मैं गोदावरी हूं!
हां, मैं ही गोदावरी हूं!
दक्षिण की गंगा!
डेढ़ हजार किलोमीटर तक की मेरी जीवन यात्रा। काफी लंबी यात्रा है। अपनी यात्रा का आकलन करते यह सोचना भी कितना विस्मयकारी लगता है कि ब्रह्मगिरी का यह गोमुख मात्र एक किलोमीटर लंबा और इससे भी कम चौड़ा जलकुण्ड और यहीं से मेरे जैसी विशाल नदी का उद्गम। मनुष्य के लिए इस पर विश्वास कर पाना भी मुश्किल है। मुझे भी कहां विश्वास था, मुझे सदियों पहले कहां पता था कि कहां-कहां से गुजरना होगा। पृथ्वी पर आ गई लेकिन मंजिल का पता तो उन राहों पर चलकर ही लगा।
कितने बदलाव, कितनी पीड़ा और संतोष, कितना स्नेह, कितना आदर, कितने रक्तपात और बहुमुखी विकास और पतन की साक्षी है मेरी यात्रा। मेरे साथ-साथ पूरी संस्कृति बनती-बिगड़ती और फिर बनती रही। तो आइए मेरी यात्रा पर मेरे साथ-साथ! आप भी चलिए!
मुझे लोग दक्षिण भारत की गंगा कहते हैं। अनेक ऋषि-मुनियों और महात्माओं ने मेरे किनारे पर संस्कृति का प्रचार-प्रसार किया, मेरे दोनों तटों पर बीहड़ और घने जंगल हैं जिनमें कंदमूल और फल-फूल की बहुतायत हैं- सैंकड़ों वृक्ष आम, नारंगी, संतरे, केले आदि फलों से लदे रहते हैं- घने छायादार वृक्ष जिनके नीचे भक्त यात्री विश्राम कर लेते हैं। जगह-जगह पावन तीर्थ क्षेत्र हैं, जिनकी महिमा वर्णन वेद-पुराणों, उपनिषदों में की गई है। अनेक प्राचीन धार्मिक ग्रंथ मेरे प्रशंसक रहे हैं। दक्षिण पठार के दोनों ओर की पहाड़ों की श्रृंखला को पूर्वी घाट और पश्चिमी घाट कहा जाता है। नीलगिरी की पहाड़ियों पर पूर्वी और पश्चिमी घाट दोनों आकर मिलते हैं। पश्चिमी घाट का भाग महाराष्ट्र में पड़ता है। जंगल इतने घने हैं कि रास्ता ढूंढ़ना भी कठिन। शुक्लपक्ष की रात में चंद्रमा की अमृतयुक्त शीतल किरणों की वर्षा से वहां का वातावरण सुंदर और मनोहर हो जाता है। ऐसा लगता है कि शेष जिंदगी यहीं रहकर गुजार दी जाए। लेकिन क्या करूं? रुकना तो मेरे प्रकृति में है ही नहीं। पश्चिमी घाट में अनेक ऊंचे-नीचे पहाड़ी शिखर हैं, उन दुर्गम शिखरों में एक ब्रह्मगिरी का शिखर हैं। जहां त्र्यंबक पर्वत का एक बिंदु है। इसके सिरे पर एक गोमुख है- गोमुख में से एक पतली-सी जलधारा के रूप में प्रकट होती हूं मैं, गोदावरी। इसे गंगा द्वार कहते हैं। और यह जलकुण्ड केवल एक मीटर लंबा और पौन मीटर चौड़ा है। इस कुण्ड को बड़ा पवित्र माना जाता है, भक्तगण उसमें स्नानकर पुण्य लाभ उठाते आनंदित हो जाते हैं। मुझे रुकना नहीं, आगे बढ़ना था, सो मैं गंगा द्वार से निकलकर रामकुण्ड और फिर लक्ष्मणकुण्ड पहुंचती हूं। दोनों कुण्ड आस-पास हैं और पवित्र माने जाते हैं। ये कुण्ड मानव-निर्मित्त न होकर प्रकृति के द्वारा ही बने हुए हैं। करोड़ों साल पहले इस गहरे गर्त में से उबलता लावा निकला, जो इस मार्ग में फैल गया। कितने ही गहरे गर्तों का गहरे तालाबों और कुण्डों में रूपांतरण हुआ और ठंडे हुए लावे की पपड़ियां मिट्टी में मिल गईं। फसल के रूप में सोना उगलने वाली यही वो काली मिट्टी, जिसके कारण यह प्रदेश कपास की खेती के लिए देश में प्रसिद्ध है।
