जल जो न होता


जल कुछ दिन हुए एक फिल्मी गीत सुना था- ‘‘जल जो न होता तो जल जाता जग’’ गीतकार ने कितनी गहराई की बात कही है। फिल्म केवल मनोरंजन का माध्यम नहीं वह हमारे अतीत के दर्शन कराती और वर्तमान में घुमाती। एक छोटी सी बात को बड़े पर्दे पर दिखाता ओर हमें सजग करता है। जो हमने इतिहास में नहीं पढ़ा वह हमें सम्मुख दिखाता है। तभी तो भारत का चलचित्र उद्योग विश्व में दूसरे स्थान पर है और प्रथम हाॅलिवुड है। लाखों मनुुष्य इस उद्योग से पेट भरते हैं।

कवि, लेखक, साहित्यकार अपनी भावनाओं से भी हमारा साक्षात्कार करवाते हैं। उपरोक्त गीत गीतकार की भावना का ही एक अंश है। प्रकृति ने हमें जल का सानिध्य दिया है। यदि यह न होता तो वास्तव में जग जल जाता। यदि कोई देवता कहे कि मैं तुम्हें अमृत देता हूँ और तुम जल हमें दे दो, तो हम जल ही माँगेंगे। अमृत लेकर जल के बिना हम कैसे जीवित रह सकते हैं?

प्रकृति ने हमें खूब सोच-समझ कर धरती से तीन गुणा जल दिया है, किन्तु वह सारा हमारे काम का नहीं जैसे कुछ सागर जल, कुछ ठोस जल (बर्फ)। आबादी बढ़ने के साथ तरल जल कम पड़ता है। हिम-जल को हम कैसे बाँध सकते हैं और सागर जल नमकीन है। विश्व के विकास के साथ विश्व का तापमान बढ़ा है और जल एवं ताप की कड़ी शत्रुता है। जो जल प्रयोग के लिये बचता है, वह वर्तमान आबादी के लिये यथेष्ट नहीं है। अर्थात भविष्य में खतरा स्पष्ट दिख रहा है। यह खतरा हमने स्वयं मोल लिया है। कुछ तो विवशता है और कुछ अज्ञानता के वशीभूत। देखिए कुछ कारणः

आपदा1. विकास की दौड़ में कुएँ खुदना बन्द हो गए। उनकी जगह हैण्डपम्प और शोधित जल के नल। धरती में चारों ओर से छन-छन कर संचय होने वाला जल, कुएँ के भण्डार अब नहीं होते। हैण्डपम्प का भी वही भाग्य है। उन्हें भी पानी छन कर नहीं मिलता है।

2. घर मकान झोपड़े सब पक्के हो गए और जिस घर पर ये बनते हैं उनके पास-पड़ोस के मार्ग सिमेंटेड और डामर युक्त बन गए। पानी नालों से नदियों में और वहाँ से सागर में चला जाता है। वर्षा का जल संचय नहीं हो पाता। एक वर्ष वर्षा का पानी पहले चलता था और कुएँ हलक तक भरे होते थे पर अब नहीं।

3. जहाँ नदी नाले नहीं थे, वहाँ कुओं से सिंचाई होती थी जल के भण्डार की भी हमारे यहाँ सुविधा नहीं। घरों के ऊपर वर्षा का पानी जमा किया जाये, तो यह रोना न पड़े। जनमानस अपना दायित्व नहीं समझते। सारा भार सरकार पर डाल स्वयं मस्ती काटते। सरकार क्या है, जन मानस के अवदान का संचित समूह।

4. भारत में आधारभूत आवश्यकताओं के लिये धन व प्लानिंग की कमी है। देश के अन्दर बहुत ही कम बाँध हैं, वहाँ वर्षा में पानी ओवर-फ्लो होकर जहाँ से आया वहीं चला जाता है। बाँधों के स्टैंडबाई बाँध नहीं, इसलिये वर्षा का आधिक्य जल सागर को चला जाता है।

