प्रश्न ये है कि नदी के स्वास्थ्य का क्या होगा? बांध से ऊपर जून 2013 में जो मलबा इकठ्ठा हुआ था उसके चलते बांध कंपनी ने मात्र सुरंगों के पास वाला हिस्सा जरूर खाली किया और शेष ऐसे ही छोड़ दिया। ये बहुत चालाकी की गई चूंकि मानसून में तेज बारिश में बाकी का मलबा नीचे आता है और 2014 के मानसून में कंपनी ने बांध के गेट खोलकर मलबा आसानी से बहा दिया। इससे नदी का तल ऊंचा उठ रहा है जिससे नदी का फैलाव बढ़ने की संभावना है। चूंकि वर्षा के अलावा अन्य मौसम में बांध कंपनी नदी के पानी को सुरंगों में डाल देती है इसीलिए उसको नदी के तल के ऊंचा उठने की कोई परवाह नहींं। उत्तराखंड में मानसून शुरू होते ही अलकनंदा नदी पर हेमकुंड साहेब जाने वाला गोविन्द घाट स्थित पुल 14 जुलाई 2014 को बह गया। जयप्रकाश कंपनी विष्णुप्रयाग बांध के गेट खोलकर ऊपर का मलबा आसानी से बहा देती है और अब तो हद हो गई की ऊपर इकट्ठा मलबा नीचे बांध के आगे डाल रही है। आश्चर्य की बात है कि यह सब तेज टीवी, आज तक आदि कई चैनलों में आया, दैनिक अमर उजाला में भी यह सब आया। किंतु प्रशासन ने को कोई खबर नहीं हो पाई। ना प्रशासन ने कोई कदम उठाया।
ज्ञातव्य है कि जून 2013 की आपदा में अलकनंदा के ऊपरी क्षेत्र में बद्रीनाथ के नीचे खीरो घाटी से अलकनंदा नदी में काफी मलबा आया था वहीं नीचे जयप्रकाश कंपनी का विष्णुप्रयाग बांध जिसे रन ऑफ द रिवर कहा जाता है, स्थित है। 400 मेगावाट का यह बांध उत्तराखंड का पहला निजी बांध है जिसने अलकनंदा गंगा के पहले प्रयाग विष्णुप्रयाग को समाप्त किया है।
इस बांध के नीचे लाम्बगड़, पांडुकेश्वर, पिनोलाघाट, गोविंदघाट आदि स्थित है। 15 जून 2013 से घाटी में बारिश की शुरुआत हो चुकी थी। किंतु बिजली पैदा करने के लालच में जेपी एसोसिएट ने बांध के दरवाजे बंद रखे नतीजा यह हुआ कि जब खीरो घाटी से मलबा और तेज बारिश का पानी आया तो वो बांध तोड़ता हुआ भयानक गति से नीचे के गावों को और गोविंद घाट को बर्बाद करता हुआ आगे बढ़ा।
उसके बाद बांध कंपनी जेपी एसोसिएट ने लोगों के आंदोलन खासकर पांडुकेश्वर गांव में चले आंदोलन व विमल भाई बनाम जेपी एसोसिएट मुकदमे के कारण लाम्बगड़ गांव के लोगों से समझौता किया।
लाम्बगड़ गांव के लोगों की मांग डेढ़ लाख रुपए प्रति परिवार थी किंतु क्षेत्रीय विधायक माननीय राजेंद्र भंडारी जी की मध्यस्थता से 1 लाख रुपए प्रति परिवार पर आंदोलन समाप्त हुआ। गांव के लोगों को छोटे-मोटे ठेके भी मिले जो आपदा के समय उनके लिए बड़ी सौगात थे। माटू जनसंगठन ने कभी भी गांव की सुरक्षा के लिए हो रहे काम में लोगों के ठेकों का विरोध नहीं किया।
बांध कंपनी ने बांध मरम्मत के बहाने बांध की टरबाइनों के आगे से मलबा निकलकर पूरे क्षेत्र में डालना शुरू किया चूंकि इस मलबे का नदी क्षेत्र में कहीं पर भी डाले जाना भविष्य के लिए अलकनंदा नदी के क्षेत्र में गंभीर पर्यावरणीय असर ला सकता था इसीलिए विमलभाई ने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में एक केस दायर किया जिसमें प्रार्थना थी की--
