पानी यात्रा-4 संस्मरण
सागर तालाब-मांडव का सबसे बड़ा तालाब माना जाता है। पहाड़ी मीराबाई की जिरात से नीचे जाकर फालतू बह जाने वाले पानी का संरक्षण करने के लिये ही तालाब का निर्माण किया गया होगा। इसके चारों ओर सीढिय़ाँ बनी हुई थीं, जिनके अवशेष अभी भी देखे जा सकते हैं। इस तालाब के पानी का उपयोग आज भी मांडव में जल आपूर्ति के लिये किया जाता है। यह सदानीर है। बरसात के दिनों में इसमें 28 फीट पानी भरा रहता है। इस तालाब के सामने एक और जल संरचना है। इसे 'सागरी’ कहा जाता है।मीराबाई के जिरात वाली पहाड़ी के कुछ भाग तथा सागर तालाब के ओवर-फ्लो का पानी- यहाँ एकत्रित हो जाता है। इसके अलावा सागर तालाब की रिसन का पानी भी यहीं आता है। अर्थात, व्यवस्था ऐसी की गई थी कि इस क्षेत्र में आई बरसात की बूँदें-कभी भी फालतू बहकर न चली जाएँ। उन्हें हर कीमत पर... थोड़ी-थोड़ी दूरी पर रुकने की मनुहार करना है। सागर तालाब से आगे थोड़ी दूरी पर ही दरियाव खान का मकबरा बना हुआ है। दरियाव खान मेहमूद खिलजी (द्वितीय) के समय उच्च पद पर आसीन था। लाल पत्थर से निर्मित इस इमारत को स्थापत्य कला की अद्वितीय मिसाल कहा जा सकता है। इस मकबरे के पास ही जल संरक्षण की एक सुंदर संरचना है। इस कुण्ड में भरी गर्मी में भी पानी के दीदार किए जा सकते हैं। इसमें नीचे उतरने की बेहतरीन सीढिय़ाँ बनी हुई हैं। आर्चेस हैं। इनमें प्रकाश परावर्तक पत्थर लगाए गए हैं। इस कुण्ड को लोग 'समौती कुण्ड’ के नाम से जानते हैं।
इस कुण्ड के पास ही सराय भी बनी हुई है। यहाँ भी छतों पर बूँदों को नालियों के सहारे हौज में पहुँचाया जाता था। पानी की इस व्यवस्था से पुन: इस बात की पुष्टि होती है कि जल संचय की प्रणाली 'विकेंद्रित’ रही। जहाँ जिसको पानी की आवश्यकता है- उन्हें वहीं पानी उपलब्ध कराया जाए और इस पानी की मूल व्यवस्था भी उसी परिवेश के जिम्मे थी। ...और तो और चोर कोट में जहाँ कैदी रखे जाते थे, वहाँ भी पास में बावड़ी बनाई गई थी। इसे भी छत पर आए वर्षा जल से भरा जाता था- और कैदियों को भी पानी के लिये किसी और पर निर्भर नहीं रहना पड़ता था।
मांडव के नीलकण्ठेश्वर महादेव मन्दिर का जल प्रबन्धन- रमणिक और अद्भुत है। दूर पहाड़ी पर गिरी वर्षा बूँद का सफर- सुहाना और निराला है। इन बूँदों को रोक-रोककर अन्तत: खाई में जाने के पहले भी रिसाव के लिये- निमन्त्रित किया जाता रहा है। मुगलकाल में इसे 'आनंद प्रासाद’ के रूप में इस्तेमाल किया जाता रहा। बादशाह अकबर को भी यह स्थान अत्यन्त प्रिय था- उन्होंने यहाँ लिखवाया था- मैंने अपनी सारी जिन्दगी ईंट और पत्थरों में व्यतीत की। कोई भी मुसाफिर पाँच-दस मिनट इस स्थान पर विश्राम करे तो मैं समझूँगा- मेरी मेहनत सफल हुई।
मीराबाई की जिरात वाली पहाड़ी के एक हिस्से पर आए वर्षा जल को रोकने के लिये नीलकण्ठेश्वर महादेव मन्दिर के ऊपरी हिस्से में एक तालाब बनाया गया। इस तालाब से रिसकर आने वाले पानी को कुण्डनुमा संरचना बनाकर रोका गया। यहाँ से पानी बहता हुआ भीतर ही भीतर महादेव मन्दिर के गर्भगृह में जाता है। यहाँ झरने जैसी रचना है- पत्थर की। इसमें दीये जैसी आकृति बनी रहती है - जिसमें मिट्टी आदि रुक जाती है- यह संरचना उज्जैन के कालियादेह और भोपाल के इस्लामनगर के जल प्रबन्धन में भी देखी जा सकती है। यहाँ से पानी पुन: कुण्ड में आता है। यहाँ से ओवर-फ्लो होने के बाद पानी- 'नागफनी’ के बीच से गुजरता है। यहाँ- इसका एक बार फिर फिल्ट्रेशन होता है। इसी दरमियान प्राकृतिक फव्वारा भी बनाया गया है। ऊपर से दबाव के साथ आया पानी- पतली नली में जाता था- जो एक फव्वारे के रूप में निकलता था। यहाँ से निकले पानी को नीचे उतारा जाता है, जो रिचार्जिंग होकर पहाड़ी के नीचे वाले भाग में समाता जाता है।
मांडव में पानी की अनेक संरचनाएँ आपको चप्पे-चप्पे पर मिल जाएँगी। धार महाराजा के छप्पन महल के पास वाली बावड़ी को काली बावड़ी के नाम से जाना जाता था। इस महल की छत के पानी को इसमें संग्रहित किया जाता था। बावड़ी में 45 फीट पानी रहता है। गहराई के कारण पानी का रंग भी गहरा दिखता है- सो इसे काली बावड़ी का नाम दिया गया। छप्पन महल के सामने लोहानी गुफा क्षेत्र से बहकर आने वाले पानी को भी एक तालाब बनाकर रोका गया है। इसी तरह होशंगशाह के मकबरे के पास में भी खारी बावड़ी है।
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