जल, जंगल और जमीन पर स्थानीय लोगों का अधिकार होना चाहिए : भवानी शंकर थपलियाल

भवानी शंकर थपलियाल का भुवन पाठक द्वारा लिया गया साक्षात्कार।

आप अपना परिचय दीजिए।
मैं, गढ़वाल के श्रीनगर में रहता हूं और पिछले 12-14 साल से सामाजिक क्षेत्र में कार्यरत हूं। मैं कई प्रकाशनों तथा कई स्वयंसेवी संगठनों में साथियों के सहयोग से कार्य कर रहा हूं।

हाल ही में आपने अपनी कुछ अपेक्षाओं के कारण पृथक उत्तराखंड राज्य के लिए आंदोलन किया जिसके कारण पृथक उत्तराखंड राज्य की स्थापना तो हो गई लेकिन, क्या पृथक उत्तराखंड राज्य बनने से आपकी सभी अपेक्षाएं पूरी हो गई हैं? इसके बारे में आपकी क्या राय है।
यदि आप उत्तराखंड राज्य आंदोलन के मूल में जाएं तो आपको पता चलेगा कि यह आंदोलन आरक्षण के विरोध में खड़ा हुआ था जो बाद में पृथक राज्य का आंदोलन बन गया। पृथक राज्य बनने से पहले यहां के लोगों को बेरोजगारी की समस्या का सामना करना पड़ता था क्योंकि लखनऊ दूर होने के कारण उत्तर प्रदेश में होने वाले विकास का लाभ उन्हें नहीं मिल पाता था।

वहां के लोगों को लगा कि यहां का पहाड़ी इलाका एक अलग ही परिवेश का है जिसको समझे बिना लखनऊ में बैठकर पहाड़ के लिए योजनाएं बना दी जाती हैं जिनका पहाड़ को कुछ भी लाभ नहीं मिल पाता है। यदि राजधानी उनके नजदीक हो जाए तो उन्हें सभी योजनाओं के लाभ मिल सकेंगे और वहां के लोग प्रभावशाली तरीके से अपनी बातों को रख भी पाएंगे इसीलिए इन सब लक्ष्यों को ध्यान में रखकर यह आंदोलन लड़ा गया।

लेकिन सरकार बनने के बाद वर्तमान सरकार का रवैया भी लखनऊ जैसा ही रहा। इसमें कोई बड़ा परिवर्तन नहीं हो पाया है। पृथक राज्य बनने के बाद जिन स्थितियों में सुधार आना था वो अब भी जस की तस बनी हुई हैं।

हमने सोचा था कि पृथक राज्य बनने के बाद उत्तराखंड की जमीन पर हमारा अधिकार हो जाएगा और यहां हमारे ही कानून चलेंगे। हम चाहते थे कि यहां के भूमि सुधार के संबंध में काम करना चाहिए और सरकार को चकबंदी लागू करनी चाहिए। जिससे वहां के लोगों के पास रोजगार के साधन उपलब्ध हो जाएं।

इसके लिए सरकार ने प्रयास भी किया लेकिन कुछ बड़ी ताकतों के दबाव के कारण वो कानून ध्वस्त हो गए। राज्य बनने के बाद भी यहां का मूल आदमी अपने-आपको अकेला ही महसूस करता है उसे लगता है कि पृथक राज्य बनाने के नाम पर उसे ठग लिया गया है।

ऐसा माना जाता था कि पृथक राज्य बनने के बाद यहां लोकतंत्र मजबूत होगा, क्या ऐसा हो पाया है?
हमें भी ऐसा ही लगता था कि पृथक राज्य बनने के बाद यहां मजबूत लोकतंत्र की बहाली होगी लेकिन ऐसा नहीं हो पाया है क्योंकि इस नए राज्य की बागडोर एक ऐसे आदमी एन.डी.तिवारी के हाथ में दे दी गई है जो पृथक राज्य के पक्ष में नहीं था और उन्होंने कहा भी था कि यह राज्य मेरी लाश के ऊपर बनेगा। तो जब उस राज्य की बागडोर ऐसे आदमी के हाथ में दे दी गई है जो कि पृथक राज्य के पक्ष में था ही नहीं तो ऐसे में लोकतंत्र की स्थापना कर पाना संभव कैसे हो सकता था?