पहली-नदी व अन्य किसी भी क्षेत्र में जो प्राधिकृत ना हो, मलबा डालने से रोका जाए। दूसरी-परियोजना प्रबंधन को मक और मलबा हटाने के कार्य के लिए पहले पर्यावरण प्रभाव आकलन बनाने का निर्देश दिया जाए। तीसरी-नदी क्षेत्र में डाली गई मक और मलबे को हटाया जाए और अलकनंदा के क्षेत्र को सुरक्षित किया जाए। चौथा-गैरकानूनी रूप से नदी पर बनाया गया मंदिर हटाया जाए और क्षेत्र को व क्षेत्र को वापिस पुरानी स्थिति में लाया जाए। पर्यावरण व खासकर अलकनंदानदी के नुकसान की भरपाई करें।
12 अक्टूबर 2013 में जब मलबे के विषय को माटू जनसंगठन के साथ स्थानीय लोगों ने उठाया तो क्षेत्रीय वनाधिकारी ने बांध कंपनी पर मौका मुआइना के बाद 1 लाख का जुर्माना लगाया इसके बाद पर्यावरण मंत्रालय को माटू जनसंगठन ने पत्र द्वारा सूचित किया किंतु मंत्रालय ने कोई कदम नहींं उठाया और जब हरित प्राधिकरण में केस दायर हो गया उसके नोटिस के बाद दिसंबर 2013 में चमोली के जिलाधिकारी ने एक अनुमान के आधार पर विभिन्न विभागों में विभिन्न कार्यों के लिए एक समिति बनाई और बांध में जमा मलबे का बंटवारा कर दिया।
पांडुकेश्वर गांव में लंबा आंदोलन चल रहा था। रैली निकाली गई। खासकर महिलाओं ने बांध कंपनी के ट्रकों का रास्ता रोका था। किंतु वहां की समिति पर लोगों की शंका रही। बड़े ठेके किसको बटे समझा जा सकता है।
बांध कंपनी ने अपना तात्कालिक लाभ देखते हुए बांध के साथ लाम्बगड़ गांव के लोगों पर थोड़ा ज्यादा ध्यान दिया नदी से सुरक्षा के विषय पर कंपनी का लोगों को आश्वासन दिया था कि 2014 के मानसून में नदी का रुख और फैलाव देखकर सुरक्षा दीवार बनाई जाएंगी। दूसरी तरफ पांडुकेश्वर गांव में 240 मीटर दीवार को बनाने का निर्णय लिया जोकि प्राधिकरण में चल रहे मुकदमें के साथ बढ़ता गया।
प्रश्न ये है कि नदी के स्वास्थ्य का क्या होगा? बांध से ऊपर जून 2013 में जो मलबा इकठ्ठा हुआ था उसके चलते बांध कंपनी ने मात्र सुरंगों के पास वाला हिस्सा जरूर खाली किया और शेष ऐसे ही छोड़ दिया। ये बहुत चालाकी की गई चूंकि मानसून में तेज बारिश में बाकी का मलबा नीचे आता है और 2014 के मानसून में कंपनी ने बांध के गेट खोलकर मलबा आसानी से बहा दिया। इससे नदी का तल ऊंचा उठ रहा है जिससे नदी का फैलाव बढ़ने की संभावना है। चूंकि वर्षा के अलावा अन्य मौसम में बांध कंपनी नदी के पानी को सुरंगों में डाल देती है इसीलिए उसको नदी के तल के ऊंचा उठने की कोई परवाह नहींं। किंतु अलकनंदा का अपना स्वास्थ्य पूरी तरह से खराब हो गया है विष्णुप्रयाग जविप के पीछे खीरो घाटी से मलबा आने का भी रास्ता खुल गया है।
मजेदार बात यह रही की जब-जब हरित प्राधिकरण में तारीखें लगी तब-तब बांध कंपनी की कोशिशें रही की ग्रामीणों को किसी तरह शांत किया जा सके। सीधी भाषा में कहा जाए तो मात्र कुछ लोगों को ठेके देकर या अन्य प्रकार के लालच देकर आप पूरे गांव का भविष्य खराब नहींं कर सकते जोकि बांध कंपनी कर रही है।
17 जुलाई को प्राधिकरण में तारिख थी और कंपनी को बांध के पीछे जमा हुए सारे मलबे के निस्तारण की विस्तृत योजना बना कर देनी थी। किंतु बांध कंपनी ने 16 जुलाई को शपथ पत्र दाखिल किया। जिसे पिछले आदेश से तीन हफ्ते के अंदर दाखिल करना था। यह तरीका था समय टालने का। अब सब मलबा बारिश में बह कर नदी में ही जा रहा है। चूंकि कंपनी बांध के गेट खोल देती है और मलबा पानी के साथ नदी में जा रहा है। साथ ही ट्रकों से भी मलबा पीछे से लाकर बांध के आगे डाला है। कई ग्रामीणों ने इसका विरोध भी किया तो कभी रोका। पर कब तक?
