आज रासायनिक प्रदूषण से तंग आकर देश या विदेश के वैज्ञानिक जैविक खेती करने को प्रोत्साहित कर रहे हैं। इस पद्धति के बारे में पुनः नए सिरे से कृषकों में जागृति तथा विश्वास बढ़ रहा है। जैविक खेती से उत्पाद की गुणवत्ता ही नहीं बढ़ी है बल्कि खेत, खलिहान तथा उपभोक्ताओं में उन्नत सामंजस्य स्थापित हुआ है।भारत में कृषि की घटती जोत, संसाधनों की कमी, लगातार कम होती कार्यकुशलता और कृषि की बढ़ती लागत तथा साथ ही उर्वरक व कीटनाशकों के पर्यावरण पर बढ़ते कुप्रभाव को रोकने में निःसंदेह जैविक खेती एक वरदान साबित हो सकती है। जैविक खेती का सीधा संबंध जैविक खाद से है या यह कहें कि ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। आज जबकि दूसरी हरित क्रांति की चर्चा जोरों पर है, वहीं हमें कृषि उत्पादन में मंदी के कारणों पर भी ध्यान केंद्रित करना होगा और कृषि उत्पादन बढ़ाने हेतु जल प्रबंधन, मिट्टी की गुणवत्ता बनाए रखने और फसलों को बीमारी से बचाने पर जोर देना होगा। यह कहना गलत न होगा कि जैविक खेती से तीनों समस्याओं का प्रभावी ढंग से समाधान किया जा सकता है। इसलिए रासायनिक उर्वरकों के उपयोग को हतोत्साहित करते हुए जैविक खेती को प्रोत्साहन देना समय की मांग है।
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि 60वें दशक की हरित क्रांति ने यद्यपि देश को खाद्यान्न की दिशा में आत्मनिर्भर बनाया लेकिन इसके दूसरे पहलू पर यदि गौर करें तो यह भी वास्तविकता है कि खेती में अंधाधुंध उर्वरकों के उपयोग से जल स्तर में गिरावट के साथ मृदा की उर्वरता भी प्रभावित हुई है और एक समय बाद खाद्यान्न उत्पादन न केवल स्थिर हो गया बल्कि प्रदूषण में भी बढ़ोतरी हुई है और स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा हुआ है जिससे सोना उगलने वाली धरती मरुस्थल का रूप धारण करती नजर आ रही है। मिट्टी में सैकड़ों किस्म के जीव-जंतु एवं जीवाणु होते हैं जो खेती के लिए हानिकारक कीटों को खा जाते हैं। फलतः उत्पादन प्रभावित होता है। इसलिए समय की मांग है कि 60 के दशक की पहली क्रांति के अनुभवों से सबक लेते हुए हमें दूसरी हरित क्रांति में रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल में सावधानी बरतते हुए जैविक खेती पर ध्यान देना चाहिए।
जैविक खेती में हम कंपोस्ट खाद के अलावा नाडेप, कंपोस्ट खाद, केंचुआ खाद, नीम खली, लेमन ग्रास एवं फसल अवशेषों को शामिल करते हैं। जैविक खाद के उपयोग से न केवल मृदा की उर्वरता बढ़ती है बल्कि उसमें नमी की वजह से काफी हद तक सूखे की समस्या से भी निजात मिलती है। जैविक खाद के प्रयोग से भूजल धारण क्षमता बढ़ती है। इसके साथ ही जैविक कीटनाशक से मित्र कीट भी संरक्षित होते हैं। इस प्रकार घटते भूजल स्तर के लिए जैविक खेती एक वरदान साबित होगी। एक अनुमान के अनुसार किसान अपनी उत्पादित फसल का 25-40 प्रतिशत ही उपयोग कर पाते हैं। भारत में प्रतिवर्ष 600 मिलियन टन कृषि अवशेष पैदा होता है, इसमें से अधिकांश अवशेषों को किसान अगली फसल हेतु खेत तैयार करने के लिए खेत में ही जला देते हैं जबकि इसका उपयोग जैविक खाद को तैयार करने के लिए आसानी से किया जा सकता है।
भारतीय किसान परंपरागत रूप से खेती में स्थानीय तकनीकों व संसाधनों का उपयोग करते थे जिसमें स्थानीय बीज, वर्षा आधारित खेती व जैविक खाद थे जिसे सड़े-गले पत्ते व घासों का उपयोग कर बनाने में भारतीय किसान माहिर थे। पारंपरिक खाद के प्रयोग से फसल अधिक गुणवत्ता वाली होती थी। साथ ही आसपास का वातावरण साफ व स्वच्छ रहता था। एक-दो दशक पहले तक आम काश्तकार खेती से इतना उत्पादन कर लेता था कि परिवार का गुजर-बसर हो जाता था और अपनी आर्थिक जरूरतें भी पूरी हो जाती थीं लेकिन आधुनिकता व बाजारवाद की आंधी ने किसानों का रुख जैविक खाद से रासायनिक खादों की तरफ मोड़ दिया। रासायनिक खाद, बीज व कीटनाशकों के प्रयोग से उत्पादन में वृद्धि हुई लेकिन एक सीमा के बाद उस पर बढ़ती लागत से किसानों पर आर्थिक दबाव पड़ने लगा।
आजकल जैविक खेती जिसे आर्गेनिक एग्रीकल्चर भी कहते हैं, आधुनिक कृषि पद्धति के रूप में प्रचलित करने का प्रयास अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किया जा रहा है। परंतु यह हमारे देश की प्राचीन कृषि पद्धति रही है जिसे वैदिक कृषि भी कहा गया है। कृषक प्राकृतिक नियमों का पालन करते हुए वैज्ञानिक तथ्य को पूर्णरूपेण समझते हुए कृषि कार्य में संलग्न थे और इन्हें इच्छित सुफलदायी परिणाम प्राप्त होता था। मिट्टी की गुणवत्ता बनाए रखते हुए मानव कल्याण के साथ पर्यावरण संतुलन स्थापित रहता था। यह खेत, खलिहान, श्रमिक एवं उपभोक्ताओं के लिए किसी भी प्रकार से हानिकर प्रभाव से रहित थे।
हरित क्रांति में संकर बीज किस्मों, रासायनिक उर्वरकों, नई तकनीक व मशीनों के प्रयोग को प्रोत्साहित किया गया। रासायनिक, उर्वरकों जैसे यूरिया, डीएपी, कीटाणुनाशक तथा खरपतवार नाशक दवा का अत्यधिक उपयोग करने से मिट्टी की स्वाभाविक उर्वरा शक्ति में कमी हुई तथा बड़ी मात्रा में कृषि भूमि बंजर हो गई जिसके परिणामस्वरूप जैविक खेती को अपनाने का प्रचलन आरंभ हुआ और आज अधिकांश देश इसके अनुयायी बन गए हैं। हमारे परंपरागत बीज लुप्त हो गए तथा संकर बीजों पर निर्भरता बढ़ गई। उपज तो अच्छी प्राप्त हुई लेकिन रसायनों का दुष्प्रभाव मनुष्यों और जानवरों पर जब देखा गया तो किसानों एवं कृषि वैज्ञानिकों का विचार पुनः बदला और पुराने पथ पर जाने को मजबूर किया। खाद्य पदार्थों में कैडमियम तथा शीशा एवं अन्य अवांछित तत्वों की मात्रा अनुपात से अधिक पाई गई जिसे कैंसर जैसे रोगों का मुख्य कारक माना गया। संचित जल में भी हानिकारक तत्वों की मात्रा अधिक पाई गई। गांवों, कस्बों का जलाशय इन रसायनों के द्वारा प्रदूषित हुआ जिसने पालतू जानवरों के साथ जलीय पौधों एवं मछलियों को प्रभावित करते हुए फूडचेन के माध्यम से मनुष्यों में पहुंच कर अनेक व्याधियों को जन्म दिया।
