद होता है इन गांवों में। पानी वितरण की यह महत्वपूर्ण जिम्मेदारी आज की तरह सरकारी ढंग से नहीं की जाती थी इसमें आत्मीयता और अनुशासन दोनों का पूरा ध्यान रखा जाता था। यह जिम्मेदारी आम तौर पर किसी भूमिहीन व्यक्ति को ही दी जाती थी क्योंकि पानी के बंटवारे में उस व्यक्ति का कोई निजी स्वार्थ नहीं होगा। फसल निकलने पर सभी किसान पाणकर को तय किया हुआ हिस्सा देते थे। वह भूमिहीन पाणकर दीन-हीन नहीं होता था। पानी के बंटवारे में उसका निर्णय अंतिम होता था। यह प्रथा दक्षिण में भी बहुत मजबूत रही है।
हर तीन या चार साल में तालाब से गाद निकालने का काम किया जाता था। इस काम में गांव के सभी किसान और तालाब से लाभ लेने वाले लोग शामिल होते थे। इस गाद का खेत में खाद के रूप में इस्तेमाल होता था। गाद निकालने का काम तय न होने पर किसान को खाद के रूप में गाद की जरूरत हो तो समिति को सूचना देकर वह गाद ले सकता था।
नहर साफ करने के काम में हर किसान के घर से लोग जाते थे। अगर किसी मजबूरी से कोई नहीं जा पाता तो वह समिति को सूचित करता था। समिति फिर उसके बदले दूसरे लोगों को काम पर लगाती और न आ सकने वाले वक्ति से कुछ राशि ले कर इन्हें पारिश्रमिक देती थी।
गांव के नियमों को तोड़कर अगर कोई तुडूम खोलता है, या पानी शुरू है ऐसे वक्त नहर फोड़ता है तो समिति उस व्यक्ति को दंडित करती थी। उस व्यक्ति की फसल का पानी रोक दिया जाता या उस वर्ष अगर उसे पूरा पानी मिल चुका है तो अगले साल उसे पानी न देने का फैसला लिया जाता था। समिति के सभी सदस्यों की बैठक में लिया गया ऐसा निर्णय अंतिम होता था।
जब समाज खुद जल प्रबंध करता है तो कितनी बारीकी से छोटी-छोटी बात का ध्यान रखता है यह भी देखें। पानी के रास्ते साफ रखना, तालाब गहरा करना, नहरों की मरम्मत करना इन कामों के अलावा बहुत-सी अन्य बातों पर भी ध्यान दिया जाता था। तालाब में जमा हुए पानी के किनारों पर खस लगाई जाती थी। खस की जड़ें येवा से पानी के साथ बह कर आने वाली मिट्टी को रोकने का काम करती थीं। इसके अलावा गांव में जिनके पास जमीन नहीं है या जिनके खेतों में तालाब का पानी नहीं पहुंच पाता ऐसे लोग खस की जड़ें खोदनेका काम करते थे। हर गर्मी के मौसम में ये जड़ें बिक जाती थीं। इस तरह उन परिवारों को भी आमदनी हो जाती थी जिनके पास जमीन नहीं है या जमीन है पर उनके खेतों तक तालाब की नहरों से पानी नहीं पहुंच पाता। खस गांव के उन परिवारों को भी तालाब से बांधे रखती थी, जिन तक उसका पानी नहीं पहुंच पाता था। लेकिन खस की खुदाई कभी ऐसे नहीं की जाती थी जिससे येवा से आने वाला पानी सीधे तालाब में पहुंचे। ये खुदाई हमेशा आड़े पट्टे में होती थी। पिछला हिस्सा एक साल खोदा तो अगला हिस्सा दूसरे साल। इससे पानी का अटकाव होता था। खस की जड़ों द्वारा हर साल पानी के साथ आने वाली नई मिट्टी को रोकने का काम चलता रहता था। फिर भी लोग, हर तीन चार साल में तालाब से गाद निकालते ही थे।
