जीवन न्यौछावर को तैयार जनसमूह

‘ओंकारेश्वर तीर्थ अलौकिक है। भगवान शंकर की कृपा से यह देवस्थान के तुल्य है। यहां जो अन्नदान, तप, पूजा करते अथवा मृत्यु को प्राप्त होते हैं, उनका शिवलोक में निवास होता है।’
- स्कंद पुराण रेवा खंड अ – 22

ओंकारेश्वर के आधुनिक बदसूरत मंदिर की ओर जब भी ध्यान आता है तो एकाएक मन में विचार उठने लगने लगता है कि क्या हम अपने देश की संस्कृति के साथ इतना घटिया व्यवहार भी कर सकते हैं? पूरे देश की धार्मिक व सांस्कृतिक भावनाएं ओंकारेश्वर से जुड़ी हैं और नर्मदा नदी उस आस्था का अभिन्न अंग है। पूरे देश से लोग यहां आते हैं और बिना विरोध जताए ‘पवित्र’ दर्शन कर लौट भी जाते हैं। हमारे नीति निर्माता देश के पवित्रतम स्थानों में से एक को एक बदबूदार नाले में बदलकर चैन की नींद कैसे सो सकते हैं?

ओंकारेश्वर एक अनूठा तीर्थ है। बारह ज्योतिर्लिंगों में इसकी गणना होती है। इसकी एक और विशेषता यह है कि यहां एक नहीं दो ज्योतिर्लिंग ओंकारेश्वर एवं अमलेश्वर हैं। लेकिन द्वादश (बारह) ज्योतिर्लिंगों की गणना करते समय इन्हें एक ही गिना जाता है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों के नाम वाले श्लोकों में इसे ‘ओंकारममलेश्वरम’ कहा गया है। ये दोनों मंदिर नर्मदा नदी के आर-पार बने हुए है, जिन्हें एक पैदल पुल आपस में जोड़ता है। पिछले दिनों नर्मदा बचाओ आंदोलन ने ओंकारेश्वर में एक रैली का आयोजन किया और उसमें यह संकल्प लिया कि वे ओंकारेश्वर बांध का पानी 193 मीटर तक नहीं भरने देंगे और पुनर्वास न होने के कारण 16 जुलाई से जल सत्याग्रह करेंगे। ओंकारेश्वर के इन पुरातन मंदिरों के ठीक सामने करीब 200 मीटर की दूरी पर पंडित जवाहरलाल नेहरु के शब्दों में कहें तो आधुनिक भारत का नया मंदिर ‘ओंकारेश्वर बांध’ दिखाई देता है। इस बांध ने नर्मदा नदी का प्रवाह पूरी तरह से रोक दिया है और ओंकारेश्वर के घाट जिनके बारे में कहा जाता था कि यहां की थाह मिलना असंभव है उनके तल अब साफ दिखाई देते हैं और डोबरा बन चुकी विशाल नर्मदा नदी में अब इस नगर के ड्रेनेज का काला बदबूदार पानी दिनभर भरा रहता है और शाम को बिजली बनाने के लिए जब पानी छोड़ा जाता है तो यहां थोड़ी राहत मिलती है।

पिछले डेढ़ महीनों में नर्मदा बचाओ आंदोलन की यह दूसरी रैली थी। पहली रैली महेश्वर बांध के निर्माण में हो रही अनिमितताओं के खिलाफ थी। दोनों ही रैलियों में तकरीबन दस-दस हजार लोग शामिल हुए, दोनों ही बांधों में मुख्यतया पुनर्वास न होना विरोध का मुख्य कारण था। वैसे ओंकारेश्वर बांध बन चुका है और इससे विद्युत उत्पादन भी प्रारंभ हो गया है। इतना ही नहीं इसे बनाने वाली सरकारी कंपनी नर्मदा हाइड्रो डेवलपमेंट कारपोरेशन इस दौरान 2 हजार करोड़ रुपए से अधिक का शुद्ध लाभ कमा चुकी है और इसके बावजूद बचे हुए गांवों का पुनर्वास कार्य टाल रही है। दोनों ही बांधों में सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों का खुला उल्लंघन हो रहा है। इसके अलावा इन दोनों में एक और समानता यह है कि दोनों का निर्माण कंपनियां कर रही हैं।

