जल्द मुनाफा कमाने के चक्कर में फलों को कार्बाइड से पकाया जाता है। आम और पपीते में कार्बाइड बहुतायत में प्रयोग किया जाता है। केले पकाने में क्लोरोथाइल फास्फोनिक एसिड का प्रयोग कर उसे जहरीला बना दिया गया है। इस प्रकार सब्जियों और फलों के छिलकों में घुला कीटनाशक हमारे शरीर में पहुँच रहा है। दुधारू पशुओं के स्तनों में आक्सीटोक्सिन सुई लगाकर दूध निकाला जा रहा है जो हारमोन्स असन्तुलन, गुर्दे की खराबी, कैंसर और बच्चों में मानसिक विकृतियाँ पैदा कर रहा है। रसायनों, खरपतवार नाशकों और कीटनाशकों के अन्धाधुन्ध प्रयोग के चलते हमारे सभी खाद्य पदार्थ विषैले हो रहे हैं। यहाँ बात पेयपदार्थों की नहीं की जा रही है बात हर घर में प्रयोग किए जाने वाले फलों, सब्जियों, मांस-मछलियों, दूध और अन्य सभी खाद्य पदार्थों की जा रही है। कोक पेप्सी पर तो कई बार अंगुलियाँ उठीं, कुछ दिन तक हाय तौबा मचा और स्थिति जहाँ के तहाँ।
अपने देश में अब तक लगभग 190 प्रकार के रसायनों, कीटनाशकों और फफून्दनाशकों का पंजीयन हुआ है जिनमें से केवल 50 दवाओं की बर्दाश्त क्षमता से हम भिज्ञ हैं। शेष के बारे में हम अब भी अन्धेरे में हैं। इनके अलावा नकली दवाओं की लम्बी सूची है। हमारा ड्रग्स एण्ड कास्मेटिक एक्ट 1940 नकली दवा बनाने वालों के प्रति कठोर है। शायद इसलिए मासेलकर समिति की सिफारिश पर संसद के आगामी बजट में संशोधन विधेयक लाने की तैयारी हो रही है।
डी.डी.टी., बी.एच.सी., इण्डोसल्फान, डेल्डीन जैसे रसायन कृषि एवं स्वास्थ्य क्षेत्र में धड़ल्ले से प्रयोग किए जा रहे हैं, जो बाहर प्रतिबन्धित हैं। अपने देश में कुछ 40 ऐसी दवाएँ हैं जो कृषि क्षेत्र में प्रयोग में लाई जा रही हैं, विदेशों में प्रतिबन्धित हैं। हमारे देश में कीटनाशकों का प्रयोग जिस प्रकार लापरवाही से किया जा रहा है उससे न केवल प्रयोगकर्ता के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है,अपितु हवा, पानी और सभी प्रकार के खाद्य पदार्थ विषैले हो रहे हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार माँ के दूध में डी.डी.टी. की मात्रा मनुष्य के शरीर के लिए निर्धारित सामान्य मात्रा से 77 गुना अधिक हो चुकी है। ऐसा नहीं है कि हमारे लिखित मानक कमजोर हैं, कुुछ रसायनों, धातुओं के मामलों में यूरोपीय देशों की तुलना में यह ज्यादा कठोर हैं। पर मानकों का अनुपालन या निगरानी न होने के कारण कम्पनियाँ लापरवाह बनी हुई हैं।
जैसे कि डिब्बा बन्द पेयजल के लिए भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा प्रति लीटर पानी में ताम्बे की मात्रा 0.5 मिली ग्रा., फ्लोराइड की 1 मिग्रा. और सल्फेट की 200 मिग्रा. तय की गई है। जबकि यूरोपीय देशों में ताम्बे की मात्रा 2 मिग्रा. फ्लोराइड की 1.5 मिली ग्रा. और सल्फेट की 250 मिली ग्रा. तय की गई है। इसके बावजूद तमाम मानकों का, बोतल बंद पानी वाली कम्पनियाँ अनदेखी करती रही हैं।