आज रासायनिक प्रदूषण से तंग आकर देश या विदेश के वैज्ञानिक जैविक खेती करने को प्रोत्साहित कर रहे हैं। इस पद्धति के बारे में पुनः नए सिरे से कृषकों में जागृति तथा विश्वास बढ़ रहा है। जैविक खेती से उत्पाद की गुणवत्ता ही नहीं बल्कि खेत, खलिहान तथा उपभोक्ताओं में उन्नत सामंजस्य स्थापित हुआ है। हम भारत के किसान एवं कृषि वैज्ञानिकों के प्रति कृतज्ञ हैं जिन्होंने त्याग, तपस्या तथा अथक परिश्रम करके हमारे स्वास्थ्य एवं समृद्धि हेतु उन्नत उत्पाद अनमोल उपहार के रूप में प्रस्तुत किए हैं। आज जैविक खेती का परिचालन 130 देशों में लगभग 35 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में हो रहा है। जैविक खेती के तीन मुख्य आधार हैं। पहला—मिश्रित फसल, दूसरा—फसल चक्र और तीसरा—जैव उर्वरक का उपयोग। मिश्रित फसल लेने से कम क्षेत्रफल में हम अधिक उपज प्राप्त कर लेते हैं। मिट्टी में मौजूद विभिन्न तत्वों का आनुपातिक उपयोग विभिन्न फसलों में करते हैं। फलतः मिट्टी की प्राकृतिक गुणवत्ता बरकरार रहती है। फसली पौधे जितनी मात्रा में कार्बनिक या अकार्बनिक तत्व ग्रहण करते हैं उसे बायोजियोकेमिकल्स चक्र के अंतर्गत लौटा देते हैं। खरपतवारों को उगने का मौका नहीं मिल पाता। मगध प्रक्षेत्र में धान के खेत के मेड़ पर अरहर उपजाने की परंपरा रही है। पुनः अरहर के खेत में पंक्तिबद्ध मूंगफली, मूंग, उड़द, सोयाबीन या लोबिया लगाना सुविधाजनक होता है। इस प्रकार सहफसली खेती में उचित प्रजाति का चुनाव एवं सिंचाई प्रबंधन पर ध्यान देना आवश्यक है।
जैविक खेती का दूसरा आधार फसल चक्र है। एक ही फसल लगातार उगाने से मिट्टी में मौजूद लवणों का संतुलन बिगड़ जाता है। अतः फसल चक्र का अनुपालन करने से पौधों को भी उचित पोषण प्राप्त होता है, साथ ही मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है। खरपतवार भी न्यूनतम उग पाते हैं। पादप रोगों को भी फैलाव का मौका नहीं मिलता। कीटों की संख्या में ह्रास देखा गया है। खेती से प्राप्त अतिरिक्त उत्पाद को पुनः सड़ाकर उसी मिट्टी में मिला देने से किसानों की उर्वरक, कीटनाशक तथा खरपतवारनाशक रसायन पर व्यय राशि के साथ-साथ श्रम-शक्ति की भी बचत होती है। रासायनिक उर्वरकों का आयात करने में विदेशी मुद्रा की खपत कम होती है।
हम कृषि उत्पाद के अवशिष्ट पदार्थ (जैसे- पुआल, भूसी) बायोगैस संयंत्र का अवशिष्ट एवं केंचुआ खाद आदि का उपयोग करके मिट्टी में मौजूद विभिन्न तत्वों की आनुपातिक मात्रा सामान्य बनाए रख सकते हैं। खेत-खलिहानों के उत्पाद को ही उर्वरक, कीटाणुनाशक या खरपतवारनाशक या फफूंदीनाशक के रूप में इस्तेमाल करके आर्थिक बोझ को कम करते हुए प्राकृतिक संतुलन स्थापित कर सकते हैं। विभिन्न प्रकार के रसायनों के अत्यधिक इस्तेमाल से आंत्रशोध, एलर्जी, हेपेटाइटिस, हृदय रोग एवं कैंसर होने की संभावना बढ़ी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के सर्वे के अनुसार 20-25 हजार व्यक्ति प्रतिवर्ष इन रसायनों के प्रभाव से अकाल मृत्यु को प्राप्त करते हैं।
गोरखपुर एनवायरमेंटल एक्शन ग्रुप के अध्यक्ष एवं राज्य कृषि सलाहकार परिषद के सदस्य डॉ. शिराज वजीह का कहना है कि भारत की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा भाग कृषि उत्पादन पर निर्भर करता है। यह एक दुखद पहलू है कि हमारे यहां कुछ वर्षों से अधिकाधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए रासायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध व अनियंत्रित प्रयोग किया जा रहा है, जिसके कारण मृदा स्वास्थ्य और मृदा में उपलब्ध लाभदायक जीवाणुओं की संख्या में भारी ह्रास हुआ है। रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक प्रयोग से भूमि की उपजाऊ शक्ति में कमी तो आई ही है, साथ ही उसके अन्य दुष्प्रभाव जैसे- मृदा, जल तथा पर्यावरण प्रदूषण आदि भी सामने आने शुरू हो गए हैं। मृदा को स्वस्थ बनाए रखने, लक्षित उत्पादन प्राप्त करने के लिए, उत्पादन लागत कम करने हेतु व पर्यावरण और स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि रासायनिक उर्वरकों जैसे कीमती निवेश के प्रयोग को एक हद तक कम करके जैविक खादों के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
1. जैविक खादों के प्रयोग से मृदा का जैविक स्तर बढ़ता है, जिससे लाभकारी जीवाणुओं की संख्या बढ़ जाती है और मृदा काफी उपजाऊ बनी रहती है।
2. जैविक खाद पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक खनिज पदार्थ प्रदान कराते हैं, जो मृदा में मौजूद सूक्ष्म जीवों के द्वारा पौधों को मिलते हैं, जिससे पौधे स्वस्थ बनते हैं और उत्पादन बढ़ता है।
3. रासायनिक खादों के मुकाबले जैविक खाद सस्ते, टिकाऊ बनाने में आसान होते हैं। इनके प्रयोग से मृदा में ह्यूमस की बढ़ोतरी होती है व मृदा की भौतिक दशा में सुधार होता है।
4. पौध वृद्धि के लिए आवश्यक पोषक तत्वों जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश तथा काफी मात्रा में गौण पोषक तत्वों की पूर्ति जैविक खादों के प्रयोग से ही हो जाती है।
