जैव विविधता के संरक्षण में सहायक धार्मिक मान्यताएँ

हिन्दू ,जैन एवं बौद्ध सन्यासी ध्यान लगाने के लिये प्राकृतिक एवं शान्त वातावरण का उपयोग करते थे। ये शान्त वातावरण जंगल में ही मिलता था। वहाँ किसी उचित स्थान को मन्दिर का रूप दिया जाता था। धार्मिक आस्था के कारण उस जगह जंगल की सुरक्षा होती थी एवं जंगली जानवरों का शिकार भी नहीं किया जाता था। प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में भी धार्मिक मान्यताओं की अहम भूमिका है नदी, कुआँ, तालाबों एवं पवित्र पेड़ पौधों की पूजा इसी उद्देश्य से की जाती है कि इनका संरक्षण हो।

जैव विविधता का अर्थ है विभिन्न प्रकार के जीवों एवं वनस्पतियों का पारिस्थितिक तंत्र से सामंजस्य होना। 'जैव विविधता' शब्द का आविष्कार 1985 में वॉटर जी रोजेन ने किया था। जैव विविधता की दो प्रमुख अवधारणा हैं (1) अनुवांशिक विविधता (2 ) पारिस्थितिक विविधता।

एक ही प्रजाति के विभिन्न सदस्यों के मध्य एवं विभिन्न प्रजातियों के मध्य पाई जाने वाली अनुवांशिक परिवर्तिता अनुवांशिक विविधता कहलाती है, तथा किसी जैविक समुदाय में पाई जाने वाली प्रजातियों की संख्या पारिस्थितिक विविधता कहलाती है। जैव विविधता के सिद्धान्त के अन्तर्गत परमाणु से लेकर पर्यावरण के सम्पूर्ण कारक जैसे मानव, जीनो टाइप, जनसंख्या एवं प्रजातियाँ सम्मिलित हैं।

भारत में करीब 32 मिलियन हेक्टेयर क्षेत्र जैव विविधता की दृष्टि से अत्यन्त सम्पन्न है। यहाँ विभिन्न जन्तुओं की लगभग 65,000 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। जिसमें 50,000 अकेले कीटों की प्रजातियाँ हैं मोलस्का की 4,000, अकेशरूकीय प्राणियों की 6,000, मछलियों की 2,000, उभयचरों की 140, सरीसृपों की 450, पक्षियों की 1200, स्तनधारियों की 350, एवं वनस्पतियों की 45,000 प्रजातियाँ पाई जाती हैं।

मनुष्य आधुनिकता के अन्धे दौर में जीवों एवं वनस्पतियों का अन्धाधुन्ध दोहन कर रहा है। प्रकृति के अतिरेक दोहन से प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ रहा है। मानवीय संवेदनाओं की कमी के कारण प्रजातियों की विलुप्तीकरण की दर बढ़ रही है।

धर्म हमेशा से मनुष्य की पहचान है। सभी धर्मों का मूल सिद्धान्त प्रकृति एवं मनुष्य के बीच समन्वय है। धार्मिक मान्यताएँ हमेशा से प्रकृति के संरक्षण में निहित हैं। कोई भी धर्म प्रकृति के विरुद्ध चलकर अस्तित्व में नहीं रह सकता है।

हिन्दू मान्यता के अनुसार मनुष्य का अस्तित्व ही प्रकृति से निर्मित है, अतः इस धर्म की प्रत्येक मान्यता एवं परम्परा में प्रकृति का संरक्षण केन्द्र बिन्दु है। हिन्दू धर्म की हर एक मान्यता एवं परम्परा में जैव विविधता के सन्देश हैं। इस धर्म में देवताओं के अवतार ही जैव विविधता पर आधारित है।

विष्णु का मत्स्य अवतार, कूर्म अवतार, वराह अवतार, हनुमानजी का वानर रूप, जामवंत, जटायु आदि सभी अवतार जैव विविधता का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। हिन्दू धर्म के हर त्यौहार में किसी-न-किसी जन्तु या वनस्पति के संरक्षण का सन्देश है। आँवला नवमी को आँवले के वृक्ष की पूजा, वट सावित्रि को बरगद की पूजा, दशहरा पर शमी वृक्ष की पूजा, नागपंचमी को सर्पों की पूजा, गणेश पूजन में हाथियों एवं चूहों का संरक्षण, दुर्गा पूजा में शेरों का संरक्षण, का सन्देश यह त्यौहार देते हैं। शिव जी तो साक्षात जैव विवधताओं के अधिष्ठाता हैं।

हिमालय की सम्पूर्ण जैव विविधताओं के संरक्षक माने जाते हैं। रामचन्द्रजी ने 14 वर्ष वनवास करके सम्पूर्ण वनवासियों एवं वन सम्पदाओं को राक्षसों से सुरक्षित किया था। कृष्ण ने गोवर्धन की पूजा करवा कर गोकुलवासियों को सन्देश दिया था कि जैव विविधताओं के संरक्षण से ही उनकी सुरक्षा जुड़ी हुई है।

समुद्र मंथन तो जैव विविधताओं का आदर्श उदहारण हैं इसमें जितने भी रत्न निकले सभी जैव विविधताओं का ही प्रतिनिधित्व करते हैं। नवदुर्गा एवं कजलियों पर ज्वारों का रोपण, मछलियों को दाना एवं चीटियों को आटा खिलाना, अन्नकूट पर गौ की पूजा, दीपावली पर गाँवों में मड़ई में वनदेवी की पूजा ये सभी मान्यताएँ एवं परम्पराएँ प्राणियों एवं वनस्पतियों की सुरक्षा का सन्देश देती हैं एवं जैव संरक्षण में महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं।

