जैविक खेती : समस्याएँ और सम्भावनाएँ

फसल उत्पादन को निरन्तर कायम रखने के लिए जैविक कृषि एक अच्छी पहल है किन्तु, भारत में कम्पोस्ट की कमी, प्रमाणित प्रौद्योगिकियों के प्रचार के लिए विस्तार की असंगठित प्रणाली, जैविक सामग्री में पोषक तत्वों का अन्तर, कचरे से संग्रह करने और प्रसंस्करण करने में जटिलता, विभिन्न फसलों के लागत लाभदायकता अनुपात के साथ जैविक कृषि के व्यवहारों को शामिल करने में पैकेज का अभाव और वित्तीय सहायता के बिना किसानों द्वारा इसे अपनाने में कठिनाई होने के कारण जैविक कृषि को अपनाने में कठिनाइयाँ हैं।यह बात स्वाभाविक है कि एक अरब 20 करोड़ से भी अधिक जनसंख्या वाले देश में कृषि प्रणाली में बदलाव एक सुविचारित प्रक्रिया द्वारा होनी चाहिए, जिसके लिए काफी सावधानी और सतर्कता बरतने की जरूरत है। खाद्य, रेशा, ईन्धन, चारा और बढ़ती जनसंख्या के लिए अन्य जरूरतों की पूर्ति के लिए कृषि भूमि की उत्पादकता और मृदा स्वास्थ्य में सुधार लाना जरूरी है। स्वतन्त्रता पश्चात युग में हरित क्रान्ति ने खाद्य के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता के लिए विकासशील देशों को रास्ता दिखाया है, किन्तु सीमित प्राकृतिक संसाधन के बल पर कृषि पैदावार कायम रखने के लिए रासायनिक कृषि के स्थान पर जैविक कृषि पर विशेष जोर दिया जा रहा है, क्योंकि रासायनिक कृषि से जहाँ हमारे संसाधनों की गुणवत्ता घटती है, वहीं जैविक कृषि से हमारे संसाधनों का संरक्षण होता है। हरित क्रान्ति के बाद के समय में कृषि व्यवस्था ने उत्पादन के असन्तुलन, मिश्रित रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता, द्वितीयक और सूक्ष्म पोषकों की कमियों में वृद्धि, कीटनाशक के इस्तेमाल में वृद्धि, अवैज्ञानिक जल प्रबन्धन और वितरण, उत्पादकता में कमी के साथ ही उत्पाद की गुणवत्ता में ह्रास, जीन पूल के विनाश, पर्यावरण प्रदूषण और सामाजिक एवं आर्थिक स्थिति में असन्तुलन की समस्या का सामना किया है। फसल उत्पादन को निरन्तर कायम रखने के लिए जैविक कृषि एक अच्छी पहल है किन्तु, भारत में कम्पोस्ट की कमी, प्रमाणित प्रौद्योगिकियों के प्रचार के लिए विस्तार की असंगठित प्रणाली, जैविक सामग्री में पोषक तत्वों का अन्तर, कचरे से संग्रह करने और प्रसंस्करण करने में जटिलता, विभिन्न फसलों के लागत लाभदायकता अनुपात के साथ जैविक कृषि के व्यवहारों को शामिल करने में पैकेज का अभाव और वित्तीय सहायता के बिना किसानों द्वारा इसे अपनाने में कठिनाई होने के कारण जैविक कृषि को अपनाने में कठिनाइयाँ हैं।

समस्याएँ


जैविक खेती की प्रगति में कई बाधाएँ हैं। जागरुकता की कमी, विपणन से जुड़ी समस्याएँ, सहायता के लिए अपर्याप्त सुविधाएँ, अधिक लागत होना, जैविक कच्चा माल के विपणन की समस्याएँ, वित्तीय समर्थन का अभाव, निर्यात की माँग को पूरा करने में अक्षमता आदि उन बाधाओं में शामिल हैं। इन बाधाओं को दूर करने के लिए केन्द्र से लेकर पंचायत स्तरों तक वित्तीय तथा तकनीकी समर्थन की व्यापक तौर पर व्यवस्था करने की जरूरत है।

