जीवन शैली का निर्धारक भी है पानी

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आमतौर पर मैदानी इलाकों में पानी का प्रवाह धीमा और नदियों के पाट चौड़ा हो जाते हैं। स्थिर प्रवाह वाले जल स्रोतों की संख्या बढ़ जाती है। जहां पानी नहीं है, उनको संकट नहीं सताता; वहां लोगों के जीवन में भी स्थिरता व गहराई देखी जा सकती है। एक जमाने में पंजाब में पानी की मस्ती रही है। वैसी मस्ती का अनुभव हम उनके भांगड़े, खान-पान और बात व्यवहार में भी देखते रहे हैं। जहां पानी के लिए संघर्ष नहीं है, वहां लोगों का स्वभाव लड़ाका नहीं होता। जहां पानी का संघर्ष है, वहां के मर्द और औरतें दोनों ही अद्भुत लड़ाके हुए हैं। उत्तराखण्ड, हरियाणा, राजपूताना, बुंदेलखण्ड से लेकर मराठवाड़ा तक।

“पानी रे पानी! तेरा रंग कैसा? जिसमें रहे लगे उस जैसा।’’
जितना सच इस सवाल-जवाब का विज्ञान है, उतना ही सच है जल और हमारी जीवन शैली का रिश्ता। “जीवन रे जीवन! तेरा रंग कैसा? जैसा हो पानी, लगे उस जैसा।’’ जहां जैसा और जितना पानी, वहां की जीवन शैली भी वैसी ही। यहां तक कि हमारे आचार-विचार तक परपानी के प्रभाव के किस्से जगजाहिर हैं। हरियाणा का गुड़गांव और राजस्थान के अलवर के कुछ इलाके को मेवात कहते हैं। यहीं स्थित है-तिजारा। जब अपने माता-पिता को बहंगी पर लिए श्रवण कुमार मेवात स्थित तिजारा पहुंचे, तो उनके मन में आया कि वह यात्रा कराने के बदले में अपने माता-पिता से किराया मांगे। उन्होंने ऐसा किया भी। किंतु मेवात के इलाके से आगे बढ़ जाने के बाद श्रवण कुमार को अपने इस कुविचार पर ग्लानि हुई। इस पर उनके पिता ने कहा-’’बेटा! दोष तुम्हारा नहीं था। उस इलाके का पानी ही वैसा था।’’

संभवतः ऐसे ही अनुभवों ने पानी की उक्तियां गढ़ी होंगी- “उसका तो पानी ही उतर गया। बड़ा पानीदार आदमी है भाई।” पानी जीवन है। पानी विनाश है। पानी अमृत है। पानी विष है। पानी शीतल है। पानी आग है। पानी पवित्र करता है। पानी बीमार बनाता है। पानी उजाड़ता है। पानी बसाता है। पानी जोड़ता है। पानी तोड़ता है। पानी प्रेम पगाता है। पानी लड़ाइयां कराता है।’’ कहना न होगा कि पानी के अपने भी कई रंग हैं। पहाड़ का पानी शीतल है। निर्मल है। जिन्हें नई पढ़ाई और शहर का पानी नहीं लगा, वैसे ठेठ पहाड़ी लोग आज भी देश सरीखे ही हैं। सहज ही अपनी धुन और एक लीक पर बहते हुए पहाड़ी झरने की तरह। पहाड़ी किशोरियां... पहाड़ी नदियों की तरह अल्हड़ होती हैं। “ऐ बुला! मी तै भूल गई जगत कीरीत, परति यार बात नी भूली’’-गाती गुनगुनाती हुई।

पहाड़ में पानी है, किंतु पानी तक लोगों की पहुंच कम है। देश के पश्चिमी इलाके भी कम पानी के ही हैं। दक्षिणी हरियाणा, पश्चिमी राजस्थान और गुजरात का कच्छ। इन सभी जगह कम पानी के उपयोग की तरह लोगों की जिंदगी में भी संयम और अनुशासन है। कम पानी ने इन्हें कम से कम में जिंदगी चलाना सिखाया है। मक्का-बाजरे की रोटी, मिर्च की चटनी और छाछ में जिंदगी काटकर भी सबसे ज्यादा रंग बिखेरने वाला प्रदेश आज भी रंग-रंगीलो राजस्थान ही है। कम पानी के इलाकों में पानी कम, किंतु निर्मल व पारदर्शी होता है। ठीक वैसे ही वहां के लोग भी। जहां पानी की दिक्कत है, वहां लोग पानी अंजुली लगाकर नहीं, सीधा मुंह में डालते हैं। एक पानी के लोटे को बिना जूठा किए पूरा घर पानी पी लेता है। चार-पांच जन को एक साथ बैठकर एक बर्तन में खाना खाते आप आज भी देख सकते हैं। जहां पानी सामान्य है, वहां दो हाथ और जहां पानी भरपूर है, वहां एक हाथ की अंजुली से पानी पिया जाता है। सभी के लिए पानी और खाने का बर्तन अलग-अलग होता है। एक बर्तन में खाना-पीना ये जूठा मानते हैं। ये कम और ज्यादा पानी का संस्कार है।