कीटनाशकों के प्रयोग के कारण सिंचाई में प्रयुक्त पानी विषैला हो रहा है। यही विषैला पानी भूगर्भ के पानी को विषैला कर रहा है। पानी के विषैले होने के कारण जमीन की उर्वरता घट रही है। पानी में जहर घुलने के कारण उसमें रहने वाले तमाम उपयोगी जीव-जन्तु जैसे घोंघा, सीप, मेंढक और छोटी-छोटी मछलियों की प्रजातियाँ हमेशा के लिए समाप्त हो रही हैं।
कुछ जीव-जन्तु ऐसे होते हैं जो हानिकारक कीड़ों को खाकर हमें लाभ पहुँचाते हैं पर रसायनों के अन्धाधुन्ध प्रयोग से ऐसे जीव समाप्त हो रहे हैं। गाँव से सम्बन्ध रखने वाले इस तथ्य से भिज्ञ हैं कि बरसाती पानी में, नदी-नाले या तालाबों में जो सैकड़ों प्रकार की छोटी मछलियाँ देखी जाती थीं, वे लुप्त हो गई हैं।
राष्ट्रीय मानक ब्यूरों के वैज्ञानिकों ने अभी हाल में गोमती नदी की मछलियों की जाँच में पाया कि कारखाने के विषैले कचरे और गन्दे नालों के रासायनिक अवशेषों के गोमती नदी में मिलने के कारण मछलियों का डी.एन.ए. खतरे में पड़ गया है। विगत् दो-तीन वर्षों से गर्मियों के दिनों में गोमती नदी की मछलियाँ अपने आप मरी देखी जा रही हैं। घरों में फुदकने वाली गौरैया लुप्त होने के कगार पर हैं।
जाहिर है कि पशु-पक्षी भी विषैले खाद्य पदार्थों और वनस्पतियों को खा रहे हैं। डिक्लोफनक नामक दवा से जानवरों के मांस जहरीले हो गए हैं। मृत जानवरों के मांस खाने से गिद्धों के गुर्दे नष्ट हो गए। इसका परिणाम यह हुआ कि अब गिद्ध लुप्त हो गए हैं। वन शोध संस्थान देहरादून के संग्रहालय से इस तथ्य की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं कि अब तक पक्षियों में से इस सदी के अन्त तक प्रति माह लगभग 10 प्रजातियाँ लुप्त होने लगेंगी। अर्थात् प्रतिवर्ष 12 प्रतिशत की दर से पक्षियों की प्रजातियाँ लुप्त हो जाएँगी। हमारे देश के ज्यादातर किसान अशिक्षित हैं।
तमाम कीटनाशकों की खरीद और प्रयोग वे दूसरे किसानों से पूछकर करते हैं। कृषि अधिकारियों की सेवाएँ गाँव-गाँव में उपलब्ध नहीं हैं, बिना जाँचे परखे कीटनाशकों का चयन किया जाता है। पानी और उनमें मिलाए जाने वाले कीटनाशकों की मात्रा उचित मात्रा में नहीं रखी जाती है। दवाओं के साथ दिए गए निर्देशों को ज्यादातर किसान पढ़ नहीं पाते। अन्दाज से घोल तैयार किए जाते हैं। छिड़काव के दौरान जरूरी सावधानियाँ नहीं बरती जातीं हैं। सब्जियों के ऊपर कीटनाशकों को छिड़कने के कितने दिनों के बाद बाजार में लाया जाना चाहिए, इसका ख्याल नहीं रखा जाता।
किसान को अपना मुनाफा या अपनी आवश्यकता जरूरी लगती है न कि दूसरे का स्वास्थ्य। फलों को प्राकृतिक ढंग से पकने नहीं दिया जाता है।