5.(अ) कई वर्ष पूर्व महाराष्ट्र का कोयना बाँध इसी विषम परिस्थिति में आ गया था। बड़ी भयंकर परिस्थिति आ गई थी। महाविनाश हुआ था। प्रत्येक के मुख से ‘हाय राम’ ‘हाय राम’ निकलता था और उफान के जल ने तबाही मचा दी थी।

5.(ब) 1 सितम्बर सन 1957 में उत्तर प्रदेश का बनवसा बाँध ओवर फ्लो हो गया, जिसने अपनी पानी ‘खन्नौत नदी’ नदी में छोड़ा और तटीय शहर शाहजहाँपुर तबाह हो गया।

5.(स) अगले वर्ष 1958 में वही हाल लखनऊ का हुआ वहाँ की नदी में पानी आया और तराई का इलाका सब डूब गया था। यह ओवर फ्लो कंट्रोल न हो सका।

6. इन बाँधों के स्टैंडबाई बाँध होने चाहिए, जो मुख्य बाँधों की बदहज्मी रोक सकें। जल जहाँ से आता वहीं लौट जाता है। हम प्यासे-के-प्यासे रह जाते हैं।

बांध अच्छे-अच्छे शिक्षित एवं सम्भ्रान्त लोगों को भी जल की बर्बादी की अनुमति नहीं है। एक मित्र के यहाँ देखा शेव कर रहे थे, वाश बेसिन का नल खुला था नल का जल व्यर्थ बह रहा था और वे मस्त थे शेविंग में। बर्बादी की अनुमति नहीं थी उन्हें।

मुख्य मार्ग के पास नगर निगम का शोधित जल की टंकी थी - जहाँ एक बाई लकड़ी से कपड़े को पीट रही थी और जल-प्रवाहमान था। कब से आरम्भ हुआ होगा और कब खत्म हुआ होगा। ईश्वर के अवदान को हम सम्भाल कर रख नहीं सकते और सुख माँगते हैं।

अभी - अभी अपने मूल निवास शाहजहाँपुर (उ.प्र.) गया था। निवास के निकट शोधित जल का नगर पालिका का नल है। मैंने उसे देखा रात-दिन पानी बह रहा था किसी को उस पर दया नहीं आई पता नहीं कब से बह रहा था, जबकि 50 कदम दूरी पर पार्षद का घर है। मैंने एक लड़के को 50 रुपए दिये वह बिब कोक (टोटी) लाया और उसे बन्द किया। बच्चे फिर भी दिन भर पानी से खेलते और कोई मना नहीं करता।

उपरोक्त हमारे, सबके कर्तव्य से दूर कर्म हैं और हमें सब को कर्म-फल तो मिलेगा ही। जागरुकता तभी आएगी जब कड़ी ठोकर लगेगी। राम दुख में ही अधिक याद आते हैं। राम, कृष्णा कहाँ तक नल बन्द करते फिरें?

प्रकृति भी हमें सबक सिखाती है। वर्षा के आरम्भ में ही मौसम-विज्ञानियों ने भविष्यवाणी की थी कि वर्तमान वर्ष में वर्षा औसत से कम होगी। फिर पहाड़ों पर बादल फटे। गतवर्ष भी ऐसा प्रलय आया था, जो बद्रीनाथ, केदारनाथ के मन्दिरों को हिला गया और हजारों भक्तजन स्वर्ग गामी बन गए। पर्वतों पर एक नहीं कई ऐसे बाँध बंधें जो जल को रोक सकें। पर्वतों पर तो करोड़ों क्यूसेक जल व्यर्थ चला जाता है।

भगीरथी का अवतार होने को था विष्णु समझते थे कि यदि उसको मृत्यु लोक में भेजा, तब उसके वेग को कोई रोक नहीं पाएगा और वह पाताल लोक चली जाएगी। तब भगीरथ को कहा, ‘‘तुम शिव की तपस्या करो-वहीं भगीरथी को रोक पाएँगे। तब भगीरथ जी ने ऐसा ही किया तब भगीरथी (गंगा) पृथ्वी पर रुकी थी।”

