जीरो बजट के शौचालय को बनाना बड़ा आसान काम है। खासकर गांवों में लोग थोड़ा बहुत श्रम करके इसे खुद ही तैयार कर सकते हैं। तकनीकी भाषा में इसे लीज पिट विधि भी कहते हैं। लीज पिट से मतलब इसके टैंक यानि गड्ढे से है। जीरो बजट के शौचालय निर्माण में गड्ढे की बनावट ही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। इससे तैयार खाद पेड़-पौधों व फसलों के लिए काफी उपयोगी होती है। जंगल विभाग में इस खाद को सोन खाद भी कहते हैं। वर्धा। जीरो बजट खेती ही नहीं बल्कि शौचालय भी कामयाब हो रहे हैं। मध्य प्रदेश, राजस्थान के बाद अब यह प्रयोग महाराष्ट्र के वर्धा जिले में अमल में लाया जा रहा है। ये शौचालय बिना लागत के बनाए जा सकते हैं। खास बात यह है कि यह सौ प्रतिशत इकोफ्रेंडली हैं। कुछ दूसरे माडलों की तरह जीरो बजट शौचालयों से किसी प्रकार की जहरीली गैसों का उत्सर्जन बाहर की ओर नहीं हो पाता, इसलिए इसका स्वाथ्य पर कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता, जो इसकी सबसे बड़ी खासियत भी है। पांच या छह सदस्यों वाले परिवारों के लिए एक गड्ढे (लीजपिट) की लाइफ करीब सात से आठ साल तक होती है। यानि एक गड्ढे को 7 से 8 सालों तक उपयोग में लाया जा सकता है।
इस मॉडल के शौचालयों को बनाना बड़ा आसान काम है। खासकर गांवों में लोग थोड़ा बहुत श्रम करके इसे खुद ही तैयार कर सकते हैं। राजस्थान के डूंगरपुर जिले के कई गांवों में जीरो बजट से बने शौचालयों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा रहा है। इस जिले के विच्छीबाड़ा ब्लॉक के गांव ग्रामणी अहाणा, कनवा और बरेठी में महिलओं ने स्वयं अपने हाथों जीरो बजट विधि से शौचालय तैयार किये हैं। जिससे उन्हें खुले में शौच से मुक्ति मिल रही है। प्रारंभ में इन गांवों में जब एक-दो शौचालय तैयार किये जा रहे थे तो इसकी जबर्दस्त सफलता के विषय में ग्रामीण एकबारगी यकीन नहीं कर पा रहे थे। लेकिन जब शौचालय बनकर तैयार हुए और लोगों ने इसका प्रयोग किया तो वह उत्साह से भर उठे।
तकनीकी भाषा में इसे लीज पिट विधि भी कहते हैं। लीज पिट से मतलब इसके टैंक यानि गड्ढे से है। गड्ढे एक मीटर के व्यास में होते हैं, जो गोले आकार में यानि बिल्कुल कुएं की तरह बनाए जाते हैं। जिसकी लम्बाई, चौड़ाई और गहराई बराबर होती है। कुएं के आकार का होने की वजह से टैंक का कोई भी सिरा कभी बैठता नहीं। प्राचीन काल से कुओं को गोल आकार में बनाने के पीछे भी यही खासियत थी। जीरो बजट के शौचालय निर्माण में गड्ढे की बनावट ही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। लीज पिट विधि पर काम कर रहे कुछ एक्सपर्ट के मुताबिक गड्ढे बनाना कुछ मिट्टी के प्रकार पर भी निर्भर करता है। जिस जगह पर लीज पिट यानि गड्ढे खोदने हैं उस जगह की मिट्टी के प्रकार को बड़े ध्यान से देखना होता है। यदि मोंरग, कंकरीली मिट्टी है तो गड्ढे की खुदाई करने के बाद उसकी ईंट या पत्थर से चुनाई नहीं करनी पड़ती, बल्कि ऐसे जगहों पर गड्ढा बनाना और भी आसान हो जाता है। लेकिन काली, दोमट या बलुई मिट्टी है तो गड्ढा खोदने के बाद उसके चारों ओर से ईंट या पत्थर से चुनाई कराना अनिवार्य है। ईंट या पत्थर की जोड़ाई जालीनुमा की जाती है, जिससे गड्ढे में पड़े मल का पानी मिट्टी के साथ आब्जर्व हो जाता है। दरअसल साइंटफिक रिसर्च के मुताबिक मल में करीब 90 प्रतिशत तक पानी होता है। जालीदार चुनाई होने के कारण मल का पानी मिट्टी के साथ आब्जर्व हो जाता है। उसके बाद बचे हुए मल को बैक्टीरिया खाकर खाद में तब्दील कर देते हैं। यह खाद पेड़-पौधों व फसलों के लिए काफी उपयोगी होती है। जंगल विभाग में इस खाद को सोन खाद भी कहते हैं।