ऐसा ही सीमा सड़क संगठन ने किया। प्राधिकरण ने उसको भी नोटिस दिया था। नदी की बर्बादी में सीमा सड़क संगठन का भी बहुत बड़ा हाथ है। क्योंकि तेजी से सड़क बनाने के कारण ही नहींं बीआरओ हमेशा ही सड़क का मलबा नीचे की ओर डाल देता है फिर चाहे लोगों के खेतों में जाए या नदी में जाए। इससे नदी तल पर बहुत फर्क पड़ता है। पांडुकेश्वर की दलित बस्ती का भविष्य भी अनिश्चित ही है। यह स्थिति पूरी नदियों की है चाहे वह गंगा की मुख्या धारा भागीरथी ही क्यों न हो।
आश्चर्य का विषय है कि गंगा मंथन वाली केंद्रीय सरकार ने भी इस पर कोई ध्यान नहींं दिया है। इसी मंत्रालय के अधीन केंद्रीय जल आयोग है और इसी मंत्रालय के साथ गंगा पुनरुजीवन मंत्रालय भी जुड़ा है।
ज्ञातव्य है कि जून 2013 की आपदा में अलकनंदा के ऊपरी क्षेत्र में बद्रीनाथ के नीचे खीरो घाटी से अलकनंदा नदी में काफी मलबा आया था वहीं नीचे जयप्रकाश कंपनी का विष्णुप्रयाग बांध जिसे रन ऑफ द रिवर कहा जाता है, स्थित है। 400 मेगावाट का यह बांध उत्तराखंड का पहला निजी बांध है जिसने अलकनंदा गंगा के पहले प्रयाग विष्णुप्रयाग को समाप्त किया है।
इस बांध के नीचे लाम्बगड़, पांडुकेश्वर, पिनोलाघाट, गोविंदघाट आदि स्थित है। 15 जून 2013 से घाटी में बारिश की शुरुआत हो चुकी थी। किंतु बिजली पैदा करने के लालच में जेपी एसोसिएट ने बांध के दरवाजे बंद रखे नतीजा यह हुआ कि जब खीरो घाटी से मलबा और तेज बारिश का पानी आया तो वो बांध तोड़ता हुआ भयानक गति से नीचे के गावों को और गोविंद घाट को बर्बाद करता हुआ आगे बढ़ा।
उसके बाद बांध कंपनी जेपी एसोसिएट ने लोगों के आंदोलन खासकर पांडुकेश्वर गांव में चले आंदोलन व विमल भाई बनाम जेपी एसोसिएट मुकदमे के कारण लाम्बगड़ गांव के लोगों से समझौता किया।
लाम्बगड़ गांव के लोगों की मांग डेढ़ लाख रुपए प्रति परिवार थी किंतु क्षेत्रीय विधायक माननीय राजेंद्र भंडारी जी की मध्यस्थता से 1 लाख रुपए प्रति परिवार पर आंदोलन समाप्त हुआ। गांव के लोगों को छोटे-मोटे ठेके भी मिले जो आपदा के समय उनके लिए बड़ी सौगात थे। माटू जनसंगठन ने कभी भी गांव की सुरक्षा के लिए हो रहे काम में लोगों के ठेकों का विरोध नहीं किया।
बांध कंपनी ने बांध मरम्मत के बहाने बांध की टरबाइनों के आगे से मलबा निकलकर पूरे क्षेत्र में डालना शुरू किया चूंकि इस मलबे का नदी क्षेत्र में कहीं पर भी डाले जाना भविष्य के लिए अलकनंदा नदी के क्षेत्र में गंभीर पर्यावरणीय असर ला सकता था इसीलिए विमलभाई ने राष्ट्रीय हरित प्राधिकरण में एक केस दायर किया जिसमें प्रार्थना थी की--
पहली-नदी व अन्य किसी भी क्षेत्र में जो प्राधिकृत ना हो, मलबा डालने से रोका जाए। दूसरी-परियोजना प्रबंधन को मक और मलबा हटाने के कार्य के लिए पहले पर्यावरण प्रभाव आकलन बनाने का निर्देश दिया जाए। तीसरी-नदी क्षेत्र में डाली गई मक और मलबे को हटाया जाए और अलकनंदा के क्षेत्र को सुरक्षित किया जाए। चौथा-गैरकानूनी रूप से नदी पर बनाया गया मंदिर हटाया जाए और क्षेत्र को व क्षेत्र को वापिस पुरानी स्थिति में लाया जाए। पर्यावरण व खासकर अलकनंदानदी के नुकसान की भरपाई करें।
12 अक्टूबर 2013 में जब मलबे के विषय को माटू जनसंगठन के साथ स्थानीय लोगों ने उठाया तो क्षेत्रीय वनाधिकारी ने बांध कंपनी पर मौका मुआइना के बाद 1 लाख का जुर्माना लगाया इसके बाद पर्यावरण मंत्रालय को माटू जनसंगठन ने पत्र द्वारा सूचित किया किंतु मंत्रालय ने कोई कदम नहींं उठाया और जब हरित प्राधिकरण में केस दायर हो गया उसके नोटिस के बाद दिसंबर 2013 में चमोली के जिलाधिकारी ने एक अनुमान के आधार पर विभिन्न विभागों में विभिन्न कार्यों के लिए एक समिति बनाई और बांध में जमा मलबे का बंटवारा कर दिया।
