जीवन दायिनी आज खुद लाचार

महोबा- मुख्यालय के पश्चिम में स्थित पड़ोसी गांव चांदौ, चंद्रपुरा के पहाड़ी झरनों से निकली चंद्रावल नदी हजारों साल अपने किनारे बसने वाले आधा सैकड़ा से ज्यादा गांवों को जीवन का अमृत पिलाती रही। चंद्रावल बांध के साथ आधा सैकड़ा से ज्यादा गांवों की जीवनदायिनी यह नदी वक्त और प्रदूषण की मार से खुद का अस्तित्व नहीं बचा सकी। इस नदी के सूख जाने से अब बांध के अस्तित्व पर भी ग्रहण लग गया है।

चंदपुरा की पहाड़ियों पर घनघोर जंगल होता था। लकड़ी माफियाओं ने इसका सफाया कर यहां के वनों का स्वरूप विकृत कर दिया। लिहाजा प्रकृति का उपहार झरने ही सूख गये। ज्यादा नहीं महज बीस साल पहले तक नदी में पूरे साल लबालब पानी भरा रहता था। लोग पंप सेट रख हजारों हेक्टेयर कृषि भूमि की सिंचाई करते थे। अंग्रेजी शासन में इसकी जल राशि का उपयोग करने को कबरई के पास चंद्रावल बांध बनवाया गया था। 5025 वर्ग मीटर लंबाई में बने इस बांध से 79.295 किमी लंबी नहर प्रणाली बनाई गयी। इससे 19038 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होती रही। भारी जलधारण क्षमता के साथ ही इस नदी का ऐतिहासिक महत्व भी महोबा की अस्मिता से जुड़ा है। ग्यारहवीं सदी में दिल्ली नरेश पृथ्वीराज चौहान ने यहां आक्रमण किया व चंदेली सेना को शिकस्त दे राजकुमारी चंद्रावल का डोला लेकर लौट रहे थे। नदी की प्रचंड वेग की जलधारा ने कुछ देर के लिए उनका रास्ता रोक लिया तभी आल्हा ऊदल ओर ताला सैय्यद के नेतृत्व में पीछा कर रही चंदेली सेना ने युद्ध कर उन्हे पराजित कर राजकुमारी को रिहा कराया। युद्ध करहरा गांव के पास नदी किनारे हुआ था। तभी से इसका नाम चंद्रावल नदी हो गया।

भयावह हो चुके पर्यावरण प्रदूषण के साथ वक्त की उपेक्षा के थपेड़े झेलती यह नदी अब खुद पानी का तरस रही है। वर्षा के चंद दिन ही इसमें मामूली सा पानी रहता है। यही पानी करोड़ों की लागत से बने चंद्रावल बांध का प्राण तत्व है। शेष दस माह तक नदी में सिर्फ कंकड़ ही दिखते हैं। इस नदी के सूखने से पचास से ज्यादा गांवों के लाखों लोगों के चेहरों की मुस्कान छीन ली है। बीस हजार हेक्टेयर कृषि भूमि को अपने अमृत से लहलहाने वाली यह नदी अब विलुप्त होने के कगार पर है। नदी के कंकड़ किसी भागीरथ के अवतरण की आस लगाये हैं जो लाखों लोगों की मुस्कान लौटा सके।

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