जल्द मुनाफा कमाने के चक्कर में उन्हें कार्बाइड से पकाया जाता है। आम और पपीते में कार्बाइड बहुतायत में प्रयोग किया जाता है। केले पकाने में क्लोरोथाइल फास्फोनिक एसिड का प्रयोग कर उसे जहरीला बना दिया गया है। इस प्रकार सब्जियों और फलों के छिलकों में घुला कीटनाशक हमारे शरीर में पहुँच रहा है। दुधारू पशुओं के स्तनों में आक्सीटोक्सिन सुई लगाकर दूध निकाला जा रहा है जो हारमोन्स असन्तुलन, गुर्दे की खराबी, कैंसर और बच्चों में मानसिक विकृतियाँ पैदा कर रहा है।
यद्यपि पशुक्रूरता निवारण अधिनियम 1960 की धारा 12 के अनुसार यह अपराध है, फिर भी ऐसे अपराधों को प्रायः होते हुए देखा जा सकता है। इण्डियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने 2250 गायों और भैंसों के दूध का परीक्षण करने पर पाया कि 85 प्रतिशत जानवरों में कीटनाशकों की मात्रा भारतीय ब्यूरो द्वारा निर्धारित मात्रा से ज्यादा है।
खाद्य पदार्थों में कीटनाशकों की अधिकता के कारण हमारा निर्यात प्रभावित हो रहा है। जर्मनी ने भारतीय चाय में कीटनाशकों की मात्रा ज्यादा होने के कारण आयात पर रोक लगा दी है। वर्ष 2004 में महाराष्ट्र के अंगूरों में ज्यादा मात्रा में कीटनाशक पाए जाने पर जापान ने अंगूर लदा जहाज लौटा दिया।
सब्जियों को ताजा या हरा दिखाने के लिए दुकानदार उन्हें हानिकारक कृत्रिम रंगों से रंग रहे हैं। शहरी क्षेत्रों के आसपास सीवर, प्रदूषित नदी नालों के गन्दे पानी से तथा औद्योगिक कचरे पर उगने वाली सब्जियों में हानिकारक पदार्थ मौजूद होते हैं।
इसलिए कच्चा सलाद जो कभी स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता था अब हानिकारक हो गया है। कीटनाशक बनाने वाली कम्पनियों के दबाव में सुलभ और सस्ती खेती को हतोत्साहित किया जा रहा है। कुतर्क यह दिया जाता है कि विश्व की तुलना में भारत में केवल 2 प्रतिशत कीटनाशकों का प्रयोग होता है। जबकि खाद्यान्न उत्पादन में भारत का हिस्सा 16 प्रतिशत है। इन तथ्यों को नजरअन्दाज किया जाता है कि विदेशी कम्पनियाँ कुप्रभावों सेे अनभिज्ञ हैं।
देश की 6 फसलों में कुल 81 प्रतिशत कीटनाशकों का प्रयोग होता है जिनमें से कपास में 32 प्रतिशत, धान में 23 प्रतिशत, सब्जियों में 9 प्रतिशत, दालों में 6 प्रतिशत, मिर्च में 5 प्रतिशत और वृक्षारोपण में 6 प्रतिशत कीटनाशकों का प्रयोग होता है। आन्ध्र प्रदेश में सबसे ज्यादा कीटनाशकों का प्रयोग होता है। इसके बाद पंजाब में 16.2 प्रतिशत, महाराष्ट्र एवं कर्नाटक में 8 प्रतिशत तथा हरियाणा में 7 प्रतिशत कीटनाशकों का प्रयोग होता है।
खेती-बाड़ी में कीटनाशकों और खरपतवार नाशकों के अन्धाधुन्ध प्रयोग के कारण हमारे देश में गुर्दे, त्वचा, बाँझपन, अल्सर और कैंसर की बीमारियाँ तेजी से बढ़ी हैं। इसलिए जरूरी है अविलम्ब खेती को बढ़ावा देने की। नीम, राख और तम्बाकू में कीटनाशक गुण पाए जाते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने तम्बाकू और लहसुन के पानी का प्रयोग कर फसलों को कीड़ों से बचाना शुरू कर दिया है।