5. कीटों, बीमारियों तथा खरपतवारों का नियंत्रण काफी हद तक फसल चक्र, कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं, प्रतिरोध किस्मों और जैव उत्पादों द्वारा ही कर लिया जाता है।
6. जैविक खादें सड़ने पर कार्बनिक अम्ल देती हैं जो भूमि के अघुलनशील तत्वों को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित कर देती हैं, जिससे मृदा का पीएच मान 7 से कम हो जाता है। अतः इससे सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ जाती है। यह तत्व फसल उत्पादन में आवश्यक है।
7. इन खादों के प्रयोग से पोषक तत्व पौधों को काफी समय तक मिलते हैं। यह खादें अपना अवशिष्ट गुण मृदा में छोड़ती हैं। अतः एक फसल में इन खादों के प्रयोग से दूसरी फसल को लाभ मिलता है। इससे मृदा उर्वरता का संतुलन ठीक रहता है।
नीम के पूर्ण विकसित पौधे से 30-100 किलोग्राम तक फल प्राप्त होता है। प्राप्त बीज से 20 प्रतिशत तेल एवं 80 प्रतिशत नीम खली प्राप्त होती है। नीम के तेल में 100 से अधिक जैव सक्रिय यौगिक पाए जाते हैं तथा इसके द्वारा प्राप्त यौगिकों से 200 से अधिक कीटों का नियंत्रण किया जा सकता है। नीम के तेल में पाए जाने वाला कड़ुवापन निम्बीडिन के कारण होता है। नीम से निर्मित कीटनाशकों के प्रयोग से लक्षित कीटों में प्रतिरोधी क्षमता का विकास नहीं होता है। नीम के विभिन्न भागों के कुछ प्रमुख प्रयोग निम्नलिखित हैं-
नीम के तेल का कीटनाशक के रूप में प्रयोग करने से कीटों के जीवन चक्र में व्यवधान आता है। नीम तेल में पाये जाने वाले सक्रिय तत्व कीटों में कायांतरण के लिए उत्तरदायी हार्मोन के स्राव को रोकता है जिससे कीड़े की अगली अवस्था नहीं आ पाती। फलतः उनका जीवन चक्र रुक जाता है, परिणामस्वरूप कीड़ों की संख्या में वृद्धि नहीं हो पाती है। नीम तेल में पाये जाने वाले एजैडिरेक्टिन, सेलेमिन एवं मेलेनेंड्रीयोल के कारण कीटों के आमाशय में एंटीपेस्टिलिसिस तरंगें उत्पन्न होती हैं जिसके कारण कीटों में उल्टी (वमन) जैसी स्थिति का आभास होता है। अतः कीट पौधों को नहीं खाते, नीम के तेल का सबसे अधिक प्रभाव कुतरने, चबाने तथा चूसने वाले कीटों पर पड़ता है। परंतु यूएसईपीए के अध्ययन के अनुसार नीम तेल या नीम उत्पादों का पौधों, जंतुओं, स्तनधारियों एवं पक्षियों आदि पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता।
5 ग्राम डिटर्जेंट पाउडर को 1 लीटर पानी में अच्छी तरह घोल लें। अब इस एक लीटर घोल में 50 मिलीलीटर नीम तेल मिलाकर अच्छी तरह मथकर घोल बना लें। तैयार घोल को 9 लीटर पानी में मिला दें। इस प्रकार 10 लीटर कीटनाशक तैयार हो जाएगा। जिसको 8 घंटे के अंदर सुबह या शाम पौधों के संपूर्ण भाग पर स्प्रे कर दें। जाड़े में 10 दिन एवं गर्मी तथा वर्षा के समय 5 दिन के अंतराल पर पुनः छिड़काव करें।
नीम खली— नीम की खली में एजडिरेक्टीन 600 पीपीएस, नाइट्रोजन 2 से 5 प्रतिशत, फास्फोरस 0.5 से 0.1 प्रतिशत, पोटेशियम 1.67 प्रतिशत, कैल्शियम 0.99 प्रतिशत तथा मैग्निशियम 0.75 प्रतिशत पाया जाता है। इस प्रकार इसके उपयोग से पौधों को उर्वरक तो प्राप्त होता ही है साथ-साथ एजाडिरेक्टीन पाए जाने के कारण मृदा में निमेटोड, सफेद चींटी, जीवाणु-विषाणु, हानिकारक फफूंद आदि का भी नियंत्रण होता है। इसके प्रयोग से भूमि में नाइट्रोजन उपयोग की क्षमता भी बढ़ती है।
नीम की पत्ती का कीटनाशक के रूप में प्रयोग— नीम की पत्ती का भी कीटनाशक बनाने के लिए प्रयोग किया जा सकता है। इसे बनाने के लिए 10 किलोग्राम गोमूत्र को एक मिट्टी के बर्तन में रखे तथा उसमें 2.5 किलोग्राम नीम की पत्ती डाले और इसे 15 दिन तक सड़ने दें। 15 दिन पश्चात् सूती कपड़े से छानकर पत्ती को अलग कर लें तथा प्राप्त घोल को 50 लीटर पानी में मिलाकर सुबह या शाम पौधों पर छिड़काव करें। छिड़काव संपूर्ण पौधे पर 10-10 दिन के अंतराल पर करें।
नीम गिरी का सत— नीम गिरी का सत नीम के बीज से बनाया जाता है। इसे बनाने के लिए सुखाए गए बीजों से छिलके को पृथक कर लें। अब बीज को पीसकर पाउडर बना लें। 40-50 ग्राम पाउडर को सूती कपड़े की पोटली में बांधकर 500 से 700 ग्राम पानी में रातभर के लिए रखें। दूसरे दिन सुबह पोटली को पानी में खूब हिलाकर उसके रस (सत) को पानी में मिल जाने दें। इस प्रकार प्राप्त सत को 1 लीटर पानी में मिलाएं अब इसमें चिपकने वाले पदार्थ जैसे इंडोट्रान आदि की आधा चम्मच मात्रा मिलाए। तैयार घोल का सुबह या शाम प्रभावित फसल पर छिड़काव करें।
प्रभाव— कीटों के इल्ली व अन्य अवस्थाओं पर नियंत्रण, कीटों के प्रजनन, अंडों के विकास एवं एक अवस्था से दूसरी अवस्था के विकास (कायांतरण) में बाधक/विकर्षण प्रभाव। प्रकृति में पाए जाने वाले जीव-जंतुओं जैसे कि चिड़ियों, वन्य जीवों, मित्रकीटों-मकड़ी, तितली, लेडी बग, मधुमक्खी, ततैया, परागवाहकों आदि पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। नीम की पत्तियों एवं खली से शोधित मिट्टी में स्थित केंचुआ की वृद्धि एवं उनकी मृत्यु दर पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता।
इस प्रकार जैविक खेती मूलतः फसल-चक्र, मिश्रित फसल, खेत-खलिहान के अवशिष्ट पदार्थ के सदुपयोग, गोबर-खाद, केंचुआ खाद तथा जैविक कीट नियंत्रण के इस्तेमाल पर आधारित है। इससे अवशिष्ट पदार्थों का सदुपयोग भी हो जाता है तथा वातावरण प्रदूषण मुक्त भी रहता है।