इसके बाद मैं रामकुण्ड और लक्ष्मणकुण्ड से मिलकर त्र्यंबक के निकट कुशावर्तकुण्ड तक पहुंचती हूं। यहां बहुत बड़ा एक चौकोर तालाब है। यह जगह त्र्यंबक तीर्थ के नाम से विख्यात है और वेद-पुराणों, उपनिषदों में इसका वर्णन मिलता है। यहीं पर बसे हैं त्र्यंबकेश्वर महादेव जी। आठों पहर यहां शिवलिंग पर जलधारा का अभिषेक होता रहता है और हर-हर महादेव की गूंज उठती रहती है। धूप, चंदन, अगरबत्ती का धुआं और वहां व्याप्त खुशबू के साथ ओम् नमः शिवाय का मंत्रघोष अद्भुत लगता है।
मेरे इसी तट पर प्रत्येक 12 वर्ष के बाद जब सिंह राशि में बृहस्पति प्रवेश करते हैं, यहां एक विशाल मेला लगता है। लेकिन सवाल ये उठता है कि मुझे धरती पर किसने बुलाया? मेरे आने का मकसद क्या था? चलिए वह कहानी भी बता दूं!
पौराणिक आस्था के अनुसार हजारों-लाखों साल पहले देश में बड़ा भारी अकाल पड़ा। वर्षा नहीं हुई और जल के अभाव में धरती की सूखी सतह पर दरारें पड़ गई। लाखों लोग भूख से तड़प-तड़पकर मरने लगे- गौतम ऋषि त्र्यंबक पर्वत पर रह रहे थे। जब लोगों को इस बात का पता चला तो लोग उनके आश्रम में पहुंचे और इस विपदा से छुटकारा दिलाने में मदद की गुहार लगाई। गौतम मुनि सच्चे अर्थों में महान तपस्वी थे। वे घोर तपस्या करने में लीन हो गए। अपने शरीर को उन्होंने सब प्रकार की यातनाएं दीं- उनके तन पर मिट्टी की तहें जम गईं। जिस पर घास-फूस उग आई। चीटियों ने शरीर को कुरेद-कुरेदकर खोखला कर डाला। उनके तप से महादेव प्रसन्न हुए और गौतम ऋषि ने वर मांगा कि लोगों कि जान बचाने के लिए गोदावरी का धरती पर आना अतिआवश्यक है। इस तरह गौतम ऋषि के कठोर तप के बदौलत गोदावरी का यानी मेरा पृथ्वी पर पदार्पण हुआ। इसीलिए मुझे गौतमी भी कहा जाता है। मेरे आते ही मेरे जल प्रवाह और लोगों के श्रम से सूखी पड़ी धरती उपजाऊ बन गई-अनाज की बालियां लहलहाने लगीं।
मैं बता ही चुकी हूं कि मैं त्र्यंबक तीर्थ में प्रकट हुई। वहां से चलकर बंगाल की खाड़ी में मिलने तक की पूरी यात्रा 1440 किलोमीटर के लगभग है। पहाड़ों से होकर गुजरने वाला मेरा यात्रा-पथ बड़ा ऊबड़-खाबड़, मोड़ पर मोड़ लेने वाला तथा घेरदार है। त्र्यंबक पर्वत से समुद्र भी अधिक दूर नहीं है- यहीं कोई 115-120 किलोमीटर होगा। मन में आया होता तो इतना-सा यह अंतर पार कर मैं तुरंत समुद्र में जा मिल सकती थी लेकिन मेरे मन में हजारों लोगों का कल्याण करने की चिंता थी और इस वजह से मैं विपरीत दिशा में यानी पश्चिम घाट से पूर्वी घाट की ओर बहने लगी। यहां से निकलकर मैं लगभग 