पांडुकेश्वर गांव में लंबा आंदोलन चल रहा था। रैली निकाली गई। खासकर महिलाओं ने बांध कंपनी के ट्रकों का रास्ता रोका था। किंतु वहां की समिति पर लोगों की शंका रही। बड़े ठेके किसको बटे समझा जा सकता है।
बांध कंपनी ने अपना तात्कालिक लाभ देखते हुए बांध के साथ लाम्बगड़ गांव के लोगों पर थोड़ा ज्यादा ध्यान दिया नदी से सुरक्षा के विषय पर कंपनी का लोगों को आश्वासन दिया था कि 2014 के मानसून में नदी का रुख और फैलाव देखकर सुरक्षा दीवार बनाई जाएंगी। दूसरी तरफ पांडुकेश्वर गांव में 240 मीटर दीवार को बनाने का निर्णय लिया जोकि प्राधिकरण में चल रहे मुकदमें के साथ बढ़ता गया।
प्रश्न ये है कि नदी के स्वास्थ्य का क्या होगा? बांध से ऊपर जून 2013 में जो मलबा इकठ्ठा हुआ था उसके चलते बांध कंपनी ने मात्र सुरंगों के पास वाला हिस्सा जरूर खाली किया और शेष ऐसे ही छोड़ दिया। ये बहुत चालाकी की गई चूंकि मानसून में तेज बारिश में बाकी का मलबा नीचे आता है और 2014 के मानसून में कंपनी ने बांध के गेट खोलकर मलबा आसानी से बहा दिया। इससे नदी का तल ऊंचा उठ रहा है जिससे नदी का फैलाव बढ़ने की संभावना है। चूंकि वर्षा के अलावा अन्य मौसम में बांध कंपनी नदी के पानी को सुरंगों में डाल देती है इसीलिए उसको नदी के तल के ऊंचा उठने की कोई परवाह नहींं। किंतु अलकनंदा का अपना स्वास्थ्य पूरी तरह से खराब हो गया है विष्णुप्रयाग जविप के पीछे खीरो घाटी से मलबा आने का भी रास्ता खुल गया है।
मजेदार बात यह रही की जब-जब हरित प्राधिकरण में तारीखें लगी तब-तब बांध कंपनी की कोशिशें रही की ग्रामीणों को किसी तरह शांत किया जा सके। सीधी भाषा में कहा जाए तो मात्र कुछ लोगों को ठेके देकर या अन्य प्रकार के लालच देकर आप पूरे गांव का भविष्य खराब नहींं कर सकते जोकि बांध कंपनी कर रही है।
17 जुलाई को प्राधिकरण में तारिख थी और कंपनी को बांध के पीछे जमा हुए सारे मलबे के निस्तारण की विस्तृत योजना बना कर देनी थी। किंतु बांध कंपनी ने 16 जुलाई को शपथ पत्र दाखिल किया। जिसे पिछले आदेश से तीन हफ्ते के अंदर दाखिल करना था। यह तरीका था समय टालने का। अब सब मलबा बारिश में बह कर नदी में ही जा रहा है। चूंकि कंपनी बांध के गेट खोल देती है और मलबा पानी के साथ नदी में जा रहा है। साथ ही ट्रकों से भी मलबा पीछे से लाकर बांध के आगे डाला है। कई ग्रामीणों ने इसका विरोध भी किया तो कभी रोका। पर कब तक?
ऐसा ही सीमा सड़क संगठन ने किया। प्राधिकरण ने उसको भी नोटिस दिया था। नदी की बर्बादी में सीमा सड़क संगठन का भी बहुत बड़ा हाथ है। क्योंकि तेजी से सड़क बनाने के कारण ही नहींं बीआरओ हमेशा ही सड़क का मलबा नीचे की ओर डाल देता है फिर चाहे लोगों के खेतों में जाए या नदी में जाए। इससे नदी तल पर बहुत फर्क पड़ता है। पांडुकेश्वर की दलित बस्ती का भविष्य भी अनिश्चित ही है। यह स्थिति पूरी नदियों की है चाहे वह गंगा की मुख्या धारा भागीरथी ही क्यों न हो।
आश्चर्य का विषय है कि गंगा मंथन वाली केंद्रीय सरकार ने भी इस पर कोई ध्यान नहींं दिया है। इसी मंत्रालय के अधीन केंद्रीय जल आयोग है और इसी मंत्रालय के साथ गंगा पुनरुजीवन मंत्रालय भी जुड़ा है।
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