बहरहाल, जब तक किसानों को प्रशिक्षित कर सुरक्षित और नियन्त्रित तरीके से कीटनाशकों के प्रयोग करने की हिदायत तो दी ही जानी चाहिए जिससे हम अपने और अपनी पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित रख सकें एवं आगे एक स्वस्थ्य भारत की कल्पना कर सकें।
(लेखक ब्रह्मानन्द कृषि महाविद्यालय हमीरपुर में रिसर्च स्कालर हैं)
ई-मेल : nkverma1061@rediffmail
अपने देश में अब तक लगभग 190 प्रकार के रसायनों, कीटनाशकों और फफून्दनाशकों का पंजीयन हुआ है जिनमें से केवल 50 दवाओं की बर्दाश्त क्षमता से हम भिज्ञ हैं। शेष के बारे में हम अब भी अन्धेरे में हैं। इनके अलावा नकली दवाओं की लम्बी सूची है। हमारा ड्रग्स एण्ड कास्मेटिक एक्ट 1940 नकली दवा बनाने वालों के प्रति कठोर है। शायद इसलिए मासेलकर समिति की सिफारिश पर संसद के आगामी बजट में संशोधन विधेयक लाने की तैयारी हो रही है।
डी.डी.टी., बी.एच.सी., इण्डोसल्फान, डेल्डीन जैसे रसायन कृषि एवं स्वास्थ्य क्षेत्र में धड़ल्ले से प्रयोग किए जा रहे हैं, जो बाहर प्रतिबन्धित हैं। अपने देश में कुछ 40 ऐसी दवाएँ हैं जो कृषि क्षेत्र में प्रयोग में लाई जा रही हैं, विदेशों में प्रतिबन्धित हैं। हमारे देश में कीटनाशकों का प्रयोग जिस प्रकार लापरवाही से किया जा रहा है उससे न केवल प्रयोगकर्ता के स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ रहा है,अपितु हवा, पानी और सभी प्रकार के खाद्य पदार्थ विषैले हो रहे हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार माँ के दूध में डी.डी.टी. की मात्रा मनुष्य के शरीर के लिए निर्धारित सामान्य मात्रा से 77 गुना अधिक हो चुकी है। ऐसा नहीं है कि हमारे लिखित मानक कमजोर हैं, कुुछ रसायनों, धातुओं के मामलों में यूरोपीय देशों की तुलना में यह ज्यादा कठोर हैं। पर मानकों का अनुपालन या निगरानी न होने के कारण कम्पनियाँ लापरवाह बनी हुई हैं।
जैसे कि डिब्बा बन्द पेयजल के लिए भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा प्रति लीटर पानी में ताम्बे की मात्रा 0.5 मिली ग्रा., फ्लोराइड की 1 मिग्रा. और सल्फेट की 200 मिग्रा. तय की गई है। जबकि यूरोपीय देशों में ताम्बे की मात्रा 2 मिग्रा. फ्लोराइड की 1.5 मिली ग्रा. और सल्फेट की 250 मिली ग्रा. तय की गई है। इसके बावजूद तमाम मानकों का, बोतल बंद पानी वाली कम्पनियाँ अनदेखी करती रही हैं।
कीटनाशकों के प्रयोग के कारण सिंचाई में प्रयुक्त पानी विषैला हो रहा है। यही विषैला पानी भूगर्भ के पानी को विषैला कर रहा है। पानी के विषैले होने के कारण जमीन की उर्वरता घट रही है। पानी में जहर घुलने के कारण उसमें रहने वाले तमाम उपयोगी जीव-जन्तु जैसे घोंघा, सीप, मेंढक और छोटी-छोटी मछलियों की प्रजातियाँ हमेशा के लिए समाप्त हो रही हैं।