10 किलोमीटर धरती के भीतर ही भीतर बहती हूं। उसके बाद मैं चक्रतीर्थ में प्रकट होती हूं। यह बात तो सबको पता है कि हिमालय में बहने वाली गंगा नदी का उद्गम स्थान गंगोत्री है। वहां पर जन्म लेकर वह धरती के भीतर गहराई में बहती है और अनेक प्रवाहों में विभाजित होकर बहती हैं। भीतर बड़े विशाल दबाव के कारण उसका एक प्रवाह काफी ऊपर उठकर ब्रह्मगीरि पर्वत में प्रकट होता है और वह प्रवाह ही मैं गोदावरी हूं।
चलने की धुन में पता ही नहीं लगा कि कब मैं नासिक पहुंच गई। इस नगर को देखकर काशी की याद ताजा हो आती है। नासिक को दक्षिण का काशी भी कहा जाता है, मेरे दोनों किनारों पर कितने ही मंदिर हैं उधर बालाजी मंदिर है और तट के दूसरी ओर कपालेश्वर महादेव का शिवलिंग है। मेरे इस तट पर नासिक है तो, तट के उस पार पंचवटी है। महाकवि वाल्मीकि ने अपने ग्रंथ वाल्मीकि रामायण में और गोस्वामी तुलसीदास ने अपने रामचरित मानस में इस जगह के प्राकृतिक सौंदर्य का सुंदर वर्णन किया है।
“गीद्धराज से भेंट भई, बहुविधि प्रीति बढ़ाई।
गोदावरी निकट प्रभु रहे, परनं गृह छाई।।”
राम और रावण की लड़ाई एक मायने में मेरे ही तट पर शुरू हुई थी। प्रभु रामचंद्र मेरे तट पर पर्णकुटी बनाकर रहे थे। सूर्पनखा की नाक भी यहीं काटी गई थी। यहीं पर श्रीराम ने खर-दूषण का नाश किया था। रावण ने किस प्रकार मेरे किनारे पर सीताजी का अपहरण किया वह सब मैंने अपनी आंखों से देखा। इस क्षेत्र का पुराना नाम सुगधा था। यह जगह रंग-बिरंगे फूलों से किस तरह सुगंधित हो रही है। चलो नासिक के नाम से जुड़ी वह कहानी भी तुम्हें बता दूं- शिव और सती की कहानी! सती के पिता द्वारा शिव का अपमान और सती का दुःखी होकर यज्ञ के कुण्ड में कूदकर अपनी जान दे देना, इसके बाद क्रुद्ध शिव का सती के शव को कंधे पर उठाए अखिल ब्रह्माण्ड में घूमना। यह देखकर सभी देवता घबरा गए और फिर विष्णु ने शिव का मोह भंग करने के लिए चक्र से सती के शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डाले। जहां-जहां पर ये टुकड़े गिरे वहां-वहां तीर्थ क्षेत्र निर्मित हुए। इस क्षेत्र में सती की नासिका (नाक) गिरी थी इसलिए इसका नाम नासिक पड़ा।
ये देखो यह मूला और प्रवरा नदी कैसे मुझसे यहां मिलने आई हैं, जैसे कि कोई पुरानी सहेली बहुत दिनों बाद गले मिलती हैं। ये दोनों मुझे बड़ी प्यारी लगती हैं। मूला और प्रवरा। हमारे यहां नदियों के नाम कितने-प्यारे-प्यारे हैं। वैसे मेरा नाम गोदावरी कैसा लगा आपको? एक राज की बात बताऊं- मेरा असली नाम गोदा है, गोदा का मतलब है गाय देने वाली। हर तरफ बड़े-बड़े चारागाह फैले हैं। पुराने समय में यहां तट पर ऋषियों के आश्रम थे, जहां हजारों गायें रहतीं थीं- दूध की नदियां बहती थीं। और यहां मैं बहते-बहते पैठन आ पहुंची, बाएं किनारे पर ये फैली