खेती की तकनीकों के बारे में जागरुकता की कमी


किसानों के पास कम्पोस्ट तैयार करने के लिए आधुनिक तकनीकों के इस्तेमाल की जानकारी के साथ ही उसके प्रयोगों की जानकारी का भी अभाव है। ज्यादा से ज्यादा वे यही करते हैं कि गड्ढा खोदकर उसे कचरे की कम मात्रा से भर देते हैं। अक्सर गड्ढा वर्षा के जल से भर जाता है और इसका परिणाम यह होता है कि कचरे का ऊपरी हिस्सा पूरी तरह कम्पोस्ट नहीं बन पाता और नीचे का हिस्सा कड़ी खल्ली की तरह बन जाता है। जैविक कम्पोस्ट तैयार करने के बारे में किसानों को समुचित प्रशिक्षण देने की जरूरत है। कम्पोस्ट अथवा जैविक खाद के इस्तेमाल पर भी कम ध्यान दिया जाता है। जैविक पदार्थ उन महीनों में फैले होते हैं जबकि मिट्टी में आवश्यकतानुसार नमी मौजूद नहीं होती है। इस प्रक्रिया में पूरा खाद कचरे में बदल जाता है। निश्चित तौर पर इस विधि में अधिक श्रम और लागत की जरूरत होती है, किन्तु निश्चित परिणाम प्राप्त करना जरूरी होता है।

परिणामोन्मुखी विपणन


ऐसा पाया जाता है कि जैविक फसलों की खेती शुरू करने के पहले उनका विपणन योग्य होना और पारम्परिक उत्पादों की तुलना में लाभ सुनिश्चित करना होता है। कम-से-कम पारम्परिक फसलों के उत्पादकता स्तरों तक पहुँचने के लिए जरूरी अवधि के दौरान लाभकारी मूल्य प्राप्त करने में विफल होना इसके लिए प्रतिकूल होगा। ऐसा प्रमाण मिला है कि राजस्थान में जैविक गेहूँ के किसानों को गेहूँ के पारम्परिक किसानों की तुलना में कम कीमतें मिली। दोनों प्रकार के उत्पादों के विपणन की लागत भी समान थी और गेहूँ के खरीदार जैविक किस्म के लिए अधिक कीमत देने को तैयार नहीं थे।

जैविक पदार्थों का अभाव


किसानों और वैज्ञानिकों को इसके बारे में पता नहीं था कि क्या जैविक पदार्थों से आवश्यक मात्रा में जरूरी पोषक उपलब्ध हो सकते हैं। यहाँ तक कि विशेषज्ञ भी मानते हैं कि उपलब्ध जैविक पदार्थ जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। जैविक कम्पोस्ट तैयार करने के लिए फसल के शेष बचे हिस्से को फसल कटाई के बाद नष्ट कर दिया जाता है। प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित किया गया है कि फसल के शेष बचे हिस्से की मिट्टी में फिर से जुताई कर देने से मिट्टी की उत्पादकता बढ़ती है और कम्पोस्ट बनाना एक बेहतर विकल्प है। छोटे और सीमान्त किसानों को उर्वरकों की तुलना में जैविक खाद प्राप्त करने में कठिनाई होती है। उन्हें या तो उनके पास उपलब्ध जैविक पदार्थों के इस्तेमाल से जैविक खाद तैयार करना होगा या फिर वे कम-से-कम प्रयासों और लागत के साथ स्थानीय तौर पर जैविक पदार्थों का संग्रह कर सकते हैं। जनसंख्या का दबाव बढ़ने, कचरे, सरकारी भूमि तथा साझा भूमि के कम होने से यह काम कठिन हो गया है।

