जीडी एक दृढ़निश्चयी इंसान हैं। वह परिणाम अथवा समर्थन जुट जाये, परिस्थितियां अनुकूल हो जायें की प्रतीक्षा करते हुए अपने निर्णय को पलटने वाले व्यक्ति नहीं हैं। उनके निर्णय को कुछ समय के लिए किसी के अपनेपन या प्रभामंडल ने प्रभावित भले ही कर दिया हो, लेकिन गंगाजी पर पहले अनशन से लेकर आज तक उन्होंने किसी की प्रतीक्षा नहीं की। वह अकेले ही चले थे। आज भी वह गंगाजी के लिए अपने निर्णय को क्रियान्वित करने में किसी की प्रतीक्षा न करते, बशर्ते संगठन की बंधन से न बंधे होते।
स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद के नये नामकरण वाले प्रो. जीडी अग्रवाल की मांग पर आहूत 17 अप्रैल की बैठक का समय आने से पहले ही उनके द्वारा बैठक का बहिष्कार कर दिया गया था। उन्होंने कहा कि मौखिक आश्वासन पूरा नहीं हुआ। सच है कि सरकार के नुमांइदें प्राथमिक मौखिक आश्वासन को ही सरकार से पूरा नहीं करा सके। लेकिन वहीं एक सच यह भी है कि उन मौखिक आश्वासनों को गंगा सेवा अभियानम् ने यह कहकर मीडिया के समक्ष सार्वजनिक करने से इंकार कर दिया था कि समय आने पर बताया जायेगा। ज्यादातर लोग आज तक नहीं जानते कि वे सभी मौखिक आश्वासन क्या थे। अतः इसे लेकर तपस्या समर्थकों के मन में सवाल उठना वाजिब है। लेकिन क्या ये सवाल गंगाजी के प्रति जीडी की प्रतिबद्धता पर उठाये जा सकते हैं? लोग कह रहे हैं कि संवाद ही रास्ता है। संवाद से ही हल निकलेगा। ढाई महीने की तपस्या के बाद जीडी के जलग्रहण के वक्त 23 मार्च को प्रेसवार्ता में गंगा सेवा अभियानम् का राय भी यही थी। लेकिन क्या वह सचमुच जीडी की राय थी? क्या जीडी उन शर्तों से संतुष्ट थे, जिन्हें आधार बनाकर उनसे जलग्रहण कराया गया? उन्होंने तब भी कहा था कि सरकार उनके प्राण की बजाय गंगाजी के प्राणों की चिंता करे। जीडी ने कहा था कि उन्हें सरकार के वायदे पर भरोसा नहीं है।जीडी एक वैज्ञानिक व इंजीनियर पहले रहे हैं, गेरुआधारी या अनशनकारी बाद में। बावजूद इसके उन्होंने शुरु से ही गंगाजी के संरक्षण में अपनी लड़ाई का औजार अध्ययन या इंजीनियरिंग के तर्कशास्त्र को नहीं, बल्कि आस्था को बनाया। उन्होंने कभी बीच का रास्ता नहीं चुना। यह भी सच है कि एक समय में भारत में एक मुख्य बांध बनाने में उनकी भूमिका रही है। उनके पढ़ाये कितने ही शिष्य आज भी देश में बांध बनाने का ही काम कर रहे होंगे। लेकिन एक काल के बाद जीडी ने गंगाजी पर बांधों का विरोध किया। ऐसा दृढ़ विरोध, मानो उन्हें बांधों पर कभी यकीन ही न रहा हो; मानो वह कोई प्रायश्चित कर रहे हों। उन्होंने गंगाजी को कभी सिर्फ गंगा नहीं कहा। वह गंगाजी को महज एक नदी नहीं मानते। वह गंगाजी को अपनी मां कहते हैं।
उन्होंने हमेशा कहा कि उन्हें गंगाजी पर कोई बांध नहीं चाहिए। वह गंगाजी की निर्मलता से समझौता करने को कभी तैयार नहीं हुए।
पहले अनशन के वक्त उन्होंने गंगोत्री से उत्तरकाशी के बीच के 135 किमी के हिस्से में गंगाजी के निर्बाध प्रवाह की मांग की थी। यह उनके लक्ष्य का पहला पड़ाव था। वह अपना जीवन रहते गंगा मूल को निर्बाध कर देना चाहते हैं। सरकार ने उस हिस्से को संवेदनशील घोषित करने का वायदा किया। वह घोषणा मजाक बनकर रह गई। प्रवाह के मात्र 100 मीटर दोनों तरफ का क्षेत्र को संवेदनशील क्षेत्र का सीमा क्षेत्र बनाने तथा उसमें भी 25 मेगावाट तक छोटी परियोजनाओं को स्थापित की छूट के प्रस्ताव ने अधिसूचना के मसौदे को मजाक बनाकर रख दिया है। जीडी की मांग पर जिस लोहारी-नाग-पाला परियोजना को रद्द किया गया, सहमति के विपरीत उसकी सुरंग आज भी खुली है। आशंका आज भी बरकरार है कि सरकार उसे कभी भी पुनः चालू कर सकती है। उन्होंने गंगाजी की तीन मूल धाराओं को निर्बाध करने की मांग को लक्ष्य का दूसरा पड़ाव बनाया। लक्ष्य के तीसरे पड़ाव के रूप में उन्होंने नरोरा से प्रयाग तक न्यूनतम अपेक्षित प्रवाह को रखा।
स्वामी सानंद व गंगा सेवा अभियानम् का भारत प्रमुख बनने के बाद तपस्या व्रत के दौरान की गईं मांगों की सूची चाहे जितनी लंबी रही हो, लेकिन मूल मांग आज भी वही है कि गंगाजी पर कोई बांध नहीं चाहिए। 23 मार्च को पुनः जलग्रहण करते वक्त उन्होंने साफ कहा था कि अब उनके पास भी ज्यादा वक्त नहीं है। वे नहीं चाहते कि आगामी प्रयाग कुंभ - 2013 में देश देवता, संत, बुजुर्ग, लोगों के पूर्वज अथवा दुनिया से आने वाले करोड़ों स्नानार्थी मल-मूत्र का क्रमशः अर्घ्य या आचमन प्राप्त करें। वह सरकार जो कुछ करना चाहे, तब तक कर ले।
यह भूलने की बात नहीं कि इस पूरे दौर में जीडी ने जो भी अनशन किए, वह कभी डिगे नहीं। उन्होंने कभी अपने प्राण बचाने की कोशिश नहीं की। बनारस में हृदयाघात के बाद से उनकी सेहत के पूरी तरह ठीक होने की गारंटी देने का जोखिम किसी डॉक्टर ने नहीं उठाया। आज भी उनके प्राण पूरी तरह संकट से बाहर नहीं है। शायद गहन चिकित्सा कक्ष में रहने का मतलब यही होता है।
जानना जरूरी है कि इतने दिनों का जलत्याग मजाक नहीं होता। असलियत यह है कि जब भी उनका अनशन लक्ष्य प्राप्ति के बगैर टूटा, उनके शुभचिंतकों ने ही उसके लिए उन्हें बाध्य किया। इससे अजीज आकर अंततः पिछली बार प्रशासन द्वारा उठाकर बनारस से दिल्ली लाये जाने का विरोध करते वक्त उन्होंने कहा भी- “जिन्हें गंगाजी के प्राणों से ज्यादा मेरे प्राणों की फिक्र है, मैं उन्हें अपना मित्र नहीं मानता।’’
मुझे नहीं मालूम कि बनारस से चलकर दिल्ली में आकर जलत्याग का इस बार का फैसला किसका था। किंतु मैं यह दावे से कह सकता हूं कि यह जीडी के दिल का फैसला नहीं हो सकता। इलाज के लिए जिस अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में भर्ती होने के लिए मरीज सिफारिश लगाते हैं, उसके गहन चिकित्सा कक्ष में रहते हुए वह बीमार हालत में भी बार-बार बाहर निकलने को बेचैन हैं। 17 अप्रैल की प्राधिकरण की बैठक का नतीजा सुनने के बाद से तो वह बेहद खफा हैं। वह अपने साथियों से बार-बार पूछ रहे हैं- मुझे यहां क्यों बांध रखा है? तुम मेरा इलाज कराने पर क्यों लगे हो? उन प्रधानमंत्री जी का इलाज क्यों नहीं कराते, जो गंगा की बीमारी का इलाज नहीं करा रहे? यदि सरकार कुछ नहीं करना चाहती, तो न करे मेरा तप तो बाधित न करे। मुझे यहां से बाहर निकालो। “आई सी यू में भी गुस्से से आगबबुला अनियंत्रित जीडी की वह किसी को भी बेचैन कर सकती थी।
खैर! मेरा मानना है कि जो लोग जीडी को करीब से जानते हैं, वे दावे से कह सकते हैं कि गंगाजी के प्रति जीडी की प्रतिबद्धता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता। वे बता सकते हैं कि गंगा अनशन के पीछे उनका कोई निजी लाभ नहीं। उनकी कोई महत्वाकांक्षा नहीं। वह किसी नदी आयोग के चेयरमैन या गंगाजी के किनारे की किसी पीठ का शंकराचार्य भी नहीं बनना चाहते। वह कोई परियोजना या पैसा भी नहीं हासिल करना चाहते। जीडी कानपुर आई आई टी के एक सेवानिवृत्त प्रतिष्ठित प्रोफेसर, एक नामी इंजीनियर हैं। वह प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के प्रथम सचिव, राष्ट्रीय नदी संरक्षण निदेशालय के सलाहकार जैसे प्रमुख पदों को शोभायमान कर चुके हैं। देश में पानी के काम की मिसाल बन चुकी तरुण भारत संघ नामक संस्था का उपाध्यक्ष रहते हुए उन्होंने राजस्थान के इलाके में पानी के काम व कार्यकर्ताओं को धार देने का जो अविस्मरणीय काम किया है, उसे गोपाल, कन्हैया से लेकर राजेन्द्र सिंह जैसे लोग बखूबी जानते हैं।
उनका कद इन पदों से आज भी बहुत ऊंचा है। उन्होंने सेवानिवृत्ति के बाद घर बैठने या किसी कंपनी की कंसल्टेंसी करने की बजाय चित्रकूट के एक सादे से कमरे में अपने स्टोव व तवे के साथ रहते हुए अवैतनिक शिक्षाकार्य करना बेहतर समझा। वे इस अवस्था में भी अपने आने-जाने के लिए किसी कार की प्रतीक्षा नहीं करते। वे जिद करके कष्ट सहते हुए साधारण बस-ट्रेन से या पैदल जाना पसंद करते हैं। उन्होंने अपनी कमाई निजी संपत्ति से भी कभी कोई मोह नहीं रखा।
अपने सिंद्धांतों की स्वयं पालना करने में उनका रुख इतना कड़ा है कि कई बार इससे उनके अपने भी परेशान हो उठते हैं। वह अगर-मगर, किंतु-परंतु पर विश्वास नहीं करते। इस दृढ़ता व खुद्दारी की वजह से लोग उन्हें अड़ीयल, जिद्दी, रूखा और न जाने क्या-क्या कहते हैं। किंतु सच यही है कि जीडी एक दृढ़निश्चयी इंसान हैं। वह परिणाम अथवा समर्थन जुट जाये, परिस्थितियां अनुकूल हो जायें की प्रतीक्षा करते हुए अपने निर्णय को पलटने वाले व्यक्ति नहीं हैं। उनके निर्णय को कुछ समय के लिए किसी के अपनेपन या प्रभामंडल ने प्रभावित भले ही कर दिया हो, लेकिन गंगाजी पर पहले अनशन से लेकर आज तक उन्होंने किसी की प्रतीक्षा नहीं की। वह अकेले ही चले थे। आज भी वह गंगाजी के लिए अपने निर्णय को क्रियान्वित करने में किसी की प्रतीक्षा न करते, बशर्ते संगठन की बंधन से न बंधे होते।
यह जीडी की प्रतिबद्धता ही है कि एक राष्ट्र के प्रधानमंत्री ने खुली बैठक में अधिकारिक तौर पर कहा ही कि जीडी को सुने बिना प्राधिकरण कोई निर्णय नहीं करेगा। अतः गंगाजी के लिए जीडी की प्रतिबद्धता पर सवाल उठाने का हक किसी को भी नहीं है; खासकर मेरे जैसे को तो बिल्कुल नहीं, जिसने गंगाजी के लिए एक दिन का भी जलत्याग न किया हो। क्या आपको है?
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