बस्ती है इसे पुराने समय में प्रतिष्ठानपुर के नाम से जानते थे। आज इसे पैठन के नाम से जाना जाता है। यहां उत्तर और दक्षिण भारत को मिलाने वाले रास्ते आ कर मिलते हैं। सम्राट शालिवाहन जैसे प्रतापी राजा इसी प्रदेश में हुए थे। मेरे इन्हीं तटों पर संत ज्ञानेश्वर भी आए थे। जिस तरह तुलसीदास की रामायण उत्तरी भारत के घर-घर में पढ़ी जाती है, महाराष्ट्र में संत ज्ञानेश्वर की ज्ञानेश्वरी बड़े आदर से लोग घर-घर पढ़ते हैं।
संत एकनाथ जैसे महात्मा के भी मैंने दर्शन किए हैं। यहीं पर उन्होंने सबसे पहले जात-पात और छुआछूत के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया था।
“चलना अगर अभिष्ट तुम रुद्र चल पड़ो।
मिलते रहेंगे राह में संबल नए-नए।”
सचमुच चलती-चलती, कहते-सुनती इतिहास का गवाह बनती हमारी जाति की बहनें, नदियां कितनी गहरी होती हैं। कितनी ही बांतें! हजारों पन्नों का इतिहास अपने आप में समेटे रहती हैं, तभी तो, कहीं नहीं रुकती, आगे चलती जाती हैं। हमने भी आधी दूरी पार कर ही ली।
यहां से थोड़ा और आगे बढ़े तो चंदोर, अजंता और अकोला, बालाघाट पर्वतों के बीच नासिक की घाटी बहुत प्रसिद्ध है। देश में सबसे अच्छे किस्म की कपास की पैदावार यहीं होती है।
यहां से आगे मैं आठ सौ किलोमीटर बहती हूं। यहां मेरा प्रवाह धीमा हो जाता है और रास्ते घूमावदार ऐसे ही थोड़ी देर मैं सुस्ता लेती हूं। पैठन के बाद मेरे किनारे पर दूसरा तीर्थ है-योगेश्वरी। यहां पर मुझसे मेरी दो और सहेलियां मिलती हैं। इनका नाम है बेलगंगा और वर्धा। बेलगंगा तो 320 किलोमीटर की लंबी यात्रा की कहानी सुनाती नहीं थकती। वैसे ज्यादा तेज नहीं चलती, लेकिन वर्षा ऋतु में इसकी चाल ही बदल जाती है।
लेकिन इससे ज्यादा चंचला है- वर्धा। 240 किलोमीटर की लंबी यात्रा करती है लेकिन यह लंबी यात्रा इसकी चंचलता को और बढ़ाती है। जैसे-इलाहाबाद में एक संगम है वैसे ही हम तीनों नदियों के संगम को भी त्रिवेणी कहा जाता है- और हर वर्ष माघ के महीने में बड़ा भारी मेला लगता है। पुणतांबे और कोपरगांव यह दोनों तीर्थ स्थल मेरे ही तट पर बसे हैं। और थोड़ा आगे पाथरी गांव- वहीं पाथरी जहां मुगल सम्राट औरंगजेब और मराठों के बीच भीषण युद्ध हुआ था।
अब यहां से आगे चलना मुझे बहुत अच्छा लगता है। पता है क्यूं? क्योंकि यहां से आगे मेरे साथ-साथ बहुत-सी नदियां मेरे साथ होने के लिए मिलती हैं। वह देखों दक्षिण की ओर से सिंधु नदी मुझसे मिलने आ रही है। गंगा खेड़ आते-आते मेरे गोद में समा जाती है दुदना और पूर्णा नदियां। दुदना थोड़ी लंबी लेकिन चुलबुली और नटखट है। अपने 360 किलोमीटर के लंबे रास्ते में करीब 17 जलप्रपात बनाए हैं और वहीं पूर्णा शांत और गंभीर है और शायद आपको याद होगा-यही वो पूर्णा है जिसके किनारे आदिगुरु शंकराचार्य ने जन्म लिया था।