जैन धर्म में अहिंसा शब्द पर्यावरण संरक्षण से ही जुड़ा है। सभी जैन मुनि मुँह पर मास्क लगाते हैं ताकि छोटे-से-छोटे जीव भी उनके साँस लेने या बोलने से नष्ट न हो जाएँ। जैन धर्म में अपरिग्रह भी इस बात का सन्देश देते हैं कि ज्यादा संग्रह की प्रवृत्ति से पर्यावरण को नुकसान होता है।

बौद्ध धर्म की मूल शिक्षा प्रकृति एवं मनुष्य के बीच आत्मिक सम्पर्क की है। इस धर्म में वृक्षों को काटना जघन्य अपराध है। भगवन बुद्ध को पीपल के पेड़ के नीचे ही बोधिसत्व प्राप्त हुआ था।

ईसाई धर्म में प्रकृति से जुड़ाव को प्रमुखता दी गई। बाइबिल में कहा गया है कि पेड़-पौधे ईश्वर की देन है, एवं उनकी सुरक्षा करना हर ईशु भक्त का परम धर्म है। इसलिये उनके त्यौहार क्रिसमस पर 'क्रिसमस ट्री' को सजाया जाता जो उनकी हर इच्छा को पूरा करने वाला कल्प वृक्ष है।

इस्लाम धर्म में पेड़ पौधों को अल्लाह की नियामत कहा गया है, एवं उनकी देखभाल एवं सुरक्षा का सन्देश कुरान में मिलता है, इस्लाम में खजूर के पेड़ की विशेष इबादत की जाती है।

चीन एवं जापान में बौद्ध मठों में 'गिंक्लो बाइलोबा 'नामक वृक्ष उगाया जाता है। धार्मिक आस्था के कारण यह वृक्ष जीवित जीवाश्म के रूप में पूजा जाता है।

हिन्दू ,जैन एवं बौद्ध सन्यासी ध्यान लगाने के लिये प्राकृतिक एवं शान्त वातावरण का उपयोग करते थे। ये शान्त वातावरण जंगल में ही मिलता था। वहाँ किसी उचित स्थान को मन्दिर का रूप दिया जाता था। धार्मिक आस्था के कारण उस जगह जंगल की सुरक्षा होती थी एवं जंगली जानवरों का शिकार भी नहीं किया जाता था।

प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण में भी धार्मिक मान्यताओं की अहम भूमिका है नदी, कुआँ, तालाबों एवं पवित्र पेड़ पौधों की पूजा इसी उद्देश्य से की जाती है कि इनका संरक्षण हो।

मानसून में गंगा में मछुआरों द्वारा मछलियों का शिकार नहीं किया जाता है इससे गंगा की संकटापन्न मछली की प्रजाति 'हिलसा इलिसा' को पनपने का मौका मिलता है। जानवरों के शिकार के भी नियम हैं जैसे गर्भवती हिरणी का शिकार नहीं किया जाता, बंगाल में कच्चे बेर नहीं तोड़े जाते। ये सभी मान्यताएँ जैव विविधता को सरंक्षण प्रदान करती हैं।

वृन्दावन जो कि हिन्दुओं का सर्वाधिक प्रसिद्ध तीर्थ स्थल है, नब्बे के दशक में बदहाली का शिकार हो गया था। वृक्षों की संख्या नगण्य थी एवं नगर में हर तरफ कचरे का ढेर लगा होता था। एक NGO ने 1990 में स्थानीय लोगों की मदद से 'वृन्दावन फॉरेस्ट रिवाइवल प्रोजेक्ट' शुरू किया जिसके अन्तर्गत सम्पूर्ण वृन्दावन में एवं विशेषकर 'परिक्रमा पथ' पर स्थानीय निवासियों, मन्दिरों के पुजारियों, तथा नगर निगम के संयुक्त प्रयासों से वृक्षारोपण एवं कचरे को साफ करने का अभियान छेड़ा और पूरे वृन्दावन को हरा-भरा कर दिया।

पर्यावरण के संरक्षण एवं जैव विविधता को बचाने के लिये भारतीय संसद ने जैव विविधता अधिनियम 2002 में पारित किया। यह परम्परागत जैविक संसाधनों और ज्ञान के उपयोग से होने वाले लाभों के सामान वितरण के लिये तंत्र प्रदान करता है। इसके क्रियान्वयन के लिये 2003 में राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (NBA) की स्थापना की गई है। पूरे विश्व में 22 मई को जैव विविधता दिवस मनाया जाता है।

भारतीय सामाजिक एवं धार्मिक परम्पराओं में जैव संरक्षण एक आवश्यक अंग है। ये परम्पराएँ पौराणिक साहित्य, किवदन्तियों व परम्परागत आस्थाओं से नियंत्रित होती हैं। इन धार्मिक मान्यताओं एवं परम्पराओं से आपस में स्नेह व प्रकृति की सुरक्षा का भाव जागृत होता है।, एवं इनसे जुड़ी व्यावहारिक बातें पर्यावरण के संरक्षण में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

आज आवश्यकता है इन धार्मिक मान्यताओं एवं आस्थाओं को समाज में सही ढंग से प्रदर्शित करने की ताकि हमारा समाज जैव विविधता की महत्ता को समझे एवं उसके संरक्षण में अपना योगदान दें। जिस तरह सितार की एक कड़ी टूट जाने पर उससे मधुर लहरी निकल पाना कठिन है उसी प्रकार प्रकृति की जीवन शृंखला से जीवों एवं वनस्पतियों की किसी भी कड़ी का टूटना हानिकारक है जो समूचे पर्यावरण चक्र को प्रभावित करता है।

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