दुनिया भर में खत्म होते जलस्रोत और जैव विविधता सभी के लिए चिंता का विषय बने हुए हैं। सभी देश जल संकट से निपटने और जैव विविधता को बचाने के तमाम प्रयास कर रहे हैं। राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नीतियां और कानून बनाए जा रहे हैं। लोगों में जागरुकता फैलाने और साफ पानी की पहुंच सभी तक सुनिश्चित करने के लिए हर साल 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया जाता है, तो वहीं जैव विविधता के संरक्षण के लिए 22 मई का दिन ‘‘विश्व जैव विविधता दिवस’’ के रूप में मनाया जाता है, लेकिन इन तमाम प्राकृतिक संसाधनों व संपदा का संरक्षण अधिकांश स्थानों पर केवल फाइलों और योजनाओं तक ही सीमित है। परंतु कुछ बिरले लोग इसे धरातल पर उतारने में सफलता भी पा रहे हैं। इनमें से एक है ‘‘हरिद्वार वन प्रभाग’’। हरिद्वार वन प्रभाग ने ‘झिलमिल झील कंजर्वेशन रिजर्व’ में, जो कि एक वैटलैंड (दलदलीय इलाका) है, में न केवल प्राकृतिक जलस्रोतों को पुनर्जीवित किया, बल्कि जैवविविधता के विकास में अहम योगदान दिया।
झिलमिल झील कंजर्वेशन का क्षेत्र करीब 9349.23 एक में फैला है। ये राजाजी टाइगर रिजर्व से आने वाले वन्यजीवों का काॅरिडोर भी है। तत्कालीन राष्ट्रपति डाॅ. एपीजे अब्दुल कलाम के आदेश के बाद इसे 2005 में कंजर्वेशन रिजर्व घोषित किया गया था। यहां बड़ी संख्या में दलदलीय बारहसिंगा पाए जाते हैं। एक प्रकार से ये दलदलीय बारहसिंगों का प्रवास स्थल है, जो हरिद्वार से हस्तिनापुर बर्ड सेंचुरी तक विचरण करते हैें। इसके अलावा यहां हिरण की पांच प्रकार की प्रजातियां पाई जाती हैं। हाथी, नील गाय, तेंदुआ और कभी कभी बाघ भी देखने को मिलते हैं। बड़ी संख्या में प्रवासी पक्षी भी यहां आते हैं। तितलियों की सैंकड़ों प्रजातियां यहां पाई जाती हैं। मगरमच्छ और कछुएं भी भारी तादाद में हैं, लेकिन अन्य वैटलैंड की तरह ही झिलमिल झील का संरक्षण भी चुनौती बना हुआ है। आसपास के आबादी वाले इलाकों की यहां आवाजाही बढ़ गई थी। ग्रामीण अपने मवेशियों को चरने के लिए रिजर्व क्षेत्र में छोड़ देते थे, जिससे यहां की जैव विविधता के साथ ही वन्यजीवों पर भी खतरा मंडराने लगा था। झील के दलदलीय इलाके को पानी के प्राकृतिक स्रोतों से ही जल मिलता है, उसी के आधार पर यहां की जैव विविधता बनी हुई है, लेकिन केदारनाथ आपदा ने यहां की पूरी परिस्थिति को ही बदल दिया था।
2013 में केदारनाथ आपदा में भारत मात्रा में गंदा नदी के साथ सिल्ट बहकर आया था। तब गंगा नदी इतने उफान पर थी कि झिलमिल झील का दलदलीय इलाका भी इससे बच नहीं सका। सिल्ट भरने से प्राकृति जल स्रोतों ने दम तोड़ दिया। ये स्रोत एक प्र्रकार से विलुप्त हो गए। रसियाबड़ रेंज के रेंज प्रदीप उनियाल ने बताया कि 148 हेक्टेयर में फैला झील का दलदलीय इलाका सूखने लगा। वन विभाग के मुताबिक दलदलीय क्षेत्र का करीब 50 हेक्टेयर इलाका सूख गया था। घास सूखने लगी थी। गर्मियों में आग लगने के मामले भी सामने आए। आग लगने से हिरणों का भोजन समाप्त हो रहा था। इसने वन विभाग की परेशानियों को काफी बढ़ा दिया था। परेशानी बढ़ना लाजमी भी था, क्योंकि दलदलीय बारहसिंगा भारत में केवल हस्तिनापुर बर्ड सेंचुरी, काजीरंगा नेशनल पार्क और हरिद्वार के झिलमिल कंजरर्वेशन रिजर्व में पाए जाते हैं। झिलमिल झील पर मंडराते खतरे के कारण हरिद्वार और हस्तिनापुर, दोनों की जगह दलदलीय बरहसिंगों के अस्तित्व पर भी खतरा मंडारने लगा था। प्रवासी पक्षियों की संख्या भी घट गई थी।
वर्ष 2018 में इस गंभीर समस्या के समाधान के लिए तत्कालीन डीएफओ आकाश वर्मा ने क्षेत्र के विस्तार का निर्णय लिया। युद्ध स्तर पर प्रमुखता से कार्य कर अनावश्यक झाड़ियों को काटा गया। सभी जमा सिल्ट को हटाया गया। इसका नतीजा ये रहा कि पांच साल पहले विलुप्त हो चुके चार प्राकृतिक जलस्रोतों में कुछ समय बाद पानी फूटने लगा। अब धीरे धीरे पानी पूरे दलदलीय इलाके में फैल चुका है। पानी फिर आने से केवल सूख चुका 50 हेक्टेयर दलदलीय इलाका ही पुनर्जीवित नहीं हुआ, बल्कि दो हेक्टेयर अतिरिक्त क्षेत्र में भी दलदलीय इलाके का फैलाव हुआ। अब यहां वन्यजीवों के लिए प्रचूर मात्रा में पानी उपलब्ध है और जैव विविधता भी खिलने लगी है। प्रवासी पक्षियों की संख्या में भारी इजाफा हुआ है। दलदलीय इलाके में पानी के स्रोत के काण विभिन्न स्थानों पर स्वतः ही छोटे-छोटे तालाब बन रहे हैं। जो भविष्य को ध्यान में रखते हुए काफी सकारात्मक संदेश है।
हिमांशु भट्ट (8057170025)
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