पता है इतनी सारी नदियों का मिलना, मुझमें समा जाना, जहां एक तरफ मां होने का एहसास कराता है, वहीं दूसरी तरफ ये मुझे बल और साहस प्रदान करती हैं।
अब बस वहां सामने दिख रहा है अविचल नगर। शांत और मनोरम। जिसे देखकर यहां मैं भी शांत हो जाती हूं और धीरे बहती हूं। इस नगर को सिखों के दसवें गुरु गुरुगोविंन्द सिंह ने बसाया था। यहीं पर उनकी मुलाकात वीर बंदा बैरागी से हुई। गुरुगोविंद सिंह जी ने हुजूर साहेब की तख्त की यहीं पर स्थापना की थी। आगे मेरे ही तट पर नांदेड़ बसा है, जहां गुरुगोविंद सिंह ने अपनी देह त्यागी थी। यहीं गुरुगोविंद सिंह जी की ये समाधि देखकर मेरा मन भर आता है।
यहां से दक्षिण दिशा में मैं जैसे ही मुड़ती हूं, मंजीर नदी मुझसे मिलकर, मेरा हाथ पकड़कर उत्तरपूर्व की ओर मूड़कर बहने लगती है। आगे करीमनगर जिले में मेरा हाथ थामती है पानेर नदी और बस थोड़ा और आगे मेरा इंतजार कर रही है प्राणहिता। दिल में बहुत सारी बातें संजोए हुए, मुझसे कहने को बेताब! और कहते-सुनते हम दोनों पहुंचती हैं मालवा और तेलंगाना क्षेत्रों में। यहां पर याद आती है- बहादुर राजाओं की- राजा मुंड, तैलप, राजा भोज। वहीं दानवीर राजा भोज बड़ा ही दानवीर था! कर्ण के बाद उस जैसा दानवीर राजा आज तक नहीं जन्मा और इसलिए उसकी कीर्ति सारे देश में फैली। उसकी कहानी फिर कभी!
अब मैंने बहुत सुस्ता लिया, बहुत आराम कर लिया। मेरे लिए अपनी गति धीमी कर लेना ही आराम है- बस अब मुझे अपनी गति बढ़ानी होगी, क्योंकि उधर से इंद्रावती नदी मुझसे मिलने, बढ़ी तेजी से आ रही है। और इधर से शबरी और किन्नर बहनें भी आ पहुंची हैं। इनको साथ मिलाने के लिए मुझे अपना पाट चौड़ा करना पड़ेगा। चौड़ा होते-होते कहीं-कहीं तीन किलोमीटर से भी ज्यादा चौड़ी हो जाती हूं। बताती चलूं- यहीं पर भद्राचल का प्रसिद्ध तीर्थ है। यहां करीब 24 मंदिर हैं। प्रभु श्रीरामचंद्र जी ने अपनी विशाल वानर सेना के साथ यहीं आराम किया था। रामनवमी के दिन यहां मेला भी लगता है।
अब मैं जब यहां से बढ़ती हूं तो, यह यात्रा भी कुछ कम रोमांचक नहीं, भीड़-भाड़ से दूर पूर्वी घाट की पर्वतमाला में प्रवेश करते ही मुझे ब्रह्मगिरी के शिखर याद आते हैं। अपनी जन्मस्थली को भी कोई कभी भूलता है? फिलहाल आगे का रास्ता पर्वत-पहाड़, बीहड़ घने जंगलों से ढके हुए और करीब 32 किलोमीटर का है। मैं इन्हीं पहाड़ियों, जंगलों और तंग रास्तों से गुजरती हूं। कहां तो, तीन किलोमीटर का चौड़ा पाट और इन जगहों पर मेरा पाट सिर्फ 60-65 मीटर चौड़ा होकर रह जाता है। और हां, यहीं पर जंगलों में बसते हैं गोंड जाती के वनवासी, आम लोगों की दुनिया से दूर बसाई है इन लोगों ने अपनी बस्ती। आज भी वहीं पुराने वेश-भूषा, रहने के तौर-तरीके हैं इनके, लेकिन बाहरी दुनिया के लोगों से कितना अलग!