कुछ जीव-जन्तु ऐसे होते हैं जो हानिकारक कीड़ों को खाकर हमें लाभ पहुँचाते हैं पर रसायनों के अन्धाधुन्ध प्रयोग से ऐसे जीव समाप्त हो रहे हैं। गाँव से सम्बन्ध रखने वाले इस तथ्य से भिज्ञ हैं कि बरसाती पानी में, नदी-नाले या तालाबों में जो सैकड़ों प्रकार की छोटी मछलियाँ देखी जाती थीं, वे लुप्त हो गई हैं।
राष्ट्रीय मानक ब्यूरों के वैज्ञानिकों ने अभी हाल में गोमती नदी की मछलियों की जाँच में पाया कि कारखाने के विषैले कचरे और गन्दे नालों के रासायनिक अवशेषों के गोमती नदी में मिलने के कारण मछलियों का डी.एन.ए. खतरे में पड़ गया है। विगत् दो-तीन वर्षों से गर्मियों के दिनों में गोमती नदी की मछलियाँ अपने आप मरी देखी जा रही हैं। घरों में फुदकने वाली गौरैया लुप्त होने के कगार पर हैं।
जाहिर है कि पशु-पक्षी भी विषैले खाद्य पदार्थों और वनस्पतियों को खा रहे हैं। डिक्लोफनक नामक दवा से जानवरों के मांस जहरीले हो गए हैं। मृत जानवरों के मांस खाने से गिद्धों के गुर्दे नष्ट हो गए। इसका परिणाम यह हुआ कि अब गिद्ध लुप्त हो गए हैं। वन शोध संस्थान देहरादून के संग्रहालय से इस तथ्य की जानकारी प्राप्त कर सकते हैं कि अब तक पक्षियों में से इस सदी के अन्त तक प्रति माह लगभग 10 प्रजातियाँ लुप्त होने लगेंगी। अर्थात् प्रतिवर्ष 12 प्रतिशत की दर से पक्षियों की प्रजातियाँ लुप्त हो जाएँगी। हमारे देश के ज्यादातर किसान अशिक्षित हैं।
तमाम कीटनाशकों की खरीद और प्रयोग वे दूसरे किसानों से पूछकर करते हैं। कृषि अधिकारियों की सेवाएँ गाँव-गाँव में उपलब्ध नहीं हैं, बिना जाँचे परखे कीटनाशकों का चयन किया जाता है। पानी और उनमें मिलाए जाने वाले कीटनाशकों की मात्रा उचित मात्रा में नहीं रखी जाती है। दवाओं के साथ दिए गए निर्देशों को ज्यादातर किसान पढ़ नहीं पाते। अन्दाज से घोल तैयार किए जाते हैं। छिड़काव के दौरान जरूरी सावधानियाँ नहीं बरती जातीं हैं। सब्जियों के ऊपर कीटनाशकों को छिड़कने के कितने दिनों के बाद बाजार में लाया जाना चाहिए, इसका ख्याल नहीं रखा जाता।
किसान को अपना मुनाफा या अपनी आवश्यकता जरूरी लगती है न कि दूसरे का स्वास्थ्य। फलों को प्राकृतिक ढंग से पकने नहीं दिया जाता है।
जल्द मुनाफा कमाने के चक्कर में उन्हें कार्बाइड से पकाया जाता है। आम और पपीते में कार्बाइड बहुतायत में प्रयोग किया जाता है। केले पकाने में क्लोरोथाइल फास्फोनिक एसिड का प्रयोग कर उसे जहरीला बना दिया गया है। इस प्रकार सब्जियों और फलों के छिलकों में घुला कीटनाशक हमारे शरीर में पहुँच रहा है। दुधारू पशुओं के स्तनों में आक्सीटोक्सिन सुई लगाकर दूध निकाला जा रहा है जो हारमोन्स असन्तुलन, गुर्दे की खराबी, कैंसर और बच्चों में मानसिक विकृतियाँ पैदा कर रहा है।
