‘जैव विविधता’ जीवों के बीच पायी जाने वाली विभिन्नता है, जो प्रजातियों में, प्रजातियों के बीच और उनकी पारितंत्रों की विविधता को भी समाहित करती है। इसमें सभी प्रकार के जीव-जंतु और पेड़-पौधे व वनस्पतियां शामिल हैं। जैव विविधता से ही इंसान सहित समस्त जीवों की भोजन, चारा, कपड़ा, लकड़ी, ईंधन आदि आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। ये रोगरोधी और कीटरोधी फसलों की किस्मों का विकास करती है, जिससे कृषि उत्पादकता अधिक होती है। औषधीय आवश्यकताओं की पूर्ति जैव विविधता से आसानी से हो जाती है, तो वहीं पर्यावरणीय प्रदूषण को नियंत्रित करने में जैव विविधता का अहम योगदान है। इसके अलावा कार्बन अवशोषित करना और मृदा गुणवत्ता में सुधार करने में भी इसका अनुकरणीय योगदान है। एक प्रकार से, जैव विविधता पृथ्वी पर जीवनचक्र को बनाए रखती है, लेकिन अभी तक हम मानते आ रहे थे कि ‘जल संकट के कारण जैव विविधता खतरे में है, किंतु जैव विविधता के लगातार कम होने से जल संकट गहराता जा रहा है।’
दो साल पहले नीति आयोग ने अपनी एक रिपोर्ट में जल संकट के प्रति चेताया था। रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत भीषण जल संकट के दौर से गुजर रहा है। देश की 60 करोड़ जनता जल संकट का सामना कर रही है। तो वहीं महानगरों व बड़े शहरों में भूजल समाप्त होने के प्रति भी रिपोर्ट में सचेत किया गया था। इसके बाद भी भूजल व सतही जल को लेकर कई शोध राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुए, जिनमें जल संकट से बचने के लिए जल संग्रहण व वर्षा जल संरक्षण पर जोर दिया गया है, लेकिन धरातल पर इसके अपेक्षाकृत परिणाम नहीं दिखे। सेडार के एक्जीक्यूटिक निदेशक विशाल सिंह द्वारा ‘हिंदूकुश’ हिमालय पर किए गए शोध में तेजी से हिमालय के पिघलने की बात सामने आई। जिसमें भारत सहित दुनिया के आठ देशों में, विशेषकर हिमालयन रीजन में भीषण जल संकट गहरा सकता है, इसमें इंडियन हिमालयन रीजन भी शामिल है। रिपोर्ट में कहा गया कि ‘‘हमारे पहाड़ी क्षेत्र तेजी से सूख रहे हैं।’’ जगजाहिर है कि पहाड़ी क्षेत्र सूखेंगे तो, मौदानों में भी जल संकट गहराएगा। दरअसल जलवायुचक्र हिमालयी क्षेत्रों पर काफी हद तक निर्भर करता है। मौसम को बिगाड़ने और संतुलित करने में इन हिमालयी क्षेत्रों की अहम भूमिका होती है, लेकिन जैसे जैसे जैव विविधता कम होती जा रही है, जलस्रोत सिकुड़ते जा रहे हैं।
हिमालय या पर्वतीय इलाकों के लोग पानी की जरूरतों के लिए प्राकृतिक स्रोतों जैसे गाड़-गदेरे, नौले-धारे आदि पर निर्भर हैं। कई इलाकों में इन्हीं प्राकृतिक स्रोतों के माध्यम से पेयजल योजनाएं संचालित की जा रही हैं। ये पानी पहाड़ के गर्भ या विभिन्न दरारों से रिसता हुआ बाहर आता है। इसे कई स्थानों पर पानी फूटना भी कहते हैं। पहाड़ी स्रोतों से पानी निकलने की इस पूरी प्रक्रिया में विज्ञान छिपा है, लेकिन ये मानवीय विज्ञान नहीं बल्कि प्रकृति का विज्ञान है। गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञान विभाग के प्रो. पीसी जोशी बताते हैं कि ‘एक समय पहाड़ में बांज, बुरांश जैसे चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों के अलावा चौड़ी पत्ती वाली विभिन्न प्रकार की झाड़िया हुआ करती थीं। इनमें पानी को अवशोषित करने की क्षमता काफी अधिक होती थी, जो मिट्टी में नमी बनाए रखने और भूजल रिचार्ज करने में सहायक सिद्ध होती थी। लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के अतिदोहन के कारण चौड़ी पत्ती वाले पेड़ों की जगह ‘चीड़’ ने ले ली।’’ दरअसल, चीड़ का पेड़ पर्वतीय इलाकों के लिए, विशेषकर उत्तराखंड के लिए अभिशाप बन गया है। चीड़ उतना गुणकारी नहीं है, जितना की चौड़ी पत्ती वाले पेड़। पानी को अवशोषित करने की क्षमता चीड़ में लगभग न के बराबर है और मृदा अपरदन को भी चीड़ रोकने में सक्षम नहीं है। चीड़ अपने आसपास किसी अन्य प्रजाति को पनपने भी नहीं देता है। इसलिए हम अक्सर देखते हैं कि जिन पहाड़ी इलकों में चीड़ है, वहां कोई अन्य झाड़ी या पेड़-पौधे नहीं दिखते हैं। प्रो. जोशी बताते हैं कि ‘पहाड़ों में जैव-विविधता कम होने व चीड़ के पेड़ों की संख्या बढ़ने से पानी अवशोषित होना कम हो गया है। ऐसे में अब अधिकांश स्थानों पर पानी फूटता भी नहीं है। क्योंकि चीड़ में अन्य पेड़ों की भांति गुण नहीं है।’’
नीति आयोग ने भी अपनी रिपोर्ट में जलस्रोतों का भी जिक्र किया था। जिसके अनुसार भारत में 5 मिलियन स्प्रिंग्स हैं, जिनमें से 3 मिलियन स्प्रिंग्स इंडियन हिमालयन रीजन में हैं, लेकिन अधिकांश स्रोत सूख गए हैं, लाखों सूखने की कगार पर हैं। उत्तराखंड के अल्मोड़ा में 83 प्रतिशत स्प्रिंग्स सूख गए हैं। स्रोतों के सूखने का कारण जलवायु परिवर्तन और आबादी का दबाव तो है ही, साथ ही जैव विविधता का समाप्त होना भी इसे काफी तेजी से बढ़ा रहा है। प्रो. पीसी जोशी बताते हैं कि ‘‘नौलों का अपना एक विज्ञान है, लेकिन हमने उनके विज्ञान के साथ छेड़छाड़ की है। लोगों ने नौलों में सीमेंट की दीवार बना दी है। तलहटी को सीमेंट से भर दिया है, जिससे न तो नौले में नमी रहती है और न ही नीचे से पानी फूटता है।’’
पहाड़ में घटता जल खेती को भी प्रभावित करेगा। क्योंकि कम पानी के कारण सिंचाई करना मुश्किल हो जाएगा। जलस्रोत समाप्त होने से जमीन लगातार बंजर होती चली जाएगी। इससे उन इलाकों के लिए लोगों को भी पलायन के लिए मजबूर होना पड़ सकता है, जो अभी पलायन नहीं कर रहे हैं या जो लोग आजीविका के लिए खेती पर आश्रित हैं। क्योंकि नदियों को इन सैंकड़ों स्रोतों से भी पानी प्राप्त होता है। एक प्रकार के नदियों को मुख्य रूप से स्रोतों से ही पानी मिलता है, लेकिन स्रोतों के सूखने से नदियों का प्रवाह प्रभावित होगा। वर्तमान परिस्थितियों और सरकार की योजनाओं को देखकर फिलहाल ये कार्य बेहद मुश्किल लग रहा है, क्योंकि जो हरियाली (पेड़-पौधे व झाड़ियां) उत्तराखंड के पहाड़ों में बची हैं, वो जल को अवशोषित करने में उतनी कारगर नहीं है। इसलिए प्रो. जोशी सुझाव के तौर पर बताते हैं कि ‘‘राज्य में पर्वतीय इलाकों को जल संकट की इस समस्या से निकालने के लिए उत्तराखंड में पाई जाने वाली विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों व पेड़-पौधों को पुनः लगाया जाना चाहिए, ताकि पहाड़ों में पहले की तरह वातावरण विकसित हो सके।’’ एक प्रकार से हम पुरानी जैव विविधता को फिर से पुनःस्थातिप करना होगा। ये कार्य केवल उत्तराखंड को ध्यान में रखते ही नहीं, या केवल उत्तराखंड में ही नहीं करना है, बल्कि देश दुनिया के विभिन्न स्थानों पर वहां की भौगोलिक परिस्थितियों के अनुरूप करना है। तभी हम जैव विविधता को बचाते हुए, जल संकट का समाधान कर पाएंगे।
हिमांशु भट्ट (8057170025)
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