जी उठा गांव

अपर्णा पल्लवी

ढांघरवाड़ी में कुछ समय में ही जमीन की कीमतें 6 हजार रु. प्रति एकड़ (0.4 हेक्टेयर) से 1 लाख रू प्रति एकड़ पर पहुंच गई। लेकिन महाराष्ट्र के यवतमाल जिले के छोटे से गांव के लोग फिर भी अपनी जमीनें बेचने को तैयार नहीं हैं। वजह, बिल्कुल साफ है- इसका 70 हेक्टेयर कृषि भूमि, जिस पर मुश्किल से ही तीन महीने के लिए अनाज पैदा होता था, उसी पर इस बार 21 लाख का मुनाफा हुआ- ढांघरवाड़ी की जमीन पर अनाज, दालें और प्याज आदि उगाकर।

किसान जग्गू केंगर ने बताया, अभी दो साल पहले तक हम घर के इस्तेमाल के लिए भी प्याज खरीदा करते थे लेकिन इस साल तो हमने 36 ट्रक बाजार में भेजे। बदलाव की वजह बड़ी साधारण सी है। स्थानीय लोगों ने, एक स्थानीय गैर-सरकारी संगठन दिलासा के साथ मिलकर गांव के पास के एक तालाब से पानी लेने के लिए दो चैक डैम बनाए। यह तालाब 1972 से बेकार पड़ा हुआ था, तालाब को फिर से जीवित करने पर 4 लाख की लागत आई। 44 हेक्टेयर जमीन की सिंचाई हो गई और उत्पादकता में एक उछाल आया। गांव की ही एक महिला रूकमाबाई अहीर ने बताया, ''यह तालाब यहां बहुत पहले से था, लेकिन जब भी बरसात होती तो पानी सारी मिट्टी बहा ले जाता था।''

100 परिवारों के इस गांव ने अद्भुत सफलता पाई। यह गांव ऐसे जिले में है जहां अक्सर सूखा पड़ता है। यहीं महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा किसानों की आत्महत्याएं हुई हैं। दिलासा के प्रतिनिधियों का कहना है कि गांव वालों की सफलता को गांव में आकर आसानी से महसूस किया जा सकता है।

''सरकारी आंकड़ों के मुताबिक यवतमाल में 580 तालाबों से 25,190 हेक्टेयर में सिंचाई होती है लेकिन सच्चाई यह है कि 1,000 हेक्टेयर से ज्यादा क्षेत्र पर सिंचाई नहीं होती'', संस्था के मधुकर दास ने बताया। उन्होंने आगे कहा, जल परिवहन संरचनाओं की कमीं की वजह से कुछ तालाबों का प्रयोग नहीं हो पा रहा है और कुछ दूसरे तालाबों का पानी पीने योग्य नहीं हैं दास का कहना है कि इन 580 तालाबों से पानी का दोहन करके मात्र 8000-10,000 रू प्रति हेक्टेयर की लागत से एक ही मौसम में 25,000 हेक्टेयर जिले की 70 फीसदी कृषि भूमि की सिंचाई की जा सकती है जबकि सिंचाई की 16 बड़ी-छोटी परियोजनाओं से मिलकर 1.30 लाख रू प्रति हेक्टेयर की लागत से मात्र 4 से 5 फीसदी कृषि भूमि की सिंचाई की जा रही है।

उत्पत्ति- ढांगरवाड़ी के ज्यादातर बाशिंदे भेड़-पालन करने वाले खानाबदोश ढांगर समुदाय के लोग हैं जिनके पास औसतन 1.2 हेक्टेयर (3 एकड़) जमीन है। सब लोग लगभग 9 महीने तक गांव से बाहर रहते हैं। केवल मानसून के दौरान ज्वार और कपास की खेती के लिए वापिस लौटते हैं। रूकमाबाई का कहना है, ''बारिश के पानी को रोकने के लिए हमने मिट्टी का चैक डैम बनाया, लेकिन उससे कुछ नहीं हुआ, इससे 2.5 हेक्टेयर से ज्यादा की सिंचाई नहीं होती और तेज बारिश आने पर ढह जाता है।'' सिंचाई विभाग में जो भी प्रार्थनाएं की गई, उन सबको दरकिनार कर दिया गया।

46,000 छोटे जलाशयों के प्रबंधन से महाराष्ट्र में सूखे पर काबू

2006 में गांव जल समिति के प्रमुख भगवान केंगर दिलासा पहुंचे। गांव से 1 रू के योगदान और अन्य एजेंसियों की सहायता से तालाब से पानी के बहाव को रोकने के लिए दो चैक-डैम बनाए गए। मोटर पंप के जरिए पानी निकालने के काम को रोकने के लिए स्थानीय रेहट सिंचाई काम को बढ़ावा दिया गया और खेतों में पानी लाने के लिए, जमीन के किनारे फड और नहरें खोदी गईं।

लचीली व्यवस्था

ग्रामीणों के अनुसार फड व्यवस्था के कई लाभ हैं । इसे गांव के लोग बिना किसी सहायता के बना भी सकते हैं और मरम्मत भी कर सकते हैं। चैनल छोटे और जमीन के तरफ होने की वजह से पानी के बहाव को धीमा कर देते हैं जिससे भूमि का क्षरण भी कम होता है और पानी भी भूमि के अन्दर आसानी से पहुंच जाता है।
 

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