यह अलग बात है कि इनमें से एक सरकारी कंपनी है और एक निजी कंपनी। लेकिन दोनों का चरित्र भारत द्वारा औपनिवेशिक काल में भुगते गए ‘कंपनी राज’ की याद दिलाता है और यहां आकर महसूस किया जा सकता है कि 18वीं एवं 19वीं सदी के भारत ने जो कुछ भुगता होगा, मध्यप्रदेश के निमाड़ अंचल के निवासी आज वहीं सब कुछ भुगत रहे हैं। अंग्रेजों ने अपने लाभ के लिए जिस तरह भारतीयों पर अत्याचार किए थे, उनमें बुनकरों/जुलाहों के अंगूठे काटना, किसानों से अपनी मनमर्जी की फसलें लगवाना, ब्रिटेन के उत्पादों को करमुक्त करना शामिल थे। लेकिन आज तो इससे आगे की स्थिति है। लोगों को बिना मुआवजा बेदखल किया जा रहा है, उनके खेतों और फसलों को डुबोया जा रहा है। रैली में चित्तरूपा पालित, जो कि नर्मदा बचाओ आंदोलन की वरिष्ठ कार्यकर्ता हैं, ने न्यायालय में चल रहे प्रकरणों की प्रक्रिया को जिन शब्दों में अभिव्यक्त किया उससे लगा कि हमारा लोकतंत्र जिस दिशा की ओर मुड़ गया है, क्या उसकी हमने कभी कल्पना भी की थी?

ओंकारेश्वर के आधुनिक बदसूरत मंदिर की ओर जब भी ध्यान आता है तो एकाएक मन में विचार उठने लगने लगता है कि क्या हम अपने देश की संस्कृति के साथ इतना घटिया व्यवहार भी कर सकते हैं? पूरे देश की धार्मिक व सांस्कृतिक भावनाएं ओंकारेश्वर से जुड़ी हैं और नर्मदा नदी उस आस्था का अभिन्न अंग है। पूरे देश से लोग यहां आते हैं और बिना विरोध जताए ‘पवित्र’ दर्शन कर लौट भी जाते हैं। हमारे नीति निर्माता देश के पवित्रतम स्थानों में से एक को एक बदबूदार नाले में बदलकर चैन की नींद कैसे सो सकते हैं? लेकिन हम सबकी लापरवाही से वे ऐसा कर पा रहे हैं। निमाड़ का ही एक अन्य नगर है बड़वानी। इसके आसपास का हिस्सा नर्मदा नदी पर बन रहे एक अन्य बांध सरदार सरोवर की डूब में आ रहा है। आज से 250 वर्ष पूर्व वहां एक संत हुए थे, जिन्हें अफजल साहब कहा जाता था। लोगों को इस बात से आश्चर्य होता था कि यह आदमी नाम से तो मुसलमान है लेकिन अपने भजनों में वेद वेदांत की बात करता है, निराकार ब्रह्म का गुणगान करता है। उनके पद कबीर की परम्परा का विस्तार दर्शाते हैं। अपने एक दोहे में उन्होंने कहा,
अफजल सारंग चहेढ़ी सीराल पर, उची चहेड़ा कर देख।
जल में जल सुजे नहीं, सो भरम मुये अनेक।।


अफजल साहब कहते हैं मछली जलप्रवाह की विपरीत धारा में बढ़ जाती है। जब उसे बाहर देखना होता है तो जल से ऊंची उठकर देखती है। यह आश्चर्य की बात है कि जल में रहकर भी उसे जल नहीं दिखाई देता। इस भ्रम में रहकर अनेकों मर गये हैं।