गड्ढे (लीजपिट) के ऊपर ढक्कन लगाने की आवश्यकता होती है। इसके लिए कई एक आसान तरीके हैं। यदि घर में बांस हों तो यह काम और भी आसान हो जाता है। गड्ढे खोदने के बाद उसके चारों ओर चार मजबूत बांस जमीन में खूब अच्छी तरह गाड़कर उसमें परदे लगा दिए जाते हैं। इससे गड्ढे के चारों तरफ दीवारनुमा परदा खड़ा हो जाता है। इसके बाद खोदे गए गड्ढे के ऊपर बांस के फट्टों से बने ढक्कन, जिसमें टॉयलेट करने की जगह बनी होती है को रख दिया जाता है। बाद में टॉयलेट करने की जगह छोड़कर ढक्कन के ऊपर गिली मिट्टी से फर्श बनानी पड़ती है। इस पूरे काम में सिर्फ एक दिन का समय लगता है। एक आदमी एक दिन के भीतर लीजपिट विधि से टॉयलेट तैयार कर सकता है।
अब सवाल उठता है कि लीजपिट यानि गड्ढे क्यों सिर्फ एक मीटर व्यास के ही होने चाहिए। इस तथ्य के पीछे साइंटिफिक कारण है। दरअरसल सूर्य की किरणें जमीन पर पड़ने के बाद केवल एक मीटर अंदर तक जा पाती हैं। एक मीटर व्यास वाले गड्ढों में पाए जाने वाले वे बैक्टीरिया, जो मल को खाद में तब्दील करते हैं तभी जीवित रह पाएंगे जब तक उन्हें सूर्य की किरणों की उर्जा मिलेगी। यही कारण है कि टॉयलेट के इस मॉडल के लिए सिर्फ एक मीटर व्यास के गड्ढे बनाए जाते हैं। यही बनावट शौचालय के इस मॉडल की सबसे बड़ी विशेषता है। बैक्टीरिया जब मल को खाते हैं और उसका अवशेष ग्रे वाटर जब मिट्टी में घुस जाता है तो लीजपिट के भीतर बनने वाली गैस भी उसी में आब्जर्व हो जाती है। जबकि इसके विपरीत सेप्टिक टैंक में लगी पाइप से गैस का उत्सर्जन घर की ओर या दूसरों के घरों की तरफ होता रहता है जिसकी वजह से गैस बाहर की ओर निकलती रहती है,जिससे खतरनाक बीमारियां फैलने लगती हैं।
लीजपिट विधि से बनाए गए टॉयलेट का उपयोग यानि मल विसर्जन करने के बाद उसके भीतर राख या चूना डालना अनिवार्य है। घर का कोई सदस्य यदि टॉयलेट जा रहा है तो उसे उतना ही पानी ले जाने की आवश्यकता जितना वह खुले में शौच के लिए ले जाता था। इस मॉडल से काफी मात्रा में पानी का बचाव किया जा सकता है। बस टॉयलेट करने के बाद पानी से शौंच लगाएं और उसमें थोड़ी राख या चूना डाल दें। टॉयलेट के बाद ढक्कन बंद कर दें।
इस मॉडल के शौचालयों को बनाना बड़ा आसान काम है। खासकर गांवों में लोग थोड़ा बहुत श्रम करके इसे खुद ही तैयार कर सकते हैं। राजस्थान के डूंगरपुर जिले के कई गांवों में जीरो बजट से बने शौचालयों का सफलतापूर्वक प्रयोग किया जा रहा है। इस जिले के विच्छीबाड़ा ब्लॉक के गांव ग्रामणी अहाणा, कनवा और बरेठी में महिलओं ने स्वयं अपने हाथों जीरो बजट विधि से शौचालय तैयार किये हैं। जिससे उन्हें खुले में शौच से मुक्ति मिल रही है। प्रारंभ में इन गांवों में जब एक-दो शौचालय तैयार किये जा रहे थे तो इसकी जबर्दस्त सफलता के विषय में ग्रामीण एकबारगी यकीन नहीं कर पा रहे थे। लेकिन जब शौचालय बनकर तैयार हुए और लोगों ने इसका प्रयोग किया तो वह उत्साह से भर उठे।
