झाबुआ जिले की पेटलावद तहसील के रूपापाड़ा की पहाड़ी................!
बूंदों को रोकने की चर्चा के साथ-साथ कभी हम नीचे तलहटी में बने तालाब को देखते तो कभी काली घाटी में हर गर्मी में सूख जाने वाले इतिहास के साक्षी हैंडपंपों के किस्से सुनते।
इस बार ये जनाब कुछ पिघले हैं और गर्मी में भी इन्होंने पानी देने का सिलसिला जारी रखा। शुक्रिया तो रूपापाड़ा की पहाड़ी के खाते में जा रहा था।
इसी बीच बूंदों की मनुहार करने वाली टीम के प्रमुख ‘सम्पर्क’ के हरिशंकर पंवार यकायक हमारा ध्यान एक वनस्पति की ओर आकर्षित करते हैं: “इसे स्थानीय भाषा में नाय कहा जाता है। आदिवासी तेज ज्वर में इसका सेवन करते हैं। इससे बुखार तुरन्त ही उतर जाता है। ठन्ड देकर बुखार आने व तापमान लगातार बढ़ने से आदिवासियों को मलेरिया का आभास हो जाता है। काहे का.......ब्लड टेस्ट! ये इसका सेवन कर ही ठीक हो जाते हैं।”
यह वनस्पति इस पहाड़ी पर बहुतायत में उग रही थी। इसे पानी रोकने के अभियान की एक बड़ी सफलता माना जा रहा था। पंवार ‘सम्पर्क’ के साथियों के बीच चर्चा में बता रहे थे कि अमुक-अमुक लोगों को कह देना कि ये वनस्पति रूपापाड़ा की पहाड़ी पर बेहतर किस्म वाली उग रही है।
रूपापाड़ा की इस ‘भेंट’ का सिलसिला थमा नहीं। झाबुआ जिले में गांव-गांव में बड़वा या ओझा के किस्से सुनने को मिले। ये वो शख्स हैं जो जिले की जमीन के भीतर औषधीय वनस्पति के भण्डार से अपवादों को छोड़कर प्रायः भली-भांति वाकिफ रहते हैं। झाड़-फूंक के साथ ये जड़ी बूटियाँ देते हैं। बूदों को रोकने के अभियान के साथ अनेक गावों में इन जानकारों को भी आगे किया जा रहा है। पानी आंदोलन का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि औषधीय पौधों के उत्पादन को प्रोत्साहित करने के लिए मुहिम छेड़ी जा रही है। इसमें यह परिकल्पना की गई है कि क्षेत्र का पर्यावरण स्वस्थ व सुन्दर बने और लोगों की सेहत भी सुधरे। इसलिए वनों की सुरक्षा में लोगों की भागीदारी तय की गई है और उन्हें औषधीय पौधों की खेती के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। इस अभियान के तहत कई गंभीर बीमारियों के उपचार में प्रयुक्त होने वाली औषधि को जड़ी-बूटी उद्यान के जरिए सुरक्षित किया जा रहा है। जिस प्रकार बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ वनस्पति जगत के उपहारों के उत्पाद बनाकर कर अपनी दिन-दूनी रात चौगुनी प्रगति कर रही हैं, उसी प्रकार इन औषधियों को स्थानीय स्तर पर सहेजने का काम शुरू किया गया है। मिसाल के तौर पर आंवला, गोंद, रतनजोत, नीम व अरन्डी के उपयोग से कई प्रकार के उत्पाद बाजार में चलन में आ गए हैं। इन औषधियों का उपयोग आदिवासी लोग सदियों से करते आ रहे हैं, लेकिन वे इनके प्रति सचेत कभी नहीं रहे हैं। लेकिन अब औषधीय उद्यान के जरिए दुर्लभ किस्म की प्रजातियों को विलुप्त होने से बचाने के प्रयास किए जा रहे हैं।
यूं तो यहां के ओझा कई प्रकार की गंभीर बीमारी, जैसे कैंसर इत्यादि का इलाज भी जड़ी-बूटी से करते रहे हैं। लेकिन वे अपने ज्ञान को सीमित करने एवं इसे फैलने से रोकने में विश्वास करते हैं, ताकि उनके इलाज की कीर्ति दूर-दूर तक फैलती रहे। ऐसी अवस्था में जानकार बड़वे के अवसान के बाद उनकी औषधि भी जंगल में खोकर रह जाती है। नई परिकल्पना में बड़वों को प्रोत्साहित किया जा रहा है, ताकि उनके औषधीय ज्ञान को प्रकृति के साथ जोड़कर ज्यादा से ज्यादा लोगों को लाभान्वित किया जा सके. बड़वों को इस बात के लिए तैयार किया जा रहा है कि वे किसी के बीमार पड़ने की सूचना मिलने पर तुरंत मरीज को यहां पहुंचकर उसकी जड़ी-बूटी से चिकित्सा शुरू कर दें, ताकि गंभीर हालत के मरीजों की संख्या में कमी लाई जा सके। इसके लिए बड़वा उत्थान कोष की स्थापना भी की जाने लगी है। इसके संचालन की जिम्मेदारी झाबुआ में बूंदों को रोकने की जेहाद चला रही समितियों को सौंपी गई है। इनमें बड़वों को भी भागीदार बनाया गया है। जड़ी-बूटी से इलाज करने की प्रवृति विकसित करने के लिए बड़वों को पुरस्कृत करने की भी योजना बनाई गई है।