जिला गोरखपुर, ब्लॉक खोराबार, ग्राम झंगहा के श्री शिव वचन यादव अपनी पूरी खेती जैविक विधि से करते हैं एवं अपने घर अथवा खेत में उपलब्ध संसाधनों (गौमूत्र, लहसुन, सुर्ती, नीम आदि) द्वारा कीटनाशकों का निर्माण व उनका नियमित प्रयोग अपने खेतों में करते हैं जिससे फसल स्वस्थ रहे। श्री शिव वचन यादव अपने खेत में किसी भी तरह के रासायनिक कीटनाशक या रासायनिक खाद का प्रयोग बिल्कुल नहीं करते हैं। इनका कहना है कि यदि भूमि-शोधन व बीज अथवा पौध-शोधन की क्रिया जैविक विधि से की जाए तो कीट व रोग के लगने की संभावनाएं स्वयं ही कम हो जाएंगी।
इनके साथ-साथ भूमि की उर्वरा शक्ति व खाद्य सुरक्षा हेतु फसल पद्धति व मिश्रित फसलों के उत्पादन के महत्व को अच्छी तरह से शिव वचन जी समझते हैं। इनका कहना है कि किसानों को फसलों के साथ बागवानी व छोटे जानवरों को समन्वित करना होगा जिससे यह सभी तंत्र एक-दूसरे पर निर्भर होकर उत्पादन में वृद्धि भी करते रहे और नुकसान की संभावनाएं भी कम होती जाए। आज की खेती में खतरे बहुत ज्यादा हैं जिसके कारण एकल नकदी फसल व उसमें लगने वाली बड़ी लागत है। ऐसे खतरों से बचने का आसान रास्ता है समन्वित खेती। प्राचीन समय में खेती के अधिकाधिक फायदेमंद होने की एक सबसे बड़ी वजह जानवर थे जो खेत का हिस्सा होते थे, खेती पूरी तरह उन पर निर्भर करती थी। आज उसके महत्व को समझना होगा। अपनी आर्थिक स्थिति व आवश्यकता के अनुसार किसान छोटे या बड़े जानवर रखकर उस कमी को पूरा कर सकते हैं।
बीज उत्पादन व भंडारण— श्री यादव बताते हैं कि मैं अपने खेतों में ही परंपरागत बीजों का उत्पादन करता हूं जिससे मेरी बाजार पर निर्भरता समाप्त हो सके और आगामी तीन साल तक हमें खेती के लिए बीज न खरीदना पड़े। साथ ही इनके भंडारण की उचित व्यवस्था भी देशी तरीके से करता हूं। गेहूं व धान के साथ-साथ साग-सब्जी व अन्य बीजों को भी संरक्षित कर रहा हूं जिससे बीजों पर लगने वाली लागत कम अथवा समाप्त हो जाए और उत्पादन में गुणवत्ता बनी रहे। खेती व अच्छे उत्पादन में गुणवत्ता बनी रहे। खेती व अच्छे उत्पादन का सारा दारोमदार बीज पर ही होता है। अतः इनके चयन में बहुत सतर्कता की आवश्यकता है।
खाद निर्माण— विभिन्न प्रकार की जैविक खादों, कंपोस्ट नाडेप, केंचुए की खाद, सीपीपी आदि में से अपने उपलब्ध संसाधनों व आवश्यकताओं के अनुसार खाद स्वयं तैयार करता हूं जिससे भरपूर पौष्टिकता बिना किसी विशेष लागत के जमीन को दी जा सके। यह आवश्यक नहीं है कि सभी प्रकार की खादों का एक साथ निर्माण किया जाए, यह खेत के आकार और उसकी पोषण संबंधी जरूरतों पर निर्भर होगा कि कौन-सी खाद उपयुक्त होगी। साथ ही लगाई जाने वाली फसलों व उपलब्ध जमीन के ऊपर भी निर्भर होगा।
जैविक कीटनाशक— घर अथवा खेत में उपलब्ध संसाधनों (गौमूत्र, लहसुन, सुर्ती, नीम आदि) द्वारा कीटनाशकों का निर्माण व उनका नियमित प्रयोग करता हूं। अपने खेतों में घर पर निर्मित कीटनाशक ही प्रयोग करता हूं जिससे फसल स्वस्थ रहे। यदि भूमि-शोधन व बीज अथवा पौध-शोधन की क्रिया समुचित रूप से की जाए तो कीट व रोग के लगने की संभावनाएं स्वयं ही कम हो जाएंगी। आज मैं गोरखपुर एनवायरमेंटल एक्शन ग्रुप द्वारा संचालित किसान स्कूल का संचालक एवं सरकार द्वारा चलाए जा रहे आत्मा प्रोग्राम का चयनित किसान हूं। क्षेत्र में मेरी पहचान न केवल एक प्रयोगधर्मी किसान की बनी, बल्कि मैं मास्टर ट्रेनर के रूप में जाना जाने लगा। किसान स्कूल का संचालक बना और उसके बाद एक प्रशिक्षक के रूप में उभर कर सामने आया हूं। अपने जीवन की उपलब्धि को मैंने हमेशा बड़े सकारात्मक नजरिये से देखा और चाहा कि हमारे क्षेत्र के किसानों की आय बढ़े, उनकी खेती टिकाऊ हो, उनका उत्पाद टिकाऊ हो और कुल मिलाकर किसानों का जीवन टिकाऊ हो।
(लेखक गोरखपुर एनवायरमेंटल एक्शन ग्रुप के मीडिया समन्वयक हैं)
ई-मेल : jitendraabf@gmail.com
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि 60वें दशक की हरित क्रांति ने यद्यपि देश को खाद्यान्न की दिशा में आत्मनिर्भर बनाया लेकिन इसके दूसरे पहलू पर यदि गौर करें तो यह भी वास्तविकता है कि खेती में अंधाधुंध उर्वरकों के उपयोग से जल स्तर में गिरावट के साथ मृदा की उर्वरता भी प्रभावित हुई है और एक समय बाद खाद्यान्न उत्पादन न केवल स्थिर हो गया बल्कि प्रदूषण में भी बढ़ोतरी हुई है और स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा हुआ है जिससे सोना उगलने वाली धरती मरुस्थल का रूप धारण करती नजर आ रही है। मिट्टी में सैकड़ों किस्म के जीव-जंतु एवं जीवाणु होते हैं जो खेती के लिए हानिकारक कीटों को खा जाते हैं। फलतः उत्पादन प्रभावित होता है। इसलिए समय की मांग है कि 60 के दशक की पहली क्रांति के अनुभवों से सबक लेते हुए हमें दूसरी हरित क्रांति में रासायनिक उर्वरकों के इस्तेमाल में सावधानी बरतते हुए जैविक खेती पर ध्यान देना चाहिए।
जैविक खेती में हम कंपोस्ट खाद के अलावा नाडेप, कंपोस्ट खाद, केंचुआ खाद, नीम खली, लेमन ग्रास एवं फसल अवशेषों को शामिल करते हैं। जैविक खाद के उपयोग से न केवल मृदा की उर्वरता बढ़ती है बल्कि उसमें नमी की वजह से काफी हद तक सूखे की समस्या से भी निजात मिलती है। जैविक खाद के प्रयोग से भूजल धारण क्षमता बढ़ती है। इसके साथ ही जैविक कीटनाशक से मित्र कीट भी संरक्षित होते हैं। इस प्रकार घटते भूजल स्तर के लिए जैविक खेती एक वरदान साबित होगी। एक अनुमान के अनुसार किसान अपनी उत्पादित फसल का 25-40 प्रतिशत ही उपयोग कर पाते हैं। भारत में प्रतिवर्ष 600 मिलियन टन कृषि अवशेष पैदा होता है, इसमें से अधिकांश अवशेषों को किसान अगली फसल हेतु खेत तैयार करने के लिए खेत में ही जला देते हैं जबकि इसका उपयोग जैविक खाद को तैयार करने के लिए आसानी से किया जा सकता है।