कम पानी की सभी जगहों पर औरतें घर से बाहर के काम करती हैं। इन सभी इलाकों की औरतें बहादुरी व जीवट में जरा औरों से ज्यादा ही होती हैं। जहां पानी का संकट नहीं रहा, वहां वर्ग विशेष की औरतों के घर से बाहर काम करने पर भी पाबंदी रही है। उनके घूंघट भी और इलाकों से जरा ज्यादा ही लंबे रहे हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार...। आमतौर पर मैदानी इलाकों में पानी का प्रवाह धीमा और नदियों के पाट चौड़ा हो जाते हैं। स्थिर प्रवाह वाले जल स्रोतों की संख्या बढ़ जाती है। जहां पानी नहीं है, उनको संकट नहीं सताता; वहां लोगों के जीवन में भी स्थिरता व गहराई देखी जा सकती है। एक जमाने में पंजाब में पानी की मस्ती रही है। वैसी मस्ती का अनुभव हम उनके भांगड़े, खान-पान और बात व्यवहार में भी देखते रहे हैं।

राजस्थान में पानी सहेजने की पुरानी परंपरा स्टेप वेल आज भी कारगर हैराजस्थान में पानी सहेजने की पुरानी परंपरा स्टेप वेल आज भी कारगर हैजहां पानी के लिए संघर्ष नहीं है, वहां लोगों का स्वभाव लड़ाका नहीं होता। जहां पानी का संघर्ष है, वहां के मर्द और औरतें दोनों ही अद्भुत लड़ाके हुए हैं। उत्तराखण्ड, हरियाणा, राजपूताना, बुंदेलखण्ड से लेकर मराठवाड़ा तक। यहां तक कि उत्तर पूर्व के शांत लोग भी मौका आने पर दुस्साहस से नहीं चूकते। मैदानी इलाकों में भी जहां पानी बीहड़ों में रहता है, वहां के लोग भी बीहड़ दिमाग के होते हैं। एक बार दिमाग में बैठ गई तो आर या पार। बिहार में भी पानी का संघर्ष है। बाढ़ और सुखाड़ दोनों का संघर्ष। सुखाड़ ने बिहार के लोगों को कम से कम में जीवन चलाने का गुण दिया है। गंगा के खुलेपाट ने मिथिला जैसे कुछ इलाकों को ’’अतिथि देवोभवः’’ के गौरव को निभाने हेतु अद्भुत मिठास व कर्तव्यनिष्ठा दी है, वहीं एक ओर बाढ़ ने अपने पर आये संकट के वक्त में अपनों से छीनकर भी अपना जीवन बचाने का स्वभाव दिया है। बाढ़ हर साल आती है। सब कुछ बहा ले जाती है।

बाढ़ प्रभावित का घरौंदा उजाड़ कर चली जाती है। कभी-कभी यह भी नहीं पता होता कि बाढ़ के बाद परिवार से फिर मिलना होगा भी या नहीं। ये सभी अनुभव मनुष्य को हर भौतिक-भावनात्मक संघर्ष से निबटने में सक्षम व सतत् कर्मशील बनाते हैं। हार के बाद जीत की आस देते हैं। इसीलिए कभी अखण्ड भारत बनाने की गौरवगाथा बिहार में ही लिखी जा सकी। उक्तपंक्तियां तो नजीर मात्र हैं। सच है कि हमारी जीवन शैली का निर्धारण काफी हद तक पानी और भूगोल ही करता है। हमारा खानपान, हमारे तीज-त्यौहार, हमारा पहनावा, हमारे तीर्थ, हमारी अर्थव्यवस्था, हमारी आदतें और भी बहुत कुछ। इसका उलट भी कि जैसे हम होते हैं, हमारे इलाके का पानी भी वैसा ही हो जाता है। जैसे भारत के जो शहर जितना विकसित दिखते हैं, वहां की नदियां उतनी अधिक बीमार व बर्बाद हो गईं हैं। पानी व संस्कार का रिश्ता काफी गहरा है। दोनों एक-दूसरे को पूरी तरह प्रभावित करते हैं। यही है भारत में पानी व जीवन के विविध रंगों की आधार।

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