हमने सोचा था कि राज्य बनने के बाद भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा लेकिन वो भ्रष्टाचार लखनऊ के कर्मचारियों के साथ यहां भी पहुंच गया। आज यहां छोटी से छोटी नियुक्तियों में बहुत बड़ी मात्रा में रिश्वत दी जाती है। एक छोटे-छोटे चपरासी के पद के लिए भी एक लाख तक की रिश्वत की मांग हो रही है इस प्रकार यहां बढ़ता भ्रष्टाचार पूरी लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करता जा रहा है। इसके अलावा इस सरकार के पास उत्तराखंड की राजधानी का भी मुद्दा था। लेकिन सरकार इसे सुलझाने के बजाए उलझाते जा रही है।

अधिकतर लोग गैरसैंण को राजधानी बनाने के पक्ष में हैं तो अगर वहां लोकतंत्र होता तो गैरसैंण को राजधानी बना दिया जाता लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा है। राज्य में राज्य सरकार के इशारों पर ही सब काम हो रहे हैं। यहां पर या तो प्रशासनिक हित साधने के लिए निर्णय हो रहे हैं या राजनीतिक हित साधने के लिए निर्णय हो रहे हैं जिसमें राजनेताओं का हित सध रहा है और जनता के हितों की अनदेखी की जा रही है।

हमने सोचा था कि राज्य बनने के बाद हमारी पंचायती राज व्यवस्था बहुत शक्तिशाली हो जाएगी, हम अपने स्तर पर योजनाओं को बनाएंगे लेकिन राज्य बनने के बाद इन चार सालों में स्पष्ट हो गया है कि राज्य, पंचायती राज व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के बारे में कुछ भी नहीं सोच रहा है वो ऐसा कोई भी प्रयास नहीं कर रहे हैं जिससे पंचायती राज सुदृढ़ बन पाए।

इसी प्रकार चकबंदी वाले विषय पर भी सरकार ने किसी भी प्रकार की कमेटी का गठन नहीं किया है। पौड़ी जिले के शोला गांव के गणेश जी चकबंदी विषय पर काफी लंबे समय से बातचीत कर रहे हैं उनके अनुसार सरकार इस विषय को उलझाती जा रही है। इस विषय पर बार-बार बैठकों का दौर चलता रहता है लेकिन सरकार कोई भी निणर्य नहीं ले पाती है।

जनता चाहती थी की उत्तराखंड की सरकार उनकी अपेक्षाओं पर खरी उतरे और एक सुशासन दे लेकिन वर्तमान स्थितियों में ये सरकार असफल दिखाई दे रही है। शासन में पहुंचते ही यहां के राजनेताओं के चरित्र भी बदलते जा रहे हैं वो जनता के लाभ के विषय में सोचने की बजाए अपना हित साधने में लगे हैं।

आज जल, जंगल तथा जमीन का बंदोबस्त निजी हाथों में जाता जा रहा है अर्थात इस सब पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्जा होता जा रहा है। इसके नियोजन के बारे में आपकी क्या राय है?
मैं, ये मानता हूं कि जल, जंगल तथा जमीन जैसे स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय जनता का अधिकार होना चाहिए। इन चीजों से किसी भी गांव, राज्य या देश का विकास होता है और यदि इन संसाधनों से जनता का ही अधिकार छिन जाए तो वो न केवल संघर्ष करने के लिए प्रेरित होंगे बल्कि खूनी संघर्ष पर भी उतारू हो सकते हैं।

उत्तराखंड सरकार ने अपनी आय को बढ़ाने के लिए कई निजी कंपनियों को यहां, परियोजना चलाने की आज्ञा दी गई है जैसे फ्लेडा में स्वाति कंपनी ने एक नदी खरीद ली है, श्रीनगर के पास डंकन कंपनी के लोग बांध पर काम कर रहे हैं ऐसे ही जोशी मठ के जय प्रकाश जी काम कर रहे हैं। हम ये कहना चाहते हैं कि यदि सरकार अपनी आय को बढ़ाने के लिए जल विद्युत परियोजनाएं बना सकती है तो वो स्थानीय जनता के लाभ के लिए कुछ क्यों नहीं करती?

