नदी का मूल काम होता है अपने जल-ग्रहण क्षेत्र से वर्षा के पानी की निकासी करना मगर तटबन्धों के बीच कैद नदियों की पेटी ऊपर उठ रही है। कहीं-कहीं यह इतनी ज्यादा उठ चुकी है कि अगर वह तटबन्ध तोड़ कर बाहर आ जाय तो उसे वापस तटबन्धों के बीच ठेलना मुश्किल काम हो जाता है। बिहार की कोसी नदी का एक अध्ययन तटबन्धों की अधिकांश लंबाई के निर्माण के ठीक बाद 1962 में, और इसके 12 वर्ष बाद 1974 में किया गया था। इन्डियन इन्स्टीच्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, दिल्ली द्वारा किये गये इस अध्ययन के आधार पर कोसी की तलहटी में जिस रफ्तार से परिवर्तन हुये हैं उसे तालिका 9.3 में दिखाया गया है।
इस अध्ययन के अनुसार तटबन्धों के निर्माण के बाद कोसी भीमनगर बराज से डगमारा के ही बीच पेन्दी को खंगाल रही है जबकि बाकी स्थानों पर इसका तल ऊपर ही उठ रहा है। महिषी से कोपड़िया के बीच तल का उठान 12.03 सेन्टीमीटर वार्षिक तक है। इसका मतलब यह होता है कि आज (2006) से लगभग 45 वर्ष पूरे कर लिए गये तटबन्धों के बीच नदी की पेटी का उठान लगभग 5.41 मीटर (पौने अट्ठारह फीट) औसतन हो गया होगा। 1950 के दशक में जब 25 वर्षों में आने वाली सर्वाधिक बाढ़ के लिए तटबन्धों का निर्माण हुआ था उस समय उनकी ऊँचाई आस-पास के सुरक्षित क्षेत्र के मुकाबले लगभग इतनी ही थी यानी तटबन्धों के भीतर नदी के किनारे की जमीन तटबन्धों की उस समय की ऊँचाई तक आ पहुँची है। जाहिर है, पेंदी में बालू बैठने के कारण नदी की प्रवाह क्षमता साल दर साल घटी है और अब अगर तटबन्ध सुरक्षित बचे हुये हैं तो यह निश्चित रूप से ईश्वरीय कृपा का परिणाम है।
इस अध्ययन के अनुसार तटबन्धों के निर्माण के बाद कोसी भीमनगर बराज
1987 की बाढ़ के बाद बिहार सरकार ने यह कह कर इन तटबन्धों को निचले इलाकों में 2 मीटर (6 फीट) ऊँचा किया कि 1987 जैसी बाढ़ 100 वर्षों में एक बार आती है अतः तटबन्धों को 2 मीटर ऊँचा किया जायगा। अब जल-संसाधन विभाग के इंजीनियरों को कौन समझाये कि जिस रफ्तार से कोसी की पेटी ऊपर उठ रही है, जब तक कोसी तटबन्धों को 3.25 मीटर (लगभग 11 फीट) ऊँचा नहीं किया जायेगा तब तक तो वह 25 साल में एक बार आने वाली सबसे बड़ी बाढ़ को भी क्या संभाल पायेंगे? इसका जवाब उनके पास नहीं है। सीधे शब्दों में वह क्षेत्र की जनता को गुमराह कर रहे थे और यह विभाग की खुशनसीबी है कि पिछले कई वर्षों से कोसी अपने उग्र रूप में नहीं आई।
वैसे भी तटबन्ध को ऊँचा और मजबूत कर देने मात्रा से बाढ़ की समस्या का हल हो जायेगा क्या? क्या तटबन्ध को ऊँचा या मजबूत कर देने से उनके बीच आने वाले पानी या बालू में कोई कमी आयेगी? क्या तटबन्धें को ऊँचा और मजबूत किये जाने के बाद नदी की पेटी का ऊपर उठना रुक जायेगा? क्या तटबन्धें से होकर होने वाले सीपेज या उनके बाहर होने वाले जल-जमाव में कोई कमी आयेगी? जिसे आज हम ऊँचा और मजबूत तटबन्ध कह कर खुश हो रहे हैं, कल वह नहीं टूटेगा इसकी गारन्टी कोई इंजीनियर दे सकता है? इन सारे सवालों का एक ही जवाब है-नहीं। तटबन्ध जितना ऊँचा और जितना मजबूत होगा, सुरक्षित क्षेत्रों में रहने वालों पर उनके टूटने पर खतरा उतना ही ज्यादा बड़ा होगा। यह बात हाकिमों की समझ में क्यों नहीं आती? तो फिर इस काम से फायदा? इसका फायदा है कि लोगों को आने-जाने में सहूलियत होंगी। इसके साथ सरकारी जीपों और मशीनों को भी आने जाने में मदद