अधिक लागत होना


भारत के छोटे और सीमान्त किसान पारम्परिक कृषि प्रणाली के रूप में एक प्रकार की जैविक खेती करते रहे हैं। वे खेतों को पुनर्जीवित करने के लिए स्थानीय अथवा अपने संसाधनों का इस प्रकार इस्तेमाल करते हैं ताकि पारिस्थितिकी के अनुकूल पर्यावरण कायम रहे। हालाँकि इस समय पारम्परिक कृषि प्रणाली में इस्तेमाल होने वाली अन्य चीजों सहित औद्योगिक तौर पर उत्पादित रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों की लागत की तुलना में जैविक उत्पादों की लागत अधिक हो रही है।

मूँगफली की खल्ली, नीम के बीज और उसकी खल्ली, जैविक कम्पोस्ट, गाद, गोबर और अन्य खादों का इस्तेमाल जैविक खादों के रूप में होता रहा है। इनकी कीमतों में वृद्धि होने से ये छोटे किसानों की पहुँच से बाहर होते जा रहे हैं।

जैविक पदार्थों के विपणन की समस्या


राइजोबियम, एजोस्पीरिलम, एजोटोबैक्टर, फास्फोरस को घुलनशील बनाने वाला बैक्टीरिया, ग्लोमस के रूप में वेसीकुलर अर्बुस्कोलर माइकोरिजिया जैसे जैविक उर्वरकों और एलीसिन, निकोटिन सल्फेट, सेडाबिला, निमासाइड, पायरेन्थ्रम के रूप में जैविक कीटनाशकों को देश में अब तक लोग अच्छी तरह नहीं जान पाए हैं। ऐसे जैविक उर्वरक और जैविक कीटनाशक का इस्तेमाल मटर, गोभी, लहसुन, प्याज, टमाटर, मिर्च, मूली, शकरकन्द, कद्दू, आलू, गेहूँ, जौ, चारा, जई, तम्बाकू आदि जैसी फसलों और नीम के पेड़ों, गुलदाऊदी जैसे पौधों के लिए किया जाता है। इसके लिए विपणन और वितरण नेटवर्क का अभाव है क्योंकि माँग कम होने के कारण खुदरा व्रिकेता इन उत्पादों को बेचने के प्रति रुचि नहीं रखते। आपूर्ति सम्बन्धी समस्याओं और किसानों के बीच जागरुकता में कमी होने के चलते यह समस्या बढ़ गई है। देश में रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के खुदरा विक्रेताओं को अधिक लाभ होने और उत्पादकों और डीलरों द्वारा भारी-भरकम विज्ञापन अभियान चलाने के कारण भी जैविक सामग्रियों के बाजारों के लिए समस्याएँ हैं।

वित्तीय सहायता का अभाव


भारत जैसे विकासशील देशों को विकसित देशों के अनुसार राष्ट्रीय और क्षेत्रीय मानकों का एक प्रवाह तैयार करना होगा। इस प्रकार के नियामक ढाँचे को अपनाकर उसका रख-रखाव करते हुए उसका क्रियान्वयन करना महंगा होगा।

छोटे और सीमान्त किसानों के लिए प्रमाणन एजेंसियों द्वारा समयानुसार प्रमाणन का कार्य भी काफी मुश्किल है जिसमें उनके द्वारा निर्धारित संख्या में सावधिक निरीक्षण करना शामिल है। एनपीओपी से पहले भारत में कार्यरत अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों द्वारा शुल्क लगाना निषिद्ध था। देश के बड़े किसानों के बीच भी जैविक कृषि की ओर कम ध्यान दिए जाने का यह एक कारण था। भारत में जर्मनी जैसे उन्नत देश की तरह वित्तीय सहायता उपलब्ध नहीं कराई जाती है। जैविक उत्पादों के विपणन के सिलसिले में केन्द्र और राज्य सरकार की ओर से किसी प्रकार की सहायता नहीं दी जाती है। यहाँ तक कि जैविक खेती को बढ़ावा देने के उद्देश्य से वित्तीय प्रक्रिया का भी सर्वथा अभाव है।

