जल जीवन का आधार


‘जल’ एक ऐसा शब्द है जो जीवन में आदि से अंत तक विद्यमान रहता है। ‘जल’ शब्द दो स्वरूपों में हमारे सामने आता हैः प्रथम तो वह नीर के रूप में और द्वितीय ‘जल’ अर्थात आज्ञावाची स्वरूप में जलने की क्रिया। ये दोनों ही स्वरूप जीवन के आदि और अंत से सम्बंध रखते हैं।

‘जल’ के नीर स्वरूप के सम्बंध में जब हम बात करते हैं तो स्पष्ट होता है कि यदि जल नहीं होता तो पृथ्वी पर जीवन की सम्भावना भी नहीं होती। जल की उत्पत्ति ही जीवन की उत्पत्ति का कारण है। पृथ्वी के प्रादुर्भाव एवं उसके तापीय स्वरूप के शांत होने के बाद हजारों वर्षों के अंतराल के बाद पृथ्वी पर सर्वप्रथम प्राकृतिक रूप से जल की उत्पत्ति हुई। जल के प्रादुर्भाव से वनस्पतियों और प्राणियों की उत्पत्ति हुई। यदि जल का प्रादुर्भाव नहीं होता तो वनस्पतियों और प्राणियों की कल्पना कर पाना सम्भव नहीं था, जीवन की कल्पना ही असम्भव थी। प्रकृति द्वारा प्राणी जगत के निर्माण में जिन तत्वों का उपयोग किया गया है उनमें जल ही प्रधान तत्व है। जल और वायु दो ऐसे तत्व हैं जो प्राणी के शरीर में नित्य प्रति नियमित रूप से संचरित होते रहते हैं। शेष तत्व स्थिर अवस्था में रहते हैं।

जल और वायु के निरंतर आवागमन से ही जीवन क्रिया संचालित होती है तथा इनके रुक जाने पर जीवन समाप्त हो जाता है। पृथ्वी, अग्नि और आकाश जो शरीर के शेष स्थिर तत्व हैं वे भी बिखर जाते हैं। अब उस प्राणहीन शरीर को ‘जल’ के दूसरे स्वरूप (जलने) को समर्पित कर दिया जाता है। जल से उत्पत्ति, जल से जीवन, जल के अभाव में पंच तत्वों का बिखरना तथा अंत में जलने की क्रिया को समर्पित किया जाना यह सिद्ध कर देता है कि जल बिना जीवन सम्भव नहीं है, जल ही जीवन का मूलाधार है।

धरातल के ऊपर वायुमंडल में, धरातल पर, समुंद्र में और धरा के अंतःगर्भ में जितना भी जल उपलब्ध है उसकी कुल मात्रा निश्चित है। वह न घट सकती है, न बढ़ सकती है, चाहे वह द्रव, ठोस या गैस किसी भी रूप में उपलब्ध हो। वायुमंडल और तापमान के प्रभाव से इनके रूपों में परिवर्तन होता रहता है। रूप परिवर्तन से इनका पारस्परिक अनुपात प्रभावित होता रहता है। निश्चित मात्रा में किसी प्रकार की वृद्धि या अभाव सम्भव नहीं है। फिर भी चिन्तनीय विषय यह है कि अभाव कहाँ है? कैसे है? और क्यों है?

.समस्त विश्व में उपलब्ध जल का सम्पूर्ण भाग पेयजल के रूप में उपयोग करने के योग्य नहीं है। सम्पूर्ण जल का कुछ अंश, जो भू-गर्भ में संचित है अथवा अवसाद रहित वर्षा का वह जल जो पृथ्वी के सम्पर्क में आने से पूर्व संचित किया गया हो, पीने योग्य होता है। प्राचीन समय में बहता हुआ नदियों का जल भी पीने योग्य था परन्तु अब प्रत्येक स्थान पर यह स्थिति नहीं है क्योंकि बढ़ते हुए प्रदूषण के प्रभाव से वायुमंडल के साथ जल सबसे अधिक प्रभावित हुआ है। पेयजल का यह भंडार धीरे-धीरे समाप्त होता जा रहा है। प्रदूषित जल का औसत बढ़ता जा रहा है। इस असंतुलन को पैदा करने में कुछ सम्भावित कारण हो सकते हैं, यथाः