मिलेगी। इसके लिए लोगों का तटबन्धें पर से हटाया जायेगा और कहा यह जायगा कि यह सब बाढ़ की रोक-थाम के लिए किया जा रहा है। वह इसलिए कि बाढ़ नियंत्रण बिकने वाली चीज है और इसी में नेताओं, प्रशासकों, इंजीनियरों, और ठेकेदारों सब के स्वार्थ निहित हैं। पहले के दिनों में इनकी जूठन के तौर पर मजदूरों को कुछ रोजगार मिट्टी के कामों में मिल जाया करता था सो आजकल वह भी बन्द है क्योंकि अब यह काम दूसरे प्रान्तों से मँगाये गये ट्रैक्टरों के माध्यम से होता है।
तटबन्धों के कारण अगर नदियों की पेंदी ऊपर उठती है तो उनकी सहायक धाराएँ भी अपना पानी इन नदियों में नहीं डाल पायेंगी और तटबन्धों पर उस तरफ से भी खतरा बढ़ेगा और वह टूटेंगे। इस तरह से नदियाँ एक अराजक स्थिति में पहुँच जाती हैं और इसके जिम्मेदार वही लोग हैं जिन्होंने अपने फायदे के लिए या ‘कौन झंझट मोल ले,’ ऐसा कह कर नदियों के किनारे पहले तो तटबन्ध बनाये और अब उन्हें ऊँचा करने में जुटे हैं। एक दिन यही मजबूत और ऊँचा तटबन्ध इलाके की भावी पीढ़ियों की तबाही का कारण बनेगा।
आज तटबन्धों के निर्माता बड़ी शान से कहते हैं कि उन्होंने नदियों को काबू में कर लिया मगर इसके लिए समाज ने क्या-क्या कीमत दी है यह जानने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। अपनी इस अकड़ में जो उन्होंने नदी का सत्यानाश कर दिया, यह जानने की भी उन्हें जरूरत नहीं है। यह समस्या अगली पीढ़ी के इंजीनियरों और नेताओं की है। जनता और नदी दोनों ही इन लोगों के लिए गिनी पिग (डॉक्टरी परीक्षणों में इस्तेमाल किये जाने वाले चूहे) से ज्यादा की हैसियत नहीं रखते।
इस अध्ययन के अनुसार तटबन्धों के निर्माण के बाद कोसी भीमनगर बराज से डगमारा के ही बीच पेन्दी को खंगाल रही है जबकि बाकी स्थानों पर इसका तल ऊपर ही उठ रहा है। महिषी से कोपड़िया के बीच तल का उठान 12.03 सेन्टीमीटर वार्षिक तक है। इसका मतलब यह होता है कि आज (2006) से लगभग 45 वर्ष पूरे कर लिए गये तटबन्धों के बीच नदी की पेटी का उठान लगभग 5.41 मीटर (पौने अट्ठारह फीट) औसतन हो गया होगा। 1950 के दशक में जब 25 वर्षों में आने वाली सर्वाधिक बाढ़ के लिए तटबन्धों का निर्माण हुआ था उस समय उनकी ऊँचाई आस-पास के सुरक्षित क्षेत्र के मुकाबले लगभग इतनी ही थी यानी तटबन्धों के भीतर नदी के किनारे की जमीन तटबन्धों की उस समय की ऊँचाई तक आ पहुँची है। जाहिर है, पेंदी में बालू बैठने के कारण नदी की प्रवाह क्षमता साल दर साल घटी है और अब अगर तटबन्ध सुरक्षित बचे हुये हैं तो यह निश्चित रूप से ईश्वरीय कृपा का परिणाम है।
तालिका-9.3
तटबन्ध निर्माण के तुरन्त बाद तथा उसके 12वर्ष बाद में कोसी नदी के तल की स्थिति | ||||||
क्र.सं. | नदी क्षेत्र | दूरी कि.मी. | बराज/तटबंध पूर्व की स्थिति | बराज/तटबंध निर्माण के बाद की स्थिति | ||
तल कटाव मि.मी. प्रतिवर्ष | बालू जमाव मि.मी. प्रतिवर्ष | तल कटाव मि.मी. प्रतिवर्ष | बालू जमाव मि.मी. प्रतिवर्ष | |||
1. | चतरा से चलपापुर | 27 | 17.6 | - | - | 12.4 |
2. | जलपापुर से भीमनगर बराज | 15 | 165.6 | - | - | 107.0 |
3. | भीमनगर से डगमारा | 26 | 35.6 | - | 8.3 | - |
4. | डगमारा से सुपौल | 34 | 3.8 | - | - | 18.6 |
5. | सुपौल से महिषी | 40 | - | 95.6 | - | 63.5 |
6. | महिषी से कोपड़िया | 25 | अप्राप्य | - | - | 120.3 |
इस अध्ययन के अनुसार तटबन्धों के निर्माण के बाद कोसी भीमनगर बराज