निर्यात की माँग पूरा करने में अक्षमता


अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान जैसे उन्नत देशों में जैविक उत्पादों की काफी माँग है। पता चला है कि अमेरिकी उपभोक्ता जैविक उत्पादों के लिए 60 से 100 प्रतिशत तक लाभकारी मूल्य के भुगतान के लिए तैयार हैं। भारत के सम्पन्न वर्ग के लोगों के लक्षण भी अन्यत्र की तरह ही हैं। अन्तरराष्ट्रीय व्यापार केन्द्र (आईटीसी) द्वारा वर्ष 2000 में कराए गए बाजार सर्वेक्षण से यह संकेत मिला है कि विश्व बाजारों के कई हिस्सों में जैविक उत्पादों की माँग बढ़ी है, जबकि उसकी आपूर्ति नहीं की जा सकती।

सम्भावनाएँ


भारतीय कृषि को न केवल खाद्यान्न उत्पादन को कायम रखना होगा, बल्कि उसे बढ़ाने के भी प्रयास करने होंगे। ऐसा लगता है कि जैविक खेती की सुविधा उपलब्ध होने, रासायनिक खेती की प्रक्रिया के इस्तेमाल में कमी लाने के प्रयास करने तथा सार्वजनिक निवेश को सीमित करने से जैविक खेती को धीरे-धीरे शुरू किया जा सकता है। इसके लिए उपर्युक्त जरूरतों को पूरा करने वाले सम्भावित क्षेत्रों और फसलों की तलाश करके उसे जैविक खेती के दायरे में लाना चाहिए। इसके लिए भारत के वर्षा पर आधारित क्षेत्रों, जनजातीय क्षेत्रों, पूर्वोत्तर और पहाड़ी क्षेत्रों के बारे में विचार किया जा सकता है जहाँ कमोबेश पारम्परिक खेती की जाती है।

देश में खाद्यान्न उत्पादन का 40 प्रतिशत भाग वर्षा पर निर्भर खेती वाले क्षेत्रों से होता है। जैविक खादों के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीके से भी नियन्त्रित किया जा सकता है। इसके अलावा सूखे क्षेत्रों में खेती के लिए कम लागत वाली सरल प्रौद्योगिकियाँ विकसित की गई हैं और उन्हें जैविक खेती के लिए खेतों तक स्थानान्तरित किया जा सकता है। इसके परिणामस्वरूप उत्पादकता में वृद्धि होने और उत्पादन कायम रहने से सूखी भूमि की खेती से जुड़े समुदायों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने में मदद मिलेगी, जो देश का एक निर्धनतम समुदाय है।फसल की पैदावार में एकाएक गिरावट को रोकने के लिए हमें एक रणनीति के तहत चरणबद्ध तरीके से जैविक उत्पादों के रूप में बदलाव करना चाहिए ताकि प्रारम्भिक वर्षों के दौरान ऐसे जोखिम कम हों। देश के खेतों के लिए जैविक पदार्थों की व्यापक जरूरतों के सवाल का भी उत्तर ढूँढना होगा। खेती वाले क्षेत्रों के केवल उन 30 प्रतिशत भागों पर ही रासायनिक उर्वरकों का इस्तेमाल किया जाता है, जो सिंचित हैं शेष भाग वर्षा पर निर्भर कृषि के अधीन है जिसमें उर्वरकों का नगण्य इस्तेमाल ही है। देश में खाद्यान्न उत्पादन का 40 प्रतिशत भाग वर्षा पर निर्भर खेती वाले क्षेत्रों से होता है। जैविक खादों के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीके से भी नियन्त्रित किया जा सकता है। इसके अलावा सूखे क्षेत्रों में खेती के लिए कम लागत वाली सरल प्रौद्योगिकियाँ विकसित की गई हैं और उन्हें जैविक खेती के लिए खेतों तक स्थानान्तरित किया जा सकता है। इसके परिणामस्वरूप उत्पादकता में वृद्धि होने और उत्पादन कायम रहने से सूखी भूमि की खेती से जुड़े समुदायों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाने में मदद मिलेगी, जो देश का एक निर्धनतम समुदाय है।