सदियों से देखा जा रहा है कि सारी संस्कृतियां नदियों के किनारे जन्म लेकर बड़ी हुईं-एक संस्कृति पर दूसरी संस्कृति विजय प्राप्त करती है। यह क्रम लगातार चलता रहता है- हां, हर संस्कृति अपने स्मृति चिन्ह पीछे छोड़ती चली जाती है। मानव ने हड्डी, पत्थर और लकड़ी के हथियार बनाए। कांसा, तांबा और लोहा जैसे धातुओं को जमीन से खोद निकाला बालाघाट की खुदाई में कितनी ही मिट्टी की मुहरें मिली हैं। चर्खे की चाक का भी पता चलता है। व्यापार समुद्र के रास्ते से होता था। बहुत सारी ऐसी बातें इतिहासकार और पुरातत्व विभाग पता लगाते रहते हैं, इसमें थोड़ा-बहुत मैं भी मदद करती रहती हूं।
और यहां से आगे चलते हुए मैं अपना रूप बिल्कुल बदल लेती हूं। पर्वतों के बीच से निकलकर मंदगति से चलते हुए एक विशाल सागर का रूप धारण करती हूं- यात्रा के बीच जाने-अनजाने ने जाने कितने छोटे-छोटे द्वीप बनें-यहीं धवलेश्वर है, यहीं पर एक अंग्रेज अफसर सर अर्थर कॉटन ने बांध बनवाया जिससे कि मेरे पानी का पूरा उपयोग हुआ और यह प्रांत उपजाऊ क्षेत्र बन गया।
धवलेश्वर के बाद मैं दो शाखाओं में बंट जाती हूं। पूर्वी शाखा गौतमी गोदावरी, पश्चिमी शाखा वशिष्ठ गोदावरी और बीच में वैष्णव गोदावरी। अगर ठीक-ठीक गिनूं तो यहां मैं सात धाराओं में बंट जाती हूं। राजा महेंदी का प्रसिद्ध नगर यहां से केवल 7 किलोमीटर दूर है। इस जगह को सप्त गोदावरी तीर्थ भी कहा जाता है। राजा महेंद्र ने इस नगर को बसाया था। इस नगर का एक नाम राजामुंद्री भी है। यहां पर कागज बनाने के कई कारखाने हैं। मुझे यहां बांध से रोकने का प्रयास किया गया। बड़ा मजबूत बांध है। यह 4 किलोमीटर लंबा और चार मीटर चौड़ा। यहां से तीन बड़ी नहरें निकाली गई हैं, जिससे प्रदेश की लाखों एकड़ जमीन की सिंचाई की जाती है। मेरे ही जल से कई योजनाओं को तैयार किया गया, जिससे यहां का भू-भाग हरा-भरा बना है। सुख-शांति और समृद्धि आई है और क्यों नहीं? अपने बच्चों का पालन-पोषण करना प्रत्येक मां का कर्त्तव्य है।
गंगा-सागर योजना, मेलाद्री के निकट सिद्धेश्वर में विशाल बांध और बिजली केंद्र भी है। देश के प्रति भी जिम्मेदारी का एहसास है मुझे। अपने देश को अन्न एवं धन-धान्य से अधिकाधिक संपन्न करते रहने की जिम्मेदारी हम सभी नदियों की भी है। धन-धान्य के लिए उसे किसी बाहरी देश का मुंह ताकना पड़े, ऐसा मैं नहीं चाहूंगी।
त्र्यंबक पर्वत्त से लेकर बंगाल की खाड़ी तक करीब 1440 किलोमीटर का मार्ग तय करती हूं, पर मेरे रास्ते ज्यादातर पहाड़ों से होकर गुजरती हैं। कहीं उथला तो कहीं गहरा, मेरी बहन गंगा की तरह मैं समतल में, मैदानी प्रदेश में, ज्यादा पानी नहीं दे सकती। मेरा पानी सिंचाई के लिए बहुत काम आता है।