भारतीय किसान परंपरागत रूप से खेती में स्थानीय तकनीकों व संसाधनों का उपयोग करते थे जिसमें स्थानीय बीज, वर्षा आधारित खेती व जैविक खाद थे जिसे सड़े-गले पत्ते व घासों का उपयोग कर बनाने में भारतीय किसान माहिर थे। पारंपरिक खाद के प्रयोग से फसल अधिक गुणवत्ता वाली होती थी। साथ ही आसपास का वातावरण साफ व स्वच्छ रहता था। एक-दो दशक पहले तक आम काश्तकार खेती से इतना उत्पादन कर लेता था कि परिवार का गुजर-बसर हो जाता था और अपनी आर्थिक जरूरतें भी पूरी हो जाती थीं लेकिन आधुनिकता व बाजारवाद की आंधी ने किसानों का रुख जैविक खाद से रासायनिक खादों की तरफ मोड़ दिया। रासायनिक खाद, बीज व कीटनाशकों के प्रयोग से उत्पादन में वृद्धि हुई लेकिन एक सीमा के बाद उस पर बढ़ती लागत से किसानों पर आर्थिक दबाव पड़ने लगा।
आजकल जैविक खेती जिसे आर्गेनिक एग्रीकल्चर भी कहते हैं, आधुनिक कृषि पद्धति के रूप में प्रचलित करने का प्रयास अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किया जा रहा है। परंतु यह हमारे देश की प्राचीन कृषि पद्धति रही है जिसे वैदिक कृषि भी कहा गया है। कृषक प्राकृतिक नियमों का पालन करते हुए वैज्ञानिक तथ्य को पूर्णरूपेण समझते हुए कृषि कार्य में संलग्न थे और इन्हें इच्छित सुफलदायी परिणाम प्राप्त होता था। मिट्टी की गुणवत्ता बनाए रखते हुए मानव कल्याण के साथ पर्यावरण संतुलन स्थापित रहता था। यह खेत, खलिहान, श्रमिक एवं उपभोक्ताओं के लिए किसी भी प्रकार से हानिकर प्रभाव से रहित थे।
हरित क्रांति में संकर बीज किस्मों, रासायनिक उर्वरकों, नई तकनीक व मशीनों के प्रयोग को प्रोत्साहित किया गया। रासायनिक, उर्वरकों जैसे यूरिया, डीएपी, कीटाणुनाशक तथा खरपतवार नाशक दवा का अत्यधिक उपयोग करने से मिट्टी की स्वाभाविक उर्वरा शक्ति में कमी हुई तथा बड़ी मात्रा में कृषि भूमि बंजर हो गई जिसके परिणामस्वरूप जैविक खेती को अपनाने का प्रचलन आरंभ हुआ और आज अधिकांश देश इसके अनुयायी बन गए हैं। हमारे परंपरागत बीज लुप्त हो गए तथा संकर बीजों पर निर्भरता बढ़ गई। उपज तो अच्छी प्राप्त हुई लेकिन रसायनों का दुष्प्रभाव मनुष्यों और जानवरों पर जब देखा गया तो किसानों एवं कृषि वैज्ञानिकों का विचार पुनः बदला और पुराने पथ पर जाने को मजबूर किया। खाद्य पदार्थों में कैडमियम तथा शीशा एवं अन्य अवांछित तत्वों की मात्रा अनुपात से अधिक पाई गई जिसे कैंसर जैसे रोगों का मुख्य कारक माना गया। संचित जल में भी हानिकारक तत्वों की मात्रा अधिक पाई गई। गांवों, कस्बों का जलाशय इन रसायनों के द्वारा प्रदूषित हुआ जिसने पालतू जानवरों के साथ जलीय पौधों एवं मछलियों को प्रभावित करते हुए फूडचेन के माध्यम से मनुष्यों में पहुंच कर अनेक व्याधियों को जन्म दिया।
आज रासायनिक प्रदूषण से तंग आकर देश या विदेश के वैज्ञानिक जैविक खेती करने को प्रोत्साहित कर रहे हैं। इस पद्धति के बारे में पुनः नए सिरे से कृषकों में जागृति तथा विश्वास बढ़ रहा है। जैविक खेती से उत्पाद की गुणवत्ता ही नहीं बल्कि खेत, खलिहान तथा उपभोक्ताओं में उन्नत सामंजस्य स्थापित हुआ है। हम भारत के किसान एवं कृषि वैज्ञानिकों के प्रति कृतज्ञ हैं जिन्होंने त्याग, तपस्या तथा अथक परिश्रम करके हमारे स्वास्थ्य एवं समृद्धि हेतु उन्नत उत्पाद अनमोल उपहार के रूप में प्रस्तुत किए हैं। आज जैविक खेती का परिचालन 130 देशों में लगभग 35 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र में हो रहा है। जैविक खेती के तीन मुख्य आधार हैं। पहला—मिश्रित फसल, दूसरा—फसल चक्र और तीसरा—जैव उर्वरक का उपयोग। मिश्रित फसल लेने से कम क्षेत्रफल में हम अधिक उपज प्राप्त कर लेते हैं। मिट्टी में मौजूद विभिन्न तत्वों का आनुपातिक उपयोग विभिन्न फसलों में करते हैं। फलतः मिट्टी की प्राकृतिक गुणवत्ता बरकरार रहती है। फसली पौधे जितनी मात्रा में कार्बनिक या अकार्बनिक तत्व ग्रहण करते हैं उसे बायोजियोकेमिकल्स चक्र के अंतर्गत लौटा देते हैं। खरपतवारों को उगने का मौका नहीं मिल पाता। मगध प्रक्षेत्र में धान के खेत के मेड़ पर अरहर उपजाने की परंपरा रही है। पुनः अरहर के खेत में पंक्तिबद्ध मूंगफली, मूंग, उड़द, सोयाबीन या लोबिया लगाना सुविधाजनक होता है। इस प्रकार सहफसली खेती में उचित प्रजाति का चुनाव एवं सिंचाई प्रबंधन पर ध्यान देना आवश्यक है।
जैविक खेती का दूसरा आधार फसल चक्र है। एक ही फसल लगातार उगाने से मिट्टी में मौजूद लवणों का संतुलन बिगड़ जाता है। अतः फसल चक्र का अनुपालन करने से पौधों को भी उचित पोषण प्राप्त होता है, साथ ही मिट्टी की उर्वरता बनी रहती है। खरपतवार भी न्यूनतम उग पाते हैं। पादप रोगों को भी फैलाव का मौका नहीं मिलता। कीटों की संख्या में ह्रास देखा गया है। खेती से प्राप्त अतिरिक्त उत्पाद को पुनः सड़ाकर उसी मिट्टी में मिला देने से किसानों की उर्वरक, कीटनाशक तथा खरपतवारनाशक रसायन पर व्यय राशि के साथ-साथ श्रम-शक्ति की भी बचत होती है। रासायनिक उर्वरकों का आयात करने में विदेशी मुद्रा की खपत कम होती है।