गर्मी के मौसम में पानी भाप बन कर उड़ न जाए, उस औसत को कम करने के लिए तालाब में कमल का जाल फैलाया जाता था। इससे ठंडक बनी रहती है और पानी भी ज्यादा समय तक साथ देता है। कमल के कंद (कमल ककड़ी) का उपयोग मछलियों द्वारा तो होता ही है, लोग भी इनका इस्तेमाल सब्जी, अचार की तरह करते हैं। खस निकालने और मछली पालन से जुड़े लोग कमल कंद निकाल कर इसे भी ठीक दाम पर बेच लेते हैं। कमल कंद की सब्जी बना कर खाने के अलावा इसका औषधीय उपयोग भी है। बाजार में इसकी मांग होती है। इसके अलावा कचर कंद, घोडी फुट्या नामक और भी कई कंद हैं जो तालाब से निकाल कर यहां के बाजारों में बेचे जाते हैं। खस के अलावा तालाब के किनारे उगाई जाने वाली घास की और भी कई किस्में हैं जिनकी जड़ों का या पत्तियों का उपयोग होता है।
तालाब के जितने भी उपयोग होते हैं उनमें खेती के बाद सबसे फायदेमंद मछली पालन है। भंडारा जिले के लगभग सभी गांवों में ढीमर समाज पाया जाता है जो परंपरा से मछली पालन का काम करता रहा है। ढीमर समाज के साथ कम जमीन वाले किसान और भूमिहीन भी मछली पालन के काम से जुड़े हैं।
तालाब की कोई भी चीज ऐसी नहीं जो गांव में सिर्फ किसी एक ही काम में आती हो। तालाबों की पाल पर आम और महुआ के पेड़ लगाए जाते थे। ये पेड़ आज भी पाल को मजबूती तो दे ही रहे हैं, साथ-साथ लोगों का यह भी कहना है कि इनकी वजह से बंदर और पक्षी खेतों में कम नुकसान करते हैं। फसल के बजाए वे इन पेड़ों की ओर आकर्षित होते हैं।
तालाब से लाभ लेने वाले सभी लोग बदले में तालाब के रखरखाव और मरम्मत आदि के कामों में शामिल होते थे। तालाब गांव के सब परिवारों से जुड़े तभी तो गांव के सब परिवार तालाब से जुड़े रह सकते हैं।
जीवनयापन के इन प्रत्यक्ष संबंध के अलावा इस क्षेत्र में तालाब के अप्रत्यक्ष लाभ भी लोगों को मिलते हैं। पशुओं के लिए पानी की व्यवस्था होने से पशु पालन का काम भी खूब होता है। यहां लगभग 350 सालों से तालाब बड़ी तादाद में बनते आ रहे हैं। इन तालाबों में शीत ऋतु में आने वाले मेहमान पंछी भी बड़ी संख्या में हर साल आते हैं। ये पंछी पानी में पनपने वाले ऐसे कई जंतुओं को नष्ट करते हैं जो पानी के माध्यम से खेत में पहुंच कर फसल को भारी नुकसान पहुंचा सकते हैं। इन पंछियों की बीट पानी के माध्यम से खेतों में पहुंचती है जो उम्दा खाद का काम करती है।
तालाब के साथ-साथ, उसके परिसर में पनपने वाले हर जीव का पानी के साथ ताना-बाना होता है। इन संबंधों को बड़ी बारीकी से लोगों ने समझा है। इनके आपसी संबंधों के आधार पर प्रकृति का जो समरस वातावरण बनता है, उसी पर लोगों का सुंदर जीवन निर्भर है। कभी भी तालाब के किसी एक तरह के उपयोग से ज्यादा पा लेने पर बहुत जोर नहीं दिया जाता है, क्योंकि कल के लिए भी उसे बचाना है। ऐसे ही स्वदेशी विचारों ने इस व्यवस्था को वक्त के लंबे सफर में बचाए रखा है।