आप ऐसा भी तो कर सकते हैं कि एक कंपनी बनाकर, स्थानीय जनता को उसके शेयर बेचें ताकि उससे होने वाले लाभ में स्थानीय जनता की भी हिस्सेदारी हो। लेकिन वो ऐसा करना नहीं चाहते क्योंकि वो इन परियोजनाओं के माध्यम से अपना लाभ एवं भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना चाहते हैं। अगर वे किसी दस करोड़ की परियोजना पर काम करते हैं और उसमें उन्हें 10 प्रतिशत भी कमीशन मिल जाए तो काफी लाभ होगा और ऐसी ही कई परियोजनाओं में उनका लाभ करोड़ों में होगा। इसलिए वे छोटी परियोजनाएं बनाने की अपेक्षा बड़ी परियोजनाएं पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं ताकि उन्हें अधिक से अधिक लाभ हो।

हमारे प्रदेश में दूसरी बड़ी समस्या जंगल की है। अंग्रेजों की तरह भारत सरकार ने भी जंगलों से आम नागरिक का अधिकार छीन लिया। अंग्रेजों ने जाना कि यहां के मूल निवासी जंगलों से जुड़े हुए हैं, उनका पूरा रोजगार ही जंगल से जुड़ा हुआ है, वे वहां पशुपालन करते हैं और फिर उन पशुओं के माध्यम से दूध, ऊन तथा कपड़ा आदि प्राप्त करने के साथ-साथ उन जानवरों की मदद से अपनी खेती का व्यवसाय भी करते हैं।

अंग्रेजों ने इस सब को देखकर अंदाजा लगा लिया कि यहां के नागरिकों का मुख्य व्यवसाय खेती नहीं है बल्कि जंगल हैं और जंगल उनके लिए एक लाभदायक संसाधन हो सकता है इसलिए उन्होंने जंगलों की पैमाइश की और जनता को वहां से बाहर निकालकर जंगलों पर अपना कब्जा कर लिया। वनों की देखरेख करने के लिए एक सरपंच की अध्यक्षता में वन पंचायतों का गठन किया जाता था। वो सरपंच बिना किसी वेतन के जंगलों की रखवाली करता था और बाद में जंगल का ठेकेदार हो जाता था।

वहां की लकड़ी, घास तथा जानवरों के प्रबंध तथा वहां की रखवाली के संबध में सब निर्णय उसी के द्वारा लिए जाते थे क्योंकि हमारे पास उसके समांतर कोई सामाजिक व्यवस्था नहीं थी जहां हम अपने जंगलों का प्रबंध स्वयं कर सकें। अंग्रेजों ने अधिक से अधिक पैसा कमाने के लिए इस तरह के प्रबंध को मान्यता दी लेकिन हमारी सरकारों ने भी इन संसाधनों को पैसा कमाने का ही जरिया बना लिया है।

आज भी साधारण नागरिक को वनों का प्रयोग करने की आज्ञा नहीं है वो वहां से लकड़ी नहीं काट सकता। हमारा पहाड़ पूरी दुनिया को लकड़ी दे रहा है लेकिन खुद उसके नित्यक्रमों के लिए लकड़ियों का आभाव है। श्रीनगर जैसे शहर में ही जहां भारी मात्रा में जंगल हैं वहां शवों को जलाने के लिए भी हम जंगलों की लकड़ी का प्रयोग नहीं कर सकते हैं। उत्तराखंड में तो पहले ही जमीन का आभाव था यदि हम वहां की जमीन के संदर्भ में आंकड़ें देखें तो पौड़ी की सम्पूर्ण जमीन में 67 प्रतिशत क्षेत्र में जंगल हैं, बची जमीन पर खेती होती है कुछ जमीन बंजर है तथा शेष 2-3 प्रतिशत जमीन पर लोग रहते हैं। तो इस प्रकार उनके पास पहले से ही जमीन की कमी थी और ऊपर से यो लोग जंगलों की सुरक्षित रखने के बहाने उनसे उनका रोजगार भी छीनना चाहते हैं। तो मुझे लगता है कि अगर सरकार ऐसा ही करती रही तो मजबूरी में वहां की जनता एक बड़ा आंदोलन जरूर खड़ा कर सकती है।

