21वीं सदी में दूसरी हरित क्रांति लानी हो तो अ-सिंचित क्षेत्रों की प्रमुखता, जल संचयन तकनीकी और भंडारण के पारंपरिक तरीकों और खाद से सरकारी खरीदी तक के लिए नए मानकों पर नई तरह से योजनाबद्ध काम करना जरूरी है।
इस देश का सबसे पुराना और सबसे गहरा रागात्मक रिश्ता अगर किसी से रहा है, तो अपने जलस्रोतों से। विशाल पाट वाली सरस्वती सरीखी अपनी नदियों को इस कृषि प्रधान देश ने हजारों साल पहले देविस्वरूपा मां (अम्बितमे, देवितमे) की संज्ञा दी और जल संसाधनों के पैमाने पर खेती की सारी जमीन को नदी जल पर निर्भर (नदी मातृक) और बारिश के पानी पर निर्भर (देव मातृक) श्रेणियों में बांटकर स्थानीय पर्यावरण के हिसाब से किसानी का वह स्वरूप गढ़ा, जो बीसवीं सदी के साठ के दशक तक कायम रहा। नदी मातृक इलाके तो मानो मां की गोद में ही बैठे रहते हैं। वहां किसानों ने जो चाहा, बरस भर उगाया। किंतु देव मातृक भाग को उस बारिश के पानी से ही जीवन चलाना था, जिसकी सालाना मात्रा तब से आज तक मौसम विज्ञानियों के अनुमानों से भी परे ही है। वर्षा की अनियमित चाल देखते हुए ऐसे इलाकों के लिए गेहूं के साथ कम से कम पानी में भी पेट भरने लायक अन्न उपजा सकने वाली फसलों का चक्र बना, जिससे कम बारिश वाले गुजरात, राजस्थान, मालवा जैसे इलाकों के किसान भी गेहूं के साथ ज्वार, बाजरा और दालों की अनेक सस्ती स्थानीय किस्में उगाकर अनावृष्टि के सालों में भी पोषाहार पाते रहे।
जल व वनस्पति संरक्षण से जुड़े सामाजिक-धार्मिक नियमों के असर से न तो इन इलाकों के सीमित जलस्रोत नष्ट हुए, न पशुपालन, जिसके वास्ते जंगलों व गोचरों में पर्याप्त चारा और जलस्रोतों में पर्याप्त पानी हमेशा बचाया गया। साठ के दशक में जब बौने गेहूं और धान की अधिक उपज देने वाली किस्मों के साथ अधिकाधिक जल और उर्वरकों के इस्तेमाल का संदेश लेकर हरित क्रांति देश में आई, तो उसने अन्न के मामले में भारत को आत्मनिर्भर ही नहीं बनाया, बल्कि खाद्य सुरक्षा की शुरुआत भी की, जिससे अकाल का डर कम हुआ लेकिन हरित क्रांति से कुछ पेचीदा समस्याएं भी पैदा हुईं। नहरों से सिंचित राज्यों में इस क्रांति के परिणाम देख धीमे-धीमे वर्षा सिंचित इलाकों में भी किसानों का मन बदलने लगा। वे अब पेट भरने वाले लोकल मोटे अनाज की बजाय गेहूं, चावल, कपास या सोयाबीन सरीखी भरपूर दाम देने वाली फसलों की तरफ झुकने लगे, जो काफी अधिक जल और भरपूर रासायनिक खाद मांगती थीं।
अपने इस सबसे बड़े मतदाता बैंक की तुष्टि के लिए सरकारों ने भी चुनाव-दर-चुनाव खुश्क इलाकों के किसानों को हैंडपंप और नलकूप लगाने के लिए लगातार सब्सिडी और मुफ्त या सस्ती बिजली और रासायनिक उर्वरक दिए। साथ ही हरित क्रांति को देश के हर कोने तक फैलाने को कृषि शोध कार्यक्रमों से लेकर समर्थन मूल्य, सब्सिडियां और विस्तार कार्यक्रम भी रचे गए। इसके तात्कालिक नतीजे भले सुखद निकले हों, लेकिन दबाव और हड़बड़ी में कई बार अकुशल और अप्रशिक्षित किसानों के हाथों में बिना पर्याप्त हिदायतों के नए बीज, उर्वरक और बिजली के पंप थमाए गए। उनके नासमझ इस्तेमाल से अब हरित क्रांति की सीमा और दुष्परिणाम सतह पर आ रहे हैं। योजना आयोग के लिए देश के भूमिगत जल की ताजा स्थिति पर एक रपट (सिनॉप्सिस ऑफ ग्राउंड वॉटर रिसोर्सेज इन इंडिया) बता रही है कि खुश्क इलाकों में जमीनी जल के दोहन व रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल से अब हर जगह जमीन बांझ, खेती महंगी और भूमिगत जल का स्तर कम हो रहा है। ग्लोबल वार्मिंग ने भी बारिश का मिजाज असंतुलित बना दिया है।