यह एक उदाहरण है जल को रोकने का शिव जैसे अनेकों बाँध बंधे, जहाँ वह अमूल्य जल (अमृत) रोका जाये। यदि जनता नहीं जागरूक तो संसार तो सर्वोपरि है, वह जनमानस को टंकी बनवाएँ और वर्षाजल को कैद कर रखा जाय और जनमानस से उसकी रिकवरी की जाये। शिशु यदि कम अक्ल है, तब पिता को यह धर्म निभाना चाहिए। बहुत से ऐसे हैं जिन्हें स्वयं की अनुभूति नहीं, अचेत हैं।

जल वह दिन दूर नहीं कि तीसरा विश्वयुद्ध जल के लिये छिड़ेगा। ललना के लक्षण पलना में ही दिखते हैं, क्योंकि बोतलों और पैकटों में पानी बिकने लगा है फिर बाल्टी कलश की आवश्यकता नहीं रही। हमने अंग्रेजों को शौच के लिये टिशू पेपर इस्तेमाल करते देखा है। हमको भी वो कार्य न करना पड़े। जल की कमी के कारण हमारी शुद्धता का ह्रास हो जाएगा। बिना नहाये कैसे हम पूजा करेंगे और भोजन स्पर्श करेंगे?

एक बार महाराष्ट्र में वर्षा बहुत क्षीण हुई थी, तब साल्ट-प्रयोग से पानी बरसाया गया था। जल के अधिष्ठाता इन्द्र की मिन्नतें करनी पड़ेगी। यदि वह भी न मानें, तब महाविनाश का नाटक आरम्भ होगा। समय से पहले चेत जाना शुभकर होगा। यदि चिड़ियाँ खेत चुग गई, तब ‘हा’ ‘हा’ करने से क्या लाभ होगा?

हमने देखा है कि हम इतने जागरूक नहीं हैं। जहाँ तक सरलता है वहाँ तक मानव पैर फैलाता ही है और जब शंकुचन आरम्भ होता है, तब पैर समेटता है। अतः सरकार व अन्य समाज सेवी संस्थाएँ अपना दायित्व निभाएँ, जनमानस के कानों में मंत्र फूँकें कि जल संकट आ रहा है। उसका उपयोग सम्भलकर करें, मितव्ययी बनें, बर्बादी रोकें और यदि ऐसा न हुआ, तब राशन में पानी मिलेगा। ऐसी फिल्में बनाएँ और दिखाएँ, वर्ना जल की चोरी होगी, डाका पड़ेगा, लोग धन दौलत छोड़ पानी की तस्करी करेंगे। यदि ऐसा ही रहा, तब सरकार को जलव्यय-संहिता भी बनानी पड़ेगी।

अभी से पाठ्य-पुस्तकों में इस का राग अलापना चाहिए, इस पर मासिक गोष्ठी हों, इस प्रकार का साहित्य बने, वर्षा की एक बूँद भी व्यर्थ बहने न दें, तब हम इस महाकाल पर विजय प्राप्त करेंगे। मानव दृढ़, प्रतिज्ञ बने, तब विजय अवश्य हम वरण करेंगे। संसार का कोई कार्य कठिन नहीं - जब हम ठान लेते हैं, तब पर्वत को भी उखाड़ फेंकते हैं। यह केवल कल्पना नहीं, किन्तु यथार्थ है। उदाहरण हमारे समक्ष है देखें-और सुने कि बिहार के दशरथ माँझी ने 22 वर्ष तक एक अकेले ही पहाड़ को काटकर गाँव वालों के लिये रास्ता बनाया है। जो साधारण समझ से परे है। बस, परोपकार का बीड़ा उठाने की आवश्यकता है। तो उठाइए कदम और रखिए विश्वास कि हम अवश्य सफल होंगे। भगीरथ न तो तपकर आकाशीय गंगा (देवसीर) को मृत्युलोक पर उतार दिया है। केवल जनमानस को प्रबुद्ध एवं सचेत करना है।

सम्पर्क करें
डाॅ. रामप्रसाद ‘अटल’, हर्षालय, पुरानी बस्ती रांझी,जबलपुर 482005 (म.प्र.)

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