नव गठित राज्य उत्तरांचल में आज, ऐसी स्थितियां हो गई हैं कि जल, जंगल और जमीन पर बाहरी ताकतों का हस्तक्षेप बढ़ गया है। ऐसी स्थिति में आपको युवाओं के लिए रोजगार की क्या संभावनाएं दिखती हैं?
मैं ,स्पष्ट रूप से यह कहना चाहता हूं कि कोई भी समुदाय या समाज तभी सुघड़ हो सकता है जब वहां की जमीन तथा कृषि पर वहां की जनता का अधिकार हो। इसे समझने के लिए आप पंजाब का उदाहरण देख सकते हैं आज से कुछ समय पहले मैं, चंडीगढ़ गया, वहां मेरे मित्र को टी.वी. खरीदना था। वो देहात के इलाके में रहता था इसलिए हम टी.वी. खरीदने के लिए वहां से थोड़ा शहर की ओर आए।

हम एक दुकान में टेलीविजनों को देख रहे थे कि तभी वहां एक ट्रैक्टर आकर रुका उसमें कुछ किसान बैठे हुए थे वे उतरकर दुकान में आए, उन्हें देखते ही दुकानदार हमें, छोड़कर उनकी ओर ध्यान देने लगा। ये सब देखकर हमें बहुत पीड़ा महसूस हुई। पहले हमें लगा कि वो उसके रिशतेदार होंगे लेकिन हमने सोचा कि दुकानदार तो सरदार है और ट्रैक्टर से निकले लोग किसान हैं। उन्होंने एक लड़की की ओर इशारा करते हुए कहा कि इसे लकड़ी का डिब्बा दिला दीजिए, अर्थात टी.वी. दे दीजिए। उस लड़की ने दुकान में मौजूद सबसे बड़े टीवी. की ओर इशारा करते हुए कहा कि मुझे यह टी.वी. चाहिए। अब पैसे देने की बारी आई तो दुकानदार ने उसकी कीमत 28 हजार बताई लेकिन उन लोगों ने 27 हजार में ही सौदा तय करने की बात की।

टी.वी. देने के बाद दुकानदार ने उन्हें अपनी ओर से चार-पांच सौ रुपए लड़की के कन्यादान के रूप में दिए। उनके जाने के बाद मैंने, दुकानदार से पूछा-हम लोग पहले से खड़े थे लेकिन फिर भी आपने हमें छोड़कर बाद में आए लोगों को पहले सामान दिया ऐसा क्यों किया? उसने कहा कि साहब! आप पढ़े-लिखे लोग हैं आप तो टी.वी के बारे में, उसकी गारंटी, वारंटी के बारे में ढेर सारे सवाल करोगे इसके अलावा आप यह भी पूछ सकते हैं कि इसकी कीमत एक साथ देनी है या किस्तों में? लेकिन, इन लोगों ने ऐसे कुछ भी सवाल नहीं किए इसलिए इन्हें पहले सामान दिया।

इन सब बातों को देखकर मैंने, यही समझा कि वहां के किसान की बहुत इज्जत है तथा वहां के किसान बहुत संपन्न हैं। और इसके विपरीत यदि आप पहाड़ के परिप्रेक्ष्य में देखें कि यदि पहाड़ का खेती-बाड़ी करने वाला कोई किसान पहाड़ी शहर में ही आए तो उसकी कुछ भी इज्जत नहीं होती है, उसकी तरफ हम कुछ भी ध्यान नहीं देते।