लेकिन बदलाव तो प्रकृति का नियम है। चाहे कोई व्यवस्था अच्छी हो या बुरी, वक्त के साथ कुछ बदलाव तो आएगा ही। कभी यह बदलाव प्रकृति खुद लाती है तो कभी हम उसे बदलाव लाने पर मजबूर कर देते हैं। या कभी हम अपने आपको प्राकृतिक संसाधनों का मालिक समझ कर अपनी इच्छा अनुसार बदलाव लाते हैं। ऐसा ही कुछ भंडारा में भी हुआ है। स्वतंत्रता के बाद पानी के सामलाती होने को नकार कर इसे राष्ट्रीय संपत्ति माना गया। इस संपत्ति के रखरखाव के लिए कोई देखभाल करने वाला भी होना चाहिए, सो जल संपदा विभाग को यह जिम्मेदारी सौंपी गई। लोगों के बनाए हुए तालाब रातों-रात सरकारी बन गए। यही हाल जंगलों का भी हुआ। हर काम के लिए एक विभाग बन गया। खेती के लिए अलग, मछली के लिए अलग, पानी के लिए अलग, जंगल के लिए अलग। इन सभी विभागों ने अपने-अपने तरीके से काम शुरू किया। कृषि विभाग बाकी सभी बातों को छोड़कर हरितक्रांति में जुट गया। मछली विभाग भला कैसे पीछे रहता। उसने भी नीलक्रांति करने की ठानी। जंगल विभाग तो जंगलों में जाने वाले सभी लोगों को चोर समझकर जंगलों की सुरक्षा करने में डट गया। उधर सिंचाई विभाग अपने आपको पानी के स्रोतों का मालिक समझ कर हर एक से कीमत कैसे वसूली जाए, इसी फिराक में लग गया। नई व्यवस्था की इमारत पूरी तैयार होने से पहले ही खंडहर में तबदील होने लगी है।
मछली विभाग ने तालाबों में मछली की पैदावार बढ़ाने के लिए ज्यादा तेजी से बढ़ने वाली प्रजातियां तालाबों में डालीं। ये सारी प्रजातियां शाकाहारी हैं। तालाबों में पाई जाने वाली स्थानीय मछलियों की प्रजातियां हैं मांसाहारी। तो स्थानीय प्रजातियां उत्पादन को बढ़ाने वाली प्रजाति की दुश्मन बन गईं। मछली विभाग ने तुरंत इन दुश्मनों को खत्म करने के आदेश दे दिए। हमारे गांव और लोग यह समझ नहीं पा रहे हैं कि पानी के प्रबंध में तो सभी काम गांव के स्तर पर हो जाते थे, निर्णय भी गांव में ही होता था। आज जल प्रबंध से जुड़े सारे पहलुओं को टुकड़ों में बांटने के बाद यह काम कैसे हो पाएगा? जंगल विभाग ने अपनी सीमाओं पर गहरे और चैड़े ट्रेंच खुदवाकर जंगल को बचाना शुरू कर दिया पर तालाब का जो येवा, आगोर जंगल में है, उससे तालाब में आने वाला पानी अब इन गहरी नालियों से दूसरी तरफ मोड़ दिया गया है। अब अगर तालाब में पानी ही कम आता है तो किसानी के लिए उसे खेत में लें या फिर मछली पालन के लिए तालाब में ही रहने दें? जंगल से पानी के साथ जमीन पर पड़े सूखे पत्ते तालाब में सड़ते थे। इस तरह तालाब के पानी में पनपने वाले पौधों को बढ़ने के लिए खूब अच्छा पोषक वातावरण तैयार होता था। अब पानी नालियों से गया तो साथ-साथ यह जैविक कचरा भी हमारे तालाब के हाथ से चला गया। इसका मतलब है कि तालाब के पानी में अब कीमती पौधों की कमी होगी।