ठीक यही स्थिति हमारी नौकरशाही की भी है। योजना बनाते समय उसे ध्यान ही नहीं रहता है कि आगे किस तरह की समस्याएं सामने आएगीं। नर्मदा घाटी परियोजनाओं में तो स्थितियां इससे भी आगे निकल चुकी हैं। सरकार स्वयं डूब प्रभावित परिवार के प्रत्येक वयस्क सदस्य (किसान) को न्यूनतम 5 एकड़ भूमि देने की बात पुनर्वास नीति में स्वीकार कर चुकी है। यानि जमीन के बदले जमीन की बात महज सिद्धांत नहीं कानूनी रूप से स्वीकार्य कर सर्वोच्च न्यायालय में इस बात की स्वीकारोक्ति कर चुकी है। लेकिन इसके बावजूद अपने वादे को पूरा नहीं कर रही है। इतना ही नहीं अपना हक मांगने वालों को विकास विरोधी ठहराने में भी शरमा नहीं रही है।

रैली में जागृत आदिवासी दलित संगठन की माधुरी ने ठीक ही कहा कि देश आज कमोवेश कंपनी राज में परिवर्तित हो गया है। उद्योगपतियों को देने के लिए देश की सरकारों के पास लाखों-लाख एकड़ जमीनें हैं, लेकिन विस्थापितों एवं गरीबों को देने के लिए एक एकड़ भूमि भी नहीं है। अकेले मध्यप्रदेश में पिछले कुछ वर्षों में करीब ढाई लाख एकड़ जमीन आबंटित की जा चुकी है। इस बीच मध्यप्रदेश सरकार ने नर्मदा नदी को साफ करने के लिए तेरह सौ करोड़ की योजना बनाई है। स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि नर्मदा किनारे बसे लोगों का कहना है कि अब नर्मदा जी के पानी का स्वाद नदी जैसा नहीं बल्कि ट्यूबवेल जैसा हो गया है। वहीं ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के ठीक सामने नर्मदा को गटर में बदल जाना कोई ज्यादा पुरानी बात भी नहीं है। तीर्थाटन का पर्यटन में बदल जाना स्थितियों को और जटिल बना रहा है। लेकिन इन सारी समस्याओं पर विचार करने के बाद पुनः मूल विषय पर आना आवश्यक है कि विस्थापितों के साथ अंततः क्या होगा? नर्मदा बचाओ आंदोलन के आलोक अग्रवाल ने विस्तार से ‘जल सत्याग्रह’ का स्वरूप समझाया और लोगों ने डूबने की अपनी तैयारी भी जाहिर की। इस दौरान आई तेज आंधी और घनघोर बारिश के कारण टेंट के गिरने के बावजूद हजारों लोगों का सभा स्थल पर डटे रहना यह दर्शाता है कि बांध प्रभावित किसी भी परिस्थिति के लिए तैयार हैं।

केंद्रीय जल आयोग ने चिंता जताई है कि उसकी समीक्षा में आने वाले 84 बांधों के जलाशयों का जलस्तर वर्ष दर वर्ष लगातार घट रहा है। सिर्फ मध्यभारत में स्थितियां अभी भी ठीक हैं। लेकिन भविष्य में अत्यधिक दोहन करने वाली योजनाएं यहां भी बन गई हैं और स्थितियां बिगड़ने में अधिकतम पांच वर्ष लगेंगे। लेकिन सरकार व कंपनियां इस जटिलता को समझने को तैयार नहीं है।

उस दिन विस्थापितों का जनसैलाब एवं कार्यकर्ताओं का उत्साह देखकर अफजल साहब का यह पद याद हो आया,
अफजल, सुरसीप न पहरीये, जीन का हात में सीस।
वे मंड रहे हैं, खेत में, सो सीस कीया बकसीस।।


यानि अफजल साहब कहते हैं, जो हथेली पर सर लिये हुए हैं, उन्हें सिर पर ताज नहीं पहनना चाहिए। रणभूमि में डटे हुए योद्धा तो अपना सिर पहले ही भेंट कर चुके होते हैं।

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