इन सब बातों से मुझे यही महसूस हुआ कि वहां श्रम की स्थिति चिंताजनक है। हम श्रम तो करते हैं लेकिन उसका अच्छा रिर्टन नहीं मिलता है जिससे उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। इसीलिए लोग उनको महत्व ही नहीं दे रहे हैं। आपने यहां के युवाओं के रोजगार के संबध में प्रश्न किया, मैं, समझता हूं कि जब तक हम यहां की भूमि व्यवस्था को बदलकर चकबंदी को नहीं लाएंगे तब तक, हम युवाओं को रोजगार का सपना नहीं दिखा सकते। लेकिन यहां की सरकार युवाओं को जिन ऊर्जा प्रदेशों, जैविक प्रदेशों तथा पर्यटन प्रदेशों का सपना दिखा रही है उससे युवाओं को कोई रोजगार नहीं मिलने वाला है।

सरकार वहां के युवाओं को रोजगार देने के लिए वास्तव में कुछ करना चाहती है तो उसे वहां उपलब्ध संसाधनों जैसे जंगल आधारित रोजगार उत्पन्न करे तो बहुत सारे लोगों को रोजगार मिल सकता है। सूचना प्रौद्योगिकी में कम संभावनाएं दिखती हैं लेकिन वहां कुछ प्रदूषण मुक्त उद्योग लग सकते हैं जिससे अधिक से अधिक युवाओं को रोजगार मिल सके। वहां सूचना के क्षेत्र में कई प्रयोग हो तो रहे हैं लेकिन उससे केवल 1 या 2 प्रतिशत युवाओं को ही रोजगार मिल सकता है। वहां के अधिकतर युवा कम पढ़े-लिखे हैं इसलिए उनके लिए रोजगार के ऐसे साधनों पर विचार किया जाना चाहिए जिससे अधिकतर युवाओं को रोजगार मिल पाए।

अगर हम पर्यटन को देखें तो, ये ठीक है कि यहां के पर्यटन से कुछ युवाओं को रोजगार मिलता है लेकिन वो किसी खास मौसम में ही रोजगार दे पाता है। वहां लोग तीर्थ स्थानों को देखने भी आते हैं लेकिन वे भी चार महीने ही रोजगार दे पाते हैं बाकी के आठ महीने वे युवा बेरोजगार रहते हैं। इसीलिए हमारे पहाड़ में पलायन बढ़ता जा रहा है और यदि इस प्रदेश में पर्याप्त सुधार खासकर भूमि सुधार नहीं किए गए तो यहां से पलायन बढ़ने के साथ-साथ लोगों में आक्रोश बढ़ेगा वो सड़कों पर उतरते जाएंगे और अन्य राज्यों की तरह वहां भी माओवादी तथा नक्सलवादियों का प्रभुत्व हो जाएगा।

भूमि सुधार के लिए आपके दिमाग में क्या आइडिया है?
मेरे विचार से भूमि सुधार के विषय में सबसे पहले चकबंदी पर ध्यान देना चाहिए। क्योंकि पूरे पहाड़ में जमीन को नाली में नापा जाता है, ढाई नाली का एक बीघा होता है यदि किसी किसान के पास सौ नाली की जमीन है लेकिन वो एक नहीं कई जगहों पर बिखरी पड़ी है।

ऐसे में वो उसमें अनाज उपजाना चाहता है, फल पैदा करना चाहता है या जड़ी-बूटियों को लगाना चाहता है तो वह ठीक ढंग से खेती नहीं कर पाएगा क्योंकि कुछ भी काम करने तथा खाद, पानी तथा सुरक्षा की व्यवस्था करने के किए उसे एक खेत से दूसरे खेत में भागने में ही काफी समय बर्बाद करना पड़ेगा। इसलिए वहां के कृषि उत्पादन को बेहतर बनाने के लिए सबसे पहले चकबंदी पर ध्यान देना होगा। यदि वहां की भूमि व्यवस्था में कुछ सुधार हो जाए तो वहां कोई भी योजना लागू करने में आसानी होगी और तभी वहां के युवाओं को रोजगार भी दिलाया जा सकता है।

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