हम कृषि उत्पाद के अवशिष्ट पदार्थ (जैसे- पुआल, भूसी) बायोगैस संयंत्र का अवशिष्ट एवं केंचुआ खाद आदि का उपयोग करके मिट्टी में मौजूद विभिन्न तत्वों की आनुपातिक मात्रा सामान्य बनाए रख सकते हैं। खेत-खलिहानों के उत्पाद को ही उर्वरक, कीटाणुनाशक या खरपतवारनाशक या फफूंदीनाशक के रूप में इस्तेमाल करके आर्थिक बोझ को कम करते हुए प्राकृतिक संतुलन स्थापित कर सकते हैं। विभिन्न प्रकार के रसायनों के अत्यधिक इस्तेमाल से आंत्रशोध, एलर्जी, हेपेटाइटिस, हृदय रोग एवं कैंसर होने की संभावना बढ़ी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के सर्वे के अनुसार 20-25 हजार व्यक्ति प्रतिवर्ष इन रसायनों के प्रभाव से अकाल मृत्यु को प्राप्त करते हैं।
जैविक खाद का फसल उत्पादन में महत्व
गोरखपुर एनवायरमेंटल एक्शन ग्रुप के अध्यक्ष एवं राज्य कृषि सलाहकार परिषद के सदस्य डॉ. शिराज वजीह का कहना है कि भारत की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा भाग कृषि उत्पादन पर निर्भर करता है। यह एक दुखद पहलू है कि हमारे यहां कुछ वर्षों से अधिकाधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए रासायनिक उर्वरकों का अंधाधुंध व अनियंत्रित प्रयोग किया जा रहा है, जिसके कारण मृदा स्वास्थ्य और मृदा में उपलब्ध लाभदायक जीवाणुओं की संख्या में भारी ह्रास हुआ है। रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक प्रयोग से भूमि की उपजाऊ शक्ति में कमी तो आई ही है, साथ ही उसके अन्य दुष्प्रभाव जैसे- मृदा, जल तथा पर्यावरण प्रदूषण आदि भी सामने आने शुरू हो गए हैं। मृदा को स्वस्थ बनाए रखने, लक्षित उत्पादन प्राप्त करने के लिए, उत्पादन लागत कम करने हेतु व पर्यावरण और स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से यह आवश्यक है कि रासायनिक उर्वरकों जैसे कीमती निवेश के प्रयोग को एक हद तक कम करके जैविक खादों के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।
जैविक खादों का मृदा उर्वरता और फसल उत्पादन में महत्व
1. जैविक खादों के प्रयोग से मृदा का जैविक स्तर बढ़ता है, जिससे लाभकारी जीवाणुओं की संख्या बढ़ जाती है और मृदा काफी उपजाऊ बनी रहती है।
2. जैविक खाद पौधों की वृद्धि के लिए आवश्यक खनिज पदार्थ प्रदान कराते हैं, जो मृदा में मौजूद सूक्ष्म जीवों के द्वारा पौधों को मिलते हैं, जिससे पौधे स्वस्थ बनते हैं और उत्पादन बढ़ता है।
3. रासायनिक खादों के मुकाबले जैविक खाद सस्ते, टिकाऊ बनाने में आसान होते हैं। इनके प्रयोग से मृदा में ह्यूमस की बढ़ोतरी होती है व मृदा की भौतिक दशा में सुधार होता है।
4. पौध वृद्धि के लिए आवश्यक पोषक तत्वों जैसे नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश तथा काफी मात्रा में गौण पोषक तत्वों की पूर्ति जैविक खादों के प्रयोग से ही हो जाती है।
5. कीटों, बीमारियों तथा खरपतवारों का नियंत्रण काफी हद तक फसल चक्र, कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं, प्रतिरोध किस्मों और जैव उत्पादों द्वारा ही कर लिया जाता है।
6. जैविक खादें सड़ने पर कार्बनिक अम्ल देती हैं जो भूमि के अघुलनशील तत्वों को घुलनशील अवस्था में परिवर्तित कर देती हैं, जिससे मृदा का पीएच मान 7 से कम हो जाता है। अतः इससे सूक्ष्म पोषक तत्वों की उपलब्धता बढ़ जाती है। यह तत्व फसल उत्पादन में आवश्यक है।
7. इन खादों के प्रयोग से पोषक तत्व पौधों को काफी समय तक मिलते हैं। यह खादें अपना अवशिष्ट गुण मृदा में छोड़ती हैं। अतः एक फसल में इन खादों के प्रयोग से दूसरी फसल को लाभ मिलता है। इससे मृदा उर्वरता का संतुलन ठीक रहता है।
जैविक व हरी खादों में औसत पोषक तत्व (प्रतिशत में) | |||
जैविक खाद | पोषक तत्व | ||
नाइट्रोजन | फास्फोरस | पोटाश | |
फार्मयार्ड खाद | 0.80 | 0.41 | 0.74 |
कंपोस्ट खाद | 1.24 | 1.92 | 1.07 |
वर्मी कंपोस्ट | 1.60 | 2.20 | 0.67 |
धान पुआल की खाद | 1.59 | 1.34 | 1.37 |
गेहूं भूसा की खाद | 2.90 | 2.05 | 0.90 |
प्रेसमड | 2.73 | 1.81 | 1.31 |
जलकुंभी | 2.0 | 1.0 | 2.30 |
मुर्गी खाद | 2.87 | 2.93 | 2.35 |
हरी खाद | |||
सनई | 0.43 | 0.12 | 0.5 |
ढैंचा | 0.5 | 0.10 | 0.50 |
बिनौला | 3.9 | 1.8 | 1.6 |
महुवा केक | 2.5 | 0.8 | 1.8 |
नीम केक | 5.2 | 1.0 | 1.4 |
मूंगफली की खली | 7.4 | 1.5 | 1.3 |
सनफ्लावर | 7.9 | 2.2 | 1.9 |
तिल केक | 6.2 | 2.0 | 2.2 |
सरसों की खली | 5.15 | 1.8 | 1.2 |
जैविक खेती में नीम का महत्व
नीम के पूर्ण विकसित पौधे से 30-100 किलोग्राम तक फल प्राप्त होता है। प्राप्त बीज से 20 प्रतिशत तेल एवं 80 प्रतिशत नीम खली प्राप्त होती है। नीम के तेल में 100 से अधिक जैव सक्रिय यौगिक पाए जाते हैं तथा इसके द्वारा प्राप्त यौगिकों से 200 से अधिक कीटों का नियंत्रण किया जा सकता है। नीम के तेल में पाए जाने वाला कड़ुवापन निम्बीडिन के कारण होता है। नीम से निर्मित कीटनाशकों के प्रयोग से लक्षित कीटों में प्रतिरोधी क्षमता का विकास नहीं होता है। नीम के विभिन्न भागों के कुछ प्रमुख प्रयोग निम्नलिखित हैं-
नीम तेल कीटनाशक के रूप में
नीम के तेल का कीटनाशक के रूप में प्रयोग करने से कीटों के जीवन चक्र में व्यवधान आता है। नीम तेल में पाये जाने वाले सक्रिय तत्व कीटों में कायांतरण के लिए उत्तरदायी हार्मोन के स्राव को रोकता है जिससे कीड़े की अगली अवस्था नहीं आ पाती। फलतः उनका जीवन चक्र रुक जाता है, परिणामस्वरूप कीड़ों की संख्या में वृद्धि नहीं हो पाती है। नीम तेल में पाये जाने वाले एजैडिरेक्टिन, सेलेमिन एवं मेलेनेंड्रीयोल के कारण कीटों के आमाशय में एंटीपेस्टिलिसिस तरंगें उत्पन्न होती हैं जिसके कारण कीटों में उल्टी (वमन) जैसी स्थिति का आभास होता है। अतः कीट पौधों को नहीं खाते, नीम के तेल का सबसे अधिक प्रभाव कुतरने, चबाने तथा चूसने वाले कीटों पर पड़ता है। परंतु यूएसईपीए के अध्ययन के अनुसार नीम तेल या नीम उत्पादों का पौधों, जंतुओं, स्तनधारियों एवं पक्षियों आदि पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता।
