पृथ्वी दिवस पर विशेष
भारतीय दर्शन में पृथ्वी को माता माना गया है। यह भगवान स्वरूपा ही है। आज भी जन-मानस में पृथ्वी को देवी मानने की आस्था इस तरह प्रबल है कि अनेक महानुभाव प्रात: नींद से जागने के बाद पृथ्वी माता को सर्वप्रथम हाथों से स्पर्श कर प्रणाम करते हैं और उनसे बेहतर जीवनयापन का आशीर्वाद भी माँगते हैं।
भारतीय परम्पराओं में पृथ्वी कोई ग्रह मात्र नहीं है अपितु जीवमान इकाई है। वह हम जीवधारियों का पालन करती है। उन्हें जीवन देती है। अन्न- इस धरती का जीव समुदाय को सबसे बड़ा उपहार है। वह वृक्ष देती है जो जीवन का आधार है। वह अपने भीतर रत्नों, खनिजों की खान रखती है। जल का संचय उसकी अद्भुत प्रक्रियाओं का हिस्सा है। पृथ्वी ठीक है तो हम ठीक है। वह 'अस्वस्थ’ होती है तो हमारे जीवन पर भी संकट के बादल मँडराने लगते हैं।
पुराणों में पृथ्वी को भगवान का अंग बताया है। श्रीमद्भागवत के द्वादश स्कन्ध में भगवान के विराट स्वरूप का उल्लेख करते हुए उनके अंगों का विवरण दिया गया है- भगवान के स्वरूप में पृथ्वी इनके चरण हैं। स्वर्ग मस्तक है। अन्तरिक्ष नाभि है। वायु नासिका है और दिशाएँ कान हैं। नदियाँ धमनियाँ, वृक्ष रोम और बादल भगवान के विराट स्वरूप के ऊपर उगे हुए बाल हैं। सूर्य नेत्र है। चन्द्रमा मन है। इस सन्देश में अहम सन्देश यह छुपा है कि हर प्राकृतिक संसाधन, भगवान ही है।
भगवान इसी स्वरूप में हमारे साथ है। इसी स्वरूप में वह जीवनयापन कर रहा है। भगवान के चरण पृथ्वी ही है और हमें पृथ्वी का यथासम्भव संरक्षण करना चाहिए। पृथ्वी को केवल प्रणाम करने से ही नहीं अपितु उसका हमें वैसे ही ख्याल रखना है जैसे भगवान हमारे सामने साक्षात हो तो हम उनके चरणों में कितने भाव-विभोर होकर अनुराग रखेंगे? पृथ्वी ही भगवान- हमें इसके पर्यावरणीय पहलुओं की चिन्ता के साथ पूजा करना है, यही भागवत जी का अहम सन्देश है।
क्या पृथ्वी ने कभी नाराज़ होकर अन्न, औषधि आदि देना बन्द कर दिए थे और जनता इस अकाल की वजह से त्राहि-त्राहि कर चुकी है? श्रीमद भागवत में महाराज पृथु और पृथ्वी देवी के बीच इस तरह का विस्तार से एक संवाद है। पृथ्वी अकाल का कारण बताते हुए कहती है- मेरा आदर और सम्मान करना बन्द कर दिया। अनाचार अब असहनीय हो गया है। पृथ्वी यह भी कहती है- मुझे समतल कीजिए।
वर्षा ऋतु बीत जाने पर भी मेरे ऊपर इन्द्र का बरसाया जल सर्वत्र बना रहे, मेरे ऊपर की आर्द्रता समाप्त न होने पाए। यह आपके लिए मंगलकारी रहेगा। जनमानस के लिये भागवत जी की इस कथा का सन्देश स्पष्ट है- यह पृथ्वी के पारिस्थितिकीय और पर्यावरणीय पक्ष को और मजबूत करने की ओर संकेत करती है। यह ऐसा भी इशारा करती है जब अनाचार बढ़ता है अर्थात पर्यावरण की दृष्टि के सन्दर्भ में पृथ्वी के साथ अनैतिक व्यवहार होता है। उसके प्रति सम्मान और आदर का भाव समाप्त हो रहा है तो वह अन्न और औषधि देना बन्द कर देती है।