इससे क्या फर्क पड़ता है यह समझने की कोशिश करते समय मेरे एक ढीमर साथी पतिराम ने बताया कि एक थाली में पानी लेकर धूप में रखो। दूसरी थाली में पानी में थोड़ा घास पत्ती का कचरा डालो और उसे भी धूप में रखो। देखो क्या फर्क पड़ता है। बात यहीं नहीं रुकी। मछली विभाग ने तालाबों में मछली की पैदावार बढ़ाने के लिए ज्यादा तेजी से बढ़ने वाली प्रजातियां तालाबों में डालीं। ये सारी प्रजातियां शाकाहारी हैं। तालाबों में पाई जाने वाली स्थानीय मछलियों की प्रजातियां हैं मांसाहारी। तो स्थानीय प्रजातियां उत्पादन को बढ़ाने वाली प्रजाति की दुश्मन बन गईं।
मछली विभाग ने तुरंत इन दुश्मनों को खत्म करने के आदेश दे दिए। शाकाहारी मछलियां जब सदियों से पनप रहे पौधों से लबालब तालाब में पहुंचीं तो उन्हें खाने को खूब मिला और एक ही साल में अच्छी पैदावार हुई। लोगों ने देखा की वास्तव में ये प्रजातियां तो अपनी स्थानीय मछलियों से बहुत ज्यादा तेजी से बढ़ती हैं तो दुश्मन बनी अपनी ही मछलियों को खत्म कर दिया गया। अब पिछले 25-30 सालों से इन मछलियों के लगातार उत्पादन ने तालाबों में जो पौधे थे, उनको खा कर खत्म कर दिया है। अब ज्यादा उत्पादन देने वाली रेहू, कतला, मृगल, कार्प, सायप्रीनस प्रजातियां जो पहले साल भर में दो से ढाई किलो होती थीं, अब मुश्किल से दो सौ ग्राम तक पहुंच पाती हैं। हम अपनी मछलियों को खो बैठे और अब ये नई मछलियां भी जा रही हैं। अन्न की उपलब्धता में कमी आने से गुणवत्ता भी कम हुई है। स्थानीय मछलियों को ज्यादा पसंद किया जाता रहा है, उनकी मांग भी है, उनकी कीमत भी नई प्रजाति की मछली से तिगुनी है। पर उन्हें तो हमने ही खत्म कर दिया।
यह स्थिति धीरे-धीरे सभी गांवों और तालाबों की होती जा रही है। खंडहर बनती जा रही अलग-अलग विभागों की व्यवस्था ने यहां लोगों को फिर से पानी की एक व्यवस्था की तरफ सोचने को मजबूर कर दिया है।
इसके कुछ कारण और भी हैं। पिछले दो सालों में वर्षा पूरी तरह से बरसी नहीं है। जितनी भी बूंदें गिरीं, वे सारी किसी न किसी तालाब में पहुंच ही गईं। इन बूंदों ने फसलें भी पकाई, मछलियों को भी पाला, अपने इर्द-गिर्द हरियाली भी बनाए रखी। दूसरी वास्तविकता सरकार के आंकड़े ही बता देते हैं। विदर्भ क्षेत्र के ग्यारह जिलों में विकास का अनुशेष (बॅकलॉग) कुछ हजार करोड़ का है। इसमें सिंचाई क्षेत्र का अनुशेष सबसे ज्यादा है। लेकिन इसी विदर्भ के और भी पिछड़े समझे जाने वाले भंडारा-गोंदिया जिले का सिंचाई का अनुपात महाराष्ट्र राज्य के सिंचाई अनुपात से हमेशा ज्यादा ही रहा है। इतना ही नहीं सिंचाई के मामले में जिस कोल्हापुर जिले का उदाहरण महाराष्ट्र में सबसे अच्छा माना जाता है, उससे भी भंडारा-गोंदिया जिले का सिंचाई अनुपात ज्यादा है।
तो आज एक तरफ हमारे यहां आधुनिक प्रशासनिक तंत्र खड़ा है पर अकाल की पदचाप सुनाई दे रही है। दूसरी तरफ स्वयं सिद्ध और समय सिद्ध गांव की अपनी व्यवस्था की सुरीली स्वर लहरी कानों में फिर से गूंजने लगी है।
लेखक पिछले 20 वर्षों से विदर्भ के अकाल ग्रस्त क्षेत्रों में भंडारा निसर्ग व संस्कृति अभ्यास मंडल के माध्यम से काम कर रहे हैं।
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