भारत में जैविक उत्पादों की स्वीकृति और उनके प्रमाणन के लिए नियम और विनियमन


1. जैविक खेती को बढ़ावा देने के लिए भारत में सामाजिक-सांस्कृतिक पर्यावरण अनुकूल है। भारतीय किसान हरित क्रान्ति की शुरुआत से पहले तक खेती के पर्यावरण-हितैषी तरीके का प्रयोग करते रहे हैं, जो पश्चिमी देश में खेती की कृत्रिम विधियों पर आधारित थी। कई कारणों से छोटे और सीमान्त किसानों ने अब तक कृत्रिम खेती को पूरी तरह नहीं अपनाया है और वे कमोबेश पर्यावरण-हितैषी पारम्परिक प्रणाली का अनुसरण कर रहे हैं। वे स्थानीय अथवा अपने खेतों से प्राप्त पुनर्जीवन संसाधनों का इस्तेमाल करते हैं और स्वनिर्मित पारिस्थितिकीय और जैविकीय प्रक्रियाओं का प्रबन्धन करते हैं। खेती करने और फसलों, पशुधन तथा मानव के लिए पोषक उत्पादों के स्वीकार्य स्तरों के लिए यह आवश्यक हो गया है और इससे भी अधिक फसलों और मानवों को उन कीटनाशकों और बीमारियों से बचाने के लिए जरूरी है जो जैव-रसायनों और जैव-उर्वरकों के इस्तेमाल से सम्भव हो सकता है। ऐसी स्थिति में खेती से जुड़े समुदाय को जैविक कृषि की विधियों से अवगत कराने से इस दिशा में कठिनाइयाँ कम हो सकती हैं।

2. भारत जैसा देश जैविक खेती को अपनाकर कई प्रकार से लाभान्वित हो सकता है। उत्पादों के लाभकारी मूल्य, मिट्टी की उर्वर और जल की मात्रा के रूप में प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण, मृदा क्षरण की रोकथाम, प्राकृतिक और कृषि जैव-विविधता का संरक्षण आदि उनमें शामिल है। इसके माध्यम से ग्रामीण रोजगार के सृजन प्रवास में कमी, उन्नत घरेलू पोषण, स्थानीय खाद्य सुरक्षा तथा बाहरी चीजों पर निर्भरता में कमी जैसे आर्थिक तथा सामाजिक लाभ भी प्राप्त होंगे। इस प्रकार जैविक खेती से पर्यावरण का संरक्षण होगा और मानवीय जीवन की गुणवत्ता में वृद्धि होगी।

3. घरेलू बाजारों में जैविक उत्पादों की अच्छी माँग है और उतनी मात्रा में आपूर्ति नहीं हो पाती है। इन दोनों के बीच कोई सम्बन्ध नहीं है जिसके कारण उत्पादन पर प्रतिकूल असर पड़ता है। थोक विक्रेता और व्यापारी जैविक उत्पादों के वितरण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं, क्योंकि ये छोटे खेतों से उपजते हैं। बड़े किसानों की आपूर्ति बाजारों तक पहुँच है और वितरण के लिए उनकी अपनी दुकानें हैं। जैविक उत्पादों के लिए महानगर प्रमुख घरेलू बाजार हैं।

4. भारत में जैविक खेती की सम्भावनाओं के लिए मध्य प्रदेश एक अच्छी जगह हो सकती है। राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय दोनों बाजारों में अधिक लाभकारी कीमतें और उनकी आपूर्ति में कमी होना भारत के लिए एक अवसर जैसा है। उसी प्रकार भारत के जैविक कपास के मामले में अच्छी सम्भावना दिखाई पड़ती है।

(लेखकद्वय क्रमशः कृषि सूचना और प्रकाशन निदेशालय, आईसीएआर में प्रधान सम्पादक और तकनीकी अधिकारी हैं)
ई-मेल : kuldeep328@gmail.com

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