इस पृष्ठभूमि में यह आशा करना गलत न होगा कि सफाई हमारे देश में भी शिक्षा का हिस्सा बन जाए और हम धार्मिक कार्य के रूप में इसे अपने जीवन में उतार लें। हम अपने धर्मस्थलों को साफ रखते हैं और बिना शरीर की सफाई और मन की शुद्ध के उनमें प्रवेश नहीं करते। काश, यही संजीदगी हम अपने घरों के संदर्भ में भी अपनायें और उन्हें मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर और गुरुद्वारा समझकर साफ रखें तो यह भारत स्वर्ग हो जाएगा।
जापान के स्कूलों में एक काम बहुत ही निराला होता है लेकिन बच्चे के बाद के जीवन में यह बहुत ही लाभदायक साबित होता है और इसी की बदौलत पूरा जापान साफ-सुथरा और तकरीबन प्रदूषण रहित रहता है। इस काम को सूजी कहते हैं। काश इसे हम भारतवासी भी अपना लें। सूजी दरअसल सफाई करने की पुरानी परंपरा है जिसे हर छात्र को स्कूल की आखिरी घंटी के बाद स्कूल में ही अंजाम देनी होती है। प्रत्येक छात्र अपने हाथ से जोकिन (सफाई का कपड़ा) सीता है। यह कपड़े कक्षा की पिछली दीवार में लगे हुए छोटे-छोटे हुकों पर टंगे रहते हैं। कोने में झाड़ू, बाल्टी और पोंछे भी रखे रहते हैं। जैसे ही स्कूल की छुट्टी के लिए घंटी बजती है। छात्र अपना-अपना जोकिन उठाकर मेज, कुर्सी और खिड़कियों को साफ करते हैं। जब कक्षा का एक सत्र पूरा हो जाता है तो सफाई का मुख्य कार्य, जिसे ओ-सूजी कहते हैं, आयोजित किया जाता है। इसमें कई घंटे लगते हैं और पूरा स्कूल साफ किया जाता है। अक्सर छात्र सोचते हैं कि इस कार्य के लिए वैक्यूम क्लीनर या सफाई कर्मचारियों का प्रयोग क्यों नहीं किया जाता लेकिन उन्हें जल्द ही समझ में आ जाता है कि यह उनकी शिक्षा का ही हिस्सा है जिससे वे सफाई के महत्व और उसके तरीके को समझ जाते हैं।
ज्यादातर जापानी मर्द स्कूल में सूजी के अध्ययन के बाद कभी झाड़ू को हाथ नहीं लगाते। घर की सफाई का काम उनकी माएं करती हैं और शादी के बाद यह जिम्मेदारी उनकी पत्नियाँ उठाती हैं। लेकिन महिलाओं के लिए दूसरी ही कहानी है। स्कूल सूजी उनके बाकी जीवन की प्रस्तावना समान होती है क्योंकि उनका अधिकतर समय घर की व्यवस्था में लग जाता है। जापान के बहुत से शहरों में अब भी महिलाओं को यह रिवायती शिक्षा दी जाती है कि उनकी शादी घर से हो रही है मर्द से नहीं। इसका तर्क यह है कि मर्द तुम्हें धोखा दे सकते हैं लेकिन घर नहीं। इस किस्म की मानसिकता ने गृहकार्य पर आधारित एक पूरी संस्कृति को विकसित किया है। आप जापान के किसी भी स्टोर में कदम रखें, तो आप पायेंगे कि पूरी-पूरी शेल्फें सफाई के विषय को समर्पित हैं। किताबों में पाइप किस तरह साफ करें? जैसे विषयों पर भी पूरे-पूरे अध्याय होते हैं। पुस्तकों में यह भी दर्ज होता है कि किस देश में सफाई के कौन-कौन से तरीके अपनाये जा रहे हैं।
दिलचस्प बात यह है कि न सिर्फ किताबों में बल्कि आवाम के स्तर पर भी यह बहस आम है कि शौचालय को साफ करते समय स्वीडन का तरीका अपनाया जाए जिसमें सिरके में डूबी रुई का प्रयोग होता है या बशीकी जो कि जापान का परंपरागत तरीका है। बहुत सी महिलाएं सफाई के संदर्भ में सिर्फ पुस्तकों के अध्ययन से संतुष्ट नहीं होतीं। वे गृह प्रबंधन के सिलसिले में साप्ताहिक लेक्चरों में हिस्सा लेती हैं। यह लेक्चर करिजुमा शुफू या करिश्माई गृहिणी देती हैं जिनकी ख्याति फिल्मी सितारों से कम नहीं होती। इन लेक्चरों में बताया जाता है कि फुटोमोमिन (पुरानी रुई) की जगह जो लोग अपने पवित्र घरों में रसायन के पोंछे इस्तेमाल करते हैं उन्हें शर्म आनी चाहिए। बावजूद इसके गृहकार्य से कम ही जापानी महिलाएं आनंदित होती हैं। वास्तव में वे शिकायत करती हैं और हमेशा हाईटेक शार्टकटों को तलाशती रहती हैं।
तभी जापान को कादिन रिकोकू कहा जाता है यानी अप्लायसेंस की पी पर निर्मित राष्ट्र लेकिन वे अपने गृहकार्य को न छोड़ती हैं और न ही बाहर की मदद लेती हैं। उनका मानना है कि सूजी (सफाई) से आत्मा को गिजा मिलती है जितना महिला इसको करेगी उतना ही वह स्वर्ग के करीब हो जायेगी। गृहकार्य शिगोटो (नौकरी) नहीं है जिसे कैश से बदला जा सके। यह मिशी (राह) है जो आखिरकार आत्मज्ञान और अन्दरुनी शक्ति की ओर ले जाता है। इस पृष्ठभूमि में यह आशा करना गलत न होगा कि सफाई हमारे देश में भी शिक्षा का हिस्सा बन जाए और हम धार्मिक कार्य के रूप में इसे अपने जीवन में उतार लें। हम अपने धर्मस्थलों को साफ रखते हैं और बिना शरीर की सफाई और मन की शुद्ध के उनमें प्रवेश नहीं करते। काश, यही संजीदगी हम अपने घरों के संदर्भ में भी अपनायें और उन्हें मंदिर, मस्जिद, गिरिजाघर और गुरुद्वारा समझकर साफ रखें तो यह भारत स्वर्ग हो जाएगा।
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