नदी नहीं गधेरे
बड़े बांधों के खिलाफ नारा ‘गंगा को अविरल बहने दो, गंगा को निर्मल रहने दो’ यह दो दशक पुराना नारा है। पुराना संघर्ष तो पानी पर लिखा इतिहास हो चुका है। उसको समझने के लिए ‘पानी की दृष्टि’ चाहिए। पुराना तो छोड़िए नए में देश के उत्तर पूर्व के एक राज्य असम के लखीमपुर जिले में निर्माणाधीन लोअर सुबानसिरी को वहां के जनसंगठनों की तरफ से नवम्बर-दिसम्बर 2011 से हजारों की संख्या में चक्का जाम कर बांध निर्माण को रोक दिया गया है।
भागीरथी, धौलीगंगा, ऋषिगंगा, बालगंगा, भिलंगना, टोंस, नंदाकिनी, मंदाकिनी, अलकनंदा, केदारगंगा, दुग्धगंगा, हेमगंगा, हनुमानगंगा, कंचनगंगा, धेनुगंगा आदि ये वो नदियां हैं जो गंगा की मूल धारा को जल देती हैं या देती थीं। देती थीं इसलिए कहना पड़ रहा है कि गंगा को हरिद्वार में आने से पहले 27 प्रमुख नदियां पानी देती थीं। जिसमें से 11 नदियां तो धरा से ही विलुप्त हो चुकी हैं और पांच सूख गई हैं। और ग्यारह के जलस्तर में भी काफी कमी हो गई है। यह हाल है देवभूमि उत्तराखंड में गंगा और गंगा के परिवार की। नदी निनाद कर बहती है। उसके तीव्र वेग के कारण ही वह नदी कहलाती है। यदि किसी धारा में कलकल और उज्जवल जल नहीं तो वह उत्तराखंड में गधेरा कहा जाता है उसको नदी का दर्जा प्राप्त नहीं होता।‘रन ऑफ द रिवर’ प्रोजेक्ट के सोच पर आधारित सैकड़ों बांध नदियों को नदी के बजाय गधेरे बनाने में लगे हुए हैं। नदियों को मोड़-मोड़ करके बार-बार सुरंगों में और झीलों में प्रवाहित किये जाने के कारण नदियों की जलगुणवत्ता काफी खराब होने लगी है।
देवप्रयाग के बाद अलकनंदा, मंदाकिनी, भागीरथी, विष्णुगंगा कई नदियां मिलकर गंगा नाम से जानी जाती हैं। गंगा को गंगा बनाने वाली किसी भी धारा को बाधित करने वाली परियोजना की बात ही ‘गंगा के वर्तमान आन्दोलन’ में बातचीत के केन्द्र में हैं।
शिकायत है
यह शिकायत है कि गंगा के वर्तमान आंदोलन के कुछ प्रमुख नेता गंगा से बाहर किसी नदी पर बात नहीं करना चाहते। यहां तक की खुद यमुना के बारे में भी नहीं। जबकि वह प्रयाग के संगम पर अपना सारा पानी गंगा को दे देती है। ‘गंगा के वर्तमान आंदोलनकारियों’ का मानना है कि गंगा को राष्ट्रीय प्रतीक के तौर पर बचाया जाय। तो फिर ऐसे में यह सवाल उठता है कि कृष्णा, कावेरी, नर्मदा, ब्रह्मपुत्र सहित हजारों-हजार नदियां क्या ये राष्ट्रीय प्रतीक नहीं होनी चाहिए। उनकी अविरलता पर्यावरणीय प्रवाह और जल की गुणवत्ता की बात करने वाले भी जीडी का ही काम कर रहे हैं। सबको समझने की जरूरत है कि वो कोई गुनाह नहीं कर रहे हैं।
नर्मदा की लड़ाई ने सरकारों की बांध-नीति को बेपर्दा कर दिया था। बड़े बांधों के खिलाफ नारा ‘गंगा को अविरल बहने दो, गंगा को निर्मल रहने दो’ यह दो दशक पुराना नारा है। पुराना संघर्ष तो पानी पर लिखा इतिहास हो चुका है। उसको समझने के लिए ‘पानी की दृष्टि’ चाहिए। पुराना तो छोड़िए नए में देश के उत्तर पूर्व के एक राज्य असम के लखीमपुर जिले में निर्माणाधीन लोअर सुबानसिरी को वहां के जनसंगठनों की तरफ से नवम्बर-दिसम्बर 2011 से हजारों की संख्या में चक्का जाम कर बांध निर्माण को रोक दिया गया है। लेखिका रोमा बताती हैं कि यह बांध असम और अरुणाचल प्रदेश की सीमा में ब्रह्मपुत्र नदी के ऊपर बनाया जा रहा है जो कि अपने विकराल रूप के लिए सदियों से जानी जाती है। 14 जनवरी 2012 को असम की सत्तारूढ़ कांग्रेस सरकार द्वारा आंदोलनकारियों को तितर बितर करने के लिए गोली चलाई गई जिसमें 15 लोग घायल हो चुके हैं। लेकिन इसके बावजूद भी आंदोलन अभी तक थमा नहीं है।