जनसंख्या वृद्धि रोकने के लिए शहरों में गर्भपात का प्रचलन बढ़ता जा रहा है, शहरों में महिलाएं उपचार के लिए कई एलोपैथिक दवाओं का इस्तेमाल करती है, जिसका उनके शरीर पर दूषित प्रभाव भी पड़ता है। कई बार ऐसी दवाओं का रिएक्शन जीवन के लिए घातक भी होता है, जबकि वानस्पतिक औषधि से सामान्यतः विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है। इस आदिवासी बहुल इलाके में महिलाएं अमरबेल के काढ़े को गर्भपात करने के प्रयोग में लाती हैं।
इसके अलावा अमरबेल का उपयोग खुजली एवं अन्य बीमारी दूर करने के लिए भी किया जाता है। इस क्षेत्र में सर्वाधिक पाई जाने वाली कटीली (भरकरैया) पौधे की जड़ें अस्थमा और पत्तियां गठिया की बीमारी में उपयोगी सिद्ध हुई हैं। इसी प्रकार दूधी पौधे का प्रयोग हृदय व श्वसन क्रिया में किया जाता हैं। इसका रस देने से बच्चों के पेट में कृमि (किड़े) व कफ विकार दूर होता हैं। उल्टी (वमन) रोकने के लिए इसकी जड़ का उपयोग किया जाता है। इसी प्रकार सफेद मूसली और काली मूसली से कई प्रकार की बीमारियों का उपचार होता है। सफेद मूसली तो अति गुणकारी होने के कारण बाजार में महगें दामों पर बिकती हैं। मधुमेह होने पर भी सफेद मूसली फायदेमंद होती है। इसका उपयोग नपुंसकता, अतिसार आदि में भी किया जाता है। काली मूसली का प्रयोग आदिवासी लोग चोट तथा अस्थि भंग होने पर लेप लगाकर करते हैं।
वनककोड़ा नामक वनस्पति औषधि इस क्षेत्र में बहुतायत में मिलती हैं। इसका उपयोग बिच्छु व सर्प दंश में किया जाता हैं। चूंकि इस क्षेत्र में सर्वाधिक अकाल मौतें सर्प व बिच्छु दंश से ही होती हैं ऐसी दशा में इस पौधे की उपयोगिता और बढ़ जाती है। इसके अलावा सतावर, कुकुरोदाह, आम्बा हल्दी, जलपपनी, अ़डूसा, गिलोच, धतूरा, हड़जोरी, ग्वारापाठा, चिरचिटा, सम्हालू मेअडी आदि की खेती को बढ़ावा देकर यहां उपचार के साथ-साथ आय के साधन भी तलाशे जा सकते हैं। औषधीय उद्यानों में मुनगा, कचनार, गुड़हद, बहेड़ा, हरड़ का भी चयन किया है। ये औषधि तभी पनपेगी जब इन्हें उचित मिट्टी के साथ उचित माहौल में उगाया जाए। इसके लिए पानी की उपलब्धता भी आवश्यक है। उद्यान वहीं विकसित किये जा सकते हैं, जहां इन पौधों को नियमित पानी मिले। कुछ पौधे सिर्फ नमी वाले स्थानों पर पनपते है तो कुछ चट्टानों पर भी खिल जाते हैं।
झाबुआ जिले की यात्राओं में हमने बूदों को कई रूपों में देखा है। कभी इनमें संकल्प दिखता है। कभी जीवन। कभी ‘संत’ बनी बूंदें गांव में ‘विहार’ करने से अपराध प्रवृत्ति को दूर करती हैं। कभी इन बूंदों की चंचलता में हमें लोकतंत्र के दर्शन होते हैं। कभी कभी तो ‘सत्यमेव जयते’ से साक्षात्कार है.......। और भी न जाने क्या.......क्या.....।
.................. अब हम फिर रूपापाड़ा की पहाड़ी पर चलते हैं..........। सोचिये......... इस तरह की बूंदों को क्या कहें.......?.............जीवन दायिनी...........!
बूँदों की मनुहार (इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें।) |
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