पृथ्वी का यह सन्देश एक तरह से पानी रोको अभियान अर्थात जल संरक्षण का ही सन्देश है। दरअसल महाराज पृथु से पृथ्वी का यही कहना है कि बरसात का जल यदि रोका जाता है तो इससे धरती पर आर्द्रता बढ़ेगी और यह राजा तथा प्रजा दोनों के लिये मंगलकारी रहेगा। अर्थात राज्य की समग्र खुशहाली के लिये भूमि को समतल कर सरोवर, जलाशय, मेड़बन्दी, कुएँ, कुण्ड, बावड़ी आदि जल संरचनाओं का निर्माण कराया जाना चाहिए। इससे जब पानी रुकेगा तो सतही जल जीवों को पीने के लिये काम आएगा। नमी संरक्षण से अच्छी मात्रा में विविध फसलों का उत्पादन होगा। अन्न जीवनयापन के लिये काम आएगा। इससे अकाल जैसी समस्याओं से भी बहुत सीमा तक मुक्ति मिल सकेगी।
श्रीमद्भागवत के पंचम स्कन्ध में एक प्रसंग में शुकदेव जी, राजा परीक्षित से कहते हैं- 'मैंने पृथ्वी तथा उसके तहत द्वीप, नदी, पर्वत, आकाश, समुद्र, पाताल, दिशा आदि का जो वर्णन किया है- यही भगवान का अति स्थूल रूप है। यह समस्त जीव समुदाय का आश्रय स्थल है।’ भागवत जी में विभिन्न प्राकृतिक संसाधनों का उनकी महिमा के साथ वर्णन के बाद यह अहम सन्देश है।
इसमें समग्र पृथ्वी अर्थात पर्वत, नदियाँ, समुद्र आदि को भगवान का स्थूल रूप ही बताया गया है। इसका भाव स्पष्ट है- पृथ्वी सहित समस्त प्राकृतिक संसाधन भगवान का ही रूप है। हमें उनके साथ वही भाव और व्यवहार रखना चाहिए जो हम भगवान के प्रति रखते हैं। ऐसा भाव प्रकट होने पर हम इन प्राकृतिक संसाधनों को कभी हानि नहीं पहुँचाएंगे। हम इनका मन, वचन और कर्म से संरक्षण करें- यह श्रीमद्भागवत जी का अहम पर्यावरणीय सन्देश है।
पृथ्वी को 'शक्ति सम्पन्न’ बताते हुए भागवत जी में कहा गया है कि जीवन शरीर अथवा मनोवृत्तियों से जितने भी कर्म करता है, उसके साक्षी रहते हैं- पृथ्वी, सूर्य, जल, अग्नि, वायु आदि। इनके द्वारा अधर्म का पता चल जाता है और दण्ड के पात्र का निर्णय हो जाता है। यह एक अहम सन्देश है। मनुष्य के कर्मों के लिये पृथ्वी सहित प्राकृतिक संसाधनों को 'पर्यवेक्षक’ की भूमिका प्रदान की गई है।
मनुष्य यह सोचकर बच नहीं सकता कि उसके गलत कार्यों को कौन देख रहा है? प्राकृतिक संसाधनों को इस भूमिका में निरूपित कर जनमानस को चेतावनी दी गई है कि ये संसाधन 'शक्ति संपन्न’ है। आप पर इनकी दृष्टि है। जब ये संसाधन आपके कर्मों से इस तरह का निर्धारण करने में सक्षम है तो फिर इनके साथ अनिष्ट करने से क्या होगा? एक तरह से ऐसा सन्देश देकर इन संसाधनों को जनमानस में इस रूप में देवतुल्य दर्शाया गया है। सन्देश स्पष्ट है- पृथ्वी सहित समस्त प्राकृतिक संसाधनों के प्रति श्रद्धा, सम्मान और संरक्षण का भाव रखना चाहिए।
लेखक पत्रकार और प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन के अध्येता हैं
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