बदले गए फसल चक्र, बिजली चालित गहरे जलकूपों से सिंचाई और मौसम में आई भारी तब्दीलियों का सबसे बुरा असर पहले-पहल उन इलाकों में दिखा, जहां पारंपरिक रूप से मौसम खुश्क और जल का भंडार सीमित रहा है। 1960-61 में इन इलाकों में सिंचाई के लिए 61 फीसदी पानी की नहरों और जलाशयों से आता था और ट्यूबवेल कुल जल का सिर्फ 0.6 फीसदी हिस्सा मुहैया कराते थे, पर 2002-2003 तक आते-आते नहरों और जलाशयों से मिलने वाला जल सिर्फ 33 फीसदी जरूरत निबटा पा रहा था, 39 फीसदी पानी ट्यूबवेलों से खींचा जाने लगा था। नतीजतन आज मालवा जैसे इलाकों में जहां पहले 50 फीट पर पानी मिल जाता था, पानी निकालने को 700 फीट तक बोरिंग जरूरी है। कमोबेश यही हाल पंजाब, राजस्थान, उत्तरप्रदेश, हरियाणा और तमिलनाडु का भी है।
योजना आयोग की 11वीं योजना के मसौदे के अनुसार हर जगह जबरन गेहूं, धान और कपास तथा सोयाबीन सरीखी फसलें उगाने की जिद से एक तरफ तो जमीन को उर्वरा बनाए रखने वाले पारंपरिक मोटे अनाज, फसलों से आने वाला चारा और जैविक खाद गायब हो गए हैं, दूसरी तरफ रासायनिक खाद के भरपूर प्रयोग से दो-तिहाई जमीन की उर्वरा शक्ति छीज गई है। कपास, आलू या दलहन जैसी फसलों में रेडीमेड को पसंद करने वाला नया बाजार और नए उद्योग जो गुण तलाश रहे हैं, पारंपरिक कृषि उनको नहीं दे पा रही। नतीजतन लोन लेकर इनकी खेती करने वाले किसान दिवालिया होकर आत्महत्या कर रहे हैं। हरित क्रांति ने हमारी जरूरत के वक्त हमको बहुत मदद दी, लेकिन अब समय आ गया है कि हमारे कृषि वैज्ञानिक सिर्फ खेती और पूंजी को तवज्जो देने की बजाय देश की नई समग्र सामाजिक-आर्थिक स्थिति के मद्देनजर शोध करें। सवाल है यह काम कौन करेगा?
केंद्र में हमारी शीर्ष शोध संस्था इंडियन काउंसिल फॉर एग्रीकल्चरल रिसर्च (आईसीएआर), जिसमें 4000 कृषि वैज्ञानिक हैं और हमारे राज्यों के कृषि विद्यालय, जिनके पास लगभग 20,000 कृषि विशेषज्ञ हैं, जमीनी और सघन शोध के लिए आदर्श धुरी बन सकते हैं, पर केंद्र से मिलने वाले अनुदान का ज्यादातर हिस्सा जब स्टाफ की तनख्वाह में ही चला जाता हो तो शोध के लिए फंड कहां से आएं? हमारे अधिकतर राज्य कृषि संस्थान फंडिंग के लिए केंद्रीय आईसीएआर पर ही निर्भर हैं, जो खुद अपर्याप्त फंडिंग का रोना रोता रहता है, पर सही जानकारी के अभाव में मदद जुटा भी ली गई तो निष्फल रहेगी। 21वीं सदी में दूसरी हरित क्रांति लानी हो तो अ-सिंचित क्षेत्रों की प्रमुखता, जल संचयन तकनीकी और भंडारण के पारंपरिक तरीकों और खाद से सरकारी खरीदी तक के लिए नए मानकों पर नई तरह से योजनाबद्ध काम करना जरूरी है। यह लंबी व कठिन डगर है, पर अब इसकी अनदेखी करना आत्मघाती होगा।
लेखिका जानी-मानी साहित्यकार और वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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