(1) वनों के अधिक काटने से वर्षा का क्रम बदल जाना और वर्षा की मात्रा में अनापेक्षित कमी आ जाना।
(2) जनसंख्या का अत्यधिक बढ़ता हुआ दबाव, जिससे जल का असीमित दोहन होना।
(3) भूमि से जल उत्सर्जन कार्य में मशीनी उपयोग से द्रुत गति से दोहन एवं जल की अत्यधिक बर्बादी।
(4) पेयजल का अत्यधिक दुरुपयोग करने की चिंतन विहीन मानसिकता।
(5) सरकार, सामाजिक संगठनों एवं जागरूक लोगों द्वारा बार-बार जल संकट के लिये आगाह किए जाने पर भी जन-मानस का लापरवाह होना।
(6) वर्षा-जल को संचित करने के प्रति संवेदनाओं का अभाव होना।
(7) भूजल के पुनर्भरण के प्रति जागरूकता का अभाव होना।
(8) जल की मितव्ययता की भावना का अभाव होना।
(9) कृषि कार्य में सर्वाधिक प्रयोग पेयजल का ही होना।
(10) कृषि कार्यों में प्रयुक्त कीटनाशक एवं उर्वरकों द्वारा पेयजल को प्रदूषित बनाकर पीने योग्य न छोड़ना।
(11) बहते जल स्रोतों को कल-कारखानों के दूषित जल, गंदे नालों एवं शव विसर्जन से प्रदूषित कर पीने योग्य न छोड़ना।

इसके अतिरिक्त अन्य भी बहुत से ऐसे कारण हो सकते हैं जो पेयजल का अभाव पैदा करने के लिये उत्तरदायी हों। किन्तु यदि हम उक्त कारणों का ही निदान कर लें तो समस्या का बहुत अधिक सीमा तक निदान सम्भव है। हम पानी का मूल्य समझें, मितव्ययी बनें, पानी की बर्बादी रोकें, लोगों में जागरूकता लाएं, सरकार भी अपने दायित्वों को ईमानदारी एवं कड़ाई के साथ निभाए, नदियों का प्रदूषण रोका जाए एवं उनकी सफाई कराई जाए, वर्षा जल के संचय पर सर्वाधिक ध्यान दिया जाए, वर्षा जल संचय के साधन विकसित किए जाएँ, ऐसी व्यवस्था की जाए कि बाढ़ और वर्षा का जल बहकर पुनः समुद्र में न पहुँचे अपितु सीधा पृथ्वी के अंदर जा सके ताकि भूगर्भ जल का पुनर्भरण हो सके। इसके लिये सम्भावित क्षेत्रों को चिन्हित करते हुए बड़े-बड़े जालीदार बोर करा के पानी को भूगर्भ में पहुँचाया जाए, प्रदूषित जल का शोधन करने के साधन जुटाए जाएँ, ऐसे बड़े तालाबों को विकसित किया जाए, जिनमें वर्षा और बाढ़ के जल को संचित कर सिंचाई में उपयोग किया जा सके।

यदि हम जल समस्या के प्रति जागरूक हैं और उसी के अनुरूप व्यवहार का आचरण करते हैं तो कुछ सीमा तक जीवन के इस अमूल्य आधार को सुरक्षित रख पाएँगे क्योंकि इसकी सुरक्षा में ही हमारे जीवन की सुरक्षा का रहस्य छुपा हुआ है। अन्यथा की स्थिति में संकट ही संकट है जो हमारे प्राणों को भी संकट में डाल सकता है। अतः हमको जागना ही होगा।

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आचार्य राकेश बाबू ‘ताबिश’, नि. द्वारिकापुरी कोटला रोड़, मंडी समिति के सामने, फीरोजाबाद-283203, उत्तर प्रदेश

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