खैर, मुझसे जितना भी बन पड़ता है मैं करती हूं। समुद्र से मिलने से पहले भी मैं कोशिश करती हूं कि मानव जाति का कुछ और भला हो जाए।
समुद्र में गिरने से पहले मेरी तीनों शाखाएं एक डेल्टा क्षेत्र बनाती हैं। मेरी एक धारा गौतमी येनम के समुद्र में मिलती है। वशिष्ठ गोदावरी दूसरी धारा नरसापुर में और तीसरी धारा वैष्णव गोदावरी नागरा के पास समुद्र में मिलती है। जिस जगह पर समुद्र में नदियां गिरती है, वहां डेल्टा बन जाते हैं और यह क्षेत्र बहुत उपजाऊ होते हैं। मेरे डेल्टा क्षेत्र से आकर्षित होकर किसी जमाने में डच, फ्रांसीसी और ब्रिटीश लोग यहां आए थे-यहां बसे, व्यापार जमाया, कंपनियां भी स्थापित की। येनम में तो आज तक फ्रांसीसी क्रांति के चिन्ह देखे जा सकते हैं।
लेकिन एक बात तो खास है! मेरे प्रवाह में नावों का यातायात बहुत होता है। कभी-कभी तो भारी-भारी लट्ठों को दूर-दूर तक भेजने के लिए उन्हें नावों में या सड़कों द्वारा ले जाने के बजाए नदी में यूं ही बहा दिया जाता है- मेरे तट के करीब 300 हेक्टेयर जमीन पर बांस के घने-घने जंगल पाए जाते हैं। घनी छाया वाले वृक्ष हैं। जगह-जगह तीर्थ स्थल हैं यह आपने भी देखा है- भिन्न-भिन्न लोगों से मिलना-जुलना नई बातें, नया जमाना, नए स्थान। जितनी बार भी इन रास्तों से गुजरती हूं नए-नए लोग मिलते हैं।
लेकिन आज के समय में लोग मुझे अपवित्र भी कर रहे हैं-कितना कचरा, पॉलीथीन, उद्योगों के केमिकल से मुझे दूषित कर रहे हैं। अगर ऐसा होता रहा तो, मेरा विनाश तो होगा ही, नुकसान किसका होगा? मानव जाति का ही ना!
लीजिए- मेरा सफर खत्म होने को आ रहा है। लेकिन एक खास बात बताना तो भूल ही गई- आप में से शायद बहुत से लोग इसके बारे में जानते भी हैं- जिस तरह गंगा के तट पर प्रयाग और हरिद्वार में हर बारहवें वर्ष कुंभ का मेला लगता है उसी प्रकार मेरे तट पर राजामहेंद्री में पुष्कर स्नान के लिए हर बारहवें वर्ष मेला लगता है, जिसमें हजारों भक्तगण शामिल होते हैं।
अच्छा तो अब मैं चलती हूं। सामने कोटिबल्ली तीर्थ दिखाई दे रहा है ना! वहीं पर मैं अपने प्रियतम सागर से मिलती हूं। युगों-युगों से बंगाल की खाड़ी मुझे अपने आप में समेटती रही है- और मैं भी इतने लंबे सफर के बाद थककर चूर होने के बाद थोड़ा आराम करना चाहती हूं। लेकिन बहती तो फिर भी रहती हूं –महादेव के आदेश से बंधी मैं वचनधर्मा गोदावरी, यूं ही बह रही हूं।
सहस्त्राब्दियों से-
और बहती रहूंगी!
वचनबद्धा जो हूँ!
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