कीटनाशक बनाने की विधि
5 ग्राम डिटर्जेंट पाउडर को 1 लीटर पानी में अच्छी तरह घोल लें। अब इस एक लीटर घोल में 50 मिलीलीटर नीम तेल मिलाकर अच्छी तरह मथकर घोल बना लें। तैयार घोल को 9 लीटर पानी में मिला दें। इस प्रकार 10 लीटर कीटनाशक तैयार हो जाएगा। जिसको 8 घंटे के अंदर सुबह या शाम पौधों के संपूर्ण भाग पर स्प्रे कर दें। जाड़े में 10 दिन एवं गर्मी तथा वर्षा के समय 5 दिन के अंतराल पर पुनः छिड़काव करें।
नीम खली— नीम की खली में एजडिरेक्टीन 600 पीपीएस, नाइट्रोजन 2 से 5 प्रतिशत, फास्फोरस 0.5 से 0.1 प्रतिशत, पोटेशियम 1.67 प्रतिशत, कैल्शियम 0.99 प्रतिशत तथा मैग्निशियम 0.75 प्रतिशत पाया जाता है। इस प्रकार इसके उपयोग से पौधों को उर्वरक तो प्राप्त होता ही है साथ-साथ एजाडिरेक्टीन पाए जाने के कारण मृदा में निमेटोड, सफेद चींटी, जीवाणु-विषाणु, हानिकारक फफूंद आदि का भी नियंत्रण होता है। इसके प्रयोग से भूमि में नाइट्रोजन उपयोग की क्षमता भी बढ़ती है।
नीम की पत्ती का कीटनाशक के रूप में प्रयोग— नीम की पत्ती का भी कीटनाशक बनाने के लिए प्रयोग किया जा सकता है। इसे बनाने के लिए 10 किलोग्राम गोमूत्र को एक मिट्टी के बर्तन में रखे तथा उसमें 2.5 किलोग्राम नीम की पत्ती डाले और इसे 15 दिन तक सड़ने दें। 15 दिन पश्चात् सूती कपड़े से छानकर पत्ती को अलग कर लें तथा प्राप्त घोल को 50 लीटर पानी में मिलाकर सुबह या शाम पौधों पर छिड़काव करें। छिड़काव संपूर्ण पौधे पर 10-10 दिन के अंतराल पर करें।
नीम गिरी का सत— नीम गिरी का सत नीम के बीज से बनाया जाता है। इसे बनाने के लिए सुखाए गए बीजों से छिलके को पृथक कर लें। अब बीज को पीसकर पाउडर बना लें। 40-50 ग्राम पाउडर को सूती कपड़े की पोटली में बांधकर 500 से 700 ग्राम पानी में रातभर के लिए रखें। दूसरे दिन सुबह पोटली को पानी में खूब हिलाकर उसके रस (सत) को पानी में मिल जाने दें। इस प्रकार प्राप्त सत को 1 लीटर पानी में मिलाएं अब इसमें चिपकने वाले पदार्थ जैसे इंडोट्रान आदि की आधा चम्मच मात्रा मिलाए। तैयार घोल का सुबह या शाम प्रभावित फसल पर छिड़काव करें।
प्रभाव— कीटों के इल्ली व अन्य अवस्थाओं पर नियंत्रण, कीटों के प्रजनन, अंडों के विकास एवं एक अवस्था से दूसरी अवस्था के विकास (कायांतरण) में बाधक/विकर्षण प्रभाव। प्रकृति में पाए जाने वाले जीव-जंतुओं जैसे कि चिड़ियों, वन्य जीवों, मित्रकीटों-मकड़ी, तितली, लेडी बग, मधुमक्खी, ततैया, परागवाहकों आदि पर कोई प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। नीम की पत्तियों एवं खली से शोधित मिट्टी में स्थित केंचुआ की वृद्धि एवं उनकी मृत्यु दर पर कोई नकारात्मक प्रभाव नहीं पड़ता।
इस प्रकार जैविक खेती मूलतः फसल-चक्र, मिश्रित फसल, खेत-खलिहान के अवशिष्ट पदार्थ के सदुपयोग, गोबर-खाद, केंचुआ खाद तथा जैविक कीट नियंत्रण के इस्तेमाल पर आधारित है। इससे अवशिष्ट पदार्थों का सदुपयोग भी हो जाता है तथा वातावरण प्रदूषण मुक्त भी रहता है।
जैविक खेती से लिखी सफलता की कहानी
जिला गोरखपुर, ब्लॉक खोराबार, ग्राम झंगहा के श्री शिव वचन यादव अपनी पूरी खेती जैविक विधि से करते हैं एवं अपने घर अथवा खेत में उपलब्ध संसाधनों (गौमूत्र, लहसुन, सुर्ती, नीम आदि) द्वारा कीटनाशकों का निर्माण व उनका नियमित प्रयोग अपने खेतों में करते हैं जिससे फसल स्वस्थ रहे। श्री शिव वचन यादव अपने खेत में किसी भी तरह के रासायनिक कीटनाशक या रासायनिक खाद का प्रयोग बिल्कुल नहीं करते हैं। इनका कहना है कि यदि भूमि-शोधन व बीज अथवा पौध-शोधन की क्रिया जैविक विधि से की जाए तो कीट व रोग के लगने की संभावनाएं स्वयं ही कम हो जाएंगी।
इनके साथ-साथ भूमि की उर्वरा शक्ति व खाद्य सुरक्षा हेतु फसल पद्धति व मिश्रित फसलों के उत्पादन के महत्व को अच्छी तरह से शिव वचन जी समझते हैं। इनका कहना है कि किसानों को फसलों के साथ बागवानी व छोटे जानवरों को समन्वित करना होगा जिससे यह सभी तंत्र एक-दूसरे पर निर्भर होकर उत्पादन में वृद्धि भी करते रहे और नुकसान की संभावनाएं भी कम होती जाए। आज की खेती में खतरे बहुत ज्यादा हैं जिसके कारण एकल नकदी फसल व उसमें लगने वाली बड़ी लागत है। ऐसे खतरों से बचने का आसान रास्ता है समन्वित खेती। प्राचीन समय में खेती के अधिकाधिक फायदेमंद होने की एक सबसे बड़ी वजह जानवर थे जो खेत का हिस्सा होते थे, खेती पूरी तरह उन पर निर्भर करती थी। आज उसके महत्व को समझना होगा। अपनी आर्थिक स्थिति व आवश्यकता के अनुसार किसान छोटे या बड़े जानवर रखकर उस कमी को पूरा कर सकते हैं।
बीज उत्पादन व भंडारण— श्री यादव बताते हैं कि मैं अपने खेतों में ही परंपरागत बीजों का उत्पादन करता हूं जिससे मेरी बाजार पर निर्भरता समाप्त हो सके और आगामी तीन साल तक हमें खेती के लिए बीज न खरीदना पड़े। साथ ही इनके भंडारण की उचित व्यवस्था भी देशी तरीके से करता हूं। गेहूं व धान के साथ-साथ साग-सब्जी व अन्य बीजों को भी संरक्षित कर रहा हूं जिससे बीजों पर लगने वाली लागत कम अथवा समाप्त हो जाए और उत्पादन में गुणवत्ता बनी रहे। खेती व अच्छे उत्पादन में गुणवत्ता बनी रहे। खेती व अच्छे उत्पादन का सारा दारोमदार बीज पर ही होता है। अतः इनके चयन में बहुत सतर्कता की आवश्यकता है।