यद्यपि पशुक्रूरता निवारण अधिनियम 1960 की धारा 12 के अनुसार यह अपराध है, फिर भी ऐसे अपराधों को प्रायः होते हुए देखा जा सकता है। इण्डियन कौंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च ने 2250 गायों और भैंसों के दूध का परीक्षण करने पर पाया कि 85 प्रतिशत जानवरों में कीटनाशकों की मात्रा भारतीय ब्यूरो द्वारा निर्धारित मात्रा से ज्यादा है।
खाद्य पदार्थों में कीटनाशकों की अधिकता के कारण हमारा निर्यात प्रभावित हो रहा है। जर्मनी ने भारतीय चाय में कीटनाशकों की मात्रा ज्यादा होने के कारण आयात पर रोक लगा दी है। वर्ष 2004 में महाराष्ट्र के अंगूरों में ज्यादा मात्रा में कीटनाशक पाए जाने पर जापान ने अंगूर लदा जहाज लौटा दिया।
सब्जियों को ताजा या हरा दिखाने के लिए दुकानदार उन्हें हानिकारक कृत्रिम रंगों से रंग रहे हैं। शहरी क्षेत्रों के आसपास सीवर, प्रदूषित नदी नालों के गन्दे पानी से तथा औद्योगिक कचरे पर उगने वाली सब्जियों में हानिकारक पदार्थ मौजूद होते हैं।
इसलिए कच्चा सलाद जो कभी स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होता था अब हानिकारक हो गया है। कीटनाशक बनाने वाली कम्पनियों के दबाव में सुलभ और सस्ती खेती को हतोत्साहित किया जा रहा है। कुतर्क यह दिया जाता है कि विश्व की तुलना में भारत में केवल 2 प्रतिशत कीटनाशकों का प्रयोग होता है। जबकि खाद्यान्न उत्पादन में भारत का हिस्सा 16 प्रतिशत है। इन तथ्यों को नजरअन्दाज किया जाता है कि विदेशी कम्पनियाँ कुप्रभावों सेे अनभिज्ञ हैं।
देश की 6 फसलों में कुल 81 प्रतिशत कीटनाशकों का प्रयोग होता है जिनमें से कपास में 32 प्रतिशत, धान में 23 प्रतिशत, सब्जियों में 9 प्रतिशत, दालों में 6 प्रतिशत, मिर्च में 5 प्रतिशत और वृक्षारोपण में 6 प्रतिशत कीटनाशकों का प्रयोग होता है। आन्ध्र प्रदेश में सबसे ज्यादा कीटनाशकों का प्रयोग होता है। इसके बाद पंजाब में 16.2 प्रतिशत, महाराष्ट्र एवं कर्नाटक में 8 प्रतिशत तथा हरियाणा में 7 प्रतिशत कीटनाशकों का प्रयोग होता है।
खेती-बाड़ी में कीटनाशकों और खरपतवार नाशकों के अन्धाधुन्ध प्रयोग के कारण हमारे देश में गुर्दे, त्वचा, बाँझपन, अल्सर और कैंसर की बीमारियाँ तेजी से बढ़ी हैं। इसलिए जरूरी है अविलम्ब खेती को बढ़ावा देने की। नीम, राख और तम्बाकू में कीटनाशक गुण पाए जाते हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों ने तम्बाकू और लहसुन के पानी का प्रयोग कर फसलों को कीड़ों से बचाना शुरू कर दिया है।
बहरहाल, जब तक किसानों को प्रशिक्षित कर सुरक्षित और नियन्त्रित तरीके से कीटनाशकों के प्रयोग करने की हिदायत तो दी ही जानी चाहिए जिससे हम अपने और अपनी पीढ़ियों का भविष्य सुरक्षित रख सकें एवं आगे एक स्वस्थ्य भारत की कल्पना कर सकें।
(लेखक ब्रह्मानन्द कृषि महाविद्यालय हमीरपुर में रिसर्च स्कालर हैं)
ई-मेल : nkverma1061@rediffmail
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Post By: Shivendra