तकनीकी भाषा में इसे लीज पिट विधि भी कहते हैं। लीज पिट से मतलब इसके टैंक यानि गड्ढे से है। गड्ढे एक मीटर के व्यास में होते हैं, जो गोले आकार में यानि बिल्कुल कुएं की तरह बनाए जाते हैं। जिसकी लम्बाई, चौड़ाई और गहराई बराबर होती है। कुएं के आकार का होने की वजह से टैंक का कोई भी सिरा कभी बैठता नहीं। प्राचीन काल से कुओं को गोल आकार में बनाने के पीछे भी यही खासियत थी। जीरो बजट के शौचालय निर्माण में गड्ढे की बनावट ही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है। लीज पिट विधि पर काम कर रहे कुछ एक्सपर्ट के मुताबिक गड्ढे बनाना कुछ मिट्टी के प्रकार पर भी निर्भर करता है। जिस जगह पर लीज पिट यानि गड्ढे खोदने हैं उस जगह की मिट्टी के प्रकार को बड़े ध्यान से देखना होता है। यदि मोंरग, कंकरीली मिट्टी है तो गड्ढे की खुदाई करने के बाद उसकी ईंट या पत्थर से चुनाई नहीं करनी पड़ती, बल्कि ऐसे जगहों पर गड्ढा बनाना और भी आसान हो जाता है। लेकिन काली, दोमट या बलुई मिट्टी है तो गड्ढा खोदने के बाद उसके चारों ओर से ईंट या पत्थर से चुनाई कराना अनिवार्य है। ईंट या पत्थर की जोड़ाई जालीनुमा की जाती है, जिससे गड्ढे में पड़े मल का पानी मिट्टी के साथ आब्जर्व हो जाता है। दरअसल साइंटफिक रिसर्च के मुताबिक मल में करीब 90 प्रतिशत तक पानी होता है। जालीदार चुनाई होने के कारण मल का पानी मिट्टी के साथ आब्जर्व हो जाता है। उसके बाद बचे हुए मल को बैक्टीरिया खाकर खाद में तब्दील कर देते हैं। यह खाद पेड़-पौधों व फसलों के लिए काफी उपयोगी होती है। जंगल विभाग में इस खाद को सोन खाद भी कहते हैं।
गड्ढे (लीजपिट) के ऊपर ढक्कन लगाने की आवश्यकता होती है। इसके लिए कई एक आसान तरीके हैं। यदि घर में बांस हों तो यह काम और भी आसान हो जाता है। गड्ढे खोदने के बाद उसके चारों ओर चार मजबूत बांस जमीन में खूब अच्छी तरह गाड़कर उसमें परदे लगा दिए जाते हैं। इससे गड्ढे के चारों तरफ दीवारनुमा परदा खड़ा हो जाता है। इसके बाद खोदे गए गड्ढे के ऊपर बांस के फट्टों से बने ढक्कन, जिसमें टॉयलेट करने की जगह बनी होती है को रख दिया जाता है। बाद में टॉयलेट करने की जगह छोड़कर ढक्कन के ऊपर गिली मिट्टी से फर्श बनानी पड़ती है। इस पूरे काम में सिर्फ एक दिन का समय लगता है। एक आदमी एक दिन के भीतर लीजपिट विधि से टॉयलेट तैयार कर सकता है।
अब सवाल उठता है कि लीजपिट यानि गड्ढे क्यों सिर्फ एक मीटर व्यास के ही होने चाहिए। इस तथ्य के पीछे साइंटिफिक कारण है। दरअरसल सूर्य की किरणें जमीन पर पड़ने के बाद केवल एक मीटर अंदर तक जा पाती हैं। एक मीटर व्यास वाले गड्ढों में पाए जाने वाले वे बैक्टीरिया, जो मल को खाद में तब्दील करते हैं तभी जीवित रह पाएंगे जब तक उन्हें सूर्य की किरणों की उर्जा मिलेगी। यही कारण है कि टॉयलेट के इस मॉडल के लिए सिर्फ एक मीटर व्यास के गड्ढे बनाए जाते हैं। यही बनावट शौचालय के इस मॉडल की सबसे बड़ी विशेषता है। बैक्टीरिया जब मल को खाते हैं और उसका अवशेष ग्रे वाटर जब मिट्टी में घुस जाता है तो लीजपिट के भीतर बनने वाली गैस भी उसी में आब्जर्व हो जाती है। जबकि इसके विपरीत सेप्टिक टैंक में लगी पाइप से गैस का उत्सर्जन घर की ओर या दूसरों के घरों की तरफ होता रहता है जिसकी वजह से गैस बाहर की ओर निकलती रहती है,जिससे खतरनाक बीमारियां फैलने लगती हैं।
लीजपिट विधि से बनाए गए टॉयलेट का उपयोग यानि मल विसर्जन करने के बाद उसके भीतर राख या चूना डालना अनिवार्य है। घर का कोई सदस्य यदि टॉयलेट जा रहा है तो उसे उतना ही पानी ले जाने की आवश्यकता जितना वह खुले में शौच के लिए ले जाता था। इस मॉडल से काफी मात्रा में पानी का बचाव किया जा सकता है। बस टॉयलेट करने के बाद पानी से शौंच लगाएं और उसमें थोड़ी राख या चूना डाल दें। टॉयलेट के बाद ढक्कन बंद कर दें।
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