जैविक खेतीः सफलता की कहानी किसानों की जुबानी


एक बहुत पुराना नुस्खा है, जब समस्या बहुत बढ़ जाए तो मूल की ओर लौटो। आज देश में किसानों के आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं ने साफ कर दिया है कि अब व़क्त मूल की ओर लौटने का है। इसका अर्थ यह है कि खेती तब भी होती थी, जब रासायनिक खाद और ज़हरीले कीटनाशक उपलब्ध नहीं थे। तब गोबर किसानों के लिए बेहतर खाद का काम करता था। नीम और हल्दी उनके लिए प्रभावी कीटनाशक थी, लेकिन बदलते व़क्त के साथ जैसे-जैसे रासायनिक खाद का उपयोग बढ़ा, किसानों की क़िस्मत भी उनसे रूठती चली गई। लेकिन एक बार फिर से किसानों ने अपनी क़िस्मत बदलने की ठान ली है। खेती को फायदे का सौदा बनाने के लिए वे जी-जान से जुट गए हैं। कृषि के क्षेत्र में एक बड़ी क्रांति धीरे-धीरे आकार लेने लगी है। यह क्रांति है जैविक खेती की और इस क्रांति के नायक हैं शेखावाटी के वे किसान, जो मोरारका फाउंडेशन से जुड़कर अपने खेतों में हरा सोना पैदा कर रहे हैं।

शेखावाटी के झुंझुनू और सीकर ज़िले के किसान अब अपने खेतों में रासायनिक खाद और पेस्टीसाइड का इस्तेमाल नहीं करते हैं। फाउंडेशन के सतत प्रयास का ही नतीजा है कि अब इस क्षेत्र के किसानों को क़र्ज़ लेकर किसी मल्टीनेशनल कंपनी से रासायनिक खाद ख़रीदने की ज़रूरत नहीं पड़ती है। मोरारका फाउंडेशन इन किसानों को गोबर एवं केंचुआ से जैविक खाद और वर्मी वाश के रूप में कीटनाशक बनाने की ट्रेनिंग देता है। गोमूत्र, नीम, हल्दी एवं लहसुन से हर्बल स्प्रे बनाया जाता है। जैविक खेती आज इन किसानों के लिए वरदान साबित हो रही है। फाउंडेशन इन किसानों द्वारा उपजाए गए जैविक अनाज के लिए बाज़ार भी उपलब्ध करा रहा है। नतीजतन, किसानों को अपने उत्पाद के लिए बाज़ार तो मिल ही रहा है, साथ ही अपनी उपज का उचित मूल्य भी मिल रहा है।

किसानों ने अपनी क़िस्मत बदलने की ठान ली है। खेती को फायदे का सौदा बनाने के लिए वे जी-जान से जुट गए हैं। कृषि के क्षेत्र में एक बड़ी क्रांति धीरे-धीरे आकार लेने लगी है। यह क्रांति है जैविक खेती की और इसके नायक हैं शेखावाटी के किसान, जो आज पूरे देश के किसानों के लिए एक मिसाल बन चुके हैं। चौथी दुनिया की टीम ने शेखावाटी के झुंझुनू और सीकर ज़िलों का दौरा कर कुछ ऐसे ही किसानों से बात की, जो पिछले कुछ सालों से जैविक खेती कर रहे हैं। चौथी दुनिया उन किसानों के अनुभवों को पूरे देश के अन्नदाताओं के साथ बांटना चाहता है, जो रासायनिक विधि से खेती करने के बाद भी हर साल घाटा उठाने को मजबूर होते हैं। जैविक खेती करके कैसे हमारे देश के किसान ख़ुशहाल बन सकते हैं, इसके बारे में चौथी दुनिया आगे के कुछ अंकों में लगातार बताता रहेगा। फिलहाल इस अंक में पेश है जैविक खेती की सफलता की कहानी, किसानों की ज़ुबानी।