खाद निर्माण— विभिन्न प्रकार की जैविक खादों, कंपोस्ट नाडेप, केंचुए की खाद, सीपीपी आदि में से अपने उपलब्ध संसाधनों व आवश्यकताओं के अनुसार खाद स्वयं तैयार करता हूं जिससे भरपूर पौष्टिकता बिना किसी विशेष लागत के जमीन को दी जा सके। यह आवश्यक नहीं है कि सभी प्रकार की खादों का एक साथ निर्माण किया जाए, यह खेत के आकार और उसकी पोषण संबंधी जरूरतों पर निर्भर होगा कि कौन-सी खाद उपयुक्त होगी। साथ ही लगाई जाने वाली फसलों व उपलब्ध जमीन के ऊपर भी निर्भर होगा।
जैविक कीटनाशक— घर अथवा खेत में उपलब्ध संसाधनों (गौमूत्र, लहसुन, सुर्ती, नीम आदि) द्वारा कीटनाशकों का निर्माण व उनका नियमित प्रयोग करता हूं। अपने खेतों में घर पर निर्मित कीटनाशक ही प्रयोग करता हूं जिससे फसल स्वस्थ रहे। यदि भूमि-शोधन व बीज अथवा पौध-शोधन की क्रिया समुचित रूप से की जाए तो कीट व रोग के लगने की संभावनाएं स्वयं ही कम हो जाएंगी। आज मैं गोरखपुर एनवायरमेंटल एक्शन ग्रुप द्वारा संचालित किसान स्कूल का संचालक एवं सरकार द्वारा चलाए जा रहे आत्मा प्रोग्राम का चयनित किसान हूं। क्षेत्र में मेरी पहचान न केवल एक प्रयोगधर्मी किसान की बनी, बल्कि मैं मास्टर ट्रेनर के रूप में जाना जाने लगा। किसान स्कूल का संचालक बना और उसके बाद एक प्रशिक्षक के रूप में उभर कर सामने आया हूं। अपने जीवन की उपलब्धि को मैंने हमेशा बड़े सकारात्मक नजरिये से देखा और चाहा कि हमारे क्षेत्र के किसानों की आय बढ़े, उनकी खेती टिकाऊ हो, उनका उत्पाद टिकाऊ हो और कुल मिलाकर किसानों का जीवन टिकाऊ हो।
जैविक खेती से लिखी सफलता की कहानी जिला गोरखपुर, ब्लॉक खोराबार, ग्राम झंगहा के श्री शिव वचन यादव अपनी पूरी खेती जैविक विधि से करते हैं एवं अपने घर अथवा खेत में उपलब्ध संसाधनों (गौमूत्र, लहसुन, सुर्ती, नीम आदि) द्वारा कीटनाशकों का निर्माण व उनका नियमित प्रयोग अपने खेतों में करते हैं जिससे फसल स्वस्थ रहे। श्री शिव वचन यादव अपने खेत में किसी भी तरह के रासायनिक कीटनाशक या रासायनिक खाद का प्रयोग बिल्कुल नहीं करते हैं। इनका कहना है कि यदि भूमि-शोधन व बीज अथवा पौध-शोधन की क्रिया जैविक विधि से की जाए तो कीट व रोग के लगने की संभावनाएं स्वयं ही कम हो जाएंगी। इनके साथ-साथ भूमि की उर्वरा शक्ति व खाद्य सुरक्षा हेतु फसल पद्धति व मिश्रित फसलों के उत्पादन के महत्व को अच्छी तरह से शिव वचन जी समझते हैं। इनका कहना है कि किसानों को फसलों के साथ बागवानी व छोटे जानवरों को समन्वित करना होगा जिससे यह सभी तंत्र एक-दूसरे पर निर्भर होकर उत्पादन में वृद्धि भी करते रहे और नुकसान की संभावनाएं भी कम होती जाए। आज की खेती में खतरे बहुत ज्यादा हैं जिसके कारण एकल नकदी फसल व उसमें लगने वाली बड़ी लागत है। ऐसे खतरों से बचने का आसान रास्ता है समन्वित खेती। प्राचीन समय में खेती के अधिकाधिक फायदेमंद होने की एक सबसे बड़ी वजह जानवर थे जो खेत का हिस्सा होते थे, खेती पूरी तरह उन पर निर्भर करती थी। आज उसके महत्व को समझना होगा। अपनी आर्थिक स्थिति व आवश्यकता के अनुसार किसान छोटे या बड़े जानवर रखकर उस कमी को पूरा कर सकते हैं। बीज उत्पादन व भंडारण— श्री यादव बताते हैं कि मैं अपने खेतों में ही परंपरागत बीजों का उत्पादन करता हूं जिससे मेरी बाजार पर निर्भरता समाप्त हो सके और आगामी तीन साल तक हमें खेती के लिए बीज न खरीदना पड़े। साथ ही इनके भंडारण की उचित व्यवस्था भी देशी तरीके से करता हूं। गेहूं व धान के साथ-साथ साग-सब्जी व अन्य बीजों को भी संरक्षित कर रहा हूं जिससे बीजों पर लगने वाली लागत कम अथवा समाप्त हो जाए और उत्पादन में गुणवत्ता बनी रहे। खेती व अच्छे उत्पादन में गुणवत्ता बनी रहे। खेती व अच्छे उत्पादन का सारा दारोमदार बीज पर ही होता है। अतः इनके चयन में बहुत सतर्कता की आवश्यकता है। खाद निर्माण— विभिन्न प्रकार की जैविक खादों, कंपोस्ट नाडेप, केंचुए की खाद, सीपीपी आदि में से अपने उपलब्ध संसाधनों व आवश्यकताओं के अनुसार खाद स्वयं तैयार करता हूं जिससे भरपूर पौष्टिकता बिना किसी विशेष लागत के जमीन को दी जा सके। यह आवश्यक नहीं है कि सभी प्रकार की खादों का एक साथ निर्माण किया जाए, यह खेत के आकार और उसकी पोषण संबंधी जरूरतों पर निर्भर होगा कि कौन-सी खाद उपयुक्त होगी। साथ ही लगाई जाने वाली फसलों व उपलब्ध जमीन के ऊपर भी निर्भर होगा। जैविक कीटनाशक— घर अथवा खेत में उपलब्ध संसाधनों (गौमूत्र, लहसुन, सुर्ती, नीम आदि) द्वारा कीटनाशकों का निर्माण व उनका नियमित प्रयोग करता हूं। अपने खेतों में घर पर निर्मित कीटनाशक ही प्रयोग करता हूं जिससे फसल स्वस्थ रहे। यदि भूमि-शोधन व बीज अथवा पौध-शोधन की क्रिया समुचित रूप से की जाए तो कीट व रोग के लगने की संभावनाएं स्वयं ही कम हो जाएंगी। आज मैं गोरखपुर एनवायरमेंटल एक्शन ग्रुप द्वारा संचालित किसान स्कूल का संचालक एवं सरकार द्वारा चलाए जा रहे आत्मा प्रोग्राम का चयनित किसान हूं। क्षेत्र में मेरी पहचान न केवल एक प्रयोगधर्मी किसान की बनी, बल्कि मैं मास्टर ट्रेनर के रूप में जाना जाने लगा। किसान स्कूल का संचालक बना और उसके बाद एक प्रशिक्षक के रूप में उभर कर सामने आया हूं। अपने जीवन की उपलब्धि को मैंने हमेशा बड़े सकारात्मक नजरिये से देखा और चाहा कि हमारे क्षेत्र के किसानों की आय बढ़े, उनकी खेती टिकाऊ हो, उनका उत्पाद टिकाऊ हो और कुल मिलाकर किसानों का जीवन टिकाऊ हो। |
(लेखक गोरखपुर एनवायरमेंटल एक्शन ग्रुप के मीडिया समन्वयक हैं)
ई-मेल : jitendraabf@gmail.com
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Post By: birendrakrgupta