1987 की बाढ़ के बाद बिहार सरकार ने यह कह कर इन तटबन्धों को निचले इलाकों में 2 मीटर (6 फीट) ऊँचा किया कि 1987 जैसी बाढ़ 100 वर्षों में एक बार आती है अतः तटबन्धों को 2 मीटर ऊँचा किया जायगा। अब जल-संसाधन विभाग के इंजीनियरों को कौन समझाये कि जिस रफ्तार से कोसी की पेटी ऊपर उठ रही है, जब तक कोसी तटबन्धों को 3.25 मीटर (लगभग 11 फीट) ऊँचा नहीं किया जायेगा तब तक तो वह 25 साल में एक बार आने वाली सबसे बड़ी बाढ़ को भी क्या संभाल पायेंगे? इसका जवाब उनके पास नहीं है। सीधे शब्दों में वह क्षेत्र की जनता को गुमराह कर रहे थे और यह विभाग की खुशनसीबी है कि पिछले कई वर्षों से कोसी अपने उग्र रूप में नहीं आई।
वैसे भी तटबन्ध को ऊँचा और मजबूत कर देने मात्रा से बाढ़ की समस्या का हल हो जायेगा क्या? क्या तटबन्ध को ऊँचा या मजबूत कर देने से उनके बीच आने वाले पानी या बालू में कोई कमी आयेगी? क्या तटबन्धें को ऊँचा और मजबूत किये जाने के बाद नदी की पेटी का ऊपर उठना रुक जायेगा? क्या तटबन्धें से होकर होने वाले सीपेज या उनके बाहर होने वाले जल-जमाव में कोई कमी आयेगी? जिसे आज हम ऊँचा और मजबूत तटबन्ध कह कर खुश हो रहे हैं, कल वह नहीं टूटेगा इसकी गारन्टी कोई इंजीनियर दे सकता है? इन सारे सवालों का एक ही जवाब है-नहीं। तटबन्ध जितना ऊँचा और जितना मजबूत होगा, सुरक्षित क्षेत्रों में रहने वालों पर उनके टूटने पर खतरा उतना ही ज्यादा बड़ा होगा। यह बात हाकिमों की समझ में क्यों नहीं आती? तो फिर इस काम से फायदा? इसका फायदा है कि लोगों को आने-जाने में सहूलियत होंगी। इसके साथ सरकारी जीपों और मशीनों को भी आने जाने में मदद मिलेगी। इसके लिए लोगों का तटबन्धें पर से हटाया जायेगा और कहा यह जायगा कि यह सब बाढ़ की रोक-थाम के लिए किया जा रहा है। वह इसलिए कि बाढ़ नियंत्रण बिकने वाली चीज है और इसी में नेताओं, प्रशासकों, इंजीनियरों, और ठेकेदारों सब के स्वार्थ निहित हैं। पहले के दिनों में इनकी जूठन के तौर पर मजदूरों को कुछ रोजगार मिट्टी के कामों में मिल जाया करता था सो आजकल वह भी बन्द है क्योंकि अब यह काम दूसरे प्रान्तों से मँगाये गये ट्रैक्टरों के माध्यम से होता है।
तटबन्धों के कारण अगर नदियों की पेंदी ऊपर उठती है तो उनकी सहायक धाराएँ भी अपना पानी इन नदियों में नहीं डाल पायेंगी और तटबन्धों पर उस तरफ से भी खतरा बढ़ेगा और वह टूटेंगे। इस तरह से नदियाँ एक अराजक स्थिति में पहुँच जाती हैं और इसके जिम्मेदार वही लोग हैं जिन्होंने अपने फायदे के लिए या ‘कौन झंझट मोल ले,’ ऐसा कह कर नदियों के किनारे पहले तो तटबन्ध बनाये और अब उन्हें ऊँचा करने में जुटे हैं। एक दिन यही मजबूत और ऊँचा तटबन्ध इलाके की भावी पीढ़ियों की तबाही का कारण बनेगा।
आज तटबन्धों के निर्माता बड़ी शान से कहते हैं कि उन्होंने नदियों को काबू में कर लिया मगर इसके लिए समाज ने क्या-क्या कीमत दी है यह जानने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है। अपनी इस अकड़ में जो उन्होंने नदी का सत्यानाश कर दिया, यह जानने की भी उन्हें जरूरत नहीं है। यह समस्या अगली पीढ़ी के इंजीनियरों और नेताओं की है। जनता और नदी दोनों ही इन लोगों के लिए गिनी पिग (डॉक्टरी परीक्षणों में इस्तेमाल किये जाने वाले चूहे) से ज्यादा की हैसियत नहीं रखते।
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