शंकर लाल, बलवंतपुरा, झुंझुनू
शंकर वाणिज्य स्नातक हैं। पुश्तैनी खेत में पहले रासायनिक खाद का इस्तेमाल करते थे। मुख्य फसल मूंग, बाजरा और सब्जी उगाने के लिए यूरिया, डीएपी का इस्तेमाल करते थे। शंकर कहते हैं कि खेत में डाली जाने वाली खाद की मात्रा हर साल बढ़ती जा रही थी। उपज तो बढ़ जाती थी, लेकिन ख़र्च भी बढ़ रहा था और ऊपर से खेत की उर्वरा शक्ति भी धीरे-धीरे कम होती जा रही थी। इसी बीच दो साल पहले शंकर लाल मोरारका फाउंडेशन के संपर्क में आए। फाउंडेशन से जैविक खेती के बारे में जानने के बाद उन्होंने अपनी ज़मीन पर जैविक खेती करने की ठानी। पहले साल अपनी पूरी ज़मीन पर उन्होंने रासायनिक खाद के बजाय वर्मी कंपोस्ट का इस्तेमाल किया। शंकर कहते हैं कि पहले साल उपज में दस फीसदी की कमी आई, लेकिन दूसरे साल से उपज बढ़ गई। जैविक खेती से होने वाली आय के बारे में शंकर बताते हैं कि जब हम अपना अनाज लेकर मंडी में जाते हैं और यह कहते हैं कि हमारा अनाज जैविक विधि से उगाया गया है तो हमें प्रति क्विंटल दो सौ रुपये ज़्यादा मिलते हैं। वैसे हम अपनी उपज का ज्यादातर हिस्सा फाउंडेशन के माध्यम से ही बेचते हैं। शंकर अपने खेत में मुख्य रूप से देशी मूंग और देशी बाजरा उपजाते हैं। शंकर कहते हैं कि देशी मूंग जब तैयार होने लगती है तो हम उसमें से पकी फली तोड़ लेते हैं। इसके बाद फिर से उस पेड़ में नया फूल आ जाता है और देशी बाजरा का तना 15 फीट लंबा होता है, जबकि हाईब्रीड बाजरा का तना 8 फीट से ज़्यादा नहीं होता है। ज्यादा लंबा तना होने का फायदा यह होता है कि मवेशियों के लिए चारा भी आसानी से ज़्यादा मात्रा में उपलब्ध हो जाता है।

ओमप्रकाश, मझाओ, झुंझुनू

ओमप्रकाश के पास 35 बीघा ज़मीन है और वह अपनी सारी ज़मीन पर जैविक खेती ही करते हैं। उनके घर के पीछे फैली हरियाली उनकी सफलता की गवाह है। घर के पीछे ही केंचुआ खाद, वर्मी वाश और हर्बल स्प्रे बनाने का एक छोटी सी यूनिट है। अपने मवेशियों से मिलने वाले गोबर और केंचुआ से वह ख़ुद ही खाद तैयार कर लेते हैं। नीम, हल्दी एवं लहसुन मिलाकर हर्बल स्प्रे बना लेते हैं। पिछले 4 सालों से ओमप्रकाश इन्हीं सब चीजों का इस्तेमाल करके खेती कर रहे हैं। ओमप्रकाश कहते हैं कि रासायनिक खाद का इस्तेमाल करने से खेती की लागत बढ़ जाती है और आमदनी कम हो जाती है, जबकि जैविक विधि से खेती करने पर लागत कम हो जाती है, साथ ही उपज का मूल्य भी अधिक मिलता है। ओमप्रकाश कहते हैं कि जबसे वह जैविक खेती कर रहे हैं, उनकी सालाना आय 50 फीसदी बढ़ गई है।