और यही तारीख 14 जनवरी 2012 थी जब गंगा को स्वच्छ बनाने के संकल्प के साथ जीडी की गंगा तपस्या शुरू हुई थी। क्या इन दोनों तरह के, दो धाराओं की तरह के नदी रक्षा आन्दोलनों में कोई संगम हो सकता है। यदि आप सभी नदी आन्दोलनों में कोई संगम नहीं कर सकते तो गंगा को तार नहीं पाएंगे।
इसके बावजूद गंगा के चाहनेवालों के प्रति अन्य नदियों पर काम कर रहे लोगों का प्यार कम नहीं हो जाता। अन्य नदियों पर काम कर रहे लोग तो इसे प्रस्थान बिन्दु मान रहे हैं। उनका कहना है कि एक बार शुरूआत तो हो। इसीलिए देश के कई हिस्सों से भी जीडी के समर्थन में कार्यक्रमों की खबरें आ रही हैं।
मांग और मांगपत्र
गंगा के वर्तमान आंदोलन के इस गंभीर मोड़ पर जहां जीडी अग्रवाल जीवन और मौत के बीच पहुंच चुके हैं और जिन मांगों के लिए उन्होंने यह आमरण अनशन का संकल्प किया है सब जानते हैं कि यह जीडी की जिद है, जीडी की जिद ही वर्तमान गंगा आन्दोलन का मांगपत्र है,
1. पंचप्रयागों की निर्मात्री अलकनंदा गंगा, विष्णु-गंगा, नंदाकिनी गंगा और मंदाकिनी गंगा जी पर निर्माणाधीन सभी परियोजनाएं तत्काल बंद/निरस्त हों। भविष्य में भी राष्ट्रीय नदी (अलकनंदा, भागीरथी और मंदाकिनी की मूलधाराओं सहित गंगासागर तक की मूलधारा) पर अविरलता भंग करने वाली कोई परियोजना न हों।
2. नरौरा से प्रयाग तक हर बिंदु पर, हर समय सदैव 100/1000 घनमीटर/सेकेंड से अधिक प्रवाह रहे। माघमेला, कुंभ तथा पर्व-स्नानों पर न्यूनतम 200 घनमीटर/सेकेंड प्रवाह रखा जाये।
3. गंगाजी के नाम पर ऋण लेकर विभिन्न प्रकार के नगर उन्नयन कार्यों पर धन लुटाने/बांटने पर रोक लगे, चल रहे कार्यों को तुरंत बंद किया जाये और उनकी गहन समीक्षा हो। समीक्षा परियोजनाओं द्वारा गंगाजी को होने वाले लाभ की दृष्टी से हो।
4. विषाक्त रसायनों से प्रदूषित अवजल गंगाजी में या उनमें गिरने वाले नदी-नालों में डालने वाले उद्योगों को गंगाजी से कम से कम 50 किमी. दूर हटाया जाये। सुनिश्चित हो कि उनका अवजल प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी रूप में गंगा जी में न जाए।
5. गंगाजी को संवैधानिक रूप से राष्ट्रीय-नदी घोषित करने, पदोचित सम्मान देने और प्रबंधन के लिये समुचित, सक्षम, सशक्त बिल संसद द्वारा पारित हो।
यह मांग पत्र और खूबसूरत हो जाता जब इसमें अन्य नदियों के बारे में भी कोई नीति की बात होती। गंगा और उसकी सहायक नदियों के ‘कैचमेंट एरिया’ में किसी भी किस्म के बांध, व्यावसायिक गतिविधियां, मिट्टी का कटाव इस पूरे मांग पत्र के हिस्से होते। गंगा और उसके सहायक नदियों के घाटी में बचे-खुचे जंगल जो गंगा और उसकी गंगाओं को पानी देने का काम करते हैं वे भी मांग पत्र में शामिल होते।
सिविल इंजीनियर से सन्यास तक का सफर
1932 में जन्मे जीडी अग्रवाल का कांधला, मुजफ्फरनगर (उ.प्र.) जन्म स्थान है। जीडी अग्रवाल की पढ़ाई-लिखाई आइआइटी रुड़की से सिविल इंजीनियरिंग में हुई है। इन्वायरमेंटल इंजीनियरिंग में डॉक्टरेट की उपाधि कैलिफॉर्निया विश्वविद्यालय से प्राप्त की। उत्तर प्रदेश के सिंचाई विभाग में डिजाइन इंजीनियर के तौर पर अपनी नौकरी की शुरूआत की। बाद में आइआइटी कानपुर में पढ़ाने लगे।
सिंचाई विभाग में डिजाइन इंजीनियर का काम बड़ी बांध परियोजनाओं के डिजाइन करना, नहरी व्यवस्था को बढ़ाना आदि जीडी अग्रवाल के काम का क्षेत्र था। ‘टिहरी डैम स्टडी कमेटी’ का एक झगड़ा कुछ लोग बार-बार याद करते हैं। टिहरी डैम पर काफी विवाद के बाद डॉ. मुरली मनोहर जोशी के अध्यक्षता में बनी इस कमेटी के बांध की ऊंचाई पर एक विवाद में जीडी अग्रवाल ने कहा था कि बांध की ऊंचाई बढ़ाने से गंगाजल की गुणवत्ता में कोई फर्क नहीं आयेगा।
सरकार के ‘नेशनल वॉटर एकेडमी’ के कुछ इंजीनियर कहते हैं कि बांधों का निर्माण रोकने के नाम पर काफी ड्रामा हो रहा है। जो लोग आज विरोध कर रहे हैं पूर्व में जब वो सरकार में थे तब बांधों का डिजाइन तैयार करते थे।
13 जून 2008 को जीडी का पहला अनशन गंगा बचाने को लेकर हुआ था। क्या उसके बाद से आइआइटी वाले जीडी का सन्यासी जीडी के रूप में रूपांतरण सचमुच हो गया है, यह सवाल तो भविष्य के गर्भ में है। फिलहाल तो काशी, उत्तरकाशी, और भ्रष्टाचार की गंगोत्री दिल्ली के बीच सरकारें जीडी को घुमा रही हैं। वाराणसी में जल त्याग कर चुके जीडी की तबीयत बिगड़ने पर जबरी दिल्ली एम्स में भर्ती कराया गया है।
कबिरा खड़ा बाजार में सबकी मांगे खैर।
‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ ।।
कबीर के ये शब्द भगवान शिव की नगरी और भारत की सांस्कृतिक राजधानी वाराणसी को ठीक से परिभाषित करते हैं। वाराणसी की धरती को प्रो. जीडी अग्रवाल (स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद) ने गंगा प्रवाह को सुनिश्चित कराने के लिए चुना है। ऐसे में जिद के पक्के जीडी को कबीर की बानी ताकत देती होगी।
जल में कुम्भ, कुम्भ में जल है, बाहिर भीतर पानी।
फूटा कुम्भ जल जलहि समाना, यहु तत कथो गियानी।।
मौत का भय जीडी की शब्दकोश से निकल चुका है। शरीर रूपी कुम्भ का अधूरापन तब तक रहता है, जब तक मृत्यु का भय हो। पता चल जाए कि अंदर-बाहर सब एक ही पानी है तो क्या फर्क पड़ता है। जब यह ज्ञान हो जाए तब मृत्यु बंधनकारी नहीं रह जाती, वह केवल पड़ाव रह जाती है। चोला पहनने और छोड़ने का उत्सव रह जाती है। जीडी को देखने पर इस उत्सव के दर्शन होते हैं।
बहती गंगा में हाथ न धोएं
शुबहा है कि विश्व जल दिवस के सुबह पूरा हुए इस आलेख के छपने तक कोई न कोई ‘बीच का रास्ता’ निकाल लिया जाएगा। जीडी की जिद में हालांकि कोई लोचा नहीं है। पर ऐसे कुछ लोग हैं जो गंगा से ज्यादा जीडी के जीवन को महत्वपूर्ण मानते हैं और वे बीच का रास्ता निकालना चाहते हैं पर मित्रों याद रखना होगा कि ‘बीच का रास्ते’ से कोई गंगा नहीं निकलती। कृपया करके बहती गंगा में हाथ न धोएं।
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