सरदार सिंह, रघुनाथपुर, झुंझुनू
सरदार सिंह पिछले 3 सालों से जैविक खेती कर रहे हैं। सरदार सिंह भी पहले अपने खेत में रासायनिक खाद का इस्तेमाल करते थे, लेकिन फाउंडेशन से जैविक खेती के गुर सीखने और उसके फायदे समझने के बाद उन्होंने जैविक खेती का रास्ता अपना लिया। उनके पास 40 बीघा ज़मीन है। शुरू में उन्होंने स़िर्फ दस बीघा ज़मीन पर ही जैविक खेती की, क्योंकि उन्हें नुक़सान होने की आशंका थी, लेकिन उनकी आशंका जब निर्मूल साबित हुई तो अगले ही साल से 40 बीघा ज़मीन पर जैविक खेती शुरू कर दी। सरदार सिंह कहते हैं कि रासायनिक खाद के इस्तेमाल के मुक़ाबले अब 40 फीसदी लागत कम हो गई है। इसके अलावा अब खेत में खर-पतवार भी नहीं पैदा होता। उत्पादन पहले से बढ़ गया है। सरदार सिंह बताते हैं कि पहले प्रति बीघा दो क्विंटल बाजरा होता था, अब 3 क्विंटल होता है और मंडी में जाने पर हमारे बाजरे का मूल्य भी अधिक मिलता है। सरदार सिंह की सफलता को देखकर अन्य किसान भी जैविक खेती से प्रभावित हुए। आज उनके गांव के 50-55 किसान जैविक खेती कर रहे हैं।

ओमप्रकाश शर्मा, कोलिडा, सीकर
पढ़े-लिखे किसान ओमप्रकाश शर्मा पिछले 11 सालों से जैविक खेती कर रहे हैं। ओमप्रकाश बताते हैं कि शुरू से ही उनकी रुचि कृषि और अध्यात्म में रही। मोरारका फाउंडेशन के संपर्क में आने के बाद उन्होंने केंचुआ से जैविक खाद और हर्बल स्प्रे बनाने की ट्रेनिंग ली। ओमप्रकाश आज अपने क्षेत्र के किसानों के लिए प्रेरणास्रोत बन गए हैं। वह खेती की एक और विशेष पद्धति के बारे में बताते हैं। ओमप्रकाश कहते हैं कि वह अपने खेतों में हवन भी करते हैं। सूर्योदय से पहले और दिन के किसी खास व़क्त पर कुछ खास मंत्रों के साथ वह अपने खेतों के बीच हवन करते हैं। वह इसे वैदिक खेती का नाम देते हैं। कहते हैं, हवन से निकलने वाला धुआं काफी प्रभावी होता है और इससे खेत को हानिकारक तत्वों से छुटकारा मिलता है।

कृपाल सिंह, धायलों का बास, झुंझुनू
कृपाल सिंह के पास 13 बीघा जमीन है। कृपाल ने दसवीं तक पढ़ाई की है। मोरारका फाउंडेशन और उद्यान विभाग द्वारा दी गई ट्रेनिंग के बाद कृपाल ने अपनी 13 बीघा जमीन में एक नर्सरी तैयार की। पूरी तरह से जैविक विधि का इस्तेमाल करते हुए 3 साल पहले उन्होंने इस नर्सरी की शुरुआत की। फाउंडेशन की ओर से कृपाल को केंचुआ खाद, हर्बल स्प्रे बनाने के लिए सामग्री मुहैया कराई गई। उद्यान विभाग से 3 लाख रुपये का क़र्ज भी मिल गया। आज कृपाल अपनी नर्सरी में सैकड़ों किस्म के फूल और फलदार पौधे तैयार कर रहे हैं। वह अपनी नर्सरी में अब तक 70 हज़ार फलदार पौधे, 26 हजज़ार फूल वाले पौधे, 25 छायादार पौधे और 2 हज़ार सजावटी पौधे तैयार कर चुके हैं। कृपाल सिंह कहते हैं कि आज इस नर्सरी से वह सालाना 6